बुकर टी. वाशिंगटन और नागरिक अधिकार आंदोलन

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बुकर टी. वाशिंगटन और नागरिक अधिकार आंदोलन अफ्रीकी-अमेरिकी नागरिक अधिकार आंदोलन (1955-1968) का उद्देश्य अफ्रीकी अमेरिकी लोगों के खिलाफ नस्लिय भेदभाव को गैर कानूनी घोषित करना और दक्षिण अमेरिका में मतदान अधिकार को पुन: स्थापित करना था। गृहयुद्ध के बाद अश्वेतों को गुलामी से मुक्त कर दिया गया था लेकिन उसके बावजूद भी उनकी स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया। पुनर्निर्माण और द्वितीय विश्वयुद्ध के बीच अश्वेतों की स्थिति ओर खराब हो गई। इस दौरान बुकर टी. वाशिंगटन इनके लिए एक प्रभावशाली नेता बनकर उभरे। वाशिंगटन ने अफ्रीकी-अमेरिकियों के लिए व्यावसायिक शिक्षा और औद्योगिक शिक्षा को बढ़ावा दिया ताकि वह आर्थिक रूप से संपन्न और कुशल बन सके। पृषठभूमि दक्षिण अमेरिका में अश्वेतों ने संघर्ष कर अपने आपको दासता मुक्त कराया। अश्वेतों ने अपनी संस्थाएं बनाई जिससे अश्वेत राष्ट्रवाद का उदय हुआ। नेशनल नीग्रो कन्वेंशन जैसे कई नीग्रो संगठन बने। गृहयुद्ध के दौरान अफ्रीकी-अमेरिकी नेताओं के बीच कट्टरपंथी विचारों का विकास हुआ। बिशप एम. टर्नर, मार्टिन आर. डेलानी और अलेक्ज़ेंडर क्रूमेल ने अश्वेतों के लिए एक स्वायत्त राज्य की...

भारत में अंग्रेजो द्वारा लागू की गई आधुनिक शिक्षा


प्रश्न:- भारत में अंग्रेजों द्वारा लागू की गई आधुनिक शिक्षा का विस्तार से वर्णन कीजिए।

परिचय:- अंग्रेजों ने जब बंगाल की दीवानी प्राप्त कर ली उस समय अरबी, फारसी और संस्कृत में उच्च शिक्षा केवल मदरसों और पाठशालाओं में मिलती थी। स्वदेशी भाषाओं में उच्च शिक्षा काफी दयनीय हालत में थी। गणित, इतिहास, राजनीतिक दर्शन, अर्थशास्त्र या भूगोल जैसे विषय भी उस समय पाठ्यक्रम में शामिल नहीं थे। अंग्रेजों ने भारत के लोगों को आधुनिक शिक्षा से परिचित करवाया जिसका उद्देश्य अंग्रेजी भाषा के माध्यम से पश्चिमी शिक्षा का प्रचार करना था। भारत में आधुनिक शिक्षा के प्रसार का श्रेय विदेशी ईसाई मशीनरीयों, ब्रिटिश सरकार और प्रगतिशील भारतीयों को है। ईसाई मशीनरीयों ने भारत में शिक्षा के प्रसार के लिए स्कूल व कॉलेज की स्थापना करवाई। इन स्कूल व कॉलेजों में हजारों की तादात में भारतीय लोग शिक्षित हुए। किंतु मशीनरीयों का मुख्य उद्देश्य भारतीय जनता में ईसाई धर्म का प्रचार करना था। भारत में अंग्रेजों की राजनीतिक, प्रशासनिक एवं आर्थिक आवश्यकताएं थी। जिनके कारण भारत में आधुनिक शिक्षा की शुरुआत हुई। 

ब्रिटिश सरकार को विद्युत विभाग के लिए व्यापक प्रशासन तंत्र की आवश्यकता थी। विशाल प्रशासनिक तंत्र को चलाने के लिए शिक्षित व्यक्तियों की जरूरत थी। अत: नए प्रशासन के लिए योग्य व्यक्तियों को प्रशिक्षित करने के लिए भारत में स्कूल और कॉलेज खोलना आवश्यक हो गया। 

कुछ अन्य कारण भी थे जिनके कारण ब्रिटिश राजनीतिज्ञ और विचारको ने भारत में आधुनिक शिक्षा को प्रश्रय दिया। प्रबुद्ध अंग्रेजों का यह विश्वास था कि ब्रिटिश संस्कृति भारत में सर्वश्रेष्ठ और सबसे अधिक उदार थी। ब्रिटिश शिक्षा व संस्कृति के प्रसार के लिए अंग्रेजों में मशीनरीयों जैसा उत्साह था। मैंकाले ब्रिटिश राजनीतिज्ञो के इसी गुट में थे। माउंट एल्फिंस्टन जैसे कुछ अंग्रेजों का विचार था कि अंग्रेजी शिक्षा के कारण लोग ब्रिटिश शासन को अधिक खुशी से स्वीकार कर लेंगे। अंग्रेजों का उद्देश्य शिक्षा के प्रसार से अपने सिद्धांतों और विचारों का प्रचार करना था। ब्रिटिश पूंजीवाद की आर्थिक व राजनीतिक आवश्यकता ने भारत में पश्चिमी शिक्षा का मार्ग प्रशस्त किया। इसके अलावा भारत में अंग्रेजी शिक्षा की वकालत करने वाला तीसरा दल प्रगतिशील भारतीयों का था।

राजा राममोहन राय आधुनिक शिक्षा के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने पश्चिम देशों के वैज्ञानिक एवं प्रजातांत्रिक विचारों के आधार के रूप में अंग्रेजी शिक्षा का स्वागत किया। उनका मानना था कि शिक्षा की प्राचीन पद्धति को जारी रखने का अर्थ अंधविश्वास और अज्ञानता को बनाए रखना है। राय ने व्याकरण, भूगोल, खगोल विज्ञान व ज्यामिति पर पुस्तकों की रचना की। पश्चिमी विज्ञान एवं साहित्य के अध्ययन से प्राचीन संस्कृति में सुधार तथा उसके पुनरुद्धार का उन्होंने समर्थन किया। उन्होंने स्त्री शिक्षा को भी प्राथमिकता दी।

सर्वप्रथम 1706 में भारत में मिशनरियों ने दक्षिण में शिक्षण कार्य किया। 1813 का चार्टर एक्ट के द्वारा मिशनरियों को धर्म प्रचार व शिक्षण कार्य की स्वतंत्रता मिली जिससे अनेक संस्थाओं का जन्म हुआ। 1833 के बाद मिशनरी अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों एवं महाविद्यालयों पर जोर देने लगे। इन मशीनरीयों में सबसे महत्वपूर्ण योगदान "विलियम कैरे" का था। इन्होंने कोलकाता के निकट एक छापाखाना चलाया और बाइबिल का स्थानीय भाषाओं, विशेषकर बांग्ला में अनुवाद किया। इन्होंने लड़के और लड़कियों के लिए स्कूल भी चलाए।

वारेन हेस्टिंग ने अपने प्रयत्नों से भारतीय संस्कृति को समझने के लिए फारसी और संस्कृत भाषा के धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन किया और उनसे मिले ज्ञान का प्रशासनिक मामलों में बखूबी प्रयोग किया। कोलकाता मदरसा स्थापित करने का श्रेय वारेन हेस्टिंग को ही जाता है। इसी उत्साह और ललक के साथ 1784 में सर विलियम जोंस ने कोलकाता में बंगाल एशियाटिक सोसाइटी की स्थापना की और उसके बाद 1792 में बनारस में रहने वाले जोनाथन डंकन ने एक संस्कृत कॉलेज स्थापित किया।

ईस्ट इंडिया कंपनी में चार्ल्स ग्रांट नामक एक अंग्रेज नौकरशाह था जिसने अंग्रेजी पढ़ाने के लिए विद्यालयों की स्थापना की बात की। उनका मानना था कि भारत के समाज में सामाजिक बुराइयों और लोगों के नैतिक पतन जैसे गंभीर समस्याएं व्याप्त है, जोकि एक गहरे और व्यापक रूप से ज्ञानाभाव के चलते बने हुए है। उनका मानना था कि इस तरह के ज्ञानाभाव को शिक्षा और प्राथमिक रूप से अंग्रेजी में शिक्षा के माध्यम से दूर किया जा सकता है। ग्रांट ने इंग्लैंड लौटने पर हाउस ऑफ कॉमंस और कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स को इस बारे में समझाने का प्रयास किया।

1830 में ब्रिटिश सांसद ने ईस्ट इंडिया कंपनी को उपयोगी ज्ञान और धार्मिक व नैतिक सुधार वाले ज्ञान के प्रयास के लिए स्थितियों को भापने की बात कही। कंपनी ने इस विषय पर कार्य करते हुए, भारत के लोगों को सिखाने के लिए तथा स्थानीय लोगों के बीच विभिन्न विज्ञानों के ज्ञान को प्रोत्साहित करने के लिए हर साल एक लाख रुपए देना शुरू किया। 

ईस्ट इंडिया कंपनी समाज के किस वर्ग को शिक्षित करें की वह शिक्षा के प्रसार में सहयोग दें, यह एक प्रमुख समस्या थी। अंग्रेजों ने सबसे पहले अभिजात्य वर्ग के सरदार, नवाब, राजा आदि को शिक्षित किया। किंतु यह वर्ग कंपनी की अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरा और लोगों को शिक्षित करने के स्थान पर कंपनी की सेवा में रहना ज्यादा पसंद किया। दूसरी नीति के अनुसार समाज के महत्वपूर्ण वर्ग व असरदार लोगों को शिक्षित किया गया लेकिन वे भी अंतरजातीय प्रतिस्पर्धा व संघर्ष के कारण शिक्षा का प्रसार नहीं कर सके। तीसरी नीति में कंपनी ने सर्वप्रथम सीमित संख्या में लोगों को आधुनिक पश्चिमी शिक्षा दी। धीरे-धीरे यह शिक्षित व्यक्ति समाज के अन्य लोगों को शिक्षित करने में अहम भूमिका निभाने लगे।

1835 के बाद शिक्षा के क्षेत्र में प्रगति हुई कोलकाता में मेडिकल कॉलेज की स्थापना की गई और बाद में इंजीनियरिंग कॉलेज की। बंबई में तकनीकी शिक्षा के क्षेत्र की शुरुआत की गई।

चार्ल्स वुड घोषणा पत्र:- चार्ल्स वुड को भारतीय शिक्षा का मैग्नाकार्टा कहा जाता है। वह बोर्ड ऑफ कंट्रोल के अध्यक्ष थे, जिन्होंने भारत की शिक्षा के उद्देश्यों एवं सुधारों का विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया, जिसे वुड डिस्पैच के नाम से जाना जाता है। इनके प्रस्ताव को 19 जुलाई 1854 को स्वीकार लिया गया। इनके प्रस्ताव में पश्चिमी संस्कृति का प्रसार करना, जन प्रशासन के लिए जनसेवक तैयार करना, माध्यमिक शिक्षा अंग्रेजी एवं भारतीय भाषाओं के माध्यम से देना, औरतों और जनसाधारण की शिक्षा, प्रतिभाशाली छात्रों को छात्रवृत्ति देने तथा लंदन विश्वविद्यालय के आधार पर भारत में विश्वविद्यालय की स्थापना का सुझाव था। वुड के प्रस्ताव को व्यावहारिक रूप डलहौजी ने प्रदान किया। प्रत्येक प्रांत में शिक्षा विभाग की स्थापना की गई। निजी स्कूलों को अनुदान देने के लिए नियम बनाए गए। लॉर्ड कैनिंग के काल में कोलकाता, मुंबई, मद्रास में विश्वविद्यालय की स्थापना की गई। इन विश्वविद्यालयों का कार्य लंदन विश्वविद्यालय की तरह केवल परीक्षाएं आयोजित करना था।

हंटर शिक्षा आयोग :- 1882 में सरकार ने डब्लू. डब्लू. हंटर की अध्यक्षता में एक आयोग 1884 के पश्चात शिक्षा की प्रगति के लिए नियुक्त किया। इसे प्राथमिक व माध्यमिक शिक्षा की समीक्षा करना था। आयोग ने सभी प्रांतों का भ्रमण किया और लगभग 200 प्रस्ताव पारित किया। अपने प्रस्ताव में उन्होंने सरकार को प्राथमिक शिक्षा के सुधार और विकास, शिक्षा को स्थानीय भाषा में उपलब्ध कराने, प्राथमिक पाठशालाओं का नियंत्रण जिला और नगर बोर्ड को दिए जाने, तथा स्त्री शिक्षा पर जोर दिया। हंटर कमीशन की रिपोर्ट के बाद दो दशकों में माध्यमिक और कॉलेज की शिक्षा का तीव्रता से विकास हुआ। उस समय विश्वविद्यालय स्थापित हुए जो केवल परीक्षा ही नहीं लेते थे बल्कि वहां शिक्षा की व्यवस्था भी करवाते थे। भारत में 1885 तक अंग्रेजी में शिक्षित लगभग 55,000 स्थानीय लोगों का एक ठीक-ठाक वर्ग तैयार हो गया था। लेकिन वहीं दूसरी और 19 करोड़ से ज्यादा जनसंख्या ही प्राथमिक स्कूलों तक पहुंच पाई थी।

 "सी.ई. ट्रेवलायन" बताते हैं कि ज्ञान की व्यवस्था में भागीदारी करने वाले वे लोग थे जिनमें इसको लेकर उत्सुकता थी, जिनके पास उसको पाने के साधन थे और अपनी जीवन परिस्थितियों में ज्ञान पाने के लिए भरपूर समय था।

निष्कर्ष:- भारत के शिक्षा का चरित्र औपनिवेशिक था। औपनिवेशिक शिक्षा की पहली प्राथमिकता औपनिवेशिक शासन को मजबूत बनाना और उसे स्थायित्व प्रदान करना था। इसी कड़ी में उच्च शिक्षा को और मजबूत बनाने की विचार से 1857 में तीन विश्वविद्यालय कोलकाता, मुंबई और मद्रास में खोले गए। शिक्षा नीति एक व्यापक सांस्कृतिक नीति थी जिसका उद्देश्य लोगों को यह अहसास कराना था कि वे सांस्कृतिक दृष्टि से पश्चिम के लोगों की तुलना में पिछड़े हुए हैं। पश्चिमी शिक्षा के विकास से प्रजातांत्रिक, वैज्ञानिक, बुद्धिवादी संस्कृति की नींव पड़ी।

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