सातवाहन साम्राज्य का विस्तार
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सातवाहन दक्कन में केंद्रित एक शक्तिशाली राजवंश था। मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद दक्कन और मध्य भारत में सातवाहन मौर्यो के उत्तराधिकारी हुए। सातवाहनों को पुराणों में "आंध्र" के रूप में वर्णित किया गया है। सातवाहन राज्य का संस्थापक "सिमुक" था, उसका उत्तराधिकारी उसका भाई "कन्ह" हुआ। राजवंश का तीसरा राजा "सतकर्णीं " हुआ। सतकर्णीं के शासनकाल में सातवाहन साम्राज्य अपनी पराकाष्ठा पर पहुंचा। इतिहासकारों में सात वाहनों के कालक्रम को लेकर मतभेद है। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि सातवाहनों का शासन 271 इ•पू• से शुरू हुआ, जबकि कुछ इतिहासकार इसे लगभग 30 ई• पू• मानते हैं। किंतु इनके उदय की अधिक संभावना पहले शताब्दी ई•पू• के मध्य में मानी जाती है। कुछ पुराणों के अनुसार इन्होंने कुल मिलाकर 300 वर्षों तक शासन किया।
सातवाहनों के सबसे पुराने अभिलेख ई•पू• पहले सदी के हैं। अपनी सत्ता का विस्तार उन्होंने कर्नाटक और आंध्र पर किया। इनके सबसे बड़े प्रतिद्वंदी शकों ने इन्हें महाराष्ट्र और पश्चिम भारत के अंदर उनके राज्य क्षेत्र से बेदखल कर दिया। लेकिन सातवाहन वंश के ऐश्वर्य को गौतमीपुत्र सातकर्णि (106-130 ई•) फिर वापस लाया। यह अपने आपको ब्राह्मण मानते थे। इसकी उपलब्धियों को इसकी माता "गौतमी बालश्री" के द्वारा निर्गत किए गए नासिक अभिलेखों में वर्णित किया गया है।
सातवाहनों का साम्राज्य कई बड़े राजनीतिक विभागों में बंटा था, जिनको "आहार" कहा जाता था। सातवाहनों के राज्यकर्मियों में आमात्य, महामात्र, महासेनापति तथा लेखाकार जैसे नाम आते थे। "ग्रामीको" के द्वारा उस गांव का प्रशासन देखा जाता था। इतिहास की दृष्टि से एक रोचक तथ्य यह है कि सातवाहन शासको द्वारा दिए जाने वाले भूमि दान राजस्व एवं अन्य करो से मुक्त होते थे।
सातवाहन काल के लोग लोहे का इस्तेमाल और खेती दोनों से परिचित थे। दक्कन से हम कुछ फावड़े पाते हैं जिनमें मुठ अच्छी तरह और पूरी तरह लग गए थे। इसके अलावा हंसीये, कुदाले, हल के फाल, कुल्हाड़ी, उस्तरे आदि सातवाहन स्थलों से पाए गए हैं। करीमनगर में लोहार की एक दुकान मिली है, सातवाहनों ने यहां के लोहे का उपयोग किया होगा। सातवाहनों ने सोने का प्रयोग बहुमूल्य धातु के रूप में किया होगा क्योंकि उन्होंने सोने के सिक्के नहीं चलाएं। इन्होंने तांबे और कांसे की मुद्राएं चलाईं।
दक्कन की खेती में चावलों का भंडार था तथा वह कपास भी उगाते थे। प्लिनी के अनुसार राज्य की सेना में 1,00,000 पैदल सिपाही 2,000 घुड़सवार और 1,000 हाथी थे। इससे पता चलता है कि गांव मे घनी आबादी थी। वह इतनी बड़ी सेना के पोषण के लायक अनाज पैदा करती थे। दक्कन के लोगों ने सिक्के, पक्की ईंट, छल्लेदार कुआं, लेखन कला आदि का प्रयोग सिखा। इस क्षेत्र में उत्खनन में भारी संख्या में रोमन और सतवाहन सिक्के मिले हैं जो बढ़ते हुए व्यापार का संकेत देते हैं।
शकों और सातवाहनों के बीच व्यापारिक संबंध स्थापित होने लगे, जिससे शकों को ब्राह्मण समाज में प्रवेश लेना आसान हो गया। इसी प्रकार बौद्ध भिक्षुओं ने जनजाति लोगों का बौध्दीकरण किया। भिक्षुओं को भूमि अनुदान देकर प्रेरित किया गया वे दक्कन में लोगों के बीच बसने लगे। व्यापारी वर्ग बौद्ध भिक्षुओं की सहायता करते थे, क्योंकि आरंभिक बौद्ध स्थल व्यापारिक मार्गों पर ही मिल है। ब्राह्मणों को भूमि अनुदान या जागीर देने वाले प्रथम शासक सातवाहन ही थे।
शिल्प और वाणिज्य में हुई प्रगति के फलस्वरूप इस काल में अनेक व्यवसाई और शिल्पी सामने आए। व्यावसायिक वर्ग अपने-अपने नगर का नाम अपने नाम से जोड़ने लगे। इन दोनों ने बौध्दों को दान दिए। शिल्पीयों में गंधिको का उल्लेख दानकर्ताओं के रूप में बार-बार आया है। गंधिक वे शिल्प थे जो इत्र बनाते थे। सातवाहनों के बारे में एक दिलचस्प जानकारी उनके पारिवारिक ढांचे से संबंधित है।
उत्तर भारत समाज में पिता का महत्व माता से अधिक था, किंतु सातवाहनों में हमें मातृतंत्रात्मक ढांचे का आभास मिलता है। यहां राजाओं के नाम उनकी माताओं के नाम पर रखने की प्रथा थी। गौतमीपुत्र, वासिष्ठीपुत्र जैसे नाम बताते हैं कि समाज में माता की प्रतिष्ठा अधिक थी। किंतु राजकुल पितृतंत्रात्मक था क्योंकि राजसिंहासन का उत्तराधिकारी पुत्र ही होता था।
सातवाहन राजाओं ने धर्मशास्त्र के आदर्शों पर चलने का प्रयास किया। राजा धर्म का संरक्षक होता था। सातवाहन राजाओं को इस प्रकार दिखलाया जाता था जैसे उसमें राम, भीम, केशव, अर्जुन आदि प्राचीन देवताओं के गुण विघमान हो। स्पष्ट है कि ऐसा राजा में देवत्व सिद्ध करने के लिए किया जाता होगा। ब्राह्मण और बौद्ध भिक्षुओं को कर मुक्त ग्रामदान देने की प्रथा सातवाहनो ने आरंभ की। ग्रामदानों को राजपुरुषों और सैनिकों के राजकीय अधिकारों के हस्तक्षेप से मुक्त कर दिया जाता था। दान देने से यह क्षेत्र सातवाहन राज्य के भीतर छोटे-छोटे स्वतंत्र दीप जैसे बन गए।
सातवाहन राज्य में सामंतों की तीन श्रेणियां थी। पहली श्रेणी के सामंत "राजा" कहलाता था और उसे सिक्का ढालने का अधिकार प्राप्त था। द्वितीय श्रेणी का "महाभोज" कहलाता था और तृतीय श्रेणी का "सेनापति"। इन सामंतों को अपने-अपने इलाकों में कुछ प्रभुत्व प्राप्त था। सातवाहन राजा ब्राह्मण थे। राजा तथा रानियों ने आश्वमेघ, वाजपेय आदि वैदिक यज्ञ भी किए। यह कृष्ण, वासुदेव जैसे वैष्णव देवताओं के उपासक थे और उन्होंने ब्राह्मणों को प्रचुर दक्षिणा दी।
शासकों ने भिक्षुओं को ग्रामदान देकर बौद्ध धर्म को आगे बढ़ाया। इनके राज्य में बौद्ध धर्म के महायान संप्रदाय का बोलबाला था। महाराष्ट्र में पश्चिम दक्कन के नासिक और जूनार क्षेत्रों में व्यापारियों का संरक्षण पाकर बौद्ध धर्म फूला-फला। सातवाहन काल में पश्चिम दक्कन और महाराष्ट्र में चट्टानों को काट-काटकर "चैत्य" और "विहार" बनाए गए।
चैत्य बौध्दों के मंदिर का काम करता था और विहार निवास का। चैत्य पायो पर खड़ा बड़ा हॉल जैसा होता था, और विहार में एक केंद्रीय शाला होती थी जिसमें सामने के बरामदे की और एक द्वार होता था। विहार चैत्यों के पास बनाए गए। उनका उपयोग वर्षा काल में बौध्दो के निवास के लिए होता था। शिलाखंडीय वास्तुकला सातवाहन काल में ही पाई जाती है। यह संरचनाएं अधिकतर स्तूप के रूप में है। स्तूप गोल स्तंभकार ढांचा है जो बुद्ध के किसी अवशेष के ऊपर खड़ा किया जाता था।
सातवाहनों की राजकीय भाषा प्राकृत थी। सभी अभिलेख इसी भाषा में और ब्राह्मी लिपि में लिखे गए हैं। राजाओं ने प्राकृत में पुस्तकें भी लिखी। "गाथासतसई" सातवाहन राजा की रचना बताई जाती।
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