बुकर टी. वाशिंगटन और नागरिक अधिकार आंदोलन

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बुकर टी. वाशिंगटन और नागरिक अधिकार आंदोलन अफ्रीकी-अमेरिकी नागरिक अधिकार आंदोलन (1955-1968) का उद्देश्य अफ्रीकी अमेरिकी लोगों के खिलाफ नस्लिय भेदभाव को गैर कानूनी घोषित करना और दक्षिण अमेरिका में मतदान अधिकार को पुन: स्थापित करना था। गृहयुद्ध के बाद अश्वेतों को गुलामी से मुक्त कर दिया गया था लेकिन उसके बावजूद भी उनकी स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया। पुनर्निर्माण और द्वितीय विश्वयुद्ध के बीच अश्वेतों की स्थिति ओर खराब हो गई। इस दौरान बुकर टी. वाशिंगटन इनके लिए एक प्रभावशाली नेता बनकर उभरे। वाशिंगटन ने अफ्रीकी-अमेरिकियों के लिए व्यावसायिक शिक्षा और औद्योगिक शिक्षा को बढ़ावा दिया ताकि वह आर्थिक रूप से संपन्न और कुशल बन सके। पृषठभूमि दक्षिण अमेरिका में अश्वेतों ने संघर्ष कर अपने आपको दासता मुक्त कराया। अश्वेतों ने अपनी संस्थाएं बनाई जिससे अश्वेत राष्ट्रवाद का उदय हुआ। नेशनल नीग्रो कन्वेंशन जैसे कई नीग्रो संगठन बने। गृहयुद्ध के दौरान अफ्रीकी-अमेरिकी नेताओं के बीच कट्टरपंथी विचारों का विकास हुआ। बिशप एम. टर्नर, मार्टिन आर. डेलानी और अलेक्ज़ेंडर क्रूमेल ने अश्वेतों के लिए एक स्वायत्त राज्य की...

1857 के विद्रोह में समजिक वर्गो की भूमिका

प्रश्न:- 1857 के विद्रोह में विभिन्न सामाजिक वर्गों के भूमिका की व्याख्या कीजिए।

परिचय:- 1857 का विद्रोह मध्य और उत्तरी भारत के कुछ भागों में घटित हुआ। इस विद्रोह में दोनों ओर से असाधारण हिंसा का सहारा लिया गया। इस विद्रोह के चलते अंग्रेजों ने सार्वजनिक रूप से फांसी दी, विद्रोहियों को तोप से उड़ाया और मनमाने ढंग से गांवों को जलाना उनके विद्रोह-विरोधी कदमों में शामिल था। विद्रोहियों ने भी निर्ममता से गोरे नागरिकों के स्त्रियों और बच्चों की हत्या की। इस विद्रोह ने ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन का अंत कर दिया और भारतीय साम्राज्य को ब्रिटेन की महारानी ने अपने अधीन ले लिया। इस विद्रोह को लंबे समय तक सैनिक विद्रोह समझा जाता रहा है लेकिन वास्तव में इस विद्रोह में उत्तर -भारत के दुखी ग्रामीण समाज की भी हिस्सेदारी थी। यह विद्रोह मेरठ से शुरू होते हुए दिल्ली और बाद में पश्चिमी प्रांत और अवध के सेना -केंद्रों तक फैल गया और जल्द ही उसने एक नागरिक विद्रोह का रूप ले लिया। इस विद्रोह में शामिल होने के लिए समाज के विभिन्न वर्गों के अपने-अपने हित शामिल थे, किंतु विभिन्न सामाजिक वर्गों का दुश्मन केवल एक ही था इसलिए इन्होंने इसमें राष्ट्रीयता की भावना का भी प्रदर्शन किया।

इस विद्रोह में सामंत वर्ग और किसान दोनों ही शामिल थे। अलग-अलग वर्गों की अलग-अलग समस्याएं थी और इनकी प्रकृति भी अब अलग-अलग क्षेत्र में अलग-अलग थी। सामंतो ने अंग्रेजो के खिलाफ विद्रोह लॉर्ड डलहौजी की नीति डॉक्ट्रिन ऑफ़ लैप्स (विलय सिद्धांत) के खिलाफ की थी। इस नीति के तहत अंग्रेजों ने मरने वाले राजाओं के पुत्रों को कानूनी उत्तराधिकार देने की मान्यता को रद्द कर दिया और उनके राजवाड़े जब्त पर लिए । उत्तराधिकार की परंपरागत व्यवस्था में अंग्रेजों के हस्तक्षेप से सामंती भू -स्वामी भी विद्रोह में शामिल हो गए। 

अंग्रेजों ने फरवरी 1856 में अवध पर कब्जा करके उसके नवाब को कोलकाता भेज दिया। इस घटना ने न केवल नवाब के परिवार को ही, बल्कि शाही दरबार से जुड़े कुलीन वर्ग को भी प्रभावित किया। इन शहजादों तथा कुलनो ने अनेक मामलों में तथा अपने अपने क्षेत्रों में विद्रोहियों का नेतृत्व किया और इस विद्रोह को वैधता प्रदान की। बड़े भूस्वामी यानी तालुकदार ग्रामीण समाज के ऐसे दूसरे तत्वों थे जो विद्रोहियों के साथ आए। अवध पर कब्जा करने के बाद अंग्रेजों ने वहां 1856 में एक "चलताऊ बंदोबस्त" किया जिसके कारण अनेक शक्तिशाली तालुकदार बेदखल कर दिए गए।

इस व्यवस्था का उद्देश्य किसानों और सरकार के बीच में खड़े बिचौलियों से छुटकारा पाना था। इसके कारण अवध में लगभग आधे तालुकदार अपनी जागीरो से वंचित हो गए उनके हथियार जब्त कर लिए गए और किलाबंदी कर दी गई। इस प्रकार अवध में भूस्वामी कुलीनो के असंतोष का अड्डा बन गया। विद्रोह का आरंभ होने पर यह तालुकदार अपने गांव में जाकर रहने लगे और अपने अधीन काम करने वाले किसानों को अपने साथ लेकर विद्रोह में शामिल हो गए। 

टॉमस मैटकॉफ का तर्क है कि सामंती निष्ठा में बंधे ग्रामीणों ने अपने स्वामियों के दावों को खुशी-खुशी स्वीकार कर लिया और अपने साझे शत्रु यानी अंग्रेजों के विरुद्ध उन्होंने आपस में हाथ मिला लिया। किसान विद्रोह में इसलिए शामिल हुए कि राज्य के करो कि भारी मांग उनकी भी कमर तोड़ रही थी। जहां खेती योग्य जमीन नहीं थी वहां पर भी भारी करो की मांग की जा रही थी, जिससे किसान कर्जदार बन गए। 1853 में केवल पश्चिमोत्तर प्रांत में 1,10,000 एकड़ जमीन नीलाम कर दी गई और इसी कारण जब विद्रोह का आरंभ हुआ तो बनिए, महाजन और उनकी संपत्तियां विद्रोही किसानों के हमलों का निशाना बन गई।

भारतीय समाज के अन्य समूह गुर्जर, जाट और राजपूतों या सैयदों के आपसी सामुदायिक संबंध किसान विद्रोह को निर्धारित करने वाले प्रमुख कारण बन गए। यह सामाजिक वर्ग ब्रिटिश राज्य को अपने धर्म के लिए खतरा मानते थे।‌ यह ईसाई मिशनरियों द्वारा किए जाने वाले धर्म प्रचार के विरुद्ध थे। इसी प्रकार हिंदू और मुसलमान एक समान रूप से प्रभावित हुए। इसलिए हिंदू मुस्लिम और विभिन्न सामाजिक समूहों ने बढ़-चढ़कर विद्रोह में हिस्सा लिया। "एस.बी चौधरी" ने इस विद्रोह को एक विदेशी शक्ति को चुनौती देने के लिए अनेक वर्गों की जनता का पहला संयुक्त प्रयास कहा है।

इस विद्रोह से पहले हुए किसान विद्रोह के कारण कुछ क्षेत्रों में आपसी संपर्क स्थापित हो चुका था। उत्तर और मध्य भारत के विभिन्न क्षेत्रों के विद्रोहियों के बीच समन्वय और संवाद भी था और उड़ती हुई अफवाहें इन विद्रोहियों को एक बंधन में बांधे रखती थी। ब्रिटिश राज के कारण उनके जीवन में आई उत्तल -पुथल नए समाज के सभी वर्गों को प्रभावित किया। इसलिए जो भी चीज कंपनी की सत्ता की प्रतीक थी, उनके हमलों का निशाना बन गई। यह सब यही समझते थे कि उनकी जाति और धर्म खतरे में है।

समाज के वर्गों को जागरूक करने की मुख्य पहल सिपाहियों यानी वर्दीधारी किसानों ने की, जो अब अपनी वर्दी उतार कर फिर किसानों में जा मिले थे। इन सिपाहियों के जातिगत और उपजाति संबंध भी उनको किसान समुदाय से जोड़ते थे। लगभग हर जगह विद्रोह से पहले बड़ी संख्या में इन विद्रोहियों ने बातचीत, पंचायतें व खुली बैठकें की।

1857 के विद्रोह में महिलाओं ने भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। इस विद्रोह में सिर्फ बेगम हजरत महल और रानी लक्ष्मीबाई ने ही हिस्सा नहीं लिया बल्कि दर्जनों अन्य औरतों ने सक्रिय तरीके से अंग्रेजों से लोहा लिया। इस संघर्ष में दलित समुदाय से आने वाली औरतें भी शामिल थी। विद्वान जिन्हे दलित वीरांगनाएं कहकर पुकारते हैं। यह समाचारों और सूचनाओं को पहुंचाने का काम करती थी। इनमें से बहुतों ने पैसों से भी मदद की। "झलकारी बाई" झांसी के दुर्गा दल की सदस्य थी। यह तीरंदाजी, तलवारबाजी में प्रशिक्षित थी। लक्ष्मीबाई ने इनका इस्तेमाल अंग्रेजों को चकमा देने के लिए किया। यह रानी की तरह पोशाक पहनकर झांसी की सेना की सेनापति बन गई, जिससे अंग्रेज धोखा खा गए।

नवंबर 1857 में सिकंदर बाग में हुए विद्रोह में "ऊदा देवी" भी शामिल थी। यह पासी समुदाय से ताल्लुक रखती थी। अंग्रेजों के साथ खूनी लड़ाई में इन्होंने पेड़ पर चढ़ चढ़कर अंग्रेजों पर गोलियां दागी। इस विद्रोह में दलित समुदाय की औरतों ने भी योगदान दिया। ऐसी ही एक वीरांगना मुजफ्फरनगर जिले की "महावीरी" देवी थी। महावीरी देवी ने 22 औरतों के साथ एक दस्ता बनाया। इस दस्ते ने कई अंग्रेज सैनिकों पर हमला किया और उन्हें मार गिराया। महिलाओं में सबसे दिलचस्प कहानी कानपुर की तवायफ अजीजन बाई की है। यह कानपुर के घुड़सवार सेना में शामिल थी। यह सशस्त्र जवानों का हौसला अफजाई करती और जख्मी सैनिकों की मरहम पट्टी करती थी। यह उनको हथियार और गोला-बारूद भी मुहैया करवाती थी। इन तवायफो के कोठे विद्रोहियों के मिलने की जगह बन चुके थे। 

"रुद्रांश मुखर्जी" का मानना है कि अंग्रेजों की नीतियों ने जमीदारों और किसानों के कर व्यवस्था को प्रभावित किया। इससे सामाजिक संबंध अव्यवस्थित हो गए। कंपनी के आने से पहले किसान के उत्पादन का काफी हिस्सा किसानों के पास बच जाता था लेकिन ब्रिटिश काल में यह बच नहीं पाया जिसके चलते उन्होंने विद्रोह किया।

"रजत राय" के अनुसार यह किसान अपने आप को एक समुदाय समझते थे अंग्रेजों के आ जाने से इनके सामुदायिक एकता में दरार पड़ने लगी। इलाहाबाद में विद्रोहियों ने जेल तोड़ दिए और सत्ता को चुनौती दी। बुंदेलखंड में किसानों का मुख्य निशाना स्थानीय सत्ता थी, जहां पर कर एकत्रित किया जाता था। इनके पास हथियार नहीं थे, उन्होंने भाले, कुल्हाड़ी हथियारों, से विद्रोह किया। 

निष्कर्ष:- इस विद्रोह में समाज के प्रत्येक वर्ग ने योगदान दिया। किंतु इनके योगदान में देखने लायक बात यह है कि जहां जमीदारों और तालुकदारों ने अपने व्यक्तिगत हित के लिए इस विद्रोह में शामिल हुए, तो वहीं दूसरी और किसान और दलितों ने देशभक्ति के साथ विद्रोह किया। विद्रोह की प्रकृति कैसी भी रही हो किंतु इन सब का दुश्मन एक ही था। इसलिए वी.डी सावरकर ने इस विद्रोह को भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहा है।

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