ऋग्वैदिक काल की अर्थव्यवस्था
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ऋग्वेद में गाय और सांड की इतनी चर्चा है कि ऋगवैदिक आर्यों को मुख्य रूप से पशुचारक कहा जाता है। गाय सबसे उत्तम धन मानी जाती थी। पुरोहितो को दी जाने वाली दक्षिणा में गाय दी जाती थी। ऋग्वेद में रथ बनाने वाले, बैलगाड़ी बनाने वाले, बढ़ाई, धातु के कारीगर, रंगाई करने वाले, धनुष बनाने वाले तथा चटाई बनाने वालों की चर्चा की गई है।
एक समुदाय दूसरे समुदाय से उपहारों का आदान-प्रदान करते थे। यज्ञ और अनुष्ठानों के बदले पुरोहित दान और दक्षिणा लेता था। श्रगवैदिक ग्रंथों में वाणिज्य और व्यापार काफी गौंण प्रतीत होता है। विनिमय वस्तु पर आधारित होता था और ऐसी अर्थव्यवस्था में पशुधन सबसे महत्वपूर्ण आर्थिक इकाई था। पण, धन, राई इत्यादि युद्ध में जीते हुए धन के नाम दिए गए हैं, जो धन का एक प्रमुख स्रोत प्रतीत होता है।
व्यक्तिगत संपत्ति अथवा व्यक्तिगत स्वामित्व की अवधारणा पूर्ण रूप से विकसित नहीं हुई थी। भूमि के क्रय-विक्रय अथवा उन को गिरवी रखने का प्रचलन नहीं था। श्रगवैदिक लोग प्रार्थनाओं में घर, घोड़े, सोना, उपजाऊ खेत, खाद्य पदार्थ, संपत्ति, जेवर, रथ, यश और संतान की कामना करते थे। समाज में दास प्रथा मौजूद थी। एक दास को, पुरुष अथवा महिला, किसी प्रकार का अधिकार नहीं था। वह अपने स्वामी की निजी संपत्ति की तरह था, जिससे वह किसी भी प्रकार की सेवा ले सकता था। युद्ध में पराजित होने अथवा श्रणी होने की अवस्था में दासता स्वीकार करनी पड़ती थी।
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