संदेश

अक्टूबर, 2021 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

मार्कस गार्वे / UNIA / नागरिक अधिकार आंदोलन

चित्र
मार्कस गार्वे / UNIA / नागरिक अधिकार आंदोलन मार्कस गार्वे का जन्म 17 अगस्त, 1887 को जमैका के सेंट एनबे में हुआ था। 14 साल की उम्र में वे किंग्स्टन चले गए, जहाँ उन्होंने एक प्रिंटर चालक के रूप में काम किया और मजदूरों की दयनीय जीवन स्थिति से परिचित हुए। जल्द ही उन्होंने खुद को समाज सुधारको में शामिल कर लिया। गार्वे ने 1907 में जमैका में प्रिंटर्स यूनियन हड़ताल में भाग लिया और 'द वॉचमैन' नामक अखबार स्थापित करने में मदद की। जब वे अपनी परियोजनाओं के लिए धन जुटाने के लिए द्वीप छोड़कर गए, तो उन्होंने मध्य और दक्षिण अमेरिका का दौरा किया और पाया की बड़े पैमाने पर अश्वेत लोग भेदभाव के शिकार थे। गार्वे ने पनामा नहर क्षेत्र का दौरा किया और उन परिस्थितियों को देखा जिसके तहत वेस्ट इंडियन लोग रहते और काम करते थे। वे इक्वाडोर, निकारागुआ, होंडुरास, कोलंबिया और वेनेजुएला भी गए और देखा की हर जगह अश्वेतों को भारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा था। मध्य अमेरिका की इस स्थिति से दुखी होकर गार्वे वापस जमैका लौट आए और जमैका की औपनिवेशिक सरकार से मध्य अमेरिका में वेस्ट इंडियन श्रमिकों की ...

चिश्ती सिलसिला

चित्र
चिश्ती सिलसिला भारत में सूफियों के कई संप्रदाय थे। 1200 से लेकर 1500 तक सूफी मत का भारत में विस्तार हुआ। उस काल में कई नए संप्रदाय और आंदोलन प्रारंभ हुए जो कि हिंदू धर्म और इस्लाम के मध्य का रास्ता बताते थे। उनमें से चिश्ती सिलसिला महत्वपूर्ण है। चिश्ती सिलसिले का अजमेर , राजस्थान के कुछ नगरों, पंजाब , उत्तर प्रदेश, बंगाल, उड़ीसा तथा दक्षिण में विस्तार हुआ। चिश्ती सिलसिला के प्रमुख सूफी संत मोइनुद्दीन चिश्ती, हमीदुद्दीन नागोरी, कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी, फरीदुद्दीन गंज-ए-शकर, निजामुद्दीन औलिया, शेख नसीरुद्दीन चिराग, शेख सलीम चिश्ती थे।  मोइनुद्दीन चिश्ती :- भारत में चिश्ती संप्रदाय के प्रथम संत शेख मोइनुद्दीन चिश्ती थे। उनकी कब्र अजमेर में है। जनसाधारण में वे ख्वाजा के नाम से विख्यात है। उनका जन्म लगभग 1143 में ईरान में स्थिति सिजिस्तान में हुआ था। उन्होंने भारत में मोहम्मद गौरी के आक्रमण के कुछ समय पूर्व प्रवेश किया था। वे अपनी योग्यता और सादगी के कारण भारत में प्रसिद्ध हो गए और सुल्तान उल हिंद (भारत का आध्यात्मिक बादशाह) की उपाधि प्राप्त की। उन्होंने समरकंद , बुखारा और...

मीराबाई (भक्तिकाल में महिला संत)

चित्र
भक्तिकाल में महिला संत (मीराबाई) मध्यकाल में वैचारिक परिवर्तन को लेकर चलने वाला भक्ति आंदोलन हताश एवं शोषित वर्ग की आवाज बनकर उभरा और हाशिए पर पड़े वर्ग की पहचान बना। इसी हाशिए से निकलकर महिलाएं भी अपनी पहचान बनाने के लिए आगे आई जिन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि अन्याय एवं शोषण के भंवर से निकलने में पितृसत्तात्मक समाज अब उन्हें अधिक देर तक नहीं रोक सकता। मध्यकालीन समाज में भक्ति आंदोलन का आरंभ ही स्त्री-पुरुष के भेदभाव को तोड़ने वाला था। मध्य युग में जर-जोरू-जमीन के लिए होने वाले युद्ध में जहां स्त्री विजय पक्ष को जीती हुई वस्तु के रूप में प्राप्त होती तो पराजित पक्ष के साथ सती भी होती। दोनों ही सूरतो में स्त्री की इच्छा अनिवार्य न थी क्योंकि संस्कृति के ठेकेदार उसके विरोध को मानने को भी तैयार न थे। ऐसे में भक्तिकाल की विधवा मीराबाई ने जिस विरोध की मशाल जलाई उस समय की परिस्थितियों में एक स्त्री की निडरता को पुष्ट करता है क्योंकि सती न होकर भक्त बन जाना उस समय के समाज में स्त्री के लिए निषेध था। अंत: भक्तिन मीराबाई का ऐसा आचरण पुरुष प्रधान समाज के लिए चुनौती बना। मीराबाई का यह कथन “मेरे त...