दक्षिण भारत में शहरीकरण (750-1200 ई• तक)
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पूर्व मध्ययुग, दक्षिण भारत में शहरीकरण का दूसरा महत्वपूर्ण काल था। दक्षिण भारत में नगरीकरण का विकास मुख्य रूप से मंदिरों के आसपास हुआ। इतिहासकार "आर.एस.शर्मा" का मानना है कि इस काल में छोटे पैमाने पर नगरों का पुनरुत्थान देखा गया तथा 14वी सदी में नगरीकरण की प्रक्रिया पूर्ण रूप से स्थापित हो गई। इन्होंने नगरीय उत्थान के पीछे का कारण व्यावसायिक फसलों की खेती में वृद्धि, सिंचाई की उन्नत तकनीक, उपभोक्ता द्वारा वस्तुओं की बढ़ती हुई मांग, जहाजरानी का विकास तथा आंतरिक व्यापार में प्रगति और इनसे विदेशी व्यापार से हुई वृद्धि जैसे कारकों को महत्वपूर्ण बताया है। इतिहासकार "बी.डी चट्टोपाध्याय" के अनुसार पूर्व मध्ययुग में कुछ नगरीय केंद्रों का पतन हुआ किंतु अधिकांश नगर अस्तित्व में बने रहे और नवीन नगरीय केंद्रों का उदय भी हुआ।
दक्षिण भारत में बाजार और वाणिज्यक केंद्रों को "नगरम" कहा जाता था। यहां स्थानीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उत्पादन और व्यापार किया जाता था। यह कृषि उत्पादों के व्यापार के केंद्र भी थे। नगरम में व्यापारियों के निगम होते थे, जिन्हें "नगरटार" कहा जाता था।
चोल काल में नगरों के बढ़ते महत्व का अनुमान लगाया जा सकता है। इस काल में विशिष्ट श्रेणी संगठनों का उद्भव हुआ, जैसे - "सलिय नगरम" जो वस्त्र व्यापार से जुड़े थे; "शंकरपदी नगरम" जो घी एवं तेल आपूर्तिकर्ताओं का संगठन था; "पारग नगरम" जो सामुद्री व्यापारियों का संगठन था; तथा "वनिय नगरम" जो तेल व्यापारियों का एक संगठन था। शिल्प तकनीक में भी महत्वपूर्ण विकास हुआ। हाथ से तेल पेरने वाले मिलो का स्थान बैलों से तेल पेरने वाले मिलों ने ले लिया। वस्त्र उद्योग में भी नई तकनीकों की शुरुआत हुई। "कांचीपुरम" प्रारंभिक ऐतिहासिक काल से सूती वस्त्र उद्योग का सर्वाधिक महत्वपूर्ण केंद्र था।
दक्षिण भारत में नगरों, शासकों तथा मंदिरों के बीच एक घनिष्ठ संबंध था। पल्लव काल के अंतिम चरण और चोल काल के प्रारंभिक चरण में मंदिरों को संरक्षण दिया जाने लगा। चोल शासकों ने व्यापक स्तर पर मंदिरों का निर्माण करवाया तथा प्राचीन मंदिरों के विस्तृत पुनरुद्धार की परियोजनाएं शुरू की। "वृहदेश्वर" मंदिर नगर के केंद्र में स्थित मुख्य आकर्षण बना। इस मंदिर से सटा इलाका नगर का केंद्रीय हिस्सा था, जिसमें कुलीन और पुरोहित वर्ग निवास करते थे। इस केंद्रीय हिस्से से सटा इलाका नगर का बाहरी केंद्रीय हिस्सा था, जहां व्यापारी वर्ग जैसे प्रमुख नगरीय समुदाय निवास करते थे।
नगर में चार बाजार थे। मंदिर में घी, दूध तथा फूलों की आवश्यकता थी तथा साथ ही पुरोहित, देवदासी, संगीतज्ञ, धोबी तथा चौकीदार जैसी सेवाओं की मांग भी थी। शाही परिवार में हुए जन्मोत्सवों का आयोजन मंदिर परिसर में कराया जाता था। राजा तथा शाही परिवारों के द्वारा मंदिर में भव्य अनुदान दिया जाता था।
वृहदेश्वर मंदिर एक विशाल भवन निर्माण परियोजना थी। चोल राज्य के विभिन्न हिस्सों से 600 कर्मचारी मंदिर की सेवा में नियुक्त किए गए थे। इसके रखरखाव के लिए दूर-दूर के गांवों से राजस्व लिया जाता था। गांवों की ब्राह्मण सभाओं द्वारा इसके वित्तीय संसाधनों को संचालित किया जाता था। किसान, गड़ेरिया और शिल्पकार इसकी कई मांगों की आपूर्ति में संलग्न थे।
इस काल के दूसरे प्रसिद्ध दक्षिण भारतीय नगर में "कुडमुक्क" तथा "पलाईयराई" दो लगभग सटे हुए केंद्रों का नाम आता है। कुडमुक्क एक धार्मिक केंद्र था और चोलो की राजकीय संरचनाएं पलाईयराई में स्थिति थी। कुडमुक्क में अनेक मंदिर बनाए गए। शाही परिवार के सदस्यों, अधिकारियों, व्यापारियों, शिल्पकार तथा अन्य नागरिकों के अनुदानों से मंदिर परिसरों का शीघ्र विकास होने लगा। कुडमुक्क प्रमुख व्यापार मार्गों के केंद्र में था। यह क्षेत्र पान-पत्ता और सुपारी की उन्नत फसल का क्षेत्र था, साथ में यह धातु, शिल्प और वस्त्र उद्योग का भी केंद्र था।
चोलो का एक टकसाल पलाईयराई मैं स्थित था, किंतु इसे ख्याति एक प्रमुख प्रशासनिक केंद्र और आवासीय राजधानी के रूप में मिली। राजनीतिक केंद्र, उत्पादन केंद्र तथा धार्मिक गतिविधियों के केंद्र के रूप में मदुरई और कांचीपुरम को रेखांकित की जा सकता है। इस काल में इनका आकार व्यापक हो गया और इनकी प्रसिद्धि बढी। कांचीपुरम वस्त्र उद्योग और वाणिज्य का प्रसिद्ध केंद्र था, जिसे अभिलेखों में 'मानगरम' (बड़ा नगर) कहा गया है। इस नगर का मुख्य बंदरगाह "मामलपुरम" था। अपनी आर्थिक भूमिका के साथ-साथ, कांचीपुरम का सांस्कृतिक महत्व भी था, जो बौद्ध धर्म, जैन धर्म, वैष्णव धर्म और शैव धर्म का केंद्र बन चुका था।
पूर्व मध्ययुगीन नगरिय घटनाक्रम जाति व्यवस्था में दिखाई देता है। कर्नाटक में गरवारे जैसे व्यवसाय जातियों का उदय हो रहा था। यह 10वीं -11वीं शताब्दी में दक्षिण में आकर बसने वाले व्यापारी थे। "गौवड़ा" और "हेगड़े" जैसे व्यावसायिक समुदायों का जातियों में रूपांतरण हो रहा था।
चोल शासकों ने अनेक प्रकार से नगरीकरण को प्रोत्साहित किया। शासकों ने नगरों को सुरक्षा प्रदान की, जिनका व्यापार के महत्वपूर्ण केंद्रों के रूप में विकास हुआ। इस काल में नगरीकरण का विकास मुख्य रूप से मंदिरों के आसपास हुआ। पुरोहित, कुलीन वर्ग तथा व्यापारियों के आसपास निवास स्थान होने से नगरीकरण की प्रक्रिया को बढ़ावा मिला। साथ-साथ इनके प्रोत्साहन से ही मंदिर नगर के केंद्र के रूप में उभर कर सामने आए। इसके रखरखाव के लिए दूरदराज के ग्रामीण इलाकों से राजस्व वसूला जाता था। इस नगरीकरण की प्रक्रिया में कुछ जनजातियां जाति व्यवस्था के अंतर्गत उभर कर सामने आई।
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