अलवार तथा नायनार संत
- लिंक पाएं
- X
- ईमेल
- दूसरे ऐप
पूर्व मध्यकाल में अलवार और नयनार संतों ने दक्षिण भारत में वैष्णव और शैव भक्ति को एक नया आयाम प्रदान किया। दक्षिण भारतीय भक्ति के कुछ प्रमाण संगम काव्य से प्राप्त होते हैं। अलवार और नयनार के द्वारा भक्ति के लिए प्रयोग में लाया गया तमिल शब्द "अन्बु" है, जिसका अर्थ "प्रेम" होता है। विष्णु के संतो को अलवार कहा गया तथा शिव के संतो को नयनार कहा गया। अलवार संतो की संख्या 12 थी तथा नयनार संतों की 63। इन संतों के गीतों को आज भी देवालयों में गाया जाता है, और इन संतों की पूजा की जाती है। इस परंपरा की शुरुआत चोल काल में हो चुके थी। नयनार संतो की तस्वीरें मंदिरों में गर्भ-गृह के बाहर चित्रित है, और उनकी पूजा की जाती है। विष्णु मंदिरों में संतों के लिए पृथक मंडपो का भी निर्माण करवाया गया। इन संतों ने समाज में ही जीवन व्यतीत किया और इनमें से अधिकांश ग्रहस्थ भी थे।
अलवार और नयनार काव्य में कवियों ने ईश्वर की अनेक स्वरूपों में कल्पना की है। जैसे एक मित्र, माता, पिता, स्वामी गुरु तथा पति के रूप में। कई पुरुष संतों ने महिला के स्वर में एक पत्नी के रूप में ईश्वर से मिलन की लालसा अभिव्यक्त की है। उदाहरण के लिए, "मणिक्कवाचकर" ने ईश्वर की कल्पना एक पतिपरमेश्वर के रूप में की। "नाम्मालवार" ने ईश्वर में इतने पुरुषत्व का साक्षात्कार किया कि भक्त को अपने पुरुषत्व की विस्मृति हो जाए। भक्ति के केंद्र में पुरुषत्व की प्रधानता थी।
शिव संत खुद के लिए नयनार शब्द का उपयोग नहीं करते थे। वे स्वयं को "टोंटार" (दास) तथा "अटियार" (नौकर) कहते थे, अर्थात वह स्वयं को शिव के नौकर और दास के रूप में देखते थे। 63 नयनार संतों में से 3 संतो को सम्मानित संत से संबोधित किया गया है- "सम्बन्दार", "अप्पर" तथा "सुन्दरर"। इन्हें महत्वपूर्ण माना गया है तथा इनकी प्रतिमाओं की मंदिरों में विशेष रूप से स्थापना की गई है। शिव संतो के समुदाय की अवधारणा प्रारंभिक आठवीं सदी से शुरू हुई। जब सुन्दरर ने "तिरूटोनदार टोकई"(पवित्र दासो की सभा) एक काव्य में 62 नयनारो की सूची दी।
शिव संतो को उपासना के दौरान अत्यधिक आनंद की स्थिति का वर्णन मिलता है। जब भक्त की बोलने की शक्ति असंतुलित हो जाती है, अश्रु धारा प्रवाहित होने लगती है, वह उल्लास में धीमी आवाज निकालने लगता है, और भक्ति में विलीन हो जाता है। वह ईश्वर से घरेलू तौर पर संवाद करता है।
अलवार का अर्थ है जो गहराई में गोता लगाता है अथवा वह जो दिव्यता में विलीन हो गया हो। 12 अल्वारो के भजनों को 10वीं शताब्दी में "नलयिरा दिव्य प्रबंधम" (चार हजार पवित्र भजन) के नाम से "नाथमुनि" ने संग्रहित किया, जो वैष्णवों का प्रमाणिक धर्म संग्रह है। अलवार संतो के जीवन चरित्र का पहला महत्वपूर्ण संकलन "गरुड़वाहन" के द्वारा 12वीं शताब्दी में "दिव्य सुरिचरितम" संग्रहित किया गया। अलवार भक्ति परंपरा के भक्त और मायोन या भाल (कृष्ण) के बीच प्रेमी-प्रेयसी संबंध की अभिव्यक्ति हुई है। भगवान के भक्तों के लिए अनुष्ठान और कर्मकांड का कोई अर्थ नहीं था। संपूर्ण ध्यान अनिवार्य रूप से केवल भगवान से प्रीति पर था।
विद्वान "फ्रीडहेल्म हार्डी" ने विद्यमान पौराणिक संदर्भों का विश्लेषण किया है। जिसमें भक्तों को भगवान की सेवा करते, आराधना करते, स्तुति करते तथा श्रृंगार करते हुए वर्णित किया गया है। भक्तों में ही भगवान के अस्तित्व की अवधारणा भी प्रतिपादित की गई है।
कृष्ण से जुड़ी गाथा तथा उनका गोपियों के साथ संबंध विशेष रूप से भावुकता और कामुकता का बोध कराता है। कामुकता के तत्व सर्वाधिक रूप से स्त्री-संत "कोडई" के काव्य में अभिव्यक्त पाते हैं, जो "अंडाल" के नाम से प्रसिद्ध हुई। इसके भजन के विरह की पीड़ा और ईश्वर के साथ मिलन की उत्कंठा (बेचैनी) से ओत-प्रोत है। भक्ति संतों में महिलाओं की संख्या अल्प कही जा सकती है। नयनार संतो में तीन का नाम आता है- कारइक्काल अम्मईयार, मंगईयरक्करसियार, तथा इसइनानियार। आंडाल, अलवार संतो में एकमात्र महिला थी। 11वीं शताब्दी रामानुज काल से वैष्णव आंदोलन के बढ़ते हुए प्रभाव से 12 वीं सदी के बाद शिव भक्ति में महिला संतों के साहभागिता बढी।
"उमा-चक्रवर्ती" ने भक्त संतो की पवित्र जीवन चरितों के विश्लेषण के बाद यह पाया कि महिला और पुरुष भक्ति संतों में एक मूलभूत अंतर देखा जा सकता है। पुरुष भक्ति संतों में ईश्वर के प्रति भक्ति और उनके गृहस्थ जीवन के प्रति कोई अंतर्विरोध नहीं दिखाई देता। जबकि महिलाओं से विवाह और परिवार का अपनी भक्ति से समन्वय नहीं बनाया गया। "विजय रामास्वामी" ने भी इस तथ्य को रेखांकित किया है कि महिलाओं के द्वारा सन्यास, पुरोहिताई तथा मोक्ष के लिए किए गए दावों को हमेशा चुनौती दी गई। स्त्रियों ने अपने आध्यात्मिक जिज्ञासा के लिए पारिवारिक बंधनों का परित्याग किया।
इतिहासकार "डी.डी कोसांबी" ने भक्ति को एक ऐसी विचारधारा माना जो सामंतवादी राज्य की आवश्यकताओं की पूर्ति करती थी। इनके अनुसार विशाल भू-संपदा के रूप में मंदिरों का उदय, सामंतवादी व्यवस्था का अभिन्न अंग बन गया। भक्ति आंदोलन मंदिर-केंद्रीकृत था इसलिए उस पर सामंतवादी आमली-जामा ओढ़ा दिया गया। इस आंदोलन ने सामंतवादी सामाजिक संबंध को प्रतिबिंबित किया तथा उन्हें वैधता प्रदान की।
किंतु इतिहासकार "नारायण झा" का मानना है कि मंदिरों की भूमिका को पूर्ण रूप से सामंतवादी नहीं कहा जा सकता। क्योंकि भक्ति ने सामाजिक पदानुक्रम पर न केवल प्रश्न चिन्ह लगाया, बल्कि धार्मिक सामाजिक दायरे का विस्तार किया।
"नहीं", संतो के भक्ति ने ब्राह्मणवादी कट्टरपंथ को चुनौती पेश नहीं की। भक्त संत विविध सामाजिक पृष्ठभूमि से संबंध रखते थे- जैसे मुखिया, असैनिक और सैनिक अधिकारी, व्यापारी और भूमि-पति। संतों में कुछ गोपालक, धोबी, बुनकर, कुम्हार, पासी, बहेलिया, मछुआरे या राहगीरों को लूटने वाले डाकू भी थे। दो संत- शैव संत "नंदनार" और वैष्णव संत "तिरूप्पन"- "अस्पृश्य" कहे गए। नंदनार के जीवन चरित के अनुसार, एक बार शिव ने चिदंबरम मंदिर के पुरोहित को मंदिर के समक्ष प्रज्वलित करने का आदेश दिया जिसमें से नंदनार बिना क्षति के बाहर आ गया। अपने इश्वर के दर्शन की उनकी अभिलाषा पूरी हुई तथा माना जाता है कि वह नृत्य करते हुए शिव की प्रतिमा के पैरों के नीचे लुप्त हो गए।
तिरूप्पन अलवार की अभिलाषा अपने आराध्य के दर्शन की थी। उनके पवित्र जीवन चरित्र के अनुसार भगवान ने मंदिर में एक ब्राह्मण को स्वप्न में निर्देश दिया कि वह तिरूप्पन को अपने कंधे पर बैठाकर मंदिर के गर्भ-गृह में ले जाए। इस प्रकार अलवर संत का मंदिर में प्रवेश और अपने आराध्य का दर्शन संभव हो सका। इसके बाद उन्होंने एक भजन गया और फिर विष्णु की प्रतिमा में विलीन हो गए। नंदनार और तिरूप्पन अलवर की कथा से संदेश मिलता है कि भक्ति का मार्ग सबके लिए खुला था, उनके लिए भी जिन्हें समाज अस्पृश्य कहता था। यह भी स्पष्ट संकेत मिलता है कि इन भक्त संतों के लिए भगवान के मंडप में प्रवेश आसान नहीं था, इसके लिए दैवीय हस्तक्षेप आवश्यकता था और इसकी परिणति मृत्यु थी।
किंतु यह भी सच है कि नेतृत्व सदा ब्राह्मण के हाथ में रहा और विद्यमान सामाजिक संबंधों में कोई क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं आया। फिर भी भक्ति ने ऐसा धार्मिक समुदाय तैयार किया जिसके अंतर्गत सामाजिक विभेद को नजरअंदाज करना संभव नहीं था।
अलवार और नयनार संतों की भक्ति दूसरे धार्मिक समुदायों से बिल्कुल भिन्न थी। यह संत स्वयं को एक स्त्री तथा ईश्वर को पतिपरमेश्वर समझ उसकी आराधना में लीन हो जाते थे। किंतु इन संतों ने भक्ति जीवन के साथ साथ गृहस्थ जीवन को बनाए रखा। इन भक्ति संतों में महिलाओं की संख्या अल्प थी। किंतु महिलाएं पुरुषों की भांति संत जीवन और गृहस्थ जीवन में समन्वय स्थापित नहीं कर सकी। इस भक्ति परंपरा ने सामाजिक विभेदीकरण को कम किया किंतु इसका नेतृत्व ब्राह्मण के हाथ में था। इसलिए इसने ब्राह्मणों के समक्ष कोई खास चुनौती पेश नहीं की।
- लिंक पाएं
- X
- ईमेल
- दूसरे ऐप
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें
Please do not enter any spam link in the comment box