विजयनगर साम्राज्य
विजयनगर साम्राज्य एक शक्तिशाली साम्राज्य था, जिसने दक्षिण भारत पर एक अमिट छाप छोड़ी। इसकी स्थापना 1336 ई. में दो भाइयों, हरिहर और बुक्का ने की थी। विजयनगर साम्राज्य ने दक्षिण भारत में दिल्ली सल्तनत के विस्तार का विरोध करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह साम्राज्य अपनी प्रभावशाली सैन्य शक्ति, प्रशासनिक प्रणाली और समृद्ध कला और वास्तुकला के लिए प्रसिद्ध था। विजयनगर व्यापार का केंद्र था, जो दुनिया भर से व्यापारियों और यात्रियों को आकर्षित करता था। साम्राज्य के शासक साहित्य, संगीत और कला के संरक्षक थे, जिससे सांस्कृतिक विकास का स्वर्ण युग शुरू हुआ। इस साम्राज्य की प्रभावशाली नीतियों ने दक्षिण भारत के राजनीतिक, सांस्कृतिक और आर्थिक परिदृश्य को आकार दिया।
केन्द्रीय व्यवस्था - विजयनगर साम्राज्य में राजा प्रशासन का प्रमुख था तथा सर्वोच्च सत्ता का स्वामी था। उससे अपेक्षा की जाती थी कि वह प्रजा के हित का ध्यान रखे। राजा को चुनने में राज्य के मंत्रियों और नायकों की महत्वपूर्ण भूमिका होती थी, जैसे कि वीर नरसिम्हा की मत्यु पर कृष्णराय को राजा बनाने में सालुवा तिम्ना नामक मुख्य प्रधानमंत्री तथा सदाशिव महाराय को राजा बनाने में रामराज नामक मंत्री ने प्रमुख भूमिका निभाई। राजा राज्य की सुरक्षा के साथ-साथ प्रजा के सामाजिक, आर्थिक व धार्मिक कार्यों की सुरक्षा के प्रति जिम्मेदार था। वह वेदों, धर्मशास्त्रों व परम्पराओं से प्राप्त नियमों एवं विधियों के आधार पर धर्म का संरक्षण व प्रजा की रक्षा करते थे। शासक दैवीय शक्ति को अपनी सत्ता का आधार मानते था। विद्वान वी० स्मिथ विजयनगर शासक को एक निरंकुश शासक मानते हैं जिस पर किसी प्रकार का कोई अंकुश नहीं था। धर्म व परम्परा की सीमा में वे बंधे हुए थे व राजकीय परिषद् उन पर अंकुश का काम करती थी।
इस काल में उत्तराधिकार संबंधी संघर्ष की संभावना बहुत कम थी क्योंकि राजा के बाद राजा का ज्येष्ठ पुत्र राजा बनता था। पुत्र न होने पर राजपरिवार के किसी योग्य पुरुष को युवराज घोषित कर दिया जाता था। युवराज की नियुक्ति के बाद उसका अभिषेक किया जाता था। युवराज से शासन की सैद्धान्तिक जानकारी होने की अपेक्षा की जाती थी। राजा अपने राज्य की आर्थिक प्रगति के प्रति भी बहुत सजग था। कृषि उत्पादन की वृद्धि और व्यापार की समद्धि उनके शासन का एक प्रमुख लक्ष्य था। वे न्याय व दंड को शांति व सुरक्षा के लिए परम आवश्यक मानते थे। सम्राट् स्वयं न्याय का सर्वोच्च न्यायालय था। दण्ड के मामले में क्रूर दण्डों को उचित नहीं समझा जाता था। इस प्रकार वे स्वयं को जनता के प्रति उत्तरदायी समझते थे।
मंत्री परिषद - मंत्रिपरिषद राजा की सत्ता को नियंत्रित करने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती थी। राजा राज्य की नीतियों के संबंध में इसी परिषद की सलाह लेता था। यही परिषद राजा का अभिषेक करती और देश का प्रशासन चलाती थी। विजयनगर साम्राज्य के अभिलेखों तथा ऐतिहासिक वर्णनों में मंत्रिपरिषद् के साथ एक अन्य परिषद का भी उल्लेख मिलता है। जिसे साम्राज्यिक परिषद कहा जा सकता है। विद्वान आर. सीवेल के अनुसार इसमें साम्राज्य के प्रादेशिक शासक, नायक, राजकुमार, व्यापारिक निगमों के प्रतिनिधि आदि शामिल थे। इस प्रकार यह परिषद काफी बड़ी होती थी। इस परिषद के बाद केन्द्र में मंत्रिपरिषद होती थी, जिसका प्रमुख अधिकारी प्रधानी या महाप्रधानी होता था। इसकी स्थिति प्रधानमंत्री की भांति होती थी। मंत्रिपरिषद में राजा के कुछ निकटतम सम्बन्धी भी शामिल होते थे। मंत्रिपरिषद के अध्यक्ष को सभानायक कहा जाता था। प्रधानी भी इसकी अध्यक्षता करता था। यह मंत्रिपरिषद विजयनगर साम्राज्य के संचालन में सबसे महत्वपूर्ण संस्था थी।
केंद्रीय सचिवालय - विजयनगर साम्राज्य में राजा और उसकी मंत्रिपरिषद के अलावा केन्द्र में एक सचिवालय की स्थापना भी की गई थी। इस सचिवालय में विभागों का बंटवारा किया गया था और इसमें 'रायसम्' या सचिव, 'कर्णिकम्' अर्थात् एकाउटेंट जैसे अधिकारी होते थे। विशेष विभागों से संबंधित अधिकारियों या विभाग प्रमुखों के नाम भिन्न थे जैसे 'मानेयप्रधान', गृहमंत्री होता था। शाही मुद्रा को रखने वाले अधिकारी 'मुद्राकर्त्ता' कहलाता था। इसी प्रकार के अनेक अधिकारियों के द्वारा विजयनगर के केंद्रीय सचिवालय का गठन किया गया था।
अन्तिम प्रशासन - विजयनगर जैसे विशाल साम्राज्य पर प्रशासन के लिए उसे अनेक प्रांतों में विभाजित किया गया था। ये प्रांत राज्य या मंडल कहलाते थे। विजयनगर साम्राज्य में इन प्रांतों की संख्या लगातार परिवर्तित होती रही और चौदहवीं से सोलहवीं शताब्दी तक प्रांतों का विस्तार होता रहा। कृष्ण देवराय के शासनकाल में प्रांतों की संख्या सबसे अधिक थी। प्रांतों को मंडलों में विभाजित किया गया था। ज़िले 'कोट्टम' या 'वलनाडु' कहलाते थे। कोट्टम को नाडुओं में विभाजित किया गया, इन्हें परगना या ताल्लुका कहा जाता है। इन नाडुओं को 'मेलाग्रामों' में विभाजित किया गया है। प्रत्येक 'मेलाग्राम' में पचास गाँव होते थे और प्रशासन की सबसे छोटी इकाई 'ऊर' या ग्राम थी। इस काल में ग्रार्मो के समूह को 'स्थल' और 'सीमा' भी कहा जाता था।
सामान्यतः प्रान्तों पर राजपरिवार के व्यक्तियों को ही गवर्नर के रूप में नियुक्त किया जाता था। कुछ प्रान्तों पर कुशल और अनुभवी दंडनायकों को भी गवर्नर के रूप में नियुक्त किया जाता था। इन गवर्नरों को प्रांतों में काफी स्वायत्तता प्राप्त थी। इन गवर्नरों का कार्यकाल निर्धारित नहीं होता था और यदि वे कुशल और योग्य होते थे तो काफी लंबे समय तक शासन कर सकते थे। गवर्नर सिक्कों को प्रसारित कर सकता था, नए कर लगा सकता था, पुराने करों को माफ कर सकता था और भूमिदान आदि दे सकता था। केन्द्रीय सरकार प्रांत के प्रशासनिक मामले में हस्तक्षेप नहीं करती थीं, पर यदि प्रांतीय गवर्नर एवं उसके अधिकारी जनता का शोषण और दमन करते थे तो केंद्रीय सरकार प्रांतीय मामलों में हस्तक्षेप कर सकते थे। प्रांत में कानून एवं व्यवस्था बनाए रखना प्रांतीय गवर्नरों का सबसे प्रमुख उत्तरदायित्व था। गवर्नरों को प्रांतीय राजस्व का एक निर्धारित अंश केन्द्र के पास भेजना होता था। ये प्रांतीय गवर्नर अपने सचिव या एजेंट को केंद्र में रखते थे। शक्तिशाली राजाओं के शासनकाल में ये प्रांतीय गवर्नर निष्ठावान बने रहते थे, परंतु केंद्रीय शासन के कमजोर होते ही वे अपनी शक्ति और प्रभाव का विस्तार करने लगते थे।
नायंकार व्यवस्था -विजयनगर कालीन राजतंत्र में नायंकार व्यवस्था का उल्लेख आवश्यक है। इस व्यवस्था की उत्पत्ति, इसके वास्तविक रूप और व्याख्या के संबंध में इतिहासकारों में बड़ा विवाद है। कुछ इतिहासकारों का कहना है कि विजयनगर काल के सेनानायकों को नायक कहा जाता था।
कुछ अन्य इतिहासकारों का विचार है कि ये नायक भू-सामंत थे जिन्हें राजा वेतन के बदले अथवा उनकी अधीनस्थ सेना के रख-रखाव के लिए उन्हें विशेष भू-खंड दे देता था, जो 'अमरम' कहलाते थे। 'अमरम' भूमि का उपभोग करने के कारण इन्हें 'अमर-नायक' भी कहा जाता था। तमिल प्रदेश की अधिकांश भूमि को 'अमरम' के रूप में नायकों को वितरित कर दिया गया। 'अमरम' भूमि का उपभोग करने के संबंध में उनके दो प्रमुख दायित्व थे। प्रथम, इससे प्राप्त आय के एक अंश को उन्हें केंद्रीय ख़ज़ाने में जमा कराना पड़ता था। द्वितीय, उन्हें इसी भूमि की आय से राजा की सहायता के लिए एक सेना रखनी पड़ती थी। प्रत्येक नायक के अंतर्गत रहने वाली सेना का निर्धारण राजा स्वयं करता था। नायकों की सेना की संख्या और केंद्र में भेजे जाने वाले राजस्व का अंश, 'अमरम' भूमि के आकार पर निर्भर करता था। इसके अतिरिक्त नायकों को अपनी 'अमरम' भूमि में शांति और सुरक्षा बनाए रखने और अपराधों को रोकने का दायित्व भी स्वयं वहन करना पड़ता था। उनके अधिकार क्षेत्र में यदि कहीं चोरी या लूट की घटना हो जाती तो उसकी क्षतिपूर्ति भी उन्हें करनी पड़ती थी। यदि 'नायक' अपने इन दायित्वों का निर्वाह नहीं कर पाते थे तो उनको प्रदान किए गए भू-खण्डों को जब्त किया जा सकता था। कभी-कभी नायकों को शारीरिक रूप से भी दंडित किया जाता था परन्तु उन्हें मृत्युदंड देने का हमें कोई प्रमाण नहीं मिलता।
नायकों को अपने पद की आवश्यकताओं के अनुसार केंद्र में दो प्रकार के संपर्क अधिकारी रखने पड़ते थे। इनमें से एक अधिकारी साम्राज्य की राजधानी में स्थित नायक की सेना का सेनापति होता था और दूसरा विजयनगर में उसका प्रशासनिक एजेंट होता था जिसे 'स्थानपति' कहा जाता था।
स्थानीय शासन - चोल-चालुक्य युग की शासन व्यवस्था ‘सभा' और 'नाडु' विजयनगर काल में भी प्रचलित रही। इस काल में किसी-किसी प्रदेश में 'सभा' को 'महासभा' भी कहा जाता था। प्रत्येक गाँव को अनेक वार्डों या मुहल्लों में बाँटा गया था। इस 'सभा' के विचार-विमर्श में गाँव या क्षेत्र विशेष के प्रमुख लोग हिस्सा लेते थे। विजयनगर कालीन अभिलेखों में इन स्थानीय स्वशासन संस्थाओं का उल्लेख मिलता है। इन ग्रामीण सभाओं को नई भूमि या अन्य प्रकार की संपत्ति को उपलब्ध करने और गाँव की सार्वजनिक भूमि को बेचने का अधिकार था। ये सभाएँ ग्रामीणों की ओर से सामूहिक निर्णय भी ले सकती थीं और गाँव की प्रतिनिधि होने के नाते गाँव की जमीन को दान में भी दे सकती थीं। इस प्रकार इन ग्राम सभाओं की स्थिति परिवार के मुखिया की भाँति होती थी। ये ग्राम सभाएँ राजकीय करों को भी एकत्रित करती थीं और इस संबंध में अपने पास भू-आलेखों को भी तैयार रखती थी। यदि कोई भू-स्वामी लंबे समय तक लगान अदा नहीं कर पाता था तो ग्राम सभाएँ उसकी भूमि को भी जब्त कर सकती थीं।
किसी प्राकृतिक विपत्ति के आने पर ग्राम सभाएँ राजा से लगान या कर विशेष की माफी के लिए भी निवेदन करती थीं। इस कारण शासन की राजस्व नीति के क्रियान्वयन में इन सभाओं की एक बहुमुखी भूमिका रहती थी। इस सभाओं के न्यायिक अधिकार भी थे। वे कुछ प्रकार के दिवानी मुकदमों का फैसला करती थीं और फौजदारी के छोटे-मोटे मामलों में अपराधी को दंड दे सकती थीं। कभी-कभी ये ग्राम सभाएँ सार्वजनिक दानों और ट्रस्टों की भी व्यवस्था करती थीं। ऐसी स्थिति में दानदाता व्यक्ति किसी विशेष धार्मिक कार्य या पुण्य के लिए उक्त गाँव की भूमि को दान में दे देता था जिसकी आय से ग्राम सभा उक्त दान के उद्देश्य की पूर्ति करती रहती थी।
'नाडु' गाँव की एक बड़ी राजनीतिक इकाई था। इसकी सभा को भी 'नाडु’ कहा जाता था और इसके सदस्यों को 'नात्तवर' कहा जाता था। इसके अधिकार ग्राम सभा की ही भाँति होते थे परंतु इसका अधिकार क्षेत्र काफी बड़ा होता था। ये स्थानीय संस्थाएँ शासकीय नियंत्रण के बाहर नहीं होती थीं। यदि वे नियमानुसार ग्राम की व्यवस्था नहीं कर पाते अथवा ग्राम के विभिन्न वर्गों के हितों को संरक्षण नहीं प्रदान कर पाते तो उन्हें दण्डित किया जा सकता था।
आयगार व्यवस्था - नायंकार व्यवस्था की भाँति आयगार व्यवस्था भी विजयनगर शासन व्यवस्था का ही एक अंग थी। इस व्यवस्था के अनुसार एक स्वतंत्र इकाई के रूप में प्रत्येक ग्राम को संगठित किया जाता था और इस ग्रामीण शासकीय इकाई पर शासन के लिए बारह व्यक्तियों को नियुक्त किया जाता था। इन बारह शासकीय अधिकारियों के समूह को 'आयगार' कहा जाता था। इन अधिकारियों की नियुक्ति सरकार द्वारा की जाती थी। अभिलेखों में इन आयगारों की नियुक्ति और इनके अधिकारों और कर्तव्यों का अनेक स्थानों पर उल्लेख है। इन आयगारों के पद आनुवांशिक होते थे। आयगार अपने पदों को बेच या गिरवी भी रख सकते थे। उन्हें वेतन के बदले लगान और करमुक्त भूमि प्रदान की जाती थी। आयगारों के काफी उत्तरदायित्व होते थे। अपने अधिकार क्षेत्र में शांति और सुरक्षा बनाए रखना उनका सर्वप्रथम उत्तरदायित्व था। इन ग्रामीण अधिकारियों की बिना जानकारी के न तो संपत्ति को स्थानांतरित किया जा सकता था और न ही दान दिया जा सकता था। भूमि की बिक्री केवल इन्हीं अधिकारियों की जानकारी से हो सकती थी। कर्णिक या एकाउंटेंट नामक आयगार भूमि की खरीद या बिक्री की लिखा-पढ़ी तथा दस्तावेजों को तैयार करता था।
राजस्व प्रशासन - विजयनगर काल में राज्य की आय के अनेक स्रोत थे, जैसे लगान, संपत्तिकर, व्यापारिक कर, व्यावसायिक कर, उद्योगों पर कर, सामाजिक और सामुदायिक कर और अर्थदंड से प्राप्त आय आदि। विजयनगर साम्राज्य में आय का सबसे बड़ा स्रोत लगान था।
भू-राजस्व व्यवस्था - विजयनगर काल में भू-राजस्व व्यवस्था बहुत व्यापक थी और भूमि को अनेक श्रेणियों में विभाजित किया गया था। भूमि मुख्यतः सिंचाईयुक्त या सूखी जमीन के रूप में वर्गीकृत की जाती थी। इस वर्गीकरण के बाद यह देखा जाता था कि इस भूमि का कोई अंश ब्राह्मणों या मंदिरों को तो दान में नहीं दिया गया है। इसके बाद भूमि पर उगाई जाने वाली फसलों के आधार पर उनका वर्गीकरण किया जाता था। वर्गीकरण के बाद गाँव में जुड़े चरागाहों आदि की जाँच की जाती थी और चरागाह पर चरवाही कर लगता था। लगान का निर्धारण भूमि की उत्पादकता और उसकी स्थिति के अनुसार किया जाता था परंतु भूमि से होने वाली पैदावार और उसकी किस्म भू-राजस्व के निर्धारण का सबसे बड़ा आधार थी। विजयनगरकाल में पूरे साम्राज्य में न तो भूमि के पैमाइश की समान व्यवस्था थी और न लगान की दरें ही समान थीं, जैसे ब्राह्मणों के स्वामित्व वाली भूमि से उपज का बीसवाँ भाग और मंदिरों की भूमि से उपज का तीसवाँ भाग लगान के रूप में लिया जाता था। इसी प्रकार विभिन्न प्रकार की भू-पतियों के लिए लगान की दरें भिन्न-भिन्न होती थीं।
अन्य विविध कर - लगान के अतिरिक्त मकान, संपत्तिकर, औद्योगिक कर जैसे अनेक करों को राज्य द्वारा वसूल किया जाता था। समकालीन अर्थव्यवस्था से संबंधित सभी वर्ग को व्यावसायिक कर देना पड़ता था। इससे गडरिये, बढ़ई, धोबी और नाई तक मुक्त नहीं थे। इसके अतिरिक्त विभिन्न समुदायों से भी कर वसूल किए जाते थे, जैसे मनोरंजन करने वालों और व्यापारिक निगमों आदि से। सामाजिक और सामुदायिक करों में 'विवाह कर' भी शामिल है। यह कर वैवाहिक समारोह के आयोजन के आकार और विवाह में खर्च किए जाने वाले धन पर निर्भर करता था। यह कर वर और कन्या दोनों पक्षों से वसूल किया जाता था पर यदि कोई व्यक्ति विधवा से विवाह करता था तो उससे और उसकी वधू दोनों से कर नहीं लिया जाता था। विजयनगर नरेशों ने विधवा विवाह को विवाह-कर से मुक्त करके इस प्रकार के विवाहों को न केवल सामाजिक मान्यता प्रदान करने का प्रयास किया बल्कि विधवाओं की दयनीय स्थिति में भी सुधार लाने की चेष्टा की। इस काल में करों की संख्या अधिक थी लेकिन करों की दरें अधिक नहीं थीं। साथ ही विजयनगर नरेश आपातस्थिति में करों को माफ करने में भी बड़े उदार थे।
समाज- विजयनगर के सामाजिक व राजनीतिक जीवन में ब्राह्मणों की स्थिति बहुत ऊँची थी। उन्हें किसी भी अपराध के लिए मत्युदंड नहीं दिया जा सकता था। ब्राह्मण विजयनगर की सेना एवं शासन व्यवस्था में अनेक ऊँचे पदों पर आसीन थे। मध्यवर्गों में चेट्टी नामक वर्ग प्रमुख था। अधिकांश व्यापार इनके हाथ में केन्द्रीत था। ये अच्छे लिपिक एवं लेखाकार्यों में दक्ष होते थे। छोटे सामाजिक समूहों में लौहार, स्वर्णकार, पीतल का काम करने वाले, बढ़ई, मूर्तिकार और जुलाहे आदि प्रमुख समुदाय थे। जबकि डोंबर, जोगी और मछुआरों आदि की सामाजिक स्थिति हेय थी। आर्थिक दष्टि से सम्पन्न एवं भू-स्वामित्व वाले वर्गों की स्थिति सम्मानजनक थी।
विजयनगर में दास-प्रथा भी प्रचलित थी। दासों का क्रय-विक्रय होता था। जो व्यक्ति ऋण-दाता को ऋण नहीं दे पाता था या दिवालिया हो जाता था, उसे अकसर ऋण-दाता का दास बनना पड़ता था। इस युग में स्त्रियों को भोग की वस्तु समझा जाता था। समकालीन स्रोतों में केवल शाही परिवार की स्त्रियों का ही विवरण प्राप्त होता है। राजपरिवार एवं सामंतों के अतिरिक्त अन्य वर्गों में एक पत्नी की प्रथा थी। मंदिरों में देवपूजा के लिए रहने वाली स्त्रियों को देवदासी कहा जाता था। इन्हें आजीविका के लिए या तो भूमि दे दी जाती थी अथवा नियमित वेतन दिया जाता था। बाल विवाह भी प्रचलित था।
राज्य बुनकरों एवं दस्तकारों जैसे छोटे समुदायों के विवादों में भी हस्तक्षेप करता था। कुछ सामाजिक अपराधियों या जाति के नियमों को तोड़ने वालों को ब्राह्मण सहित जाति-बहिष्कृत होने का भागीदार होना पड़ता था। यदि कोई व्यक्ति किसी सामाजिक अपराध का दोषी होता था तो उसकी सम्पत्ति या भूमि राज्य के निर्देश पर छीन ली जाती थी। इसी प्रकार मंदिरों की भूमि पर बलपूर्वक अधिकार करने, गुरु, पत्नी या ब्राह्मण की हत्या करने, पुण्य की भावना से प्रेरित निर्माण कार्यों को नष्ट करने आदि अपराधों के लिए दंड दिए जाते थे। विजयनगर शासक सामाजिक एकता बनाए रखने का हर संभव प्रयास करते थे।
विजयनगर राज्य एक शक्तिशाली राज्य था जिसमें एक सुव्यवस्थित प्रशासनिक और सैन्य प्रणाली थी। इसने दक्षिण भारत में हिंदू संस्कृति को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। साथ ही इसने महत्वपूर्ण आर्थिक समृद्धि और सांस्कृतिक उत्कर्ष भी देखा।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें
Please do not enter any spam link in the comment box