यूरोप में वाणिज्यवाद का विकास, इंग्लैंड और फ्रांस
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प्रश्न:- यूरोप में वाणिज्यवाद के विकास का विस्तार से वर्णन कीजिए।
परिचय:- 15वीं सदी के अंत में नए व्यापारिक मार्गों और साम्राज्यों की खोज से व्यापार की मात्रा बढ़ने लगी। इसके साथ ही अंतरराष्ट्रीय नौपरिवहन का विस्तार हुआ। नई दुनिया से बड़ी मात्रा में सोने और चांदी के आयात से यूरोपीय राज्यों और यहां के लोगों की किस्मत बदलने लगी। इसका राज्य की नीतियों पर प्रभाव पड़ा। राज्य की आर्थिक ताकत बढ़ाने और नीतियों के मिश्रण को वाणिज्यवाद कहा गया। इसमें व्यावसायिक संबंध पर आधारित संस्थाओं और व्यापार संघ को महत्व दिया जाने लगा। वाणिज्यवाद में राज्य की अर्थव्यवस्था को सरकार द्वारा प्रोत्साहन और संरक्षण दिया जाने लगा। राज्य की शक्ति उसके धन पर निर्भर करती है जिसे सोने और चांदी जैसे बहुमूल्य धातु में व्यक्त किया जा सकता है। बहुमूल्य धातु जैसे सोना- चांदी यूरोपीय वाणिज्यवाद का सबसे महत्वपूर्ण श्रोत था। नए प्रदेशों की खोज से सोने- चांदी का महत्व काफी बढ़ गया था। वाणिज्यवाद में खान, विनिर्माण और उद्योग पर सभी राज्यों में जोर दिया जाने लगा।
जरूरत की सभी वस्तुओं का उत्पादन किया जाने लगा और निर्यात के लिए इनका अधिशेष भी रखा जाता था। इसके लिए कृषि को प्रमुख रूप से उद्योगों के लिए कच्चे माल के उत्पादन के लिए प्रोत्साहन दिया जाने लगा। वाणिज्यवादी उपनिवेश को महत्वपूर्ण मानते थे, क्योंकि यह साम्राज्यवादी देश के विनिर्मित वस्तुओं के लिए बाजार का काम करते थे और कच्चा माल मुहैया कराते थे।
इसी पहलू से जुड़ी हुई थी समुद्री ताकत। अपने वस्तुओं को विदेशों में भेजने और दूरदराज के क्षेत्रों पर नियंत्रण रखने के लिए सभी देशों ने बड़ी संख्या में व्यापारी पोतों का निर्माण करवाया। इसके अलावा सीमा शुल्क को नियमित और समुद्री डाकुओं से अपने व्यापार को बचाने के लिए एक शक्तिशाली नौसेना तैयार की गई। वाणिज्यवाद के विचारों से सभी देश परिचित हो चुके थे। इसका विकास यूरोप के देशों में बाकी देशों की तुलना में काफी तेजी से हुआ। इन देशों में इंग्लैंड और फ्रांस में वाणिज्यवाद का विकास और प्रसार अन्य देशों से काफी बेहतर था।
इंग्लैंड में वाणिज्यवाद:- 15वीं सदी के अंत में इंग्लैंड एक एकीकृत राज्य बन कर उभरा। पहले बहुमूल्य धातु, व्यापार और वाणिज्य, घरेलू उद्योग की गतिविधियों पर जोर दिया जाता था लेकिन 17वीं सदी में नौपरिवहन कानूनों और औपनिवेशिक नियंत्रण पर जोर दिया जाने लगा। प्रथम ट्यूडर राजा हेनरी सप्तम ने व्यापार और बहुमूल्य धातु पर जोर देकर शाही खजाने को बढ़ाने की कोशिश की। बाद के शासकों ने भी इस नीति को जारी रखा।
निर्माण कार्य पर नियंत्रण के लिए कुछ जटिल नियम-कानून बनाए गए। इंग्लैंड में उद्योगों को बढ़ावा दिया गया। उद्योगों का ग्रामीण इलाकों में स्थानांतरण रोकने के लिए 1563 में "स्टैट्यूट ऑफ आर्टिफिशियल" कानून बनाया गया। वस्तुओं की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए कारीगरों को उचित प्रशिक्षण दिया गया। 32 शिल्पों की सूची बनाई गई, जिन्हें व्यावसायिक शहरों में पढ़ाया जाने लगा। 1555 में एक्ट बनाकर उप-ठेका प्रणाली पर रोक लगा दिया गया। इस प्रणाली के जरिए व्यापारी अपने उत्पाद को "गिल्ड प्रणाली" के नियम से बचाकर बाजार में बेचते थे।
सभी बुनकर के लिए 7 वर्ष का प्रशिक्षण अनिवार्य कर दिया गया। गुणवत्ता बनाए रखने और धोखाधड़ी रोकने के लिए वजन और माप की जांच शुरू की गई। "जस्टिस ऑफ पीस" को इनके निरीक्षण का काम सौंपा गया। 1559 में ऊन और चमड़े के निर्यात पर रोक लगा दी गई। 1605 में ऊन उद्योग को राज्य ने अपने नियंत्रण में ले लिया। अगले साल रेशम को रंगने के लिए गोंद के प्रयोग पर रोक लगा दी गई ताकि इसकी गुणवत्ता बनी रहे। 1613 में रेशम के उत्पाद के नियंत्रण के लिए शाही निरीक्षक नियुक्त किए गए।
इंग्लैंड की वाणिज्यवाद की प्रमुख विशेषता एकाधिकारवादी संस्थाओं को महत्व दिया जाना था। विशिष्ट वस्तुओं का विशिष्ट क्षेत्रों में व्यापार करने के लिए चुनिंदा व्यापारी समूह और संघों को एकाधिकार सौंपा गया। इंग्लैंड के उत्पादों के निर्यात को प्रोत्साहित करने के लिए विदेशी राज्यों के साथ संधियां की गई। इसकी शुरुआत हेनरी सप्तम के समय में हुई जब फ्लैंडर्स के साथ दो महत्वपूर्ण संधियां मैलस इंटरकर्सेस और मैग्नस इंटरकर्सेस की गई। इन संधियों के द्वारा इंग्लैंड के व्यापारिक शुल्क अदा किए बिना ही अपने उत्पाद को बेंच सकते थे।
1536, 1563, 1572 और 1576 में बने कानूनों को मिलाकर 1601 में एक अधिनियम पारित किया गया। इसमें घोषणा की गई कि प्रत्येक इलाके में पादरियों द्वारा एक कर या 'गरीबी दर' का आकलन और वसूली की जाएगी। शारीरिक रूप से सक्षम गरीबों को काम मुहैया कराया जाएगा। लंदन में "ब्राइडवेल मशहूर पुअर" हाउस था। यहां काम करने से मना करने वालों को भेजा जाता था। जब तक वे काम करने के लिए अपना मन ना बना लें, तब तक उन पर कोड़े बरसाए जाते थे।
भिखारी बच्चों को उपयोगी व्यापार का प्रशिक्षण दिया जाता था। प्रिवी काउंसिल ने 1586 में आदेश दिया था कि खराब फसल के समय गरीबों को उचित मूल्य पर अनाज दिया जाए। सरकार कुछ विशिष्ट शिल्पो में बाहरी लोगों के प्रवेश पर नियंत्रण रखती थी ताकि वस्तु की गुणवत्ता कम न आए। अपने पिछले नियोक्ता से अनुशंसा पत्र के बिना किसी भी मजदूर को काम पर नहीं रखा जाता था। जस्टिस ऑफ पीस को मजदूरों के वेतन निर्धारण का अधिकार दिया गया। 1581 में संसदीय कानून के द्वारा सिक्के और बहुमूल्य धातु के निर्यात करने पर रोक लगा दी गई।
वस्तुओं को केवल इंग्लिश जहाज में भेजा जाता था क्योंकि अन्य जहाजों में शुल्क ज्यादा लगता था। इससे इंग्लैंड के जहाजों और नौसेना के विकास में मदद मिली। 1600 में एलिजाबेथ ने इंग्लिश ईस्ट इंडिया कंपनी बनाई। इस कंपनी ने भारत में हिंद महासागर और इरान में अनेक व्यापारिक चौकियां बना ली। इससे व्यापार को बढ़ावा मिला जिसने इंग्लैंड में बुर्जुआ वर्ग के उदय में सहायता प्रदान की।
ओलिवर क्रॉमवेल के शासनकाल में वाणिज्यवादी नीतियों का अनुसरण बहुत जोर शोर से हुआ। 1651 में प्रथम नेविगेशन एक्ट लागू किया गया ताकि समुद्र में इंग्लैंड की प्रधानता रहे। इसमें जोर दिया गया कि यूरोपीय वस्तुओं की ढुलाई केवल इंग्लिश जहाजों में या उन देशों के जहाजों में की जा सकती है जहां यह वस्तुएं बनी है। ब्रिटिश जहाजों से आय प्राप्त करने के लिए इनका उपयोग अधिक किया जाने लगा। बाद में बहुमूल्य धातुओं के निर्यात पर से प्रतिबंध हटा लिया गया और निर्यात की मात्रा और मूल्य बढ़ाने पर जोर दिया जाने लगा।
फ्रांस में वाणिज्यवाद:- फ्रांस में वाणिज्यवाद ने आर्थिक विचारको और विद्वानों का अधिक ध्यान आकर्षित किया। 15वीं सदी में ही देश में सोना और चांदी को प्रोत्साहित करने के लिए अधिनियम बनाए गए थे। फ्रांस से कीमती धातुओं के निर्यात को रोकने के लिए कई उपाय किए गए। 1485 के कानून के जरिए कुलीनो को छोड़कर जनसाधारण पर सोना-चांदी, वस्त्र और रेशम के कपड़े पहनने पर रोक लगा दी गई। सोलवीं सदी के फ्रांसीसी शासकों ने नए उद्योगों की स्थापना के लिए कर में छूट, विशेषाधिकार और आर्थिक सहायता दी।
घरेलू उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए आयात शुल्क बढ़ा दिया गया। 1571 के राजादेश द्वारा ऊनी वस्तुओं के निर्माण को नियमित किया गया। कपड़ों के आकार और उनके गुणवत्ता निर्धारित की गई और इनका निरीक्षण किया गया। वस्त्रों का उच्च स्तर रखने के लिए उन पर चिन्ह लगाए जाने लगे। 1581 के अध्यादेश में सभी प्रकार के उद्योग और वाणिज्य के व्यापारिक संघों के संगठन और निरीक्षण की व्यवस्था की गई। फ्रांस में वाणिज्यवाद के विकास में कुछ महत्वपूर्ण व्यक्तियों ने अपना योगदान दिया। जिनमें से लाफेमा एक थे।
लाफेमा के सहयोग से 1601 में वाणिज्य आयोग बना। वे इसके अध्यक्ष बने। इस आयोग का काम फ्रांस के आर्थिक जीवन को प्रोत्साहित करना था। इस आयोग का मुख्य कार्य फ्रांसीसी रेशम उद्योग के लिए रेशम के कीड़े के पालन को बढ़ावा देना था। लाफेमा ने फ्लेमिश टेपेस्ट्री (बेलबूटेदार कपड़े) कारीगरों को फ्रांस में गोब्लिंस टेपेस्ट्री के निर्माण में सहायता के लिए आमंत्रित किया। कुशल कारीगरों को फ्रांस में बसने के लिए प्रोत्साहित किया गया।
लुई तेराहवां के मुख्यमंत्री "रिशलू" ने भी वाणिज्यवाद विचारों को प्रभावी ढंग से लागू किया। उन्होंने वाणिज्यवाद की सख्त नीति अपनाई क्योंकि उनका मानना था कि शाही आदेश जारी करना विकास में तेजी लाने का सबसे अच्छा तरीका है। फ्रांसीसी वाणिज्यवाद लुई 14वें के मंत्री "बापतिस्त कोलबर्त" के अधीन चरमोत्कर्ष पर पहुंचा। 1663 से 1685 के बीच फ्रांस में वाणिज्यवाद अपने चरम पर था। इस अवधि को "कॉलबर्तवाद का काल" भी कहा जाता है। उन्होंने कुछ वाणिज्यवादी नीतियों के द्वारा फ्रांसीसी अर्थव्यवस्था को एक प्रभावी दिशा प्रदान की।
वह चाहते थे कि फ्रांस में चांदी की आपूर्ति जारी रहे। जिसे विदेशी व्यापार के जरिए प्राप्त किया जा सकता है। वह स्पेन के साथ व्यापार को बहुमूल्य धातु प्राप्त करने का सबसे बड़ा जरिया मानते थे। उनकी नीतियों के अनुसरण के चलते बारीक से बारीक ब्यौरे देखे जा सकते हैं। जैसे डिजान तथा कातिलों के निर्माताओं को यह सुनिश्चित करना था कि हर क्लॉथ में धागे की निर्धारित संख्या होनी चाहिए जो कि आवश्यक है।
फ्रांस में वाणिज्य संहिता तैयार की गई और उद्योग के हर पहलू को इसमें शामिल किया गया। यह फ्रांसीसी वाणिज्यक कानून का भी आधार था। इसमें कुछ चुनिंदा व्यापारियों को एकाधिकार दिया गया। फ्रांस की वस्तुओं को इंग्लैंड की वस्तुओं से स्पर्धा का सामना करना पड़ता था। कोलबर्त मानते थे कि व्यापारिक कंपनियां राजा की सेनाएं थी और फ्रांस के निर्माता उसके रशद। उन्होंने विदेशी जहाजों पर कर लगाया। 1664 और 1667 के बीच उत्पादन शुल्क लेना शुरू किया और इसके बाद उत्पादन विकास की नीति अपनाई। वाणिज्यिक विस्तार को प्रोत्साहित करने के लिए शाही कंपनियां बनाई गई।
इनमें फ्रेंच ईस्ट इंडिया कंपनी(1664), वेस्ट इंडिया कंपनी (1664), नॉर्दन कंपनी (1669) और निवांत(1670) कंपनी शामिल थी। यह कंपनीयां विश्व के अलग-अलग हिस्सो में फ्रांसीसी औपनिवेशिक साम्राज्य के विस्तार में मदद करती थी। लोह उद्योग को प्रतिस्पर्धा से बचाने के लिए राज्य की ओर से संरक्षण प्रदान किया गया। तोप और शस्त्र बनाने के लिए राज्य की ओर से आयुधशालाएं स्थापित की गई। उन्होंने धार्मिक त्योहारों की संख्या कम की क्योंकि इससे कार्य करने के दिवस कम हो जाते थे।
कच्चे माल कैसे तैयार किया जाए, उत्पादों के निर्माण में कौन सी पद्धति अपनाई जाए, इन सबके लिए नियम बनाए गए। नए उद्योगों को विदेशी प्रतिस्पर्धा से बचाने के लिए आयातित वस्तुओं पर सीमा शुल्क लगाया गया। 1664 में सीमा शुल्क की नई दरों की घोषणा की गई और 1667 में इसे दोगुना कर दिया गया। नौपरिवहन में सुधार के लिए पोत निर्माण पर बल दिया गया। कोलबर्त के प्रयास से ही फ्रांस एक नौसैनिक शक्ति बनकर उभरा। उन्होंने आंतरिक परिवहन की समस्या को सुलझाने के लिए "कनाल द द्य़ु मेर्स" (दो समुद्रों के बीच की नहर) नामक मशहूर नहर का निर्माण करवाया।
कोलबर्त ने अपनी नीति में प्रभावी प्रशासन के विकास पर बल दिया। नई अदालतें बनाई गई। 1667 में सिविल ऑर्डिनेंस और 1670 में क्रिमिनल ऑर्डिनेंस जारी किए गए। 1673 में ऑर्डिनेंस ऑफ कॉमर्स और 1681 में ऑर्डिनेंस ऑफ मरीन पारित किए गए।
निष्कर्ष:- राज्य सरकारों की सहायता से यूरोप में वाणिज्यवाद पूर्ण रूप से सफल हुआ। वाणिज्यवाद सभी देशों में एक समान नहीं था। सरकारों ने अपने-अपने देश मे वाणिज्यवाद को बढ़ावा देने के लिए सरकारी संरक्षण और रियायतें प्रदान की। फ्रांस में वाणिज्यवाद का स्वरूप दूसरे देशों की तुलना में भिन्न था। यहां पर राज्य के कुछ प्रमुख व्यक्तियों ने वाणिज्यवाद को गति प्रदान की। इस नई विचारधारा के चलते नए नए उद्योगों की स्थापना की गई, जिसने यूरोप के देशों की अर्थव्यवस्था को संतुलित किया और उन्हें विकसित किया।
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