भारत में वामपंथ का उदय और विकास
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प्रश्न:- भारत के राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान वामपंथी आंदोलन का वर्णन कीजिए।
परिचय:- भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में वामपंथी राजनीति का उदय प्रथम विश्व युद्ध के बाद हुआ। इस समय से 1947 तक का काल वामपंथी और राजनीति आंदोलन दोनों के ही विकास में एक बहुत महत्वपूर्ण समय था। वामपंथियों ने श्रमजीवीयों एवं किसानों की सामाजिक तथा आर्थिक समस्याओं को उभारने पर बल दिया और इस प्रकार राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन के स्वरूप में परिवर्तन का प्रयत्न किया। वामपंथी आंदोलन के उदय और विकास की प्रक्रिया निर्बाध नहीं थी क्योंकि इसे प्रारंभ से ही ब्रिटिश सरकार के रोष का सामना करना पड़ा। अत: अक्सर इसे गुप्त रूप से कार्य करना पड़ता था। वामपंथियों ने पूंजीवाद और साम्राज्यवाद के विरुद्ध आम लोगों को जागरूक किया। परिणाम स्वरूप गांधीजी के राष्ट्रीय आंदोलन में कृषक और श्रमिक दोनों ही सम्मिलित हो गए। इस नए नेतृत्व में समाजवाद का प्रसार करना आसान हो गया। यह लोग कार्ल मार्क्स के क्रांतिकारी विचारों से प्रेरित थे और उन्होंने स्वयं देखा कि रूस में किस प्रकार साम्यवादी सरकार अस्तित्व में आई।
भारत में मुंबई, कोलकाता, कानपुर, लाहौर इत्यादि औद्योगिक नगरों में साम्यवादी सभाएं बननी शुरू हो गई। समाजवादी विचार तेजी से फैलने लगा था। कोलकाता की "आत्मशक्ति" और "धूमकेतु" तथा गुंटूर के "नवयुग" जैसी वामपंथी राष्ट्रवादी पत्रिकाएं छपने लगी थी। मुंबई में श्रीपाद डांगे ने "गांधी और लेनिन" नामक पर्चा प्रकाशित किया तथा पहला समाजवादी साप्ताहिक "दी सोशलिस्ट" की शुरुआत की। पंजाब में गुलाम हुसैन ने "इंकलाब" का प्रकाशन किया।
1920 में एम.एन. राय तथा कुछ अन्य भारतीयों ने भारतीय साम्यवादी दल की स्थापना की। भारत में साम्यवादी आंदोलन का इतिहास कहीं चरणों में बांटा जा सकता है। पहला चरण:- इंग्लैंड के साम्यवादी दल ने भारतीय साम्यवादी दल का निर्देशन किया। उनका एक प्रतिनिधि "फिलिप स्प्रैट" दिसंबर 1926 में भारत में आया और उसने भारत में कई सघों का गठन किया। समाचार पत्रों का संपादन किया तथा कुछ युवक को शामिल कर साम्यवादी संगठनों को आरंभ किया। 1929 में साम्यवादी दल ने मुंबई में अनेक हड़ताली करवाई।
दूसरा चरण:- जिस समय राष्ट्रवादी आंदोलन महात्मा गांधी के नेतृत्व में आगे की ओर बढ़ रहा था। उसी समय साम्राज्यवादी आंदोलन को संगठन और विचारधारा संबंधी प्रश्नों के कारण बहुत हानि उठानी पड़ी। उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के वामपंथी और दक्षिणपंथी अंगों पर प्रहार करना शुरू कर दिया। भारतीय साम्यवादी दल ने इस संघर्ष को त्रिकोण संघर्ष का रूप देकर कांग्रेस की शक्ति कम करनी चाही। उन्हें विश्वास था कि कांग्रेस उन उद्योगपतियों का समर्थन कर रही है जो भारतीय श्रमिक वर्ग का शोषण कर रहे हैं। अत: कांग्रेस भी उतना ही दोषी है जितना साम्राज्यवादी शोषक।
तीसरा चरण:- अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में अपनी नीति का निर्देशक प्राप्त कर मार्च 1936 में आर.पी. दत्त और बैन ब्रैडले ने भारत में अपना साम्राज्यवादी विरोधी मोर्चा प्रकाशित किया। उन्होंने साम्वादियों को कहा कि वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में सम्मिलित हो जाए और उनके संगठन का प्रयोग कर कांग्रेस समाजवादी दल को सुदृढ़ बनाए। जो प्रतिक्रियावादी दक्षिणपंथी लोग हैं उन्हें निकाल बाहर करें।
इस दौरान साम्यवादियों, कांग्रेस समाजवादियों और व्यापार संघों ने एक कार्यक्रम के आधार पर लोकप्रिय मोर्चा बनाने की सोंची। परंतु साम्यवादीयों ने इन परिस्थितियों का लाभ उठाकर अपने सामाजिक आधार को सुदृढ़ करने प्रयत्न नहीं किया और यह लोकप्रिय मोर्चा नहीं बन सका।
चौथा चरण:- जब दूसरा विश्व युद्ध आरंभ हुआ तब भारतीय साम्यवादी नेता सभी प्रकार के साम्राज्यवाद के विरुद्ध अपनी संयुक्त मोर्चा नीति का अनुसरण कर रहे थे। इस समय कांग्रेस की नीति इस युद्ध के प्रति स्पष्ट नहीं थी। केवल 15 सितंबर 1939 को ही महात्मा गांधी ने इस युद्ध को साम्राज्यवादी युद्ध घोषित किया। परंतु जब जून 1941 में हिटलर ने रूस पर, जो साम्यवाद का पितृदेश था, आक्रमण कर दिया तो भारत के साम्यवादियों की स्थिति बहुत विचित्र सी हो गई। साम्यवादीयों ने अब उसी युद्ध को जिसे साम्राज्यवाद युद्ध कहते थे अब लोकयुद्ध कहने लगे।
गांधीजी के रहस्यवाद और साम्यवादी दल के रूढ़ीवाद के विरुद्ध कांग्रेस में वामपंथी पक्ष एक विवेकयुक्त विद्रोह के रूप में उभरा। उनको सैद्धांतिक प्रेरणा मार्क्सवाद और प्रजातांत्रिक समाजवाद से मिली। सुभाष चंद्र बोस ने कहा कि कांग्रेस वामपंथी लोग ना केवल साम्राज्यवाद विरोधी थे अपितु यह अपने राष्ट्रीय जीवन का निर्माण एक समाजवादी आधार पर करना चाहते थे। इसके लिए उन्हें दो और युद्ध करने थे एक विदेशी साम्राज्यवादियों और उनके भारतीय मित्रों से, दूसरा पिछले राष्ट्रवादी और उनके भारतीय मित्रों से। यह लोग पूर्ण स्वराज तथा समाजवाद लाना चाहते थे। वह जनसाधारण के लिए स्वराज चाहते थे।
जुलाई 1931 में जयप्रकाश नारायण, फूलन प्रसाद वर्मा तथा अन्य बिहार के लोगों ने एक समाजवादी दल बनाया और अक्टूबर 1934 में विधिवत अखिल भारतीय कांग्रेसी समाजवादी दल का गठन हुआ। इस दल ने 1935 के अधिनियम को जन विरोधी माना। यह समाजवादियों का दबाव था कि 1936 में कांग्रेस ने अपने चुनाव घोषणा में जनता की सामाजिक और आर्थिक कठिनाइयों को दूर करने का निश्चय किया।
कांग्रेस समाजवादी दल, कांग्रेस से इस बात से सहमत नहीं था कि वह अंग्रेजों को द्वितीय विश्व युद्ध में सहायता दें। उनके अनुसार यह युद्ध केवल साम्राज्यवादियों के लिए है। वे चाहते थे कि कांग्रेस स्वतंत्रता के लिए एक क्रांतिकारी सार्वजनिक संघर्ष चलाएं। उन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन का समर्थन किया तथा 1942 के विद्रोह में मुख्य भूमिका निभाई। इस दल ने भारत के बंटवारे को भी कांग्रेसी द्वारा अंग्रेजी शासन के सम्मुख हथियार डालने के बराबर माना और यह भी स्वीकार किया कि वह स्वयं भी विस्तृत क्रांतिकारी आंदोलन चलाने में असमर्थ हैं।
इस समय क्रांतिकारी समाजवादी दल उभर कर सामने आया। इसका उद्देश्य अंग्रेजों को शक्ति द्वारा बाहर निकाल फेंकना और भारत में समाजवाद स्थापित करना था। सैद्धांतिक रूप से यह क्रांतिकारी दल कांग्रेस समाजवादी दल के अधिक समीप था। गांधी और बॉस के झगड़े में भी क्रांतिकारी समाजवादी दल ने बॉस को समर्थन किया। 1942 में रविंद्र नाथ टैगोर द्वारा एक क्रांतिकारी साम्यवादी दल आरंभ किया गया।
इसी प्रकार बोल्शेविक लेनिनिस्ट दल का गठन 1941 में अजीतराय और इंद्रसेन के जैसे क्रांतिकारियों ने किया। यह सभी दल असहमत साम्यवादी वर्गों ने आरंभ किए और अपने आपको भारतीय क्रांति के लिए सबसे उत्तम माध्यम बतलाते थे। एम.एन रॉय जो भारत में साम्यवादी आंदोलन के अग्रणी थे, ने मार्क्सवाद से पूर्णतया निराश होकर अतिवादी लोकतंत्र दल का गठन 1940 में किया। उन्हें विश्वास हो गया था कि बहु वर्गीय दल द्वारा ही भारतीयों में क्रांति लाई जा सकती है।
निष्कर्ष:- स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान वामपंथियों ने आम लोग, कृषक और मजदूरों को नेतृत्व प्रदान किया। अपने हित के लिए उन्होंने समय-समय पर कांग्रेस से गठजोड़ कर राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लिया। कांग्रेस समाजवादी दल की स्थापना के बाद राष्ट्रीय आंदोलन ने एक नया रूप धारण कर लिया। वामपंथी भलीभांति जान गए थे कि उच्च वर्ग के लोगों के बिना आंदोलन को सफल नहीं बनाया जा सकता और ना ही शोषित वर्गों की दशा में सुधार लाया जा सकता है।
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