सोवियत एवं अस्थायी सरकार का द्वैत शासन / अप्रेल थिसिस
रूस में 1917 की फरवरी क्रांति के बाद जब ज़ार शासन को उखाड़ फेंका गया और उसकी जगह एक अस्थायी सरकार ने ले ली, साथ ही स्थानीय परिषदों का उदय हुआ, जिन्हें सोवियत कहा जाता है। उदारवादी और उदारवादी समाजवादी गुटों से बनी अस्थायी सरकार ने शुरू में लोकतांत्रिक प्रणाली द्वारा देश का मार्गदर्शन करने की कोशिश की। अस्थायी सरकार के अधिकार को सोवियतों द्वारा चुनौती दी गई, जो श्रमिकों, सैनिकों और किसानों की परिषदें थीं जो पूरे रूस के शहरों और कस्बों में उभरी थीं। सोवियतें विशेष रूप से पेट्रोगार्ड सोवियत, जमीनी स्तर के राजनीतिक और सामाजिक संगठन के शक्तिशाली केंद्र बन गए। वे मजदूर वर्ग के हितों का प्रतिनिधित्व करते थे और उन्हें आम लोगो का समर्थन प्राप्त था, जो भूमि सुधार, रोटी की कमी और युद्ध के प्रयासों को जारी रखने जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों में अस्थायी सरकार की असमर्थता से निराश थे।
अस्थायी सरकार और सोवियतों के बीच सत्ता के इस द्वंद्व ने एक जटिल और अक्सर तनावपूर्ण राजनीतिक स्थिति पैदा कर दी। अस्थायी सरकार के पास औपचारिक अधिकार और अंतरराष्ट्रीय मान्यता थी, लेकिन सोवियतों के पास महत्वपूर्ण लोकप्रिय वैधता और प्रभाव था। इस दोहरी शक्ति संरचना ने ऐसी स्थिति पैदा कर दी जिसमें न तो अस्थायी सरकार और न ही सोवियत का देश पर पूर्ण नियंत्रण था।
व्लादिमीर लेनिन के नेतृत्व में बोल्शेविक पार्टी ने इस दोहरी शक्ति की स्थिति की क्षमता को पहचाना और अस्थायी सरकार से सोवियतों को सत्ता हस्तांतरण की वकालत की। उनके नारे "सारी शक्ति सोवियतों को दो" ने इस रुख को स्पष्ट कर दिया, और यह रूसी जनता के बीच बढ़ते असंतोष के साथ प्रतिध्वनित हुआ।
जैसे-जैसे वर्ष 1917 आगे बढ़ा, दोहरी शक्ति की गतिशीलता विकसित होती गई। अस्थायी सरकार का अधिकार कमजोर हो गया, खासकर जब वह युद्धग्रस्त और आर्थिक रूप से तनावग्रस्त राष्ट्र पर शासन करने की चुनौतियों का समाधान करने के लिए संघर्ष कर रही थी। इसके विपरीत, सोवियतों ने अपने जमीनी स्तर के समर्थन और समाजवादी और क्रांतिकारी गुटों के प्रभाव से मजबूत होकर, तेजी से खुद को सत्ता के केंद्र के रूप में स्थापित किया। इसकी परिणति अक्टूबर क्रांति में हुई, जब बोल्शेविकों ने सोवियतों के समर्थन से अस्थायी सरकार से सत्ता छीन ली और सोवियत मॉडल के आधार पर अपनी सरकार स्थापित की। इसने दोहरी शक्ति चरण के अंत और बोल्शेविक शासन की शुरुआत को चिह्नित किया, जिसके परिणामस्वरूप रूसी सोवियत फेडेरेटिव सोशलिस्ट रिपब्लिक का गठन हुआ और अंततः सोवियत संघ की स्थापना हुई। सोवियत पर प्रभुत्व रखने वाले समाजवादियों ने फरवरी क्रांति की व्याख्या बुर्जुआ क्रांति के रूप में की और पूंजीपति वर्ग के लिए सत्ता पर कब्ज़ा करना उचित समझा। इसलिए उन्होंने ड्यूमा के उदारवादियों द्वारा गठित अस्थायी सरकार के शासन के प्रति समर्पण कर दिया। सोवियत सरकार के साथ सहयोग करने और उसे श्रमिकों और सैनिकों के हित में सलाह देने पर सहमत हुई।

सोवियत की स्थापना
रूस में 27 फरवरी/12 मार्च को कारखानों के चुने हुए प्रतिनिधि तथा समाजवादी दल के चुने हुए प्रतिनिधि एक साथ मिले जिससे सोवियत का गठन हुआ। समाजवादी बुद्धिजीवियों एवं क्रांतिकारियों ने नए सोवियत संगठन को निर्देश देना शुरू कर दिया था। सैनिक टुकड़ियों ने अपने-अपने प्रतिनिधि चुने जिन्हें शीघ्र ही सोवियत के रूप में तब्दील कर दिया गया। सोवियत श्रमिकों एवं सैनिक डिप्टियों की समिति के नाम से जानी जाने लगी। सोवियत को श्रमिकों एवं सैनिकों से पूरी वफादारी मिलने से वह एकमात्र वास्तविक शक्ति बन गई थी।
अस्थायी सरकार का निर्माण
सोवियतों की प्रभुसत्ता को देखकर ड्यूमा (सरकारी संस्थायें) ने भी एक अस्थायी सरकार की स्थापना की। इस सरकार में ड्यूमा का प्रमुख नेता राजकुमार जॉर्जी लावोव था, उसके प्रमुख सहयोगियों में मिलियुकोव और गुचकांव शामिल थे। अलेक्जेण्डर केरेन्स्की जो एकमात्र समाजवादी नेता था, को न्याय मंत्री बनाया गया।
अस्थायी सरकार एवं सोवियतों के बीच मतभेद
अस्थायी सरकार को शीघ्र ही अमरीका एवं अन्य पश्चिमी राष्ट्रों ने मान्यता दे दी। लेकिन इस नई सरकार को प्रारंभ से ही एक गंभीर प्रतिद्वंद्वी से जूझना पड़ा। यह पेट्रोग्राड के सैनिक एवं श्रमिकों की सोवियत थी। नई सोवियत का निर्माण 12 मार्च को ड्यूमा के भवन में किया गया और उसी समय से उसने अपनी सर्वोच्चता को स्थापित करना प्रारंभ कर दिया। सोवियत के पास कोई वैधानिक अधिकार नहीं था। वह केवल उन श्रमिक और सैनिक शक्तियों का प्रतिनिधित्व करती थी जिन्होंने क्रांति की थी। सोवियत के विपरीत अस्थायी सरकार के पीछे उच्च एवं मध्यमवर्ग का सहयोग था जिसकी वैधानिक विश्वसनीयता संदिग्ध थी। क्रांति की सफलता ने ज़ार को कानूनी शक्ति स्रोत के रूप में नामंजूर कर दिया था। अस्थायी सरकार ड्यूमा का प्रतिनिधित्व करती थी जिसको ज़ार ने पद त्यागने से पहले समाप्त कर दिया था। 1917 में ड्यूमा की बढ़ती अलोकप्रियता का कारण यह था कि उसका चुनाव, उस चुनाव प्रक्रिया द्वारा हुआ था जिसमें आम जनता को वोट देने का अधिकार नहीं था।
अस्थायी सरकार की सबसे बड़ी दुर्बलता वास्तव में उसकी शक्ति प्रयोग करने की असमर्थता थी। मध्यम वर्ग, जिसका वह नेतृत्व करती थी, राजनीतिक रूप से असंगठित था। वह अपनी शक्ति उन सशस्त्र श्रमिकों के विरुद्ध नहीं प्रयोग कर सका जो विद्रोही सेना में जाकर मिल चुके थे। अस्थायी सरकार अपने अधिकारों का प्रयोग कर सकती थी यदि पेट्रोगार्ड की सोवियत एवं प्रांतीय सोवियतें उसके आदेश का पालन करते। सबसे प्रभावशाली मंत्रियों, ल्वोव, मिलियूकोव एवं गुचकोव ने आशा व्यक्त की कि क्रांति को समाप्त कर के सांविधानिक राजतंत्र की पुनःस्थापना की जाए। वे पुनः श्रमिकों में औद्योगिक अनुशासन लाना चाहते थे और आशा करते थे कि कृषक आंदोलन न हो तथा युद्ध जारी रहे।
अस्थायी सरकार की कमज़ोर स्थिति के विपरीत, सोवियतों को न केवल श्रमिक वर्ग का समर्थन प्राप्त था बल्कि पेट्रोगार्ड में वे सेना का सहयोग भी प्राप्त किए हुए थे। सोवियतों की चुनाव पद्धति के कारण वे आम लोगों के बहुत निकट थे तथा किसी भी समय जनता को किसी भी प्रकार की कार्यवाही करने के लिए तैयार कर सकते थे। सोवियतों में श्रमिको के प्रतिनिधि का निर्वाचन कारखाने में होता था। यह किसी निश्चित सत्र के लिए निर्वाचित नहीं होते थे। निर्वाचन मण्डल कभी भी किसी भी प्रतिनिधि को वापस बुलाकर उसकी जगह दूसरा चुनाव कर सकते थे। उनके चुनाव की प्रक्रिया में मध्य एवं उच्च वर्ग के प्रतिनिधित्व का कोई स्थान नहीं था। सोवियतों ने अपने मतदाताओं का प्रतिनिधित्व विश्व की सभी संसदीय संस्थाओं से अधिक प्रत्यक्ष एवं संवेदनशील ढंग से किया। इसके अलावा मतदान किसी निर्वाचन क्षेत्र में न होकर उत्पादन या सैनिक इकाइयों में होता था। इससे सोवियतों को अपने क्रांतिकारी कार्यों के लिए बहुत बड़ी संख्या में समर्थन मिल जाता था। सोवियत में मध्यम समाजवादियों का अधिपत्य था, इसलिए बुर्जुआ वर्ग को पूरी तरह से शक्तिहीन नहीं किया गया क्योंकि सोवियत रूस समाजवादी क्रांति के लिए पूरी तरह तैयार नहीं थे। वास्तव में ड्यूमा द्वारा अस्थायी सरकार की स्थापना सोवियतों की सलाह से ही की गई थी। अतः अपने सभी कार्यों में अस्थायी सरकार को अपने गैर-सरकारी भागीदार अर्थात् सोवियत को साथ लेकर चलना पड़ाता था।
15 मार्च को पेट्रोगार्ड की सोवियत ने एक आदेश जारी कर सैनिक डिप्टियों को सोवियत में शामिल कर लिया। उन्हें अपनी समितियाँ बनाने, सोवियतों से राजनीतिक निर्देश ग्रहण करने तथा उन आदेशों का विरोध करने का आदेश दिया गया जो सोवियतों के खिलाफ जारी किए जाए। सैनिकों को अधिकारियों की उन सभी कार्यवाही को नाकामयाब करना था जो सैनिक को निशस्त्र करती हो। अस्थायी सरकार एवं सोवियतों के बीच मतभेद एवं झगड़े का यह पहला कारण था। अस्थायी सरकार ने सोवियतों पर आरोप लगाया कि वे सैनिक अनुशासन की महत्ता का अवमूल्यन कर रही हैं। अस्थाई सरकार सोवियतों को समाप्त करना चाहते थे दूसरी तरफ बोल्शेविकों ने अस्थायी सरकार को हटाने का निश्चय कर लिया था। इसने शासन, अर्थात जो राज्य कर रहे थे और जिसके हाथ में वास्तविक शक्ति थी, के बीच एक खाई उत्पन्न कर दी थी। परिणामस्वरूप बुर्जुआ मंत्रियों की सत्ता अलोकप्रिय एवं पंगु बन गई। वह स्वतंत्र रूप से किसी समस्या का समाधान नहीं कर सकते थे। ये समस्याएँ ऐसी थीं जिन्होंने पहले ज़ारतंत्र नष्ट कर दिया और कुछ ही महीनों में ज़ारशाही के बुर्जुआ उत्तराधिकारी इनकी विनाशकारी चपेट में आ गए। ये समस्याएँ युद्ध, कृषकों द्वारा भूमि की बढ़ती माँग तथा औद्योगिक श्रमिकों का क्रांतिकारी आचरण था जिसपर वह लगाम नहीं लगा सकते थे।
अस्थायी सरकार ने 2 अप्रैल 1917 को एक महत्वपूर्ण कदम उठाया। जिसके तहत सभी नागरिकों के लिए समानता की घोषणा जारी की गई तथा उन सभी कानूनी पाबंदियों का अंत किया गया जो धर्म या राष्ट्रीयता पर आधारित थीं। निजी कंपनियों एवं अन्य संस्थाओं के बीच संपर्क के लिए रूसी भाषा के अलावा अन्य भाषाओं के प्रयोग को भी स्वीकृति दी गई।
वास्तव में अस्थायी सरकार के समय जारतंत्र की नीतियों में कोई विशेष परिवर्तन नहीं किया गया। विविध क्षेत्रों में सत्ता अभी भी रूसी सरकारी अधिकारियों एवं कुलनो के हाथ में थी जो अस्थायी सरकार द्वारा स्थापित की गई स्थानीय समितियों के सदस्य थे। ज़ारशाही प्रशासन का केंद्रीय नौकरशाही तंत्र राष्ट्रीय क्षेत्रों में बना रहा। रूसी भाषा को सरकारी भाषा का पद प्रदान किया गया। राजकीय स्कूलों में शिक्षा का माध्यम रूसी भाषा ही थी। सरकार रूस एवं सीमांत क्षेत्रों के भूखे कृषकों की समस्याओं को सुलझाने में असमर्थ रही। परिणामस्वरूप कृषक बड़े भूखण्डों को बलपूर्वक छीनने लगे।
जार शासन के समान अस्थायी सरकार गैर-रूसियों की सांस्कृतिक, आर्थिक एवं राजनीतिक आकांक्षाओं को पूरा नहीं कर सकी। अस्थायी सरकार उन लोगों की इच्छाओं से इतनी अनभिज्ञ थी कि वह उन यूरोपीय सीमान्त लोगों को भी स्वायत्तता नहीं दे सकी जो आर्थिक एवं सांस्कृतिक रूप से काफी विकसित थे। इसके विपरीत बोल्शेविक राष्ट्रीयता के प्रति दमन की नीति के कट्टर विरोधी थे और इसीलिए वे गैर-रूसी लोगों के लिए आत्मनिर्णय के सिद्धांत को स्वीकृति दे रहे थे। यहाँ तक कि अगर वे रूसी सम्राज्य से अलग भी होना चाहें तो उसके लिए भी बोल्शेविक तैयार थे। इस नीति के परिणामस्वरूप वे गैर-रूसी लोगों की सहानुभूति एवं समर्थन प्राप्त कर सकते थे। अधिकतर गैर-रूसी लोग रूस की बदलती हुई परिस्थिति में केंद्रीय नियंत्रण से स्वतंत्रता चाहते थे। वे रूसियों के समान संपूर्ण अधिकार चाहते थे। एम० पलाट के शब्दों में "मार्क्सवादी लेनिनवादी सिद्धांतवाद ने राष्ट्रवाद को बगैर समर्पण किए, उसको गतिशील किया। "लेनिन के शब्दों में, "दांपत्य सुख का प्रदर्शन तलाक से नहीं होता। सारांशत: राज्यों को अलग होने का अधिकार देने का अर्थ यह नहीं था कि यह राज्य सोवियत राष्ट्र से अलग हो ही जाएँ।”
इस समय एक ओर तो अनेक संयुक्त सरकारों ने बुर्जुआ-प्रजातंत्रवादी प्रशासन की बागडोर को अपने नियंत्रण में रखने का प्रयास किए तो दूसरी ओर लेनिन सर्वहारा क्रांति की ओर बढ़ना आवश्यक समझता था। अप्रैल सम्मेलन के प्रारंभ से लेनिन ने बोल्शेविक क्रांति में विशेष भूमिका निभाई। यह कहना उचित होगा कि लेनिन ने अक्तूबर क्रांति का समय और स्वरूप निर्धारित किया। यह जानना आवश्यक है कि अप्रैल 1917 में लेनिन के रूस लौटने से पूर्व तक किसी नेता ने इस मत का खण्डन नहीं किया था कि फरवरी/मार्च की रूसी क्रांति बुर्जुआ क्रांति से अधिक कुछ नहीं थी। दूसरे शब्दों में उनका मानना था कि रूस अभी सामाजिक क्रांति के लिए तैयार नहीं था।" उस समय अस्थायी सरकार को नकारना कठिन था जो वास्तव में बुर्जुआ थी। सोवियतों में शक्ति का हस्तांतरण करना कठिन था जो सर्वहारा वर्ग का प्रतिनिधित्व करते थे। अतः इस ढाँचे को तोड़ने का दायित्व लेनिन पर ही निर्भर था।
अप्रैल थीसिस
अप्रैल थीसिस" फरवरी क्रांति और ज़ार शासन को उखाड़ फेंकने के बाद अप्रैल 1917 में रूस लौटने पर व्लादिमीर लेनिन द्वारा जारी किए गए दस निर्देशों का एक सेट था। लेनिन ने दोनों निकायों को वर्ग संघर्ष में फंसे सामाजिक वर्गों का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्थाओं के रूप में देखा। उन्होंने महसूस किया कि जैसे ही एक वर्ग दूसरे पर प्रभुत्व प्राप्त करेगा, उसका प्रतिद्वंद्वी संस्था को कुचल देगा; इस प्रकार दोनों निश्चित काल तक एक साथ अस्तित्व में नहीं रह सकते।
इस व्याख्या के आधार पर उन्होंने अपनी थीसिस विकसित की, जिसमें उन्होंने बोल्शेविकों से अस्थायी सरकार से अपना समर्थन वापस लेने और प्रथम विश्व युद्ध से तत्काल वापसी और किसानों के बीच भूमि के वितरण का आह्वान करने का आग्रह किया। बोल्शेविक पार्टी को श्रमिकों, सैनिकों और किसानों को संगठित करना था और सोवियत को मजबूत करना था ताकि वे अस्थायी सरकार से सत्ता हासिल कर सकें। थीसिस में बैंकों के राष्ट्रीयकरण और विनिर्मित वस्तुओं के उत्पादन और वितरण पर सोवियत नियंत्रण का भी आह्वान किया गया। लेनिन ने पहले अपनी थीसिस सोशल डेमोक्रेट्स की एक सभा में प्रस्तुत की और बाद में बोल्शेविक समिति को प्रस्तुत की, दोनों ने उन्हें तुरंत खारिज कर दिया। किंतु बाद में बोल्शेविक अखबार प्रावदा ने उन्हें प्रकाशित किया।
लेनिन ने अस्थायी सरकार को किसी भी शर्त पर सहयोग देने से इंकार कर दिया। उसने इस बात पर विशेष बल दिया कि ज़बरदस्त युद्ध विरोधी प्रचार किया जाए और रूस की सीमांत रेखा के सैनिकों को जर्मनी के साथ भाई-भाई का नारा लगाने को कहा जाए ताकि उनमें सौहार्द बढ़े। वह चाहता था कि सैनिक यह अनुभव करें कि पूँजीवाद को नष्ट किए बगैर युद्ध को समाप्त करना असंभव था। लेनिन का विचार था कि बुर्जुआ क्रांति से सीधे सर्वहारा क्रांति की ओर बढ़ना आवश्यक है और इसमें बिल्कुल भी समय नष्ट नहीं करना चाहिए क्योंकि फरवरी/मार्च में पहले ही बुर्जुआ क्रांति सम्पन्न हो चुकी थी। उनका मानना था कि रूस में पूँजीवाद का विकास देर से हुआ जिसके कारण ज़ारशाही का विरोध और समाजवाद के लिए संघर्ष आपस में मिल गए थे। इतिहास अब अगले चरण, अर्थात् समाजवाद की ओर बढ़ रहा था जिसके द्वारा सर्वहारा वर्ग के शासन की स्थापना हो जाएगी।

लेनिन ने तत्काल युद्ध एवं हिंसावादी आंदोलन का आह्वान नहीं किया। जब तक जनमानस बुर्जुआ पर विश्वास रखता था तब तक लेनिन के अनुसार दल का प्राथमिक कार्य अस्थायी सरकार की धाँधली का पर्दाफाश करना तथा सोवियत नेतृत्व की गलतियों को उजागर करके सामने रखना था। दल को अत्यंत धैर्यपूर्वक लोगों को विश्वास दिलाना था कि अस्थायी सरकार कभी भी स्थायी शांति नहीं ला सकती थी। लोगों को भी बताया जाना था कि केवल सोवियत ही एकमात्र क्रांतिकारी शक्ति थे जो प्रशासन की बागडोर को सँभाल सकते थे। उस समय स्थिति बहुत नाजुक थी क्योंकि बोल्शेविक सोवियतों के अंतर्गत अल्पमत में थे। उन्हें न केवल उनमें अपना प्रभाव बढ़ाना था साथ ही सोवियतों को भी लोकप्रिय संस्थाएँ बनाना था।
लेनिन ने बलपूर्वक कहा कि किसी भी स्थिति में संसदीय गणतंत्र की रचना नहीं होनी चाहिए क्योंकि यह पीछे की ओर लौटना होगा। रूसी लोग पहले से ही श्रमिक डिप्टियों की सेवियतें बना चुके थे। वहाँ से उन्हें आगे जाना था एवं श्रमिकों, खेतिहर श्रमिकों एवं कृषक डिप्टियों की सोवियतों का गणतंत्र बनाना था। यह कार्य संपूर्ण राष्ट्र में नीचे के तबके से लेकर ऊपर तक किया जाना था। अपने समाजवादी राज्य का चित्रण करते हुए लेनिन ने कहा कि राज्य में सेना, पुलिस एवं बुर्जुआ वर्ग किसी भी किमत पर समाप्त होना चाहिए। सभी अधिकारियों का वेतन एक कुशल कारीगर के वेतन से अधिक नहीं होना चाहिए। उत्पादन एवं वितरण के नियंत्रण में सोवियतों को सहायता दी जानी चाहिए।
लेनिन ने अनुभव किया कि समाजवाद का उदय एकदम आकस्मिक रूप से संभव नहीं था। अतः उसने उस समय समाजवाद की स्थापना के लिए परामर्श नहीं दिया। श्रमिक डिप्टियों की सोवियतों को वस्तुओं के सामाजिक उत्पादन एवं वितरण पर नियंत्रण स्थापित करना था, सभी भूपतियों की भूमि ज़ब्त करनी थी, संपूर्ण भूमि का राष्ट्रीयकरण करना था और सोवियतों के नियंत्रण में एक राष्ट्रीय, बैंकिंग व्यवस्था स्थापित करनी थी। सभी सामान्य बैंकों का सोवियत नियंत्रण में एक बड़े राष्ट्रीय बैंक में विलय किए जाने का सुझाव दिया गया। इतना ही नहीं लेनिन ने एक नए अंतर्राष्ट्रीय क्रांतिकारी संगठन या इंटरनेशनल संगठन बनाने के लिए आह्वान किया जिससे सर्वहारा वर्ग के अंतर्राष्ट्रीय आंदोलन का सूत्रपात हो सके। यहाँ यह जानना उपयोगी होगा कि लेनिन ने बुर्जुआ वर्ग से शक्ति छीनकर सर्वहारा वर्ग को देने की बात दो कारणों से कही थी। सर्वप्रथम जब तक रूस में सत्ता श्रमिक वर्ग के हाथ में नहीं आती तब तक अन्य राष्ट्रों के श्रमिकों को समाजवादी क्रांति पर विश्वास नहीं होगा। यूरोप में क्रांति शुरू होने के लिए इस आत्मविश्वास की बहुत ज़्यादा आवश्यकता थी। दूसरी बात यह थी कि राष्ट्र का पुनर्निर्माण मेहनतकशों के हित में तभी हो सकता था जब सरकार की बागडोर उनके अपने हाथों में होगी।
अप्रैल थीसिस, 7 अप्रैल को प्रावदा में प्रकाशित हुई और इसने तीव्र रोष एवं असंतोष को जन्म दिया। लेनिन को बोल्शेविक संगठन को अपने शोध के अनुकूल बदलने में कुछ दिनों तक संघर्ष करना पड़ा परन्तु अंत में वह इस कार्य में सफल रहा। कुछ समय तक लेनिन द्वारा रखे गए प्रस्तावों ने आक्रोश को जन्म दिया परंतु अंत में लेनिन की बात मानी गई।
27 अप्रैल को पेट्रोगार्ड सम्मेलन ने अप्रैल थीसिस को बहुमत से पारित कर दिया। इसके बाद बोल्शेविकों के राष्ट्रीय सम्मेलन का भी उसे समर्थन प्राप्त हो गया। इन महीनों में लेनिन ने जो कुछ भी किया उससे "वह क्रांति के मार्ग एवं इतिहास में महत्वपूर्ण परिवर्तन लाने में सफल हुआ। उसने लक्ष्यों का निर्धारण, योजनाओं का नियोजन, संचालन एवं अभ्यास से अपनी शक्ति का गठन किया। रूसी जनता के मनोभावों को इतने सही ढंग से समझने और उनका उचित ढंग से उपयोग करने में कोई भी रूसी नेता इतना सफल नहीं हो पाया था जितना कि लेनिन।
थीसिस ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर समाजवादी क्रांति की आवश्यकता को भी व्यक्त किया। बोल्शेविक पार्टी, जो पहले अस्थाई सरकार में भागीदारी और युद्ध प्रयास जैसे मुद्दों पर विभाजित थी, लेनिन के नेतृत्व और उनके क्रांतिकारी कार्यक्रम के इर्द-गिर्द एकजुट होने लगी। अप्रैल थीसिस बोल्शेविक पार्टी और रूस के व्यापक राजनीतिक परिदृश्य के भीतर अत्यधिक विवादास्पद थी। युद्ध को तत्काल समाप्त करने और सोवियतों को सत्ता हस्तांतरित करने के लेनिन के आह्वान ने समाजवादी और उदारवादी गुटों को चुनौती दी, जिन्होंने अस्थाई सरकार में बहुमत बनाया। इस थीसिस ने बोल्शेविक पार्टी के भीतर भी बहस और विभाजन को जन्म दिया, क्योंकि कुछ सदस्य लेनिन के कट्टरपंथी कार्यक्रम को अपनाने में झिझक रहे थे। इसके बावजूद बोल्शेविकों को समर्थन मिलता रहा और 1917 के अंत तक, वे अक्टूबर क्रांति में सत्ता पर कब्ज़ा करने में सफल रहे। सत्ता की जब्ती ने दुनिया के पहले समाजवादी राज्य की स्थापना की और रूसी गृह युद्ध की शुरुआत को चिह्नित किया।
अप्रैल थीसिस ने इस उथल-पुथल भरे दौर में बोल्शेविक पार्टी की विचारधारा और रणनीति को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने पार्टी के लक्ष्यों और तरीकों के लिए एक स्पष्ट और समझौता न करने वाला दृष्टिकोण प्रदान किया, समर्थकों को एकजुट किया और पार्टी के भीतर संशयवादियों पर जीत हासिल की। थीसिस ने बोल्शेविकों की सत्ता पर सफलतापूर्वक कब्ज़ा करने और रूस में एक नई सरकार की स्थापना के लिए भी मंच तैयार किया। इसके बाद के वर्षों में अप्रैल थीसिस बोल्शेविक पार्टी और बाद में, सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी के लिए एक महत्वपूर्ण संदर्भ बिंदु बनी रही। उन्होंने न केवल रूस में बल्कि दुनिया भर में समाजवादी और साम्यवादी विचारधारा के विकास को आकार देने में मदद की।
कुल मिलाकर, रूसी क्रांति में दोहरी शक्ति की अवधारणा क्रांतिकारी बदलावों की जटिलताओं और सत्ता के प्रतिस्पर्धी स्रोतों पर प्रकाश डालती है। "अप्रैल थीसिस" रूसी क्रांति और सोवियत संघ की स्थापना के इतिहास में एक निर्णायक क्षण था। उन्होंने रूस और उससे आगे के भविष्य के लिए एक साहसी और कट्टरपंथी दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व किया, और उनका प्रभाव आज भी इतिहास और राजनीतिक विचारधारा के अध्ययन में महसूस किया जा सकता है।
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