भक्तिकाल में महिला संत (मीराबाई)
मध्यकाल में वैचारिक परिवर्तन को लेकर चलने वाला भक्ति आंदोलन हताश एवं शोषित वर्ग की आवाज बनकर उभरा और हाशिए पर पड़े वर्ग की पहचान बना। इसी हाशिए से निकलकर महिलाएं भी अपनी पहचान बनाने के लिए आगे आई जिन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि अन्याय एवं शोषण के भंवर से निकलने में पितृसत्तात्मक समाज अब उन्हें अधिक देर तक नहीं रोक सकता। मध्यकालीन समाज में भक्ति आंदोलन का आरंभ ही स्त्री-पुरुष के भेदभाव को तोड़ने वाला था। मध्य युग में जर-जोरू-जमीन के लिए होने वाले युद्ध में जहां स्त्री विजय पक्ष को जीती हुई वस्तु के रूप में प्राप्त होती तो पराजित पक्ष के साथ सती भी होती। दोनों ही सूरतो में स्त्री की इच्छा अनिवार्य न थी क्योंकि संस्कृति के ठेकेदार उसके विरोध को मानने को भी तैयार न थे। ऐसे में भक्तिकाल की विधवा मीराबाई ने जिस विरोध की मशाल जलाई उस समय की परिस्थितियों में एक स्त्री की निडरता को पुष्ट करता है क्योंकि सती न होकर भक्त बन जाना उस समय के समाज में स्त्री के लिए निषेध था। अंत: भक्तिन मीराबाई का ऐसा आचरण पुरुष प्रधान समाज के लिए चुनौती बना। मीराबाई का यह कथन “मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई” पितृसत्तात्मक समाज द्वारा स्त्री के लिए बनाए गए बंधनो की अवहेलना थी। उनका यह विद्रोह अनेक अबला नारीयों के लिए पथ प्रदर्शक बन गया।
इसी कारण मीरा के विषय में डॉ• बलदेव वंशी का कहना है की “मीरा उफनती आवेग बरसाती नदी की भांति वर्जनाओ की चट्टाने तोड़ती, राह बनाती अपने गंतव्य की ओर बेरोक बढ़ती चली गई। वर्जनाओ के टूटने की झंकार से मीरा की कविता उत्पन्न हुई। वह हर स्तर पर लगातार वर्जनाओ को क्रम-क्रम तोड़ती चली गई। राजपरिवार की, सामंती मूल्यों की, पुरुष प्रधान समाज द्वारा थोपे नियमों की कितनी ही वर्जनाओं की श्रंखलाएं मीरा ने तोड़ फेंकी और मुक्त हो गई। इतना ही नहीं, तत्कालीन धर्म संप्रदाय की वर्जनाओं को भी अस्वीकार कर दिया, तभी मीरा, मीरा बनी।
मीराबाई (1498-1546):- मीराबाई सोलवीं सदी के भारत के महान संतों में से एक थी। मीराबाई का जन्म मेड़ता जिले के कुदकी नाम ग्राम में 1498 में हुआ था। उनका विवाह सन 1516 में राणा सांगा के जेष्ठ पुत्र युवराज भोजराज से हुआ था। भोजराज की मृत्यु 1521 में अपने पिता के जीवनकाल में ही हो गई और मीराबाई युवती अवस्था में ही विधवा हो गई। वे बचपन से ही धर्मालु थी और अपने पिता की तरह वैष्णव के कृष्ण संप्रदाय की अनुयाई थी। अपने पति की मृत्यु के पश्चात वे पूर्ण रूप से धार्मिक कृतियों में लग गई। तुरंत पश्चात मीरा के जीवन में आपदाओं की झड़ी सी लग गई और मीरा का ह्रदय सांसारिक संबंधों से विरक्त होता गया। उनके पिता रतनसिंह मार्च 1527 में खानवा के युद्ध में राणा सांगा की ओर से युद्ध करते हुए मारे गए और राणा सांगा का भी देहांत 1528 के प्रारंभ में ही हो गया। सांगा के पश्चात उनका द्वितीय पुत्र रतनसिंह राणा बना। पर वह भी सिंहासनरोहण के 3 वर्ष पश्चात चल बसा और 1531 में मेवाड़ की गद्दी पर उनका छोटा भाई विक्रमादित्य बैठा। मीराबाई बड़ी ही धार्मिक प्रवृत्ति की थी। वह पूर्ण रुप से भक्तिमय जीवन व्यतीत करने लगी और भक्ति-भावना से ओतप्रोत हो उठी।
अपनी कृष्ण भक्ति के कारण उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैल गई और साधु-संत, स्त्री-पुरुष दूर-दूर से चित्तौड़ आने लगे। राणा विक्रमादित्य को सिसोदिया वंश की राजकुमारी मीरा का अन्य लोगों के साथ चाहे वे कितने ही भक्तों क्यों न हो, इस प्रकार मिलना जुलना पसंद न था। उन्होंने उसका विरोध किया। पर जब विरोध का मीरा पर कोई असर न पड़ा तो कहा जाता है कि उन्होंने मीरा को विष देकर मारना चाहा। लेकिन सौभाग्य से मीरा पर विश का कोई प्रभाव न पड़ा। राणा से तनाव उत्पन्न हो जाने के कारण मीरा अपने चाचा वीरमदेव के पास रहने लगी। वीरमदेव मेड़ता के सरदार थे। यहां भी उनका नृत्य का कार्यक्रम चलता रहा। वह तपस्या, कीर्तन और नृत्य लीन रहने लगी। मीरा अन्य साधु संत और स्त्रियों की मंडली में भी कीर्तन करती थी। इस प्रकार उन्होंने मेड़ता में कुछ वर्ष काटे, लेकिन जब जोधपुर के राजा मालदेव ने मेड़ता पर आक्रमण कर उसे जीत लिया, तो मीरा ने द्वारिका की तीर्थ यात्रा करने का निश्चय किया। द्वारिका में उन्होंने अपना सारा जीवन भक्तों की तरह व्यतीत किया, और उनकी मृत्यु 1547 में हो गई।
मीरा ने बहुत से पदों की रचना की थी। मीरा की प्रसिद्धि मुख्य रूप से उनके भजनों के कारण ही है। वह ब्रजभाषा और राजस्थानी में रचे गए हैं। उनके कुछ पद गुजराती में भी है। वे भजन कृष्ण के प्रति प्रेम और भक्ति भावना से ओतप्रोत है। वे इतने मधुर है कि सुनने के साथ ही प्रेम और भक्ति की कोमल भावनाएं उठ आती है। मीरा के सभी भजन कृष्ण को संबोधित कर लिखे गए हैं। उन्हें अपने जीवन के हर कार्य में कृष्ण के सामने होने की अनुभूति होती रहती थी। महादेवी वर्मा के अनुसार मीरा के पद विश्व के भक्ति साहित्य के रत्न है। महाकवि निराला मीरा को गीत-शैली के काव्य की देवी ही समझते थे। सुमित्रानंदन पंत के अनुसार वे प्रेम और भक्ति के तपस्वी, वन की शकुंतला और राजस्थान की मरूभूमि की मंदाकिनी थी।
मीरा में अद्भुत साहस था। मारवाड़ जैसी विशाल रियासत में मेड़ता की जागीरदार की पुत्री और मेवाड़ के राणा परिवार में ब्याही जाने वाली मीरा ने न मारवाड़ की झूठी प्रतिष्ठा की परवाह की और न मेवाड़ की नैतिकता की। वह नारी थी, परिवार की नैतिकता को अच्छी प्रकार से समझती थी। वह जानती थी कि कम उम्र में विधवा हुई नारी को इन राज परिवारों में दासी से भी बुरी स्थिति होती है। अपने पति राजकुमार भोजराज के शव के साथ न तो वह सती हुई और न विधवाओं की तरह बनकर रहने को तैयार थी। दोनों ही स्थितियां उसे नारी विरोधी लगती थी। इसलिए उसने मेवाड़ के महाशक्तिशाली राणा की परवाह किए बिना समाज में घुलना मिलना, संतो के साथ नाचना, गाना और दिन-रात ईश्वर भक्ति में रहने को अपनी दिनचर्या चुना।
महाराणा ने अपनी पुत्रवधू को परिवार की नैतिकता और बंधनों को तोड़ने के आरोप में प्रताड़ित भी किया। यह प्रताड़ना मीरा ने जिस आत्मविश्वास के साथ झेली उससे उसमें और अधिक हिम्मत आई। संकटों में पड़ी मीरा हिम्मत के साथ संकटों को आमंत्रित करती रही, और उससे टकराती रही। मीरा का यह आत्मविश्वास और महाराणा को उसकी चेतावनी मध्ययुगीन समाज में टक्कर लेती मीरा की नारी क्षमता को स्पष्ट करता है। राणा जैसे-जैसे मीरा को परेशान करता रहा वह उन परेशानियों से ऊपर उठकर अपना जीवन जीता रही। जब घर परिवार ने उसे कुलनासी कहा तो उसने उसकी कोई चिंता नहीं की। वह परिवार की मर्यादा का पालन किए बिना पैरों में घुंघरू बांधकर नाचने लगी।
“पय घुंघरू बांध मीरा नाची रे।
पैरों में घुंगरू बांध नाचना लोक और परिवार की मर्यादा का खुल्लम खुल्ला उल्लंघन था लेकिन मीरा लुके-छुपे कोई काम नहीं करती, जो करती सरेआम करती थी। पर्दा प्रथा के विरोध में मीरा किसी प्रकार की चिंता नहीं करती थी। अपने पति की मृत्यु के बाद उन्हें कोई पुरुष भाता ही नहीं था। यह उनका अपना आत्मविश्वास था। जिस आत्मविश्वास के सामने दुनिया का कोई पुरुष गलत दृष्टि से देखने की हिम्मत नहीं कर सकता था। इसलिए वह खुला घूमा करती थी।
अपने कष्टों, समाज के रीति-रिवाजों, रूढ़ियो एवं समस्त अन्याय-अत्याचार को सहन करती नारी का विरोध मीरा के साहित्य में प्रकट हुआ है। विधवा होकर न जाने कितनी रानियां और सामान्य स्त्रियां घरों में कैद होकर परिवारजनों की उपेक्षा और कष्ट सहकर मर गई होंगी लेकिन मीरा ने उन परिस्थितियों का विरोध किया। मीरा बेधड़क होकर अपनी बात कहती थी, सामने वाला चाहे राणा जी हो, चाहे साधु संत या कोई अन्य। वह किसी प्रकार के बंधन को नहीं मानती थी, जाति के बंधन को भी नहीं। मीरा का यह संदेश था कि किसी को जन्म के कारण, गरीबी के कारण अथवा आयु के कारण परमात्मा से पारे नहीं रखा जा सकता। उसको मिलने का एक मात्र साधन भक्ति है। जब गुरु अपने शिष्य को उपदेश देगा तो दरवाजे खुल जायेंगे और शब्द के रहस्यों का उसे ज्ञान हो जाएगा। धीरे-धीरे परमात्मा के दर्शन हो जाएंगे। परमात्मा ज्ञान अथवा योग से नहीं मिलता परंतु भक्ति प्रेम से मिलता है।
बांके बिहारी ने लिखा है कि मीराबाई उस पतंगे की तरह थी जिसने अपने आप को मोमबत्ती के ऊपर जला दिया। वह मोमबत्ती मीरा का गिरधर के प्रति प्रेम था। मीरा ने लोगों को संदेश दिया कि वह परमात्मा में पूर्ण विश्वास करें और भक्ति से प्रेम करें। जो कुछ उसने कहा, वही उसने कर दिखाया।
मीरा के काव्य का महत्व उसके युग के संदर्भ में रखकर देखा जाना चाहिए। कृष्ण भक्ति के अतिरिक्त कठिन परिस्थितियों से लड़ने का उसका साहस और समाज की मर्यादाओं से लड़ने की उनकी शक्ति तथा नारी गरिमा और उसकी स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त करने की ललक मीरा को नारी जीवन के संघर्ष का पथ प्रदर्शक बनाती है। मध्य युग की मीरा उस समय संतो के लिए तो चुनौती रही होगी, आज भी वह उतनी महत्वपूर्ण है।
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