भारत के विभाजन के राजनीतिक घटनाक्रम
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प्रश्न:- 1940 के दशक के राजनीतिक घटनाओं का वर्णन कीजिए जिसने भारत के विभाजन को अनिवार्य बना दिया।
परिचय:- भारतीय लोगों को अंग्रेजों से सत्ता प्राप्त करने में हिंदू-मुस्लिम विभाजन में बाधा उत्पन्न की। सांप्रदायिकता के आधार पर होने वाले दंगों ने भारत के विभाजन को स्पष्ट कर दिया। 1940 के लाहौर प्रस्ताव ने भारत के मुसलमानों को एक "राष्ट्र" बना दिया और जिन्ना को उनका नेतृत्व प्रदान किया गया। केंद्र में हिंदुओं की बराबरी करने के लिए जिन्ना ने मुस्लिम लीग में मुसलमानों के हित के लिए अपनी मांगे शामिल की। लीग की इन मांगों को स्वीकार नहीं किया गया। भारत के विभाजन में अंग्रेजों की नीतियां भी जिम्मेदार थी। कांग्रेस ने जब भारत छोड़ो आंदोलन शुरू किया तो अंग्रेजों ने अपने आपको भारत में जमाए रखने के लिए जिन्ना और मुस्लिम लीग का समर्थन प्राप्त किया। "चर्चिल" ने खुले तौर पर हिंदू-मुस्लिम टकराव को भारत में अंग्रेजी राज के लिए आवश्यक माना। इसके अलावा किसी एक समुदाय विशेष के हित के लिए स्थापित किए गए संगठनों ने भी विभाजन को अनिवार्य बना दिया।
सबसे पहले "पाकिस्तान" का विचार मोहम्मद इकबाल ने दिया। उन्होंने 1930 में इलाहाबाद में लीग के अधिवेशन में कहा "मैं चाहता हूं कि पंजाब, उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांत, सिंध और बलूचिस्तान को मिलाकर एक राज्य बना दिया जाए। भारतीय राष्ट्रवादी मुसलमानों ने इस विचार को कोई महत्व नहीं दिया। लेकिन कैंब्रिज विश्वविद्यालय के मुसलमान विद्यार्थियों ने चौधरी रहमत अली के नेतृत्व में इस विषय को गंभीरता से लिया।
इन विद्यार्थियों ने पाकिस्तान शब्द पंजाब, अफगान प्रांत, कश्मीर, सिंध, बलूचिस्तान को मिलाकर बनाया। 1935 में चौधरी रहमत अली पाकिस्तान राष्ट्रीय आंदोलन के संस्थापक बन गए। 23 मार्च 1940 के मुस्लिम लीग के लाहौर अधिवेशन में आखिरकार पाकिस्तान की मांग के इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया गया। मार्च 1940 में जिन्ना ने अलीगढ़ में छात्रों से कहा कि "श्रीमान गांधीजी चाहते हैं कि हिंदू राज के तहत मुसलमानों को कुचल डालें व उन्हें प्रजा बनाकर रखें"। मार्च 1941 में अलीगढ़ में जिन्ना ने कहा कि "पाकिस्तान न केवल हासिल किया जा सकता है बल्कि यदि आप इस देश से इस्लाम को पूरी तरह खत्म होने से रोकना चाहते हैं तो एकमात्र मकसद यही हो सकता है"।
1941 के अपने भाषण में जिन्ना ने घोषित किया कि संयुक्त भारत में मुसलमानों का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा। 1946 में धर्म प्रचार का केंद्र बन गया। मुसलमानों को लीग को वोट देने के लिए कहा गया क्योंकि लीग और पाकिस्तान को वोट देने का अर्थ है इस्लाम को वोट देना।
इस मामले में हिंदू सांप्रदायिकता भी पीछे नहीं रही। हिंदू महासभा का नेतृत्व करते हुए वी.डी. सावरकर ने हिंदुओं को चेतावनी देते हुए कहा कि "मुसलमान हिंदुओं को अपने ही देश में गुलाम बनाना चाहते हैं"। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेता एम.एस गोलवलकर ने अपनी पुस्तक "वी" (हम) में उग्रवादी हिंदूवादी सांप्रदायिकता की विचारधारा तैयार करने का काम शुरू किया। उनका कहना था कि यदि अल्पसंख्यकों की मांग स्वीकार कर ली जाती है तो हिंदुओं का राष्ट्रीय जीवन छिन्न-भिन्न हो जाएगा। इन्होंने राष्ट्रीयवादियों पर आरोप लगाया कि वह हमारे अस्तित्व को ही खतरे में डाल रहे हैं। गोलवलकर ने कहा कि मुसलमानों तथा गैर-हिंदू लोगों को हिंदी संस्कृति और भाषा, हिंदू धर्म का सम्मान और हिंदू जाति की श्रेष्ठता स्वीकार करना तथा हिंदू राष्ट्र के अधीन रहना होगा।
गांधीजी की ओर इशारा करते हुए 1947 में आर.एस.एस ने कहा कि "जिन लोगों ने हिंदू-मुस्लिम एकता के बिना स्वराज नहीं मिल सकता का नारा बुलंद किया, उन्होंने हमारे समाज के साथ सबसे बड़ी गद्दारी की है। उन्होंने एक महान और प्राचीन जाति की जीवन शक्ति को नष्ट करने का सबसे घृणित पाप किया है। हिंदू संप्रदायवादियों ने भी "हिंदुत्व खतरे में है" का नारा लगाना शुरू कर दिया। इन सब घटनाओं के कारण दोनों समुदायों में सांप्रदायिक दंगे भड़क गए। मुस्लिम लीग की तरह हिंदू महासभा का भी यही विचार था कि हिंदू और मुस्लिम दो अलग-अलग राष्ट्र है, जो एक देश में एक दूसरे के साथ नहीं रह सकते।
1942 में क्रिप्स मिशन द्वारा ब्रिटिश सरकार ने कांग्रेस की स्थिति और भी गंभीर बना दी क्योंकि इसमें उसने एक प्रकार के भारत विभाजन को स्वीकार कर लिया। 1942 में क्रिप्स मिशन योजना ने यह स्वीकार किया कि ब्रिटिश भारत का कोई राज्य यदि भारतीय गणराज्य से अलग होना चाहता है तो उसे उसकी स्वतंत्रता होगी। 23 अप्रैल 1942 को कांग्रेस ने एक प्रस्ताव पास किया जिसमें उसने "आत्म निर्णय के सिद्धांत" को मान्यता दी।
कांग्रेस ने मुस्लिम मांगों को पूरा करने की कोशिश की। अप्रैल 1944 में सी. राजगोपालाचारी ने कहा कि जिन जिलों में मुसलमानों की संख्या ज्यादा है वहां पर एक आयोग बनाया जाए। वहां के व्यस्त लोगों को तय करने दिया जाए कि क्या वह पाकिस्तान चाहते हैं। जुलाई 1944 में गांधीजी ने जिन्ना के समक्ष एक प्रस्ताव रखा जो वास्तव में पाकिस्तान की मांग को स्वीकार करने के समान था। जिन्ना इस प्रस्ताव पर सहमत नहीं हुए और सितंबर 1944 में गांधी-जिन्ना वार्ता भंग हो गई। क्योंकि गांधीजी इसे परिवार के अंदर अलगाव के रूप में देखते थे और इसलिए इसमें दोनों ही समुदायों की भागीदारी के तत्व बनाए रखना चाहते थे, वही जिन्ना पूर्ण प्रभुसत्ता के पक्ष में था।
1945 में शिमला में एक सम्मेलन आयोजन किया गया। इसमें स्वर्ण हिंदू और मुसलमानों का बराबर प्रतिनिधित्व तथा अनुसूचित जातियों को अलग से प्रतिनिधित्व देने की मांग की गई। लेकिन 25 जून से 14 जुलाई 1945 तक चला शिमला सम्मेलन जिन्ना की समानता की मांग से टकराकर चूर हो गया। उन्होंने एकमात्र मुस्लिम लीग को ही मंत्रीमंडल के सभी मुसलमान सदस्यों को मनोनीत करने का अधिकार दिए जाने की मांग की। कांग्रेस ने इसे मानने से इनकार कर दिया क्योंकि इसका अर्थ यह स्वीकार करना होता कि कांग्रेस केवल हिंदुओं की पार्टी है।
1946 में कैबिनेट मिशन भारत का विभाजन रोकने का एक अंतिम प्रयास था। इसके द्वारा विभिन्न वर्गों को अधिक से अधिक स्वायत्तता प्रदान करने की कोशिश की गई। कैबिनेट मिशन योजना को स्वीकृति देने के प्रश्न पर कांग्रेस तथा लीग के बीच संबंध और बिगड़ गए। "आयशा जलाल" का तर्क है कि 1940 तथा 1946 में कैबिनेट मिशन के आगमन के बीच पाकिस्तान की मांग को जिन्ना या मुस्लिम लीग ने अच्छी तरह स्पष्ट नहीं किया।
कैबिनेट मिशन योजना के तहत जो मिली जुली सरकार बनी, मुस्लिम लीग ने उस में शामिल होने से इंकार कर दिया। मुस्लिम लीग ने 16 अगस्त 1946 को पाकिस्तान बनाने के लिए "सीधी कार्यवाही" आहृवान किया। इसके बाद लीग के नेताओं ने उत्तेजक भाषण दिए जिसके परिणामस्वरूप भारत में सांप्रदायिक दंगे शुरू हो गए। इसमें हजारों व्यक्ति मारे गए। बदले की भावना से हिंदू मुसलमान एक दूसरे से रक्त की होली खेल रहे थे। 16 अगस्त 1946 को मुस्लिम लीग के "सीधी कार्यवाही" दिवस पर कोलकाता में 7 हजार लोग मारे गए जिसको मौलाना आजाद ने भारत के इतिहास का काला दिन कहा। सैकड़ों जाने गई, हजारों व्यक्ति घायल हुए और करोड़ों की संपत्ति नष्ट हो गई।
सांप्रदायिक दंगे लगभग देश के हर कोने में फैल गए। 1946 के बाद दंगों की ऐसी शुरुआत हुई जो लगभग 1 साल तक चलती रही जिसमें सभी समुदायों के हाथ खून से रंगे हुए थे। 20 फरवरी को ब्रिटिश सरकार ने यह घोषणा की कि वह जिम्मेदार भारतीयों के हाथों में सत्ता को हस्तांतरित करना चाहते है। अंत में कांग्रेस कार्य समिति इस बात के लिए सहमत हो गई कि भारत की समस्या का एकमात्र समाधान "द्विराष्ट्र का सिद्धांत" ही है।
जब लॉर्ड माउंटबेटन भारत के गवर्नर जनरल बने तब उन्होंने देखा कि सांप्रदायिक दंगों के कारण चारों तरफ अव्यवस्था फैली है। उन्होंने स्वीकार किया कि भारत की समस्या का एकमात्र हल भारत का विभाजन है। गांधी ने माउंटबेटन से भारत का बंटवारा न करने का अनुरोध किया और माउंटबेटन ने उन्हें आश्वासन दिया कि विभाजन को अंतिम उपाय के तौर पर ही अपनाया जाएगा। लॉर्ड माउंटबेटन के प्रयासों से कांग्रेस भी विभाजन के लिए तैयार हो गई। माउंटबेटन ने सभी दलों के साथ विचार-विमर्श के बाद अपनी योजना बनाई। अंत: ब्रिटिश सरकार ने 3 जून 1947 को भारत के विभाजन की घोषणा की। उसमें पंजाब और बंगाल के विभाजन पर भी विचार किया गया क्योंकि इन प्रांतों के सभी मुस्लिम दलों ने भी विभाजन की मांग की थी।जिन्ना को यह बटवारा पसंद नहीं आया क्योंकि इससे मुसलमानों को जो पाकिस्तान मिलेगा वह खंडित होगा।
निष्कर्ष:- इस प्रकार मुस्लिम लीग की सत्ता की आकांक्षा और औपनिवेशिक शक्ति द्वारा सत्ता को कायम करने की साजिश से देश का विभाजन हुआ। इसमें पाकिस्तान को एक अलग राष्ट्र के रूप में स्वीकार कर लिया गया। गांधीजी सांप्रदायिकता एवं देश के विभाजन के लिए ब्रिटिश सरकार को उत्तरदाई समझते थे। भारत में सांप्रदायिकता के उदय ने भारत को विभाजन के अंतिम चरण में ला दिया। जिसने भारत के विभाजन को अनिवार्य बना दिया।
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टिप्पणियाँ
Thanku bhaiya
जवाब देंहटाएंAlthough I am English medium student but your notes helps me alot.. And I regularly watch all the videos of your youTube all are very awesome and very helpful
Thankuuu
Thanx dost....😊
हटाएंThank you bhaiya aapke notes bht helpful hai thank you so much 😊😊
जवाब देंहटाएंThankyou dost
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