18वीं शताब्दी “अंधकार युग”
18वीं शताब्दी में भारत में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए जिसने सत्ता के ढांचे को पूरी तरह बदल दिया। इन परिवर्तनों में प्रमुख थे, मुगल साम्राज्य की सत्ता का क्षेत्रीय शक्तियों में हस्तांतरण तथा राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक क्षेत्र में आए परिवर्तन। अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के लिए मौके की तलाश में थी। मुगल सत्ता के पतन ने इनकी यह महत्वकांक्षी पूरी की। मुगल सत्ता के पतन ने कई क्षेत्रीय शक्तियों को जन्म दिया। आक्रामक ब्रिटिश नीतियों ने आर्थिक स्थिति को प्रभावित किया। जिससे कृषि उत्पादन में भी बदलाव आया। साथ ही साथ इसने वाणिज्यिक गतिविधियों को भी प्रभावित किया। इस प्रकार 18वीं शताब्दी अंधकार युग था या नहीं इसके लिए हमें इस समय काल के तीन प्रमुख बिंदुओं पर प्रकाश डालना होगा। प्रथम मुगल साम्राज्य का पतन, दूसरा क्षेत्रीय शक्तियों का उदय तथा तीसरा अंग्रेजी हुकूमत का विस्तार।
मुगल साम्राज्य का पतन:-
मुगल साम्राज्य की एकता तथा सदृढ़ता औरंगजेब के शासनकाल में विखंडित होने लगी थी। 1707 ई• में औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुगल सत्ता कमजोर हो गई और अपने साम्राज्य के हर हिस्से पर नियंत्रण स्थापित करने की शक्ति उसमें न रही। फलस्वरूप कई क्षेत्रीय सूबेदारों ने अपनी सत्ता का दावा करना प्रारंभ कर दिया और खुद को स्वतंत्र घोषित किया। इसी बीच कुछ नए समूह भी उभरे जिन्होंने इन घटनाओं का लाभ उठाकर राजनीतिक शक्ति प्राप्त की। क्षेत्रीय शक्तियों के उदय ने राजनीतिक तथा आर्थिक व्यवस्था में विकेंद्रीकरण को जन्म दिया। औरंगजेब की मृत्यु के बाद ही मुगल साम्राज्य को क्षेत्रीय शक्तियों से गंभीर चुनौतियां मिलने लगी।
औरंगजेब की मृत्यु के बाद बहादुर शाह प्रथम (शाह आलम 1707-12) गद्दी पर बैठा। इसने समझौते की नीति अपनाई और साथ ही उन सभी दरबारियों को माफ कर दिया, जिन्होंने उसके विद्रोहियों का साथ दिया था। उसने आमेर तथा जोधपुर के राजा पर नियंत्रण स्थापित करने का प्रयास किया। जब उसके प्रयासों का विरोध होने लगा तो उसने उनके साथ भी समझौते की नीति अपनाने का प्रयास किया। हालांकि यह समझौता उसे मुगलों के प्रति कटिबद्ध योद्धा नहीं बना सका। मुगल बादशाह की मराठों के प्रति समझौते की नीति आधी-अधूरी थी। मराठे भी मुगलों से संघर्ष करने में उलझे रहे।
इसके बाद जहांदार शाह(1712-13) शासक बना, जो बेहद ही कमजोर तथा अयोग्य शासक था। इसके वजीर जुल्फिकार खान ने साम्राज्य चलाने की शक्तियां हथिया लीं। जुल्फिकार ने महसूस किया कि शासन चलाने के लिए राजपूतों तथा मराठों के साथ मित्रतापूर्ण संबंध बनाए रखने में ही भलाई है तथा शासन की सलामती के लिए हिंदू प्रमुखों के साथ समझौता अनिवार्य है। इसने औरंगजेब की नीतियों को उलट दिया और जजिया कर हटा दिया। इसका लक्ष्य उन सभी शक्तियों के साथ सुलह करना था, जो मुगल सत्ता को बांटना चाहती थी। इसी दौरान फारुख/सियार ने जहांदार शाह तथा जुल्फीकार खान को युद्ध के लिए ललकारा तो मुगल शासकों ने अपनी तिजोरी को एकदम खाली पाया। निराश होकर उन्होंने अपने ही महल की लूटपाट की। यहां तक कि छात-दीवारों से सोने-चांदी को नोच लिया, जिससे विशाल सेना का खर्च उठाया जा सके। फारुख/सियार(1713-19) ने विजय हासिल की तथा सैयद बंधुओं अब्दुल्लाह खान तथा हुसैन अली खान को उच्च पद प्रदान किए। उन्होंने जुल्फीकार की नीतियों को आगे बढ़ाया। जजिया कर को हटा दिया गया। सैयद बंधुओं ने राजपूत, मराठों तथा जाटों के साथ सुलह समझौते का प्रयत्न किया। हालांकि सम्राट एवं वजीर के बीच मतभेदों की वजह से यह नीति लागू नहीं हो पाई। फारुख/सियार ने राजा जयसिंह को आक्रामक अभियान चलाने को कहा किंतु वजीर ने राजा की जान का ही सौदा करने का समझौता किया।
फारुख/शायर के कत्ल ने सैयद बंधुओं के खिलाफ विद्रोह की आग को जला दिया। निजाम-उल-मुल्क, चिनकिलच खान तथा उसके पिता के चचेरे भाई मोहम्मद अमीन खां के नेतृत्व में एक शक्तिशाली समूह का गठन हुआ तथा इन प्रभावशाली अमीरों ने सैयद बंधुओं को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाया। अमीरों के व्यक्तिगत स्वार्थ की छाया राजनीति तथा शासन की गतिविधियों पर पढ़ने प्रारंभ हो गई थी। अमीरों के पास बहुत ज्यादा शक्तियां आ चुकी थी। वे अपने स्वार्थ हेतु बादशाह के नाम का फरमान जारी करवाया करते थे। बादशाह की स्थिति मात्र कठपुतली की हो गई थी। जिसके पास शक्ति नहीं थी। असली शक्ति अमीरों के संघों के हाथों में थी। आमिर पूरे साम्राज्य की गतिविधियों को केंद्र से नियंत्रित करते थे। बादशाह के नाम पर शासकों तथा फौजदारी तथा अन्य स्थानीय कार्यालयों को फरमान भेजे जाते थे। इस प्रकार औरंगजेब के उत्तराधिकारीयों की व्यक्तिगत असफलताओं ने शाही सत्ता/प्रतिष्ठा को धराशाही किया।
क्षेत्रीय राज्यों का उदय:- (मराठा शक्ति):-
मुगल साम्राज्य के पतन ने क्षेत्रीय शक्तियों को जन्म दिया। सक्षम तथा समृद्ध अमीरों ने अपने राजनीतिक आधार बनाएं। वजीर चिनक्लिच खान ने प्रशासन में सुधार करने में असफल रहने पर 1723 में कार्यालय त्याग दिया तथा अक्टूबर 1724 में हैदराबाद की स्थापना करने के लिए दक्षिण की ओर चला गया। साम्राज्य का विघटन देखते हुए मराठों ने विस्तारवादी नीतियों पर अमल करते हुए उत्तर की ओर बढ़ना प्रारंभ किया तथा मालवा, गुजरात और बुंदेलखंड को जीत लिया। मराठा योद्धाओं में सर्वाधिक प्रमुख कुल था भोंसले। शिवाजी भोंसले दक्षिण राजनीति में महत्वपूर्ण शक्ति बनकर उभरे।
इसके बाद विश्वनाथ तथा उनके उत्तराधिकारी बाजीराव प्रथम(1720-40) ने आधिकारिक तौर से मराठा राज्य को अपने पूर्ववर्ती दूसरों से कहीं अच्छा प्रबंधन देने में सक्षम रहे। उन्होंने मुगल क्षेत्रों से शुल्क ग्रहण करने की प्रथा को व्यवस्थित किया जिसे सरदेशमुखी और चौथ के नाम से जाना जाता है। मराठों के नियंत्रण वाले क्षेत्रों में व्यापार, बैंक तथा वित्त में विकास दिखाई दिया। बैंक घरानों की कई शाखाएं गुजरात, गंगा घाटी तथा दक्षिण में भी थी। मूल मराठा केंद्रों से भी दूर मराठों ने अपने गतिविधियों का संचालन किया। इन सरदारों में सबसे महत्वपूर्ण थे गायकवाड़, सिंधिया तथा होल्कर।
बंगाल के नवाब:- औरंगजेब के शासनकाल में दीवान के पद पर आसीन मुर्शीद कुली खान ने केंद्रीय सत्ता की कमजोरी का फायदा उठाकर खुद को स्वतंत्र घोषित कर दिया। वह मुगल दरबार में नियमित रूप से शुल्क भेजता रहा। अली वर्दी खान ने मुर्शीद कुली खान के परिवार को सत्ताच्युत कर 1739 में खुद को नवाब घोषित कर दिया। इन नवाबों ने शांति तथा स्थिरता कायम की और कृषि को प्रोत्साहित किया। हिंदू तथा मुसलमान दोनों को ही समान अवसर प्रदान किए गए। किंतु नवाब अंग्रेजी व्यापार कंपनियों की उपस्थिति के दीर्घकालीन प्रभावों को भाप न सके तथा सैन्य तैयारियों में ढिलाई बरत दी। सन् 1756-57 में अली वर्दी खान के उत्तराधिकारी सिराजुद्दौला ने व्यापारिक अधिकारों हेतु अंग्रेजों से युद्ध किया था। जून 1757 में प्लासी के मैदान में हुई पराजय ने बंगाल तथा पूरे भारत में अंग्रेजों का मार्ग प्रशस्त किया।
अवध के नवाब:- अवध के मुगल सुबे में कमजोर केंद्रीय नियंत्रण के कारण क्षेत्रीय शासक सादत खान की महत्वाकांक्षा को जागृत किया। सादत खान ने स्थानीय जमीदारों को अनुशासित किया तथा उच्च चेतन, उच्च शस्त्र सज्जित तथा उच्च प्रशिक्षित सेना को आकार दिया। 1739 में अपनी मृत्यु से पहले सादत खान ने क्षेत्रीय प्रमुख के पद को वंशानुगत बना दिया। उसके उत्तराधिकारी ओं सफदर जंग तथा असफ उदौला ने न सिर्फ उत्तर भारत की राजनीति में अहम भूमिका निभाई बल्कि अवध की नवाबी को भी प्रशासनिक स्थिरता प्रदान की। नवाबों के नेतृत्व में पहले फैजाबाद तथा बाद में लखनऊ कला, साहित्य तथा शिल्प के क्षेत्र में दिल्ली का प्रतिस्पर्धी बना। इमामबाड़ा तथा अन्य भवनों से क्षेत्रीय स्थापत्य कला की झलक भी प्राप्त होती है। परिणामस्वरूप कथक नृत्य शैली का उद्भव भी हमें देखने को मिलता है।
पंजाब के सिक्ख:- मुगलों ने बंदा बहादुर के नेतृत्व में सिखों का दमन किया था। किंतु इससे मुगलों के प्रति सिक्ख विद्रोह समाप्त नहीं हुए थे। 1720 से 1730 ई• के मध्य अमृतसर सीक्ख गतिविधियों का एक मुख्य केंद्र बनकर उभरा। कुछ सिक्ख शासकों ने स्वयं को राजनीतिक शक्ति के रूप में संगठित करना प्रारंभ कर दिया था। किंतू लाहौर सुबे के मुगल शासकों ने सिक्खों के इन मंसूबों पर पानी फेर दिया। 1745 के बाद एक सिक्ख योद्धा शासक जस्सा सिंह अहलूवालिया सत्ता में आए। उन्होंने बाद में कपूरथला राज्य की नींव डाली। आगे चलकर 1750 तथा 1760 में पंजाब में सिक्खों ने अब्दाली के अभियानों का विरोध किया। अंत: 1760 के मध्य तक लाहौर में सिक्खों की सत्ता की स्थापना हो गई। किंतु अहमद शाह के उत्तराधिकारी तैमूर शाह ने सिक्खों द्वारा जीते गए कुछ क्षेत्रों को पुनः जीत लिया। 1770 तक उन्होंने लगभग 60 सरदारों के साथ संधि कर ली थी। सिख प्रशासकों ने मुगल बादशाहो की प्रशासनिक व्यवस्था को जारी रखा तथा सरदारों के अधीनस्थों को जागीर दी जाने लगी।
जयपुर एवं अन्य राजपूताना राज्य:- पूर्वी राजस्थान में जयपुर, कछवाहा कुल द्वारा नियंत्रित राज्य था। 18वीं शताब्दी के आरंभ में शासक जयसिंह सवाई ने अपनी शक्ति के विस्तार के लिए कुछ कदम उठाए। यह थे अपने गृह क्षेत्र के आसपास के क्षेत्र में अपनी जागीरो की व्यवस्था करना तथा कृषि के माध्यम से भू-राजस्व एकत्रित करना, जो कि धीरे-धीरे स्थाई हो गया। सन् 1743 में उनकी मृत्यु के पश्चात राजा जयसिंह क्षेत्र का एकमात्र सर्वशक्तिमान शासक बन कर उभरा। सन 1750 में भरतपुर के जाट शासक सूरजमल ने राजा जयसिंह की ही भांति मुगल राजस्व प्रशासन की पद्धति अपने क्षेत्र में लागू की।
त्रावणकोर राज्य:- मराठा शासक मार्तंड वर्मा ने त्रावणकोर राज्य के संचालन में तीन सैद्धांतिक पद्धतियों का उपयोग किया। राजा ने अपनी वैधता सदृढ़ करने के लिए कुछ उपायों की शुरुआत की। य थे-50,000 की शक्ति वाली सेना का गठन, नैयर अभिजात वर्ग की शक्ति को कम करना, जिस पर क्षेत्र सैन्य रूप से निर्भर था तथा त्रावणकोर रेखा पर अपने राज्य की उत्तरी सीमा की किलेबंदी करना। इस शासक की एक नीति सीरियाई ईसाइयों को संरक्षण देने की भी थी, जो कि उस क्षेत्र की प्रभावी व्यापारिक शक्ती थी।
मैसूर का उदय:- मैसूर इस शताब्दी में एक महत्वपूर्ण राज्य बन कर उभरा। हालांकि मैसूर एक भूमि से जुड़ा राज्य था, इसलिए व्यापार पर भी निर्भर था क्योंकि उसकी सैन्य आपूर्ति भारत के पूर्वी बंदरगाहों के तट से आती थी। चूंकि यह सभी बंदरगाह अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी के अधीन थे, अतः मैसूर की संवेदनशीलता बढ़ती गई। 1760 से स्थिति में परिवर्तन के प्रयास किए गए। एक जुझारू योद्धा हैदर अली ने एक शक्तिशाली ताकत प्राप्त कर सत्ता हासिल की। पहले हैदर तथा उसके बाद उसके पुत्र टीपू सुल्तान ने 1782 के बाद मैसूर को संगठित कर तथा भारतीय प्रायद्वीप के दोनों तटों तक पहुंच वाला राज्य बनाया।
1770 तक मैसूर को ईस्ट इंडिया कंपनी के सैन्य विरोध का सामना करना पड़ा। जिन्होंने उसे चैन नहीं लेने दिया। यह अंग्रेज ही थे, जिन्होंने मैसूर को बचाओ क्षेत्रों में नहीं पहुंचने दिया तथा भारत के पूर्वी बंदरगाह कोरोमंडल के मैदान से पहले रोक दिया। अंतः 1799 में अंग्रेजी सेना द्वारा टिपू का अंत हो गया।
18वीं शताब्दी भारत में अर्थव्यवस्था:- यह काल भारत में अत्यधिक राजनीतिक खलबली का दौर था। जिसमें पहले तो राज्य का निर्माण होता था तथा अगले ही पल वह विघटित भी हो जाता था। व्यवस्था में अस्थिरता अपने चरम पर थी। सैन्य अभियानों से विस्थापन को बढ़ावा मिला। सिंचाई के जलाशयों का विध्वंस, पशुधन का जबरन समाप्ति हरण, जनता का बलात निष्कासन। इन सब ने आर्थिक स्थिरता पर हानिकारक प्रभाव डाला तथा प्रगति की राह में अनगिनत रोड़े अटकाए।
दिल्ली के नजरिए से देखे तो निश्चित ही 18वीं शताब्दी एक अंधकार युग था। नादिर शाह फिर अहमद शाह तथा रोहिल्ला 1761-1771 तक दिल्ली पर नियंत्रण स्थापित करने वालों के आक्रमणों ने दिल्ली को एक निरंतर विध्वंस की ओर ढकेला। भारत के अन्य क्षेत्रों को शायद ही इस दौर से कभी गुजरना पड़ा हो। इस युग में राजनीतिक विकेंद्रीकरण होने के कारण आर्थिक परिवर्तन का भी दौर चला। हालांकि सभी क्षेत्रों में परिस्थितियां एक समान नहीं थी, कुछ क्षेत्रों में विस्तार देखा गया जैसे बंगाल, जयपुर और हैदराबाद। जबकि कुछ में यह देर से आरंभ हुआ जैसे त्रावणकोर, मैसूर और पंजाब। कुछ कमजोरियों तथा अंतर्विरोधहो के बावजूद 18वीं शताब्दी ने कृषि के क्षेत्र में अच्छा प्रदर्शन किया। साथ ही व्यापार तथा शहरीकरण भी फले फुले। तो वहीं दूसरी ओर उत्तर भारत पंजाब के कुछ हिस्सों में अंतर्राज्यीय संघर्षों की वजह से कृषि में पतन की स्थिति आई। भूमि तथा श्रम के अनुभव तथा प्रबंधन ने कृषि तरीकों तथा तकनीकों की कमी को पूरा करने में कुछ हद तक सफलता पाई।
यह भी उल्लेखनीय है कि 1702-4 के मध्य दक्षिण भारत में संकट के बादल के बावजूद 18वीं शताब्दी के प्रथम 7 दशकों में भारत भुखमरी जैसी आपदा से बचा रहा। सन 1770 के बंगाल का भयंकर अकाल, जिसमें लगभग आधी जनसंख्या को अपने प्राण गंवाने पड़े, औपनिवेशिक विजय के तुरंत बाद पड़ा था। इसके तुरंत बाद 1783 में उत्तर भारत ने अकाल की त्रासदी झेली। कुल मिलाकर एक अनुकूल भूमि-श्रम अनुपात ने किसानों को गतिशील बनाया तथा भूमि के नियंत्रकों के के साथ जातीय श्रम को समुचित शर्तों पर कार्य दिलाया। किंतु उत्तर भारत में राजस्व की बढ़ती मांग ने किसानों के पलायन को एक नियंत्रित प्रक्रिया बना दिया। एक तरफ कुछ गांवों के प्रधानों ने राजस्व कृषि को अनुवांशिक संपदा बना दिया, वहीं अन्य शक्तिशाली क्षेत्रीय शासकों ने अधिक से अधिक राजस्व इकट्ठा किया। 18वीं शताब्दी में जनसंख्या, उत्पादन, मूल्य तथा मजदूरी साधारण रूप से उन्नति पर थी। खंडित राजनीति ने अनाज, वस्त्र तथा पशुओं के समृद्ध अंतर्देशीय व्यापार के विकास को हानि नहीं पहुंचाई।
बंगाल तथा मद्रास से प्राप्त सबूत इस ओर इशारा करते हैं कि, शहरी श्रमिकों की हालत आरंभिक औपनिवेशिक काल में पूर्व औपनिवेशिक की तुलना में बहुत खराब थी। जबकि अंतर्देशीय व्यापार प्रगति पर था। वहीं यूरोपियों के बढ़ते प्रभाव के चलते अंतरराष्ट्रीय व्यापार करने वाले भारतीयों तथा पोतवाहको को नुकसान हो रहा था। 1720 में महान गुजराती बंदरगाह सूरत ने अपनी महत्ता को दी थी। 18वीं शताब्दी के अंत में पश्चिमी तथा दक्षिण-पूर्व एशिया दोनों में ही भारतीय उत्पादों की भारी मांग उत्पन्न हुई, किंतु इस समय तक अंग्रेज व्यापारी तथा पोतवाहक अपना वर्चस्व कायम कर चुके थे। अंत: भारतीयों को व्यापारीक हानि के साथ अंग्रेजों को अत्यधिक लाभ पहुंचाने लगा था। एक तरफ पुराने व्यवसायिक केंद्र जैसे सूरत, मसूलिपटनम तथा ढाका नीचे की ओर अग्रसर हुए, तो वही मुंबई, मद्रास तथा कोलकाता जैसे औपनिवेशिक बंदरगाह वाले शहर चमक बिखेरने लगे।
बहुत से कारणों से प्रतीत होता है कि 18वीं शताब्दी के मध्य में आर्थिक क्षेत्र में उल्लेखनीय परिवर्तन हुए। जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने बंगाल सुबे के राजस्व पर अधिकार स्थापित किया तो धन का प्रवाह बहुत बुरी तरह प्रभावित हुआ। पहले बंगाल अपने निर्यात के बदले सोना तथा चांदी पाता था, किंतु यह तरीका ज्यादा न चल सका। 18वीं शताब्दी के अंतिम हिस्से में किसान नकदी फसलों जैसे कि नील तथा अफीम की खेती करने को बाध्य हुए। इसने अन्न की फसल के उत्पादन पर बुरा प्रभाव डाला, किंतु 18वीं शताब्दी के उत्तरार्ध को 1750 से पूर्व के काल से भिन्न बनाने वाला एक और कारण है, वह है युद्ध का बदलता स्वरूप। 1750 के बाद की अवधि में युद्ध में नागरिक जनमाल, क्षती तथा आर्थिक उत्पादन की क्षति पहले की तुलना में अधिक होने लगी थी तथा इसी समय युद्ध में नई तकनीकों के उपयोग ने इसे और अधिक खर्चीला कार्य बना दिया था। व्यापक स्तर पर आग्नेय अस्त्रों का उपयोग, किराए के सैनिकों का उपयोग तथा स्थापित सेना का रख-रखाव, इन सभी के बहुत हानिकारक प्रभाव हुए।
सांस्कृतिक वातावरण:- 18वीं शताब्दी में जैसे-जैसे क्षेत्रीय राजदरबारों का महत्व बढ़ा उन्होंने समृद्ध संस्कृति, चाहे वह संगीत, कला या साहित्य हो, को संरक्षण देने के प्रति अपनी रुचि जताई। यह हमें विभिन्न केंद्रों में अलग-अलग शैली में प्राप्त होती है। सांस्कृतिक परंपराओं के संगम का सर्वाधिक उत्कृष्ट उदाहरण मराठा शासित तंजौर था, जहां तमिल, तेलुगु, संस्कृत तथा मराठी भाषा में साहित्य रचनाएं हुई। इसी प्रकार 18वीं शताब्दी में तंजौर में संगीत का विकास हुआ। प्रतीत होता है कि इस काल में संगीतज्ञों, लेखकों तथा कलाकारों की गतिशीलता भी प्रचलित थी। जब भी कोई नई राजनीतिक शक्ति उभरती थी वह प्रतिभाओं को आकर्षित करती थी। इसी समय स्थापत्य तथा चित्रकला में भी विकास दिखाई देता है।
सांस्कृतिक माहौल प्रभाव तथा आदर का ही परिणाम था। मराठों ने अजमेर में शेख मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह को संभाले रखा, वही तंजौर के राजा ने नागुर के शेख शाहुल हमीद की दरगाह को आर्थिक सहायता दी।
मूल्यांकन:- 18वीं शताब्दी की प्रकृति के बारे में इतिहासकारों में मतभेद है। मुगल साम्राज्य के पतन के दृष्टिकोण से इस युग को अंधकार युग करार दिया गया है। इस प्रकार मुगल राजनीतिक संकट को आर्थिक तथा सामाजिक विफलताओं के साथ देखा जाता है। भारतीय इतिहासकार औपनिवेशिक विजय को भारतीय इतिहास का प्रस्थान बिंदु मानते हैं जो 18वीं शताब्दी के मध्य में प्रारंभ हुआ था। पारंपरिक तौर पर इतिहासकार भारत की 18वीं शताब्दी को अंधकार युग बदलाते हैं क्योंकि यह युद्ध, राजनीतिक कोलाहल तथा आर्थिक पतन, स्थिर व समृद्ध मुगलों तथा अधिपत्य शासकों के मध्य फस गया था। इस त दृष्टिकोण को नई पीढ़ी के भारतीय इतिहासकारों ने चुनौती दी, जिन्होंने मुगल शासकों तथा अंग्रेज राज्यों की निरंतरता पर बल दिया तथा उन छोटे राज्यों पर चिंता जताई जो मुगल शक्ति के क्षिण होते ही उदय हो गए थे। अंत: कहा जा सकता है कि मुगल साम्राज्य के पतन ने अस्थिरता के चरण को जन्म दिया। जिससे पहले तो क्षेत्रीय शक्तियों का उदय हुआ तथा बाद में इसने अंग्रेजी उपनिवेशवाद के लिए मार्ग प्रशस्त किया।
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