यूरोप में सत्रहवी सदी का संकट
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प्रश्न:- यूरोप के विभिन्न भागों में सत्रहवीं शताब्दी में आए संकट का वर्णन कीजिए।
परिचय:- पंद्रहवी शताब्दी में यूरोप का जो व्यापारिक विस्तार हुआ था वह सत्रहवी शताब्दी की शुरआत में यूरोप के कई भागों में समाप्त हो गया। कुछ क्षेत्रों में विकास की गति धीमी पड़ गई, कहीं उसमें ठहराव आया और कई क्षेत्रों में इसमें निरंतर गिरावट आने लगी। आर्थिक गतिविधियों का केंद्र बदलने लगा। इतावली राज्य तेजी से पतन की ओर बढ़ने लगा। कृषि क्षेत्र के अभाव का वाणिज्यिक और औद्योगिक क्षेत्रों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा। यूरोप के कई हिस्सों में विद्रोह, संघर्ष और युद्ध जैसी परिस्थितियां देखी गई। इस संकट का सबसे ज्यादा प्रभाव भूमध्यसागरीय राज्यों पर पड़ा। इतिहासकारों ने इस संकट की उत्पति की अलग अलग व्याख्या की है। इस संकट की तारीख और तीव्रता अलग - अलग क्षेत्रों में अलग - अलग थी। इस संकट के कारण जनसंख्या में भारी कमी, आर्थिक मंदी और सामाजिक तनाव और विनाशकारी युद्ध हुए।
जनसांख्यिकी संकट:- इस काल में जनसंख्या में भरी गिरावट आई। कुछ भागो में जनसंख्या वृद्धि रुक सी गई, जबकि अन्य क्षेत्रों में वृद्धि की दर कम हो गई। "पीटर क्रीट" के अनुसार तीस वर्षीय युद्ध के कारण जर्मनी की जनसंख्या पर विनाशकारी प्रभाव पड़ा। इस युद्ध में गांवों की 40 प्रतिशत और शहरों की 30 प्रतिशत आबादी समाप्त हो गई। ब्रेंडेनबर्ग, सेक्सनी और बावेरिया जैसे घनी आबादी वाले राज्यों की लगभग आधी आबादी ख़तम हो गई।
इसी अवधि में स्पेन की जनसंख्या में भी कमी आयी। 1650 तक स्पेन कि आबादी 70,68,000 से घटकर 50,25,000 हो गई। फ्रांस में भी जनसंख्या वृद्धि दर रुक गई। इंगलैंड सहित पूरे उतरी यूरोप में जनसंख्या वृद्धि दर काफी कम हो गई। पूर्वी क्षेत्रों में खाद्य आपूर्ति की समस्या उत्पन्न हो गई थी। परिणामस्वरूप लोगो की प्रजनन प्रक्रिया में बदलाव आया। जनसांखयिकीय परिस्थितियां अलग - अलग क्षेत्रों में अलग - अलग थी लेकिन विभिन्न क्षेत्रों की अर्थव्यवस्था में इनकी भूमिका महत्वपूर्ण थी।
मौद्रिक संकट:- इतिहासकार आर्थिक परिवर्तन लाने में मुद्रा की आपूर्ति की भूमिका पर जोर देते हैं। 17 वीं सदी में पूरे यूरोप में मुद्रा में खोट मिलाया जाना प्रचलित मुद्रा की घोर कमी का सूचक था। स्पेन द्वारा नई दुनिया से चांदी के आयात द्वारा इसका अस्थाई हल निकाला गया। लेकिन चांदी आयात की मात्रा घटने के बाद इसका आर्थिक विकास कम हो गया। फलस्वरुप मौद्रिक असंतुलन हो गया। इतिहासकार "इ.जे. हेमिल्टन" सोने-चांदी के आयात संबंधी मौद्रिक कारकों को 17वीं सदी की आर्थिक मंदी का मुख्य कारण मानते हैं।
कृषि क्षेत्र में संकट:- जनसंख्या वृद्धि में कमी का यूरोप के विभिन्न भागों में कृषि पर व्यापक प्रभाव पड़ा। सभी जगहों पर कृषि की स्थिति एक समान नहीं थी। कृषि प्राकृतिक शक्तियों पर निर्भर थी इसलिए एक अंतराल के बाद बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण इसका विस्तार सीमित हो गया। जनसंख्या वृद्धि के कारण बढ़ती आबादी को खिलाने के लिए खाद्यान्नों की भारी मांग बढ़ी। नतीजतन खेती की जमीन को बढ़ाया जाने लगा और मौजूदा जमीन का लगातार उपयोग किया जाने लगा।
प्रौद्योगिकी नवपरिवर्तन के अभाव में विस्तार का मतलब भूमि सुधार और जंगल की कटाई थी। करीब-करीब पूरे यूरोप की कृषि का ढांचा चरमरा गया। जर्मनी और ऑस्ट्रिया में कृषि में निरंतर गिरावट आई। यह गिरावट 17 वी सदी के अंत तक जारी रही। जमीन के घटते लगान के कारण भू संपत्ति के मूल्य भी गिरने लगे। अब भूमि को विकसित करने के लिए शायद ही कोई प्रोत्साहन शेष था। इंग्लैंड, बेल्जियम और ऑस्ट्रिया में कीमतों में लगातार वृद्धि होती रही।
फ्रांस में खेती पर आबादी का दबाव बढ़ रहा था। प्रशासनिक विस्तार को बढ़ाने के लिए फ्रांस ने युद्धों को जारी रखने के लिए गरीब किसानों का शोषण किया। कुलीन वर्ग ने भी किसानों का भारी शोषण किया। इन्होंने अपने एजेंटों और वकीलों के जरिए किसानों का अधिकतम शोषण किया क्योंकि निरंकुश शासकों ने खेती के पुनर्गठन को नकार दिया था। इस घटना से कृषि में निवेश और तकनीकी कार्य रुक गया। अन्य देशों के समान फ्रांस में भी 17 सदी में कृषि संकट खड़ा हो गया, जिसके विनाशकारी परिणाम हुए। बहुत से किसान कर्ज में डूब गए क्योंकि वे फसल खराब होने के समय कर वसूलने वालों को कर देना के हेतु लिए गए ऋण की अदायगी करने में असमर्थ थे।
किसानों ने शहरों की किस्मत को प्रभावित करना शुरू कर दिया था। कृषि केवल शहरी आबादी का पेट नहीं भरते थी बल्कि शहरों के कामगारों को कच्चे माल भी मुहैया करवाती थी। साथ-साथ कृषि पर लगे कर से शहरों की आमदनी होती थी। ग्रामीण संकट उत्पन्न होने से यह सभी कर शहरों में जाने बंद हो गए। इस प्रकार कृषि ने शहरी संकट को भी उत्पन्न किया।
जलवायु:- अनाल्स स्कूल के इतिहासकारों ने इस संकट के पीछे कुछ और कारकों को संकलित किया है। इनका मानना है कि 17वीं सदी के संकट में फसल का खराब होना, और अनाज की अधिक कीमत, जिसके बाद अनाज की कीमतों में भारी गिरावट, महामारी और खराब मौसम का एक साथ मिलना भी शामिल था। इससे न केवल फ्रांस बल्कि यूरोप के कई हिस्सों में अनेक किसान विद्रोह हुए। इतिहासकारों ने संकट को सामाजिक-आर्थिक ढांचे से अलग करके बल्कि समकालीन समय में मौजूद कारकों पर अपना प्रकाश डाला है। उन्होंने जलवायु के कारक को "मांडर मिनिमम" कहा है, और इसे कृषि और जनसंख्या में आने वाले बदलावों के लिए जिम्मेदार माना है।
राजनीतिक संकट:- इस समय हर एक देश युद्ध में फंसा था। आय का लगभग आधा हिस्सा प्रत्येक वर्ष युद्धों, इनकी तैयारी और इसके नुकसान की भरपाई पर खर्च किया जाता था। बढ़ते राजस्व के कारण सशस्त्र सैनिकों के आकार में वृद्धि हुई। 1630 तक प्रत्येक सिपाही पर आने वाला खर्च 5 गुना बढ़ गया और युद्ध लड़ने की लागत से भी ज्यादा बढ़ गई। आय बढ़ाने के लिए सरकारों ने राजस्व के नए-नए तरीकों को ढूंढा।
जर्मन राज्य और कैटेलोनिया राज्य द्वारा स्पेन के खिलाफ विद्रोह किया गया। जिससे स्पेन पर भारी वित्तीय दबाव पड़ा और स्पेन आय के विभिन्न स्रोत ढूंढने के लिए मजबूर हो गया। कर्ज़ इतना बढ़ गया था कि अक्सर ब्याज चुकाने में राज्य का सारा राजस्व खत्म हो जाता था। 17वीं सदी में फ्रांस में नौकरशाही का विस्तार किया गया तो दूसरी ओर बढ़ते कर के खिलाफ जन प्रतिरोध हुआ। यह 30 वर्ष युद्ध में फ्रांस की लंबे समय तक भागीदारी से लोगों की बढ़ रही कठिनाइयों और कर में होती वृद्धि से उत्पन्न असंतोष का नतीजा था। इस समय सर्दियां बहुत कड़ाके की थी। अक्सर बीज जम जाते थे और ब्रेड की कीमतें बढ़ जाती थी। इसी बीच फ्रांस में "फ्रोंदे विद्रोह" ने गृहयुद्ध का रूप ले लिया।
इस समय निरंतर बढ़ते महंगे पदों की संख्या में वृद्धि हुई। नौकरशाही का आकार बढ़ता जा रहा था क्योंकि नौकरशाही में विस्तार की प्रवृत्ति होती है। यह समाज की कीमत पर भारी करो के दम पर बना रहा। 1620 के बाद की मंदी और शाही दरबार के खिलाफ व्यापक प्रतिक्रिया देखने को मिली। ट्रैवर-रोपर इस विद्रोह का कारण शाही दरबार और देश के बीच तनाव की स्थिति को मानते हैं।
अंतरराष्ट्रीय व्यापार के दो महत्वपूर्ण क्षेत्र भूमध्यसागर और बाल्टिक के व्यापार ढांचे में महत्वपूर्ण बदलाव आया। 1650 के बाद भूमध्य सागर तैयार उत्पादों का निर्यात करने के बजाय स्थानीय वस्तुओं, मुख्यत: कच्चे माल का विनिमय करने लगा। 1635 के बाद फ्रांसीसी व्यापार भी आधा हो गया और 1650 के बाद और भी डूब गया। 17वीं सदी के संकट को सामंतवादी संकट के रूप में देखा जा सकता है। इरिक हाब्सबाम मानते हैं कि यह संकट यूरोप के कई हिस्सों में मौजूद था और यह मूल रूप से उत्पादन की पद्धति का संकट था। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि पहले का आर्थिक विकास सामंती ताने-बाने में हुआ था। सामाजिक-आर्थिक के पुराने संबंधों ने आर्थिक विकास को होने नहीं दिया।
वे विलासिता की वस्तुओं और युद्ध पर निवेश को पसंद करते थे और घरेलू बाजार, औद्योगिक उत्पादन और श्रम विभाजन के विस्तार को रोकते थे। मार्क्सवादी विद्वान इस संकट को सामंती अर्थव्यवस्था से पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में परिवर्तन का अंतिम दौर मानते है। माना जाता है कि यह संकट सामंतवादी ढांचे द्वारा उत्पन्न किए गए रुकावटों को दूर करने में असफल रहा।
निष्कर्ष:- 17वीं सदी का संकट यूरोप के हर एक देश में हुआ जिसने सभी कारकों को प्रभावित किया। इतिहासकारों ने इस संकट के कारणों की अलग-अलग व्याख्या प्रस्तुत की है। इसमें एनाल्स स्कूल के इतिहासकार और मार्क्सवादी इतिहासकारों ने भी अपना योगदान दिया है। इस संकट का सबसे ज्यादा प्रभाव किसानों पर पड़ा जिसके ऊपर करों का बोझ लाद दिया गया। इस संकट को उत्पन्न होने में आर्थिक कारको ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
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