अंग्रेजों द्वारा लागू की गई भू-राजस्व प्रणाली और प्रभाव
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प्रश्न:- अंग्रेजों द्वारा लागू की गई भू-राजस्व प्रणाली का वर्णन कीजिए तथा ग्रामीण समाज पर पड़े इसके प्रभाव का परीक्षण कीजिए।
परिचय:- भारत पर ब्रिटेन की विजय अन्य विदेशी विजय से सर्वथा भिन्न थी। ब्रिटिश उपनिवेशवाद द्वारा भारत की उत्पादन प्रणाली तथा संपत्ति संबंधी किए गए परिवर्तनों का दूरगामी प्रभाव पड़ा। इन परिवर्तनों ने जहां सामाजिक, आर्थिक संस्थाओं का विनाश किया, वहीं दूसरी ओर एक नए सामाजिक आर्थिक ढांचे, नए सामाजिक वर्ग और नई राजनीतिक व्यवस्था को जन्म दिया। भारत पर पहली बार एक पूंजीवादी राष्ट्र का शासन था। भारतीय समाज के पुरातन आर्थिक आधार का उन्मूलन कर उसकी जगह पूंजीवादी व्यवस्था की स्थापना किए बिना ब्रिटेन अपनी खुद की पूंजीवादी आर्थिक आवश्यकताओं के लिए औपनिवेशिक भारत का उपयोग नहीं कर सकता था। भारत पर अंग्रेजों के राजनीतिक प्रभुत्व के विस्तार की दिशा में उठाया गया हर कदम पुरानी अर्थव्यवस्था के विघटन और नए आर्थिक रूपों के उदय की दिशा में एक अलग कदम था। नई लगान व्यवस्था ने गांव की जमीन पर लोगों की जमाने से चली आ रही मिल्कियत खत्म कर उसकी जगह भूस्वामित्व के तीन रूपों को जन्म दिया- जमींदारी व्यवस्था, रैयतवाड़ी व्यवस्था तथा महालवाड़ी व्यवस्था।
जमींदारी व्यवस्था:- 1793 में कॉर्नवालिस ने बंगाल, बिहार और उड़ीसा में जमीन के स्थाई बंदोबस्त के जरिए भारत में जमींदारी का सृजन किया। अंग्रेज शासकों के अधिकारियों ने इन प्रांतों में जिन तहसीलदारों को कमीशन के आधार पर भूमि कर की वसूली का अधिकार दिया था उन्हीं में से जमीदारों के इस नए वर्ग का उदय हुआ। पहले के जितने भी ऐसे तहसीलदार थे वे सब स्थाई बंदोबस्त में जमींदार हो गए।
इस व्यवस्था के जरिए अंग्रेजों ने लगान की वसूली किसानों से न करके इन जमीदारों से करना शुरू कर दिया। लाखों छोटे किसान की अपेक्षा कुछ एक हजार जमीदारों से लगान की वसूली आसान और आर्थिक दृष्टि से लाभदायक थी। इस व्यवस्था के जरिए अंग्रेजी राज ने राजनीतिक दृष्टि से सामाजिक समर्थन हासिल कर लिया। जमीदारों का यह नया वर्ग ब्रिटिश शासन के ही चलते जन्मा इसलिए इनसे आशा की जाती थी कि यह अवश्य ही उनकी मदद करेगा। जिन लोगों ने ब्रिटिश सरकार को बहुमूल्य सैनिक या सेवाएं प्रदान की, उन्हें जमीन का अनुदान देकर जमींदार बनाया गया। एक अन्य प्रकार से भी एक दूसरे किस्म के जमींदार वर्ग का जन्म हुआ। छोटे सरदारों के शुल्क और नजराने को लगान माना जाने लगा और उनके राजनीतिक, सेना संबंधी और प्रशासनिक अधिकारों को समाप्त कर दिया गया।
रैयतवाड़ी व्यवस्था:- इस व्यवस्था के अंतर्गत किसान को उस जमीन का स्वामी माना गया जिसे वह जोतता था। सर टॉमस मुनरो जमीदारी प्रथा को भारतीय परंपरा के प्रतिकूल मानते थे इसलिए 1820 में मद्रास प्रांत में उन्होंने रैयतवाड़ी व्यवस्था को लागू किया। बाद में यह व्यवस्था मुंबई, सिंध, आसाम और कुछ और इलाकों में भी लागू हुई।
इस व्यवस्था में किसान को सरकार से सीधे भूमि प्राप्त करने की मान्यता दी गई। किसान को भूमि का प्रयोग करने, किराए पर देने, गिरवी रखने या किसी अन्य को हस्तांतरित करने का पूरा अधिकार था। जब तक वह सरकार को भू-राजस्व नियमित रूप से अदा करता रहता, तब तक उसका भूमि पर अधिकार बना रहता। भू राजस्व किराए के नाम पर दिया गया तथा प्रत्येक किसान को यह किराया अदा करने के लिए व्यक्तिगत स्तर पर जिम्मेदार ठहराया गया। इस व्यवस्था में किसान के पैदावार का ख्याल नहीं रखा जाता था और किसानों को जमीन के हिसाब से मालगुजारी तय की जाती थी। इस तरह जमीदारी प्रथा की तरह रैयतवाड़ी बंदोबस्त भी हिंदुस्तानी परंपरा के उल्टा था।
महालवारी व्यवस्था:- उत्तरी भारत तथा पंजाब के कुछ क्षेत्रों में एक अन्य व्यवस्था, महलवारी व्यवस्था लागू की गई। इसमें लगान देने के लिए संयुक्त जमीदारी की व्यवस्था की गई। कृषि भूमि को गांव की सामुदायिक संपत्ति के रूप में मान्यता दी गई। इसमें काश्तकार व्यक्तिगत स्तर पर नहीं बल्कि पूरे गांव की ओर से सरकार के साथ समझौता करता था। इस व्यवस्था में जमीन के नए बंदोबस्त अस्थाई भूमि कर के आधार पर किए गए। जमीन के इन अस्थाई बंदोबस्त में जो जमीदार बनाए गए उनकी जमीन पर मिल्कियत तो स्थाई थी लेकिन जो भूमि कर वे सरकार को देते थे उसे बाद में पुनरीक्षित किया जा सकता था।
इस प्रकार अंग्रेजों ने अपनी सुविधा और लाभों के अनुकूल भारत में भूमि संबंधों को परिभाषित किया। हम देखते हैं कि भारत के अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग प्रकार की व्यवस्था अपनाई गई। "रजनी पाम दत्त" के शब्दों में हिंदुस्तान में जमीन पर तीन तरह के अधिकार है इन तीनों का उद्गम अंग्रेज सरकार है और असल में हर सूरत में जमीन पर सरकार का ही अधिकार होता है। किंतु यह नहीं समझना चाहिए कि जमीदारी प्रथा ब्रिटिश भारत के उसी हिस्से में लागू थी जहां जमीदारी बंदोबस्त किया गया। रैयतवाड़ी इलाकों में भी बड़ी तेजी से यह प्रथा चल पड़ी। महाजनों के कर्ज से किसानों के खेत छिन गए और दूसरों ने उन पर कब्जा कर लिया।
प्रभाव:- नई भूमि व्यवस्था में गांव कर निर्धारण और कर भुगतान की इकाई नहीं रह गया और जमीन के निजी मिल्कियत के साथ ही व्यक्तिगत कर निर्धारण और कर अदायगी की प्रथा शुरू हुई। कर निर्धारण और कर अदायगी का नया तरीका भी शुरू हुआ। फसल की जगह नकद भुगतान की प्रथा आई। जिसके अनुसार जमीन के आधार पर कर निर्धारण होता था। फसल चाहे अच्छी हो या खराब, अधिक जमीन पर खेती हुई हो या कम पर, साल में रुपए की एक निश्चित राशि दे होती थी। भूमि कर के निर्धारण और भुगतान के नए रूप का व्यापक प्रभाव पड़ा।
लगान की नई व्यवस्था के साथ जमीन के गिरवी रखने और खरीद- बिक्री की प्रथा शुरू हुई। जब किसान राज्य को भूमि कर नहीं चुका पाता, तब उसे अपनी जमीन गिरवी रखनी पड़ती थी। ईस तरह नई भूमि व्यवस्था ने गांव के सामुदायिक जनजीवन को झकझोर दिया। यह कृषक समुदाय की ऋणग्रस्तता और गरीबी का मुख्य कारण सिद्धू हुआ। परिणामस्वरूप कृषि का वाणिज्यिकरण हुआ। करों के भुगतान के लिए ग्रामीणों उपभोग के बजाय बाजार में विक्रय के लिए उत्पादन शुरू हुआ। किसान बाजार की दृष्टि से सामान पैदा करने लगा।
भूमि कर की राशि और लगान की अदायगी के लिए किसान अब खास किस्म की फसल उगाने पर जोर देने लगा। कई गांवों की जमीन में अब बस केवल एक ही किस्म की फसल उगाई जाने लगी जैसे रूई, जूट, गेहूं, ईख, तेलहन इत्यादि। कुछ क्षेत्रों को विशिष्ट फसलों के लिए निर्धारित कर दिया गया जो मुख्यतः निर्यात के लिए थी जैसे- बर्मा को धान के लिए, पंजाब को गेहूं के लिए, पूर्वी बंगाल जूट के लिए, महाराष्ट्र एवं गुजरात को रूई के लिए।
अपनी निजी और गांव की सामूहिक जरूरतों को पूरा करने के बजाय अब भारत के किसान उपनिवेशी शासन के लाभों के लिए फसल उगाने लगा जिससे गांव की कृषि और उद्योगों की प्राचीन एकता भी बंद हो गई। भूमि का विभाजन और विखंडन भारत के कृषि का विनाशकारी तथ्य है। हर किसान की जमीन कम होती गई। एक तरफ खेती पर लोगों की निर्भरता बढ़ती गई, वहीं दूसरी तरफ उद्योगों पर लोगों की निर्भरता घटती गई। इससे मालूम होता है कि किस तरह अनौद्योगिकरण होता जा रहा था। पुरानी दस्तकारी का विनाश तो हुआ ही लेकिन नए उद्योग धंधों का विकास नहीं हुआ। इससे खेतों पर लोगों की निर्भरता जरुर से ज्यादा बढ़ गई।
जोतों के विखंडन के कारण किसानों के लिए सुचारू रूप से खेती करना कठिन हो गया। इसके विखंडन के कारण खेतीहर मजदूरों की तादाद बढ़ती गई। छोटी जोतों के कारण किसान गरीब होते गए और उनकी गरीबी का यह नतीजा हुआ कि वह उत्पादन के तरीकों और तकनीकों को विकसित नहीं कर सके। इस तरह जोति जाने वाली जमीन का उत्पादन लगातार घटता गया।
ब्रिटिश शासनकाल में किसानों की ऋणग्रस्तता प्रत्येक दशक में लगातार बढ़ती गई। इस कारण रैयतवाड़ी इलाको में बड़े पैमाने पर जमीन किसानों के हाथों से निकलकर सूदखोर महाजनों के हाथ में जाने लगी। जमीदारी इलाकों में बड़े पैमाने पर किसानों की बेदखली हुई। नए आर्थिक पर्यावरण में जिस दरिद्रता का जन्म हुआ, उसके कारण अधिकाधिक जमीन महाजनों की होने लगी। ऋणग्रस्तता के कारण जमीदारी ने एक अन्य विशेषता को जन्म दिया और वह था कृषि मजदूर वर्ग तथा कृषि दास वर्ग का उदय। खेतिहर मालिकों और काश्तकारों की संख्या घटती गई और जमीदारों की संख्या बढ़ती गई। अर्थात बहुत से ऐसे भूमिहीन मजदूरों की उपस्थिति थी, जिन्हें साल में केवल कुछ महीने ही काम मिल पाता था तथा जो भुखमरी की जिंदगी व्यतीत कर रहे थे।
आर. के. मुखर्जी के अनुसार कृषि मजदूरों की वृद्धि के कई कारण थे जैसे- ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सामुदायिक अधिकारों का समाप्त होना, भूमि का विखंडन, बिचौलियों तथा पाटेदारों में वृद्धि, भूमि का हस्तांतरण तथा गिरवी रखा जाना तथा कुटीर उद्योगों का विनाश। भारत के कुछ हिस्सों में ऋणग्रस्तता के कारण कुछ किसान कृषि दास की स्थिति में पहुंच गए थे।
निष्कर्ष:- इस तरह भारत की औपनिवेशिक स्थिति के कारण खेती में भूमि संबंधों के आगमन से भी कृषि का आधुनिकरण नहीं हुआ और न ही कुछ ही दिनों के लिए ही सही किसान समृद्ध संपन्न हो पाए। खेत पर सामाजिक स्थायित्व के बदले निजी स्थायित्व के आगमन से सामाजिक विनिमय संबंधों का विकास हुआ, लेकिन खेती के तकनीकी आधार में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। परंतु इसके साथ ही ब्रिटिश उपनिवेशवाद के कुछ प्रगतिशील पहलू भी भारतीय कृषि के संदर्भ में देखने को मिले।
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