आंतरिक तथा विदेशी व्यापार (पूर्व मध्यकालीन भारत)
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इस काल में देश का व्यापार और वाणिज्य की स्थिति, इतिहासकारों के बीच विवाद का विषय रहा है। कुछ इतिहासकार के अनुसार इस काल में विदेशी व्यापार तथा देश के अंदर लंबी दूरी का व्यापार दोनों का पतन और ह्रास का काल, तथा स्थानीयता और क्षेत्रवाद में वृद्धि का काल मानते हैं। मध्यदेश, राजस्थान और गुजरात समेत उत्तर भारत में स्वर्णमुद्राओं का अभाव इसका प्रमाण माना जाता है। किंतु कुछ अन्य विद्वान इस बात को स्वीकार नहीं करते कि भारत के कुछ भागों में सोने और चांदी की मुद्राओं का अभाव लंबी दूरी के घरेलू व्यापार का पतन तथा स्थानीयता के बढ़ने का सूचक था। किंतु दक्षिण भारत में इस समय स्थिति विपरीत थी। चोल शासकों द्वारा अर्थव्यवस्था के विकास तथा समुद्रिक विजयों के कारण आंतरिक व्यापार और विदेशी व्यापार का विस्तार हुआ।
व्यापार:- इस काल के अध्ययन के आधार पर पता चलता है कि उस समय बहुत कम सिक्के उपलब्ध थे। माल की खरीद व बिक्री में मुद्रा की महत्वपूर्ण भूमिका थी इसलिए सिक्को की कमी के कारण व्यापार काफी कम हो गया था। कम उपजाऊ क्षेत्रों में रहने वाले, लूटपाट करने लगे और अपने क्षेत्र से गुजरने वाले माल पर अत्याधिक कर लगाने लगे। इससे व्यापारियों और सौदागरों के व्यवसाय में बाधा आयी। साथ ही साथ शासकों के बीच आपसी लड़ाई ने भी व्यापारियों को हतोत्साहित किया।
इस काल में कुछ शहरों का ह्मस और पतन, वाणिज्य में ह्मस का लक्षण है क्योंकि शहर उन लोगों की बस्तियां थी जो शिल्पकला और वाणिज्य में संलग्न थे। शहरों में रहने वाले व्यापारियों और दस्तकारो को जीविका चलाने के लिए साधन ढूंढने के लिए देहाती इलाकों में जाना पड़ा। किंतु राजाओं, सामंतो, मंदिर और बौद्ध विहार के लिए निर्मित कीमती और विलासिता वाली वस्तुओं का व्यापार जारी रहा।
9 वीं सदी के बाद व्यापार और वाणिज्य में पुनरुत्थान देखा गया। इस काल में कृषि का विस्तार, मुद्रा का प्रचलन और बाजार अर्थव्यवस्था का पुनर्जन्म तथा शहरी बस्तियों का पर्याप्त विकास हुआ। विदेशी यात्री "मार्को पोलो" ने गुजरात से नील के निर्यात का उल्लेख किया है। उन्होंने सूती कपड़ों, चमड़ों की चटाइयों, तलवारों और भालों का उल्लेख विनिमय में की महत्वपूर्ण वस्तुओं के रूप में किया है।
इस काल में भूमि अनुदान की वजह से उपभोक्ताओं का एक नया वर्ग पनपा। यह भूपति वर्ग पुजारी था, जो शासकों और उभरते हुए व्यापारिक वर्ग के साथ विलासिता के सामान का महत्वपूर्ण खरीददार बन गया। इन्हें न केवल नारियल, पान के पत्ते और सुपारी जैसी वस्तुओं की जरूरत पड़ी, बल्कि भगवान के भोग के लिए भोग पदार्थों या प्रसादो की आवश्यकता भी बढ़ गई। धार्मिक प्रतिष्ठानों के कर्मचारी जिनकी संख्या सैकड़ों में थी किसानों, शिल्पकारों और व्यापारियों द्वारा उत्पादित तथा वितरित की गई वस्तुओं के महत्वपूर्ण उपभोक्ता वर्ग के रूप में सामने आए। इस तरह बड़े मंदिरों ने वाणिज्य गतिविधियों को बढ़ाने में मदद की। दक्षिण भारत के मंदिरों की यह विशेष पहचान थी कि वे महत्वपूर्ण वाणिज्य केंद्रों के रूप में उभरे।
भारत की सड़कें बंदरगाहों को एक दूसरे से जुड़ती थी। इनके द्वारा बाजार और नगरों के बीच व्यापार और वाणिज्य होता था। चीनी यात्री "ह्वेनसांग" के यात्रा वृतांत से पता चलता है कि यह क्षेत्र आपस में जुड़े हुए थे। "अलबरूनी" ने 15 मार्गों का उल्लेख किया है जो कन्नौज, मथुरा, बयाना आदि से शुरू होते थे। इन मार्गों ने 10 वीं सदी के बाद भारतीय हिस्सों को अंतर्राष्ट्रीय समुद्री व्यापार के लिए खोलने में एक नया आयाम हासिल किया।
शासकों ने अपने राज्यों के राजमार्गों को सुरक्षित रखने में दिलचस्पी दिखाई। चोरों और लुटेरों को सजा देने के लिए कदम उठाए गए और गांव वालों को उनके इलाकों से गुजरने वाले व्यापारियों और यात्रियों की सुरक्षा के लिए सैन्य और आर्थिक मदद दी। नई सड़कों का निर्माण भी करवाया। यात्रियों की सुविधा के लिए हौज और कुओं की खुदाई करवाई। भारतीय राजाओं ने अपने बंदरगाहों को डकैती से सुरक्षा प्रदान की। चोल शासकों ने अनेक प्रकार से व्यापार को प्रोत्साहित किया। इन्होंने सुरक्षित वाणिज्यक नगरों की स्थापना की, जिनका व्यापार के महत्वपूर्ण केंद्र के रूप में विकास हुआ।
विदेशी व्यापार:- इस काल में बड़े पैमाने पर व्यापारिक गतिविधियां समुद्र के जरिए हुई। दक्षिण भारत में चोल समुद्री व्यापार में गहरी रूचि ले रहे थे। "मार्को पोलो" बताते हैं कि गुजरात में कैम्बे के बंदरगाहों में दूर से आने वाले जहाज अन्य वस्तुओं के अलावा सोना, चांदी और तांबा लाते थे। पूर्वी उत्पादों के बदले भारत अपनी सुगंधित वस्तुएं और मसाले खासतौर पर काली मिर्च भेजता था।
भारत सागौन की लकड़ी का निर्यात करता था। जिसका इस्तेमाल जहाज बनाने और घरों के निर्माण में होता था। भारतीय बंदरगाहों से अनाज मुख्यतः चावल दूसरे तटवर्ती इलाकों के समुदायों को भेजा जाता था। भारत अपने लोहा और इस्पात उत्पादों खासतौर से तलवार और भालों के लिए भी प्रसिद्ध था। इसके अतिरिक्त 11वीं शताब्दी के मध्य में अरब व्यापारियों ने समुद्री तट के किनारे अपनी बस्तियां बनानी प्रारंभ कर दी। अरबों के आने से विदेशी व्यापार का और अधिक विस्तार हुआ।
प्रारंभिक मध्ययुगीन काल में जैसे-जैसे सामंती सरदार और मुखियों की संख्या बढ़ी, घोड़ों की मांग कई गुना बढ़ गई। घोड़े भू-मार्गो तथा समुद्री-मार्गो से लाए जाते थे। "इब्नबतूता" हमें बताते हैं कि उत्तर पश्चिम से आने वाले घोड़ों के व्यापारी काफी मुनाफा कमाते थे। बंदरगाहों पर प्रतिवर्ष दस हजार घोड़े लाए जाते थे। घोड़े बहरीन, कदेन, फारस आदि जैसी जगहों से लाए जाते थे। घोड़ों के अलावा छुहारे, हाथी दांत, मूंगा, पन्ना इत्यादि भी पश्चिम से भारत लाया जाते थे।
राजसी अधिकारियों ने विदेशी व्यापार में संलग्न सौदागरों को सुविधाएं देने में गहरी रुचि दिखाई। गुजरात के चालूक्यों ने राजसी नियंत्रण में बंदरगाहों के एक अलग विभाग का गठन किया। दक्षिण भारत में भी चोल अपने बंदरगाहों की स्थानीय व्यापारी संगठन की मदद से तथा अधिकारियों के माध्यम से व्यवस्था करते थे, जो विदेशी व्यापारियों की देखभाल करते थे और बंदरगाह से चुंगी इकट्ठा करते थे। राजा तूफान में भटके जहाजों को सुरक्षा देता था और विदेशी व्यापारियों का विश्वास जीतने के लिए राज्य के कानून के अनुसार कर एकत्र करने का वचन देता था।
10 वीं सदी के बाद से व्यापारियों के श्रेणी संगठन काफी शक्तिशाली हो चुके थे। इस संगठनों के सदस्य आचार संहिता का पालन करते थे। श्रेणी संगठनों की स्थापना व्यवसाय और आर्थिक हितों को केंद्र में रखकर हुई थी।
इस काल में लिखे गए धर्म शास्त्रों में विदेशी व्यापार पर प्रतिबंध लगाया गया है। क्योंकि खारे समुद्र के पार जाने को अशुद्धि का कारण माना जाने लगा। इसके पीछे यह डर था कि लोग वहां से कहीं असनातन धार्मिक विचार लेकर ना लौटे जो ब्राह्मणों और शासक समूहों को उलझन में डालने वाले हो। किंतु फिर भी इस काल में भारत के सौदागर, दार्शनिक, चिकित्सक, दस्तकार, और पश्चिम एशिया के दूसरे नगरों में जाते थे। अनेक भारतीय व्यापारी इन्हीं देशों में बस गए। कुछ ने तो स्थान में स्त्रियों से विवाह भी कर लिया। व्यापारियों के पीछे पीछे पुरोहित भी पहुंचे और इस प्रकार इन क्षेत्रों में बौद्ध और हिंदू दोनों धर्मों के विचारों का प्रसार हुआ।
इस काल में शुरुआती शताब्दी में आंतरिक व्यापार में गिरावट देखी गई। किंतु नौवीं और दसवीं शताब्दी में आंतरिक व्यापार में विस्तार हुआ तथा नए-नए नगरों की स्थापना हुई। व्यापार को बढ़ावा देने के लिए राजाओं ने भी अपना योगदान दिया। राजाओं ने व्यापारियों को समुद्री डाकू तथा लुटेरों से सुरक्षा प्रदान की। बदले में राजाओं ने व्यापारियों से चुंगी कर वसूला तथा सुरक्षा का आश्वासन दिया। समुद्री व्यापार में वृद्धि के फलस्वरुप भारतीय व्यापारी लोग तथा पुरोहित वर्ग विदेशों में जाकर बसने लगे तथा वहां अपने धर्म और संस्कृति का प्रचार प्रसार किया। इस काल में सर्वाधिक व्यापारिक वृद्धि दक्षिण भारत में हुई, साथ ही साथ व्यापारियों के नए-नए श्रेणी संगठन अस्तित्व में आए।
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