बुकर टी. वाशिंगटन और नागरिक अधिकार आंदोलन

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बुकर टी. वाशिंगटन और नागरिक अधिकार आंदोलन अफ्रीकी-अमेरिकी नागरिक अधिकार आंदोलन (1955-1968) का उद्देश्य अफ्रीकी अमेरिकी लोगों के खिलाफ नस्लिय भेदभाव को गैर कानूनी घोषित करना और दक्षिण अमेरिका में मतदान अधिकार को पुन: स्थापित करना था। गृहयुद्ध के बाद अश्वेतों को गुलामी से मुक्त कर दिया गया था लेकिन उसके बावजूद भी उनकी स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया। पुनर्निर्माण और द्वितीय विश्वयुद्ध के बीच अश्वेतों की स्थिति ओर खराब हो गई। इस दौरान बुकर टी. वाशिंगटन इनके लिए एक प्रभावशाली नेता बनकर उभरे। वाशिंगटन ने अफ्रीकी-अमेरिकियों के लिए व्यावसायिक शिक्षा और औद्योगिक शिक्षा को बढ़ावा दिया ताकि वह आर्थिक रूप से संपन्न और कुशल बन सके। पृषठभूमि दक्षिण अमेरिका में अश्वेतों ने संघर्ष कर अपने आपको दासता मुक्त कराया। अश्वेतों ने अपनी संस्थाएं बनाई जिससे अश्वेत राष्ट्रवाद का उदय हुआ। नेशनल नीग्रो कन्वेंशन जैसे कई नीग्रो संगठन बने। गृहयुद्ध के दौरान अफ्रीकी-अमेरिकी नेताओं के बीच कट्टरपंथी विचारों का विकास हुआ। बिशप एम. टर्नर, मार्टिन आर. डेलानी और अलेक्ज़ेंडर क्रूमेल ने अश्वेतों के लिए एक स्वायत्त राज्य की...

उम्मैया से अब्बासी खिलाफत तक का काल

मोहम्मद पैगंबर की मृत्यु के बाद से ही अरब में उत्तराधिकार के लिए संघर्ष निरंतर चलता रहा। मुस्लिम इतिहासलेखन में पहले चार खलीफा अबु बक्र, उमर, उस्मान और अली का जिक्र "धर्मनिष्ठ खलीफा" के रूप में किया जाता है। इन तीनों के बाद अरब के विभिन्न क्षेत्रों में सरदारों ने स्वयं को खलीफा घोषित किया। इसी प्रकार उमैया कुल के लोगों ने भी खुद को खलीफा माना। 661 और 750 के बीच सभी खलीफा उमैया कुल के हुए। इसे उमैया खिलाफत का काल माना जाता है। उमैया खलीफों ने खुद को धार्मिक नेताओं के रूप में पेश किया। लेकिन इनकी शक्ति सत्ता के बल पर टिकी थी। इन्होंने वंशागत राजतंत्र की स्थापना की। उमैया कुल के मुआविया ने 661 से 680 तक शासन किया। इनका उत्तराधिकारी "यजीद" बना।

अजीद के उत्तराधिकारी बनने के बाद शियाओं ने एक बार फिर अली के परिवार का दावा पेश किया। इसके चलते इन दोनों के बीच युद्ध हुआ, जिसमें अली का बेटा हुसैन मारा गया। यजीद के शासनकाल में ढेर सारे विद्रोह हुए। इसे बमुश्किल ही स्थिर होने का समय मिला। 683 ई• में यजीद की भी मौत हो गई। इसके बाद इसका बेटा खलीफा बना लेकिन वह थोड़े समय बाद चल बसा।

684 ईसवी से अरब साम्राज्य एक लंबे गृहयुद्ध में उलझ गया। उमैया कुल के प्रमुख विरोधी मक्का और मदीना के पुराने मुस्लिम परिवार थे। मक्का और मदीना का अलगाव बढ़ने लगा और उसने विद्रोह का रूप ले लिया। इसका नेतृत्व "इब्न जुबैर" ने किया। 684 ई• में इब्न जुबैर को नया खलीफा घोषित किया गया और "मदीना" को राजधानी बनाया गया। अरब के कुछ इलाकों पर इब्न जुबैर का नियंत्रण था बाकी पर "खराजिओ" का कब्जा। अरब साम्राज्य तीन संघर्षरत गुटों इब्ने जुबैर, बनी उमैया और खराजी में विभाजित था।

इसी बीच उमैया कुल का नेतृत्व कुल की एक अन्य शाखा "मरवान" परिवार के हाथों में आ गई। 684 ई• में मरवान ने मर्ज राहत के युद्ध में इब्न जुबैर को हटा दिया ताकि सीरिया हासिल किया जा सके। मरवान का निधन 685 में हुआ। इसका उत्तराधिकारी अब्द अल -मलिक (685-705 ई•) हुआ। इसने उमैया राज्य का पुनर्निर्माण किया और साम्राज्य की सरहदें बढ़ाईं। 691 तक सारा इराक अब्द अल-मलिक के पक्ष में आ गया। 692 में मक्का और मदीना पर कब्जा कर लिया गया।

इसके शासनकाल में खिलाफत पूरी तरह राजतंत्र में बदल गया। खलीफा के पास सर्वोच्च प्राधिकार था। अब्द अल-मलिक ने साम्राज्य के प्रशासन के लिए एक नौकरशाही विकसित की तथा सेनाओं को पुनर्गठित कर एक पेशेवर और नियमित सेना बनाई। इसने प्रशासन की भाषा अरबी को रखा। इसने सिक्के चलवाए जिस पर आलेख खुदा होता था। इसके काल में भवन निर्माण पर भी जोर दिया गया।

स्थापत्य के क्षेत्र में मस्जिद के विशाल गुंबद ने स्थापत्य कला में एक आयाम जोड़ा और यह इस्लामिक स्थापत्य कला का एक अभिन्न अंग बन गया। उमैया सत्ता मुख्य रूप से सीरिया के समर्थन पर आधारित थी। सीरिया अर्थव्यवस्था से प्राप्त अधिशेष ने उमैया शासकों को अपने शासन के विस्तार के लिए संसाधन उपलब्ध कराएं।

सीरिया और इराक दोनों जगह में अरबों की बड़ी आबादी थी। अरब बैंजंतियाई और सासनी क्षेत्रों में भी बसे। इस्लाम को अरब कबीलों का मजहब माना गया। इस्लाम ग्रहण करना व्यक्तिगत नहीं बल्कि कबीलो का मामला माना गया। अधिशेष के दोहन के लिए अरब शासकों ने अभिजात वर्गों के साथ अच्छे संबंध स्थापित किए। इराक और ईरान में जमीदारा और गांव के प्रमुख की एक जमात थी, जो गांव वालों से भू-कर वसूल कर अरब शासकों को देते थे। आठवीं सदी की शुरुआत में जिन गुलामों ने इस्लाम कबूल कर लिया, उन्हें गुलामी से मुक्त कर दिया गया। इन्हें मुस्लिम समाज में निचला दर्जा दिया गया।

अरबों के अनेक हिस्सों के बीच मरवानी उम्मावी शासक अलोकप्रिय थे। लोग शासक को निरंकुश और भ्रष्ट मानते थे। राज्य सैनिक रूप से कमजोर पड़ गया था और उम्मावी शासकों के लिए दूर-दराज के इलाकों पर नियंत्रण बनाए रखना कठिन हो गया। कमांडरो ने इसका फायदा उठाकर अपनी-अपनी जगह पर खुद को मजबूत कर लिया। सासनी इलाकों में अरब सौदागर, सरकारी अधिकारी और भू स्वामियों की नई जमात उभरकर सामने आई, जो सत्ता में थोड़ी हिस्सेदारी चाहती थी।

"हाशमी" और "अलवी" कबीले उम्मावी शासकों का विरोध निरंतर करते रहे। 8 वीं सदी के मध्य में साम्राज्य के अंदर उम्मावी शासको का विरोध होने लगा। इसी दिशा में 740 के दशक में उम्मावी शासक के खिलाफ एक संगठित आंदोलन वजूद में आया। इसका नेतृत्व हाशमीयों ने किया। हाशमी की एक शाखा अब्बासियों ने आंदोलन को मार्ग निर्देश दिया।

अब्बासीयों ने इसके लिए अलवीयों का सहारा लिया। इन्होंने गोलमोल ढंग से यह संकेत दिया कि अलवियों के बीच से अगला खलीफा बनाया जाएगा। लेकिन बाद में साफ हो गया कि अलवियों को सत्ता सौंपने का कोई इरादा नहीं था।

उम्मावी शासन का अंत 749-50 में हुआ। इसके बाद अब्बासी नेता "अबूल अब्बास अल-सफ्फाह" को नया खलीफा घोषित किया गया। इसके साथ ही अब्बासियों के 500 साल के लंबे शासन की शुरुआत हुई। अब्बासी खिलाफत 1258 तक चली। इनकी राजनीतिक शक्ति का केंद्र इराक था। इराक की अर्थव्यवस्था शाही प्रशासन चलाने के लिए जरूरी संसाधन मुहैया कराती थी। अल सफ्फाह की मृत्यु 754 में हुई। "मार्शल हाजसन" ने इस्लामी इतिहास के अपने काल निर्धारण में मरवानी उम्मावी युग और शुरुआती अब्बासी युग (684-900) को "उत्कृष्ट खिलाफत" बताया जब्की उसके पहले के काल(632-683) को "आदि खिलाफत" करार दिया। शुरुआती अब्बासी खलीफों में "अल मंसूर", "हारून अल रशीद" और "अल-मामून" सर्वश्रेष्ठ थे।

उमैया से अब्बासी खिलाफत तक का काल सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक क्षेत्र में अस्थिरता का काल माना जा सकता है। इस काल के दौरान कोई भी शासक स्थाई रूप से लंबे समय तक अपनी सत्ता कायम रखने में असफल रहा। खलीफाओं के निरंतर बदलते रहने के कारण उनके द्वारा किए जाने वाले सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक बदलावों में भी निरंतर परिवर्तन आते रहे। किंतु इन खलीफाओं का इस्लाम जगत में किए गए सामाजिक परिवर्तनों में महत्वपूर्ण योगदान रहा है, जो आज भी जारी है। 

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