मार्कस गार्वे / UNIA / नागरिक अधिकार आंदोलन

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मार्कस गार्वे / UNIA / नागरिक अधिकार आंदोलन मार्कस गार्वे का जन्म 17 अगस्त, 1887 को जमैका के सेंट एनबे में हुआ था। 14 साल की उम्र में वे किंग्स्टन चले गए, जहाँ उन्होंने एक प्रिंटर चालक के रूप में काम किया और मजदूरों की दयनीय जीवन स्थिति से परिचित हुए। जल्द ही उन्होंने खुद को समाज सुधारको में शामिल कर लिया। गार्वे ने 1907 में जमैका में प्रिंटर्स यूनियन हड़ताल में भाग लिया और 'द वॉचमैन' नामक अखबार स्थापित करने में मदद की। जब वे अपनी परियोजनाओं के लिए धन जुटाने के लिए द्वीप छोड़कर गए, तो उन्होंने मध्य और दक्षिण अमेरिका का दौरा किया और पाया की बड़े पैमाने पर अश्वेत लोग भेदभाव के शिकार थे। गार्वे ने पनामा नहर क्षेत्र का दौरा किया और उन परिस्थितियों को देखा जिसके तहत वेस्ट इंडियन लोग रहते और काम करते थे। वे इक्वाडोर, निकारागुआ, होंडुरास, कोलंबिया और वेनेजुएला भी गए और देखा की हर जगह अश्वेतों को भारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा था। मध्य अमेरिका की इस स्थिति से दुखी होकर गार्वे वापस जमैका लौट आए और जमैका की औपनिवेशिक सरकार से मध्य अमेरिका में वेस्ट इंडियन श्रमिकों की ...

पूर्व मध्यकाल में सामाजिक परिवर्तन और कृषि

राजकीय भूमि अनुदान मध्ययुगीन भारतीय इतिहास के प्रमुख स्रोत रहे हैं। 600 से 1200 ई• के बीच शासकों के द्वारा ब्राह्मणों को दिए जाने वाले अनुदानों में अत्यधिक बढ़ोतरी हुई। ब्राह्मणों के द्वारा भूमि पर नियंत्रण महत्वपूर्ण रूप से विस्तृत हुआ। भूमि पर ब्राह्मणों के बढ़ते नियंत्रण के फलस्वरुप पूर्व मध्ययुगीन दक्षिण भारत में सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन आया। अधिकांश इतिहासकारों ने पूर्व मध्ययुग को कृषि विस्तार के एक महत्वपूर्ण काल के रूप में देखा है। इस प्रक्रिया में भूमि अनुदान के महत्व को इतिहासकारों ने स्वीकार किया है। ब्रह्मदेयो (ब्राह्मणों को अनुदान में दी जाने वाली भूमि) की स्थापना से ग्रामीण समुदाय के विभिन्न घटकों पर जैसे कृषको, बटाईदारो अथवा भूमिहीन कृषि मजदूरों पर प्रभाव पड़ा।

सामाजिक परिवर्तन:- ब्राह्मणों को दिए जाने वाले भूमि अनुदानों से राजनीतिक विकेंद्रीकरण हुआ। भूमि अनुदानो से भूमि पर विशेषअधिकारों का हस्तांतरण हो रहा था। राज्य के अधिकारी या उसके सैनिक ब्रह्मदेय अनुदान में हस्तक्षेप नहीं कर सकते थे। इससे इस बात का पता चलता है कि ग्रामीण समुदाय में ब्राह्मणों के पास विशेषाधिकार हस्तांतरित हो गया था। 

ब्राह्मणों को अपराधिक कर्मों के के आधार पर आर्थिक दंड वसूलने का अधिकार था, तथा इन्हीं अपराधों के आरोपी होने पर इन्हें दंड से मुक्ति पाने का अधिकार प्राप्त था। ब्राह्मण अनुदान प्राप्तकर्ताओं ने ग्रामीण समुदायों को अधिनस्थ बनाया और उनका शोषण किया। कृषि संबंधों में नवीन तत्वों का प्रवेश हुआ। बाहर से कृषि मजदूरों से कार्य कराने का प्रचलन शुरू किया। भूमि अनुदानो के साथ राजस्व का हिस्सा भी अनुदान प्राप्तकर्ताओं के कोष में जा रहा था। जल संसाधन, वृक्ष, तथा जंगल का स्वामित्व भी इनके हाथ में आ गया था।

ग्रामीण स्तर पर ब्राह्मण और ग्रामीण समूह के बीच वर्चस्व और अधीनस्थता का संबंध स्थापित हो चुका था। राज्य के शोषण की अपेक्षा ब्राह्मण वर्ग का शोषण आम कृषकों को अधिक प्रभावित कर रहा था। ग्रामीण स्तर पर सामाजिक और आर्थिक विभाजन गहराते जा रहे थे। बढ़ते हुए ग्रामीण विभाजन की वजह से सामाजिक-आर्थिक संघर्ष की संभावना भी बढ़ने लगी।

इस प्रक्रिया के अंतर्गत जनजातियों का कृषक एवं जाति के रूप में रूपांतरण हो रहा था। भूमि अनुदान ने ग्रामीण क्षेत्रों में ब्राह्मणों के एक वर्ग की स्थिति को काफी मजबूत कर दिया। जनजातीय समुदाय के लोगों ने कृषि कार्य में अपना सहयोग देना शुरू कर दिया। कई जनजातियां अब जाति व्यवस्था के दायरे में आ गई। जैसे भूमि से जुड़े क्रियाकलापों में बड़े पैमाने पर लेखाकारों की आवश्यकता पड़ रही थी और इस प्रकार इनसे जुड़ा कायस्थ समुदाय, एक जाति के रूप में रूपांतरित हो गया।

कृषि व्यवस्था में विस्तार:- इस काल के कृषि के विकास की जानकारी हमें "कृषि-पराशर" ग्रंथ जिसे 950 और 1100 ई• के बीच बंगाल क्षेत्र में लिपिबद्ध किया गया, से मिलती है। इस कल के लोगों को वर्षा का ज्ञान, मौसम, तथा वायु की दिशा का ज्ञान हो चुका था। कृषकों को खाद के महत्व, जो धान के अत्याधिक उपज के लिए अनिवार्य है तथा चावल की खेती के लिए उपयुक्त विधियों का ज्ञान था।

कृषि-पराशर से पता चलता है कि कृषकों को बीजारोपण की अवधी भी ज्ञात थी। इस कार्य के लिए वैशाख (अप्रैल-मई) को सबसे उपयुक्त माना गया। किंतु धान के रोपण के लिए माई-जुलाई को श्रेष्ठ माना जाता था। बीज रोपण के बाद धान की खेती को पाटने के लिए "सीढ़ीनुमा यंत्र" का उपयोग किया जाता था। गो-पर्व के दौरान गौ पूजन से वर्ष भर के लिए मवेशियों का अच्छा स्वास्थ्य सुनिश्चित हो जाता था। कृषि कार्यों से जुड़े देवताओं में प्रजापति, सची, इंद्र, मरुत तथा वसुधा को विशेष स्थान दिया गया।

भूमि अनुदान में भूमि के सभी आयामों का विस्तृत विवरण उपलब्ध है। जिनमें भूमि की सतह की माप तथा अनाज की तौल, दोनों को दर्ज किया जाता था और धान की फसल के लिए ही इनका उपयोग होता था। वार्षिक राजस्व आय को लिपिबद्ध किया गया। इस प्रकार राज्य के द्वारा राजस्व का विस्तृत लेखा-जोखा रखा जा रहा था। 

कृषि कार्य और ग्रामीण बस्तियां ब्रह्मपुत्र तथा नदी घाटियों में केंद्रित थी। नदी-नालों के निरंतर उल्लेख से यह पता चलता है कि ग्रामीण बस्तियां, नदिय स्रोतों के आस पास ही स्थित थी। नदियों और स्थानीय धाराओं के अलावा गांवों की सीमाओं को खेत, बांध, तालाब, वृक्ष, सड़क तथा अन्य गांवों के द्वारा इंगित किया गया था। निवास क्षेत्र फल के वृक्षों से घिरे होते थे, जिनके चारों और खेती होती थी। जल को रोकने और खेतों तक पहुंचाने के लिए बांधों का निर्माण किया गया। 9 वी सदी के बाद धान की खेती पर आश्रित कृषि बस्तियों का विस्तार हुआ, जिसने जनसंख्या वृद्धि को बढ़ावा दिया।

राजस्थान में कृषि के विस्तार में सिंचाई व्यवस्था की महत्वपूर्ण भूमिका थी। तालाब और कुप, कृत्रिम, सिंचाई के प्रमुख साधन थे, जहां पानी की सर्वाधिक कमी थी। राजस्थान में "पर्शियन व्हील" का प्रयोग किया जाता था, जिसके प्रयोग के विषय में विवाद है। 

12 वीं शताब्दी के बाद शासकों, कुलीन वर्ग तथा व्यापारियों के द्वारा बड़ी संख्या में तालाब और कूप का निर्माण कराया गया। सिंचाई के साधनों के विस्तार से वर्ष में दो फसलों को उपजाने में सहायता मिली। पश्चिम भारत के अभिलेखों में जौ, बाजरे, चावल, गेहूं और दलहन के खेती का उल्लेख है। ईख, तिलहन और कपास जैसे वाणिज्यिक फसलों की खेती की बढ़ोतरी में सिंचाई के साधनों का महत्वपूर्ण योगदान था। जल संसाधन की दृष्टि से नदियां और तालाब सर्वाधिक महत्वपूर्ण थे।

पूर्व मध्यकालीन भारत के इतिहास में सामाजिक परिवर्तन का प्रमुख कारण ब्राह्मणों को दिया जाने वाला भूमि अनुदान था। इस अनुदान को प्राप्त कर ब्राह्मणों का वर्चस्व ग्रामीण समुदायों पर स्थापित हो गया। प्राप्त अनुदानो के अंतर्गत आने वाले सभी संसाधनों पर इनका एकाधिकार स्थापित हो गया। जिसने कृषकों के शोषण को बढ़ावा दिया। इस काल के कृषि के विस्तार का कारण प्रमुख रूप से कृषि के संबंध में उपयुक्त जानकारी से है। कृषको को ऋतुओं का ज्ञान था और शासकों द्वारा खेती के लिए सिंचाई व्यवस्था का प्रबंध करवाया गया।

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