सोवियत संघ की विदेश नीति तथा उद्देश्य
बोल्शेविकों ने सत्ता प्राप्त करने के बाद मार्क्स के सिद्धांतों के अनुसार रूस में आर्थिक व्यवस्था की स्थापना की। भूमि जमीदारों से छीनकर कृषकों में बाँट दी गयी। लेकिन राज्य की ओर से कृषि करने की कोई व्यवस्था नहीं की गयी। गरीब किसानों के पास जमीन तो थी लेकिन पूँजी का अभाव था। जिसके चलते बहुत-सी जमीनें बंजर पड़ गई और अनाजों का उत्पादन भी कम होता गया। उद्योगों पर भी मजदूरों का नियंत्रण कायम हो गया था। 1920 में सरकार ने एक आदेश निकालकर कारखाने के समस्त उत्पादन और वितरण का भार अपने हाथ में ले लिया। उत्पादित मालों का वितरण मुफ्त होने लगा। जिसके चलते व्यापार बन्द हो गया। बैंक भी बन्द कर दिये गये और सबकी जगह पर एक "पिपुल्स बैंक" की स्थापना हुई। परन्तु, यह व्यवस्था भी सन्तोषजनक नहीं हो सकी। कारखानों में उत्पादन कम हो गया, क्योंकि लोगों को काम करने के लिए कोई प्रोत्साहन नहीं मिला। निजी लाभ बन्द कर दिया गया था। इतना ही नहीं 1921 ई. में हुए गृह युद्ध और विदेशी आक्रमण से रूस की हालत काफी खराब हो गयी थी, और जो बचीकुची स्थिति थी, उसे 1921-22 के भयंकर अकाल ने पूरी कर दी।
इस आर्थिक संकट से उबरने के लिए लेनिन ने नयी आर्थिक नीति का सहारा लेकर रूस की विदेश नीति में परिवर्तन करना चाहा। दूसरी ओर पूँजीवादी देश अभी तक रूस का बहिष्कार कर रहे थे। पर लेनिन रूस के पुनर्निर्माण के लिए विदेशी पूँजी की सहायता चाहता था। जब तक पूँजीपति राज्यों का अस्तित्व कायम है तब तक सोवियत संघ को इन देशों के साथ किसी-न-किसी प्रकार का सम्बन्ध बनाए रखना जरूरी था। किन्तु, कोई भी राष्ट्र रूस से सम्बन्ध स्थापित नहीं करना चाहता था जब तक की रूस कामिन्टर्न के संसारव्यापी प्रचार को रोकने का वचन न दे (कामिन्टर्न एक संस्था थी जिसका उद्देश्य क्रांति की विचारधारा का प्रचार करना था)। आर्थिक स्थिति को देखते हुए लेनिन ने इसे रद करने का वचन दे दिया जिससे यूरोप के देशों से व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित करने का मार्ग खुल गया। अप्रैल 1921 में जेनेवा में एक अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ जिसमें रूस के मंत्री Georgy Chicherin ने भाग लिया। उसने सम्मिलित राष्ट्रों को सभी प्रकार का आश्वासन दिया और उनसे ऋण पाने की याचना तथा रूस को मान्यता प्रदान करने की प्रार्थना की, किन्तु पारस्परिक मतभेद के कारण सम्मेलन किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाया। फिर भी इससे एक लाभ यह हुआ कि रूस और जर्मनी में रेपालो (Rapalio) की संधि हो गयी। जर्मनी ने सोवियत सरकार को मान्यता प्रदान कर दी। इसके पूर्व 1922 ई० में इंगलैंड के साथ भी व्यापारिक सन्धि स्वीकृत की गई।
लेनिन ने स्वयं साम्यवादी व्यवस्था में परिवर्तन कर पूँजीवादी व्यवस्था की ओर लौटने का निश्चय करके नयी आर्थिक नीति (New Economic Policy) आरम्भ की। नयी आर्थिक नीति के अनुसार देश की आर्थिक व्यवस्था में घोर परिवर्तन हुआ। पहले किसानों से उनकी आवश्यकता की पूर्ति से बचे हुए अनाजों को सरकार ले लेती थी। यह प्रथा बन्द कर दी गयी और उनसे कर लिया जाने लगा तथा बाजार में बचे हुए अनाज को बेचने की अनुमति दी गयी। औद्योगिक क्षेत्र में भी परिवर्तन हुआ। बड़े-बड़े कारखानों पर राज्य का ही नियंत्रण था, लेकिन छोटे-छोटे कारखानों को उत्पादन और वितरण के मामले में स्वतंत्र कर दिया गया। विदेशी पूँजी को आकर्षित करने के लिए सुविधाएँ दी गई। मुद्रा का फिर से प्रचलन किया गया।
विदेशों से सम्पर्क स्थापना: सोवियत सरकार के सामने सबसे प्रमुख प्रश्न था विदेशी राज्यों से मान्यता प्राप्त करना। 1921 के आरम्भ में उसने तुर्की, फारस और अफगानिस्तान से मैत्री सन्धि कर ली, लेकिन इसमें से कोई भी राष्ट्र महत्त्वशील नहीं था। लेकिन कुछ वर्षो बाद रूस को धीरे-धीरे मान्यता मिलने लगी। 1942 में इंगलैंड, इटली, नार्वे, आस्ट्रेलिया, स्वीडन, चीन, डेनमार्क, मेक्सिको और फ्रांस तथा 1933 में सोवियत संघ का कट्टर विरोधी संयुक्त राज्य अमेरिका ने भी मान्यता प्रदान कर दी। इसके अतिरिक्त सोवियत संघ ने उपनिवेश बन चुके राष्ट्रों के स्वतंत्रता संग्राम के प्रति अपनी सहानुभूति प्रदर्शित करके उन्हें हर तरह की मदद देने का वादा भी किया। जहाँ तक सम्भव था सोवियत संघ ने उपनिवेश राष्ट्रों और हाल में हुए स्वतंत्र राष्ट्रों की मदद की।
पश्चिम के साम्राज्यवादी राज्य तुर्की को खत्म करना चाहते थे। लेकिन सोवियत संघ ने ऐसे संकट के मौके पर तुर्की को मान्यता प्रदान करके उसकी यथासम्भव मदद की। चीन के लोग डॉ. सनयात सेन के नेतृत्व में अपनी पूर्ण स्वतंत्रता के लिए भीषण संघर्ष कर रहे थे। सोवियत संघ ने उसकी भी यथासम्भव मदद की। इसके बावजूद भी सोवियत संघ बराबर साम्राज्यवाद विरोधी अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों का आयोजन करता रहा। इन सम्मेलनों में दुनिया के विभिन्न राष्ट्रों को राष्ट्रवादी नेताओं के साथ सम्पर्क स्थापित करने का मौका मिलता रहा।
स्टालिन की नीति : 1924 में लेनिन की मृत्यु के बाद स्टालिन रूस का सर्वेसर्वा बना। उसने विदेशी-नीति में कुछ परिवर्तन किए। रूस में पुननिर्माण का कार्य चल रहा था और इसकी सफलता के लिए विश्वशांति अत्यन्त आवश्यक थी। अतः स्टालिन की विदेशनीति का आधार विश्वशांति संगठन था। इस समय यूरोप का वातावरण शांत था। 1928 में पेरिस पैक्ट पर हस्ताक्षर हुए जिसके द्वारा युद्धों के परित्याग की घोषणा की गयी। शुरुआत में सावियत संघ ने इस पर हस्ताक्षर नहीं किए। किंतु बाद में जब लिटविनोव विदेश मंत्री बने तो उन्होंने पेरिस समझौते की शर्तों को लागू करने के लिए कुछ तत्काल कदम उठाये। उसने एक अंतराष्ट्रीय शांति संधि जारी की, जिसको 'लिटविनोव-प्रोटोकोल' कहते हैं। फरवरी, 1929 में रूस, पोलैंड, रूमानिया, लेटबिया, एथोनिया, लिथुआनिया, तुर्की और फारस ने इस शांति संधि पर हस्ताक्षर कर दिये। जिसके बाद सभी ने पेरिस पैक्ट की शर्तों को मानने का वादा किया।
राष्ट्रसंघ से सहयोग : वर्साय सन्धि से जिस राष्ट्रसंघ की स्थापना हुई थी उसको रूस सन्देह की दृष्टि से देखता था। वे इसको साम्यवाद के विनाश के लिए पूँजीवादी राष्ट्रों का एक षडयंत्र समझते थे। लेकिन रूस की इस नीति में भी परिवर्तन हुआ और वह राष्ट्रसंघ के साथ आर्थिक और निशस्त्रीकरण की समस्याओं पर सहयोग करने लगा। सितम्बर, 1934 में सोवियत संघ, इंगलैंड, फ्रांस आदि के समर्थन से राष्ट्रसंघ का सदस्य चुन लिया गया। उस समय से सोवियत संघ राष्ट्रसघ का सबसे बड़ा समर्थक बना रहा। लिटविनोव यहाँ से बराबर सामूहिक सुरक्षा का समर्थन करता रहा। राष्ट्रसंघ को सफल बनाने के लिए जितना प्रयास सोवियत संघ ने किया, उतना प्रयास किसी दूसरे देश ने नहीं।
हिटलर का उदय और स्टालिन की नीति: जिस समय सोवियत संघ राष्ट्रसंघ के साथ सहयोग करने में लगा हुआ था, उस समय दुनिया के दूसरे भागों में दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएँ घट रही थीं। 1931 में जापान ने मंचूरिया पर हमला कर दिया और मंगोलिया की तरफ बढ़ने की सोचने लगा। इधर यूरोप में वेमर रिपब्लिक का अन्त हो चुका था और उसकी जगह पर हिटलर के नेतृत्व में नात्सी शासन स्थापित हो चुका था। स्टालिन को हिटलर के विषय में कोई भ्रम नहीं था। हिटलर के विचार उसकी पुस्तक "मेरे संघर्ष" में व्यक्त किये गये थे। उसने लिखा था- "हम युद्ध के पहले औपनिवेशिक तथा व्यापारिक नीति का त्याग करके प्रादेशिक नीति की ओर कदम उठाते हैं। यदि हम आज यूरोप में नई भूमि और प्रदेश की बात करते हैं तो हम मुख्यतः रूस तथा उसके सीमावर्ती अधीनस्थ राज्यों के बारे में भी सोच सकते हैं।"
स्टालिन के सामने बड़ी कठिन समस्या थी। स्टालिन इस परिस्थिति से भयभीत हो गया। वह जानता था कि रूस सैनिक शक्ति में इन दोनों देशों से पिछड़ा हुआ है। अतः उसने अपनी स्थिति को दृढ़ तथा उन्नत करने के लिए अन्य देशों से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयत्न किया। दिसम्बर 1934 में रूस और फ्रांस के मध्य पूर्वी यूरोप की सुरक्षा के सम्बन्ध में एक समझौता हुआ। 2 मार्च को दोनों देशों के मध्य एक सन्धि हुई जिसके अनुसार यह निश्चय हुआ कि "यदि कोई यूरोपीय राज्य दोनों में से किसी पर आक्रमण करे तो दूसरा उसकी सहायता करेगा।” हिटलर के उत्थान के बाद दोनों देशों में कूटनीतिक सम्बन्धों की स्थापना हुई। रूस ने कुछ ही दिन बाद चेकोस्लोवाकिया के साथ भी ऐसी सन्धि की। उसने इंग्लैंड से भी सन्धि करने का प्रयास किया, किन्तु ऐसा नहीं हो पाया। जर्मनी और इटली के मध्य रूस के विरूद्ध एक सन्धि हुई जो रोम-बर्लिन धूरी (Rome-Berlin Axis) के नाम से विख्यात है। नवम्बर में जर्मनी ने जापान के साथ ऐन्टी कामिन्टर्न सन्धि (Anti-Commintern Pact) की जिसमें इटली भी सम्मिलित हो गया। इस प्रकार रूस के विरूद्ध इटली, जर्मनी और जापान का एक गुट तैयार हो गया।
जर्मनी से अनाक्रमण सन्धि : अक्टूबर 1935 में मुसोलिनी ने इथोपिया पर आक्रमण कर दिया। सोवियत संघ ने इटली के विरूद्ध कड़ी कार्रवाई करने की मांग की। लेकिन, ब्रिटेन और फ्रांस इसके विरूद्ध थे और इसीलिए मुसोलिनी को मनमानी करने के लिए छोड़ दिया गया। जुलाई 1936 में स्पेन में गृह-युद्ध छिड़ा। जर्मनी और इटली ने स्पेन की गणतंत्रीय सरकार के खिलाफ जनरल फ्रेंकों की मदद करना शुरू किया।
रूस चाहता था कि ब्रिटेन और फ्रांस गणतंत्रीय सरकार की मदद करें। पर ये दोनों देश 'हस्तक्षेप न करने की नीति' का पालन कर रहे थे। सोवियत संघ ने गणतंत्रीय सरकार की कुछ मदद की। लेकिन उससे क्या होता? ब्रिटेन और फ्रांस तटस्थता की आड़ में चुप बैठकर स्पेन-गणतंत्र के विनाश में सहायता करते रहे।
1938 में जर्मनी ने आस्ट्रिया पर अधिकार कर लिया। लिटविनोव ने हिटलर के आक्रमणों को रोकने के लिए एक सम्मेलन बुलाने का प्रस्ताव रखा। लेकिन फ्रांस और ब्रिटेन ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। इसी वर्ष हिटलर ने चेकोस्लोवाकिया को भी हड़पने का प्रयत्न किया। लिटविनोव ने चेकोस्लोवाकिया की रक्षा के लिए संयुक्त तैयारी करने की अपील की। रूस और चेकोस्लोवाकिया में पहले से ही सन्धि थी। फ्रांस के साथ भी उसकी सन्धि थी; परन्तु रूस उसकी सहायता तभी कर सकता था जब फ्रांस पहले पहुँचता। पर ब्रिटेन हिटलर को प्रोत्साहित करना चाहता था और फ्रांस ब्रिटेन के सहयोग के बिना कोई कदम नहीं उठा सकता था। ऐसी हालत में रूस कुछ नहीं कर सका। फ्रांस और ब्रिटेन ने सोवियत संघ को बिना शामिल किए ही हिटलर के साथ म्युनिख का समझौता कर लिया जिसके फलस्वरूप चेकोस्लोवाकिया का अंगभंग हो गया। मार्च 1939 में हिटलर ने चेकोस्लोवाकिया को भी हडप लिया। इन सब घटनाओं से स्टालिन को पूरा विश्वास हो गया कि पश्चिमी राष्ट्र हिटलर को प्रोत्साहित करके सोवियत संघ पर आक्रमण करवाना चाहते हैं। म्युनिख सम्मेलन में भाग लेने के लिए उसे बुलाया तक नहीं गया था। रूस को पश्चिमी देशों से सहयोग करने की नीति की मंशा अच्छी तरह दिखाने लगी।
मार्च 1939 में जब जर्मनी समूचे चेकोस्लोवाकिया को निगल गया तो ब्रिटेन और फ्रांस की आँखें खुलीं। अब वे जर्मनी के खिलाफ गुट कायम करने की सोचने लगे। इस गुट में सोवियत संघ को सम्मिलित करना आवश्यक था। किंतु अब सोवियत संघ अपने लिए और बाल्टिक सागर के तटीय राज्यों के लिए सहयोग की गारण्टी चाहता था। ब्रिटेन इसके लिए तैयार नहीं हुआ। चेकोस्लोवाकिया के बाद पोलैंड की बारी थी। ब्रिटेन पोलैंड को गारण्टी दे चुका था और वह चाहता था कि रूस भी उसको इस तरह की गारंटी दे दे। पर रूस बिना उपर्युक्त गारंटी लिए कुछ करने को तैयार नहीं था और ब्रिटेन भी इस तरह की कोई गारंटी नहीं देना चाहता था। इसका स्पष्ट अर्थ यह था कि यदि जर्मनी बाल्टिक-सागर के तटीय देशों पर आक्रमण करते हुए रूस पर चढ़ बैठता तो ब्रिटेन और फ्रांस उसकी सहायता के लिए बाध्य नहीं थे। स्टालिन बेवकूफ नहीं था। 3 मई को लिटविनोव ने मंत्री के पद से त्यागपत्र दे दिया और मोलोटोव उसके पद पर आया।
इस घटना से पश्चिमी राष्ट्र कोई सबक नहीं ले सके। लिटविनोव कट्टर फासिस्ट विरोधी था और वह किसी भी हालत में जर्मनी के साथ सन्धि करने को तैयार नहीं था, इसलिए स्टालिन ने उसे हटा देना ठीक समझा। रूस-जर्मन वार्तालाप शुरू हो चुका था। 23 अगस्त 1939 को रूस-जर्मनी के बीच एक अनाक्रमण सन्धि हुई जिसके अनुसार यह निश्चय हुआ कि दोनों में से कोई भी एक दूसरे पर अकेला या किसी से मिलकर आक्रमण नहीं करेंगे। यह सोवियत विदेश नीति और स्टालिन के राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी सफलता थी। इसके फलस्वरूप स्टालिन कुछ दिनों के लिए सोवियत संघ को द्वितीय विश्वयुद्ध की ज्वाला से दूर रखने में सफल रहा। जब द्वितीय युद्ध आरम्भ हुआ तो शुरू में रूस तटस्थ रहा।
विदेश नीति के उद्देश्य:
1920 से 1940 की अवधि के दौरान, सोवियत विदेश नीति के उद्देश्य रूसी क्रांति के परिणाम, बोल्शेविक सरकार द्वारा सत्ता के सुदृढ़ीकरण और शत्रुतापूर्ण अंतर्राष्ट्रीय वातावरण से निपटने की चुनौतियों से प्रभावित थे। इस अवधि के दौरान सोवियत विदेश नीति के कुछ प्रमुख उद्देश्य इस प्रकार हैं:–
शक्ति का सुदृढ़ीकरण: 1917 की रूसी क्रांति के बाद, बोल्शेविक सरकार को क्रांतिकारी ताकतों और विदेशी हस्तक्षेप से कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा। इस अवधि के दौरान सोवियत विदेश नीति का एक मुख्य उद्देश्य नए सोवियत राज्य के अस्तित्व और स्थिरता को सुरक्षित करना था। इसमें घरेलू और विदेशी खतरों से क्रांति की रक्षा करना, साथ ही रूसी साम्राज्य के क्षेत्रों पर बोल्शेविक नियंत्रण को मजबूत करना शामिल था।
राजनयिक मान्यता: सोवियत विदेश नीति का एक प्राथमिक उद्देश्य पश्चिमी शक्तियों और अन्य राज्यों से राजनैतिक मान्यता प्राप्त करना था। बोल्शेविक सरकार ने विदेशी सरकारों के साथ औपचारिक संबंध स्थापित करने, अंतर्राष्ट्रीय मंच पर वैधता हासिल करने और सोवियत हितों की रक्षा के लिए अंतर्राष्ट्रीय वार्ता में भाग लेने की मांग की। सोवियत संघ के लिए राष्ट्रीय मुद्दों में शामिल होने, व्यापार समझौतों को सुरक्षित करने और राष्ट्रों के समुदाय में जगह स्थापित करने के लिए राजनैतिक मान्यता आवश्यक थी।
क्रांतिकारी अंतर्राष्ट्रीयवाद: मार्क्सवादी-लेनिनवादी विचारधारा के सिद्धांतों से प्रेरित होकर सोवियत विदेश नीति का उद्देश्य सोवियत संघ की सीमाओं से परे क्रांति के प्रसार को बढ़ावा देना था। बोल्शेविक नेतृत्व पूंजीवाद और साम्राज्यवाद के खिलाफ वैश्विक संघर्ष में विश्वास करता था और अन्य देशों में क्रांतिकारी आंदोलनों का समर्थन करना चाहता था। सोवियत विदेश नीति के उद्देश्यों में कम्युनिस्ट पार्टियों की सहायता करना, समाजवादी एकजुटता को बढ़ावा देना और दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों में उपनिवेशवाद विरोधी संघर्षों को प्रोत्साहित करना शामिल था।
सुरक्षा और रक्षा: रूस को अपनी सुरक्षा के लिए आंतरिक और बाहरी खतरों का सामना करना पड़ा, जिसमें रूसी गृहयुद्ध की विरासत, विदेशी हस्तक्षेप और पड़ोसी राज्यों के साथ सीमा विवाद शामिल थे। 1920 के दशक में सोवियत विदेश नीति के उद्देश्य सोवियत राज्य की रक्षा क्षमताओं को मजबूत करने, उसकी सीमाओं को सुरक्षित करने और संभावित हमलावरों को रोकने के लिए अन्य समाजवादी राज्यों के साथ गठबंधन बनाने पर केंद्रित थे। पश्चिमी शक्तियों से राजनैतिक अलगाव और शत्रुता का सामना करने के बावजूद, सोवियत संघ ने अन्य देशों से राजनैतिक मान्यता और सुरक्षा की गारंटी मांगी। इस अवधि के दौरान सोवियत संघ ने व्यापार समझौतों को सुरक्षित करने और सोवियत राज्य के हितों की रक्षा करने वाली संधियों पर बातचीत करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के साथ जुड़ने पर ध्यान केंद्रित किया। यह कदम बोल्शेविक सरकार की वैधता और अस्तित्व के लिए महत्वपूर्ण था।
आर्थिक सहयोग: रूसी क्रांति और रूसी गृहयुद्ध के बाद, सोवियत संघ को अपनी अर्थव्यवस्था और बुनियादी ढांचे के पुनर्निर्माण के लिए विदेशी सहायता की आवश्यकता थी। इसलिए नए समाजवादी राज्य के औद्योगिक प्रयासों का समर्थन करने के लिए अन्य देशों के साथ आर्थिक सहयोग, प्रौद्योगिकी हस्तांतरण और व्यापार समझौते आवश्यक थे। सोवियत सरकार ने अर्थव्यवस्था को आधुनिक बनाने के लिए विदेशों से ऋण, अनुदान और निवेश सुरक्षित करने के लिए राष्ट्रीय पहल की।
साम्राज्यवाद-विरोधी: बोल्शेविक नेतृत्व साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद का कड़ा विरोध करता था, उन्हें शोषणकारी प्रणालियों के रूप में देखता था जिन्हें समाप्त करने की आवश्यकता थी। इसलिए सोवियत संघ ने साम्राज्यवाद-विरोधी आंदोलनों का समर्थन किया, उपनिवेशित लोगों के अधिकारों की वकालत की और उपनिवेशित क्षेत्रों में पश्चिमी शक्तियों के प्रभुत्व को चुनौती दी। सोवियत संघ का लक्ष्य राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलनों के साथ गठबंधन बनाना और एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका में उपनिवेशवाद से मुक्ति के प्रयासों को बढ़ावा देना था।
सामूहिक सुरक्षा: यूरोप में फासीवाद और सैन्यवाद के उदय के साथ, सोवियत संघ ने इस खतरे का मुकाबला करने के लिए सामूहिक सुरक्षा की नीति अपनाई। सोवियत संघ ने संभावित हमलों तथा फासीवाद के प्रसार को रोकने और यूरोप में शांति बनाए रखने के लिए अन्य राज्यों के साथ गठबंधन और समझौतों को बढ़ावा दिया। सोवियत सरकार ने अंतरयुद्ध काल में फासीवादी शक्तियों के बढ़ते प्रभाव का मुकाबला करने के लिए फासीवाद-विरोधी ताकतों का गठबंधन बनाने की मांग की।
सांस्कृतिक आदान-प्रदान: सोवियत सरकार अन्य देशों के साथ सांस्कृतिक आदान-प्रदान, वैज्ञानिक सहयोग और अकादमिक सहयोग को बढ़ावा देना चाहती थी। बोल्शेविक सरकार ने कला, साहित्य, विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में सोवियत संघ की उपलब्धियों को अंतरराष्ट्रीय दर्शकों के सामने प्रदर्शित करने की मांग की। सांस्कृतिक कूटनीति का उपयोग अन्य देशों के साथ पुल बनाने, आपसी समझ को बढ़ावा देने और सोवियत प्रणाली के समाजवादी आदर्शों को बढ़ावा देने के लिए एक उपकरण के रूप में किया गया था।
अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा: सोवियत विदेश नीति का उद्देश्य एक क्रांतिकारी समाजवादी राज्य के रूप में सोवियत संघ की अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा और प्रभाव को बढ़ाना भी था। बोल्शेविक नेतृत्व ने सोवियत संघ को विश्व मंच पर श्रमिकों के अधिकारों, साम्राज्यवाद-विरोधी और फासीवाद-विरोधीे के रूप में स्थापित करने की मांग की। अंतर्राष्ट्रीय मंचों, सम्मेलनों और गठबंधनों में भाग लेकर, सोवियत संघ का लक्ष्य सामाजिक और आर्थिक न्याय के लिए वैश्विक संघर्ष में अपनी नेतृत्वकारी भूमिका पर जोर देना था।
1920 के दशक के दौरान, सोवियत संघ को एक जटिल अंतरराष्ट्रीय माहौल का सामना करना पड़ा, जिसमें प्रथम विश्व युद्ध के बाद पुनर्निर्माण, यूरोप में फासीवाद और सैन्यवाद का उदय और साम्यवाद का वैश्विक प्रसार शामिल था। सोवियत विदेश नीति के उद्देश्य सत्ता को मजबूत करने, समाजवादी राज्य के अस्तित्व को सुरक्षित करने और विदेशों में क्रांति के प्रसार को बढ़ावा देने के बोल्शेविक सरकार के प्रयासों से प्रभावित थे।
कुल मिलाकर, 1920 से 1940 तक सोवियत विदेश नीति के उद्देश्यों को सत्ता को मजबूत करने, समाजवादी राज्य के अस्तित्व को सुरक्षित रखने और अंतर्राष्ट्रीय मंच पर मार्क्सवाद-लेनिनवाद के सिद्धांतों को बढ़ावा देने की आवश्यकता से आकार दिया गया था। क्रांतिकारी बाद के शत्रुतापूर्ण माहौल से निपटने की चुनौतियों, राजनयिक अलगाव और सुरक्षा खतरों ने सोवियत इतिहास में इस परिवर्तनकारी अवधि के दौरान सोवियत विदेश नीति की रणनीतिक विकल्पों और प्राथमिकताओं को प्रभावित किया।
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