ब्रिटिश सरकार की इवेंजिलवादी विचारधारा का विकास
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इवेंजिलवादी विचारधारा:- अंग्रेजों के आगमन से पहले भारतीय अतीत हो लगभग पूर्ण से हीन देखने वालों में अकेले उपयोगितावादी समूह के लोग ही नहीं थे। बल्कि ऐसी ही स्थिति इसाई मिशनरियों विशेषकर इंजीलवादियों की भी थी। इंजीलवाद 18वीं सदी के अंतिम दशकों में इंग्लैंड में एक मजबूत प्रोटेस्टेंट ईसाई धार्मिक आंदोलन के रूप में उभर कर सामने आया था। यह ब्रिटेन में समुदायों के बीच नैतिक सुधार पर बल देता था। उन दिनों इंग्लैंड में औद्योगीकरण की प्रक्रिया आगे बढ़ रही थी और एक नया मध्यम वर्ग पैदा हो रहा था।
इंजीलवाद एक नैतिक एजेंसी बन गया। इसने काम पर, सादगी पर और ईश्वरीय साम्राज्य को धरती तक फैलाने के लिए ठोस उपाय के रूप में दृढ़ता पर जोर दिया। जहां जेम्स मिल्स जैसे उपयोगितावादी कानून बनाकर भारत को बदलना चाहते थे, वही इंजीलवादी इस देश को ईसाई बना कर ऐसा करना चाहते थे। इसलिए स्वभावत: उन्होंने यह साबित करने का प्रयास किया कि भारत के पिछड़ेपन का मूल कारण हिंदू धर्म और सभ्यता है। इसलिए इंजीलवादियों ने अपना सभ्यताकारी अभियान भारत के बर्बरता के खिलाफ शुरू किया और भारत के प्रकृति को बदलने के लिए ब्रिटिश राज्य के स्थायित्व का समर्थन किया।
भारत में इस विचार के प्रवक्ता कोलकाता के पास श्रीरामपुर के मिशनरी थे, परंतु ब्रिटेन में इसके मुख्य प्रतिपादक चार्ल्स ग्रांट और जॉन शोर थे। चार्ल्स ग्रांट ने अपनी पुस्तक में भारतीय समाज और संस्कृति की कड़ी निंदा की और उसे अंधविश्वासी बर्बर और निरंकुश बताया। उनके अनुसार भारत की प्रमुख समस्या वे धार्मिक विचार है जो भारतीय जनता को अज्ञानता में जकड़े हुए हैं। इसाईयत की रोशनी फैला कर इन्हें बखूबी बदला जा सकता है और भारत में ब्रिटिश राज्य का मुख्य उद्देश्य यही होना चाहिए। उसका मानना था कि मानव स्वभाव को बदलने में केवल कानून कुछ नहीं कर पाएगा जबकि शिक्षा के जरिए और ईसाई धर्म प्रचार के द्वारा ऐसा किया जा सकता है।
इंजीलवादियों ने भारत में ईसाई बने लोगों की कानूनी सुरक्षा की और सती तथा कन्या हत्या को समाप्त करने की मांग की। उन्होंने यह भी मांग की कि भारत में ब्रिटिश सरकार को हिंदूओं और मुसलमानों के धर्मस्थलों की सहायता नहीं करनी चाहिए। ब्रिटिश संसद में चार्ल्स ग्रांट के विचार को और अधिक प्रचार विलियम विलवर फोर्स ने 1813 के चार्टर एक्ट के पारित होने के पहले दिया। इसमें ईसाई मशीनरीयों को बिना किसी रोक-टोक के भारत में आने की छूट दी गई। मुक्त व्यापार के समर्थक व्यापारी भी सुधार और परिवर्तन के विचार की पैरवी कर रहे थे।
वास्तव में मुक्त व्यापार के समर्थक व्यापारी, उपयोगितावादी और इंजीलवादी सभी भारतीय भाषाओं, रीति-रिवाजों, भावनाओं और धर्मों को अनादर की दृष्टि से देखते थे। वह महसूस करते थे कि असभ्य और नासमझ भारतीयों को सभ्य बनाने अर्थात भारतीय समाज के अंग्रेजीकरण से देश में औपनिवेशिक हितों की बेहतर सेवा हो सकेगी। वारेन हेस्टिंग और लॉर्ड कॉर्नवालिस जैसे प्राच्यवादी भारतीयों के धार्मिक परंपराओं में दखल नहीं देना चाहते थे, परंतु इंजीलवादियों ने सती- प्रथा के विरुद्ध अभियान चलाकर और उसकी बुराइयों को उजागर करके भारत में अंग्रेजों को उनका समर्थन करने को मजबूर कर दिया।
बर्बर और सती- प्रथा को हटाने से ब्रिटिशों को और उसके साथ साथ ईसाई सभ्यता की श्रेष्ठता भी प्रमाणित हो सकती थी। सती का वैचारिक आधार स्त्री के आत्मत्याग का चरम रूप था जो उसके द्वारा अपने पति कि चिता पर खुद को जलाकर किया जाता था। इंजीलवादी नैतिकता को मानने वाले भी स्त्रियों में आत्मत्याग के ऐसे ही गुणों पर जोर देते थे। लेकिन उनके लिए जैसा कि मैटकॉफ ने लिखा है- "आत्मत्याग का उचित ढंग 'घर में देवी' के रूप में था न कि 'पति कि चिता पर बलि' के रूप में।
इंजीलवादियों के विपरीत उपयोगितावादी विलियम बैटिंक भारतीयों को ईसाई बनाने का पक्षधर नहीं था। उसने सती- प्रथा के विरोध का औचित्य प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में तलाशा न की बाइबिल में। अंग्रेजों ने अनेक पंडितों से संपर्क किया और उनसे कुछ चुनिंदा संस्कृत ग्रंथों की वे व्याख्याएं प्राप्त की जिससे यह सिद्ध होता था कि सती- प्रथा हिंदू समाज व्यवस्था का अभिन्न अंग नहीं है।
ईसाई मिशनरियों को धर्मांतरण के उनके काम में जाति एक बड़ी अड़चन दिखाई पड़ती थी, इसलिए उन्होंने सरकार से जातियों के बीच हस्तक्षेप की नीति अपनाने का आग्रह किया। परंतु 1857 के विद्रोह और उसके बाद की घटनाओं ने औपनिवेशिक राज्य को मजबूर किया कि वह अहस्तक्षेप की मुद्रा बनाए रखें और जातिभेद का समर्थन करें। मिशनरियों को सफलता तब मिली जब 18वीं सदी के छठे और सातवें दशक में अस्पृश्य जातियों के बीच सामूहिक धर्मांतरण के चलते ईसाई धर्मावलंबियों की संख्या में भारी वृद्धि हुई। मिशनरियों ने अछूतों के साथ बराबरी का व्यवहार करके उनमें आत्मस्वाभिमान की भावना को जगाया और उन्हें वह गरिमा दी जिससे हिंदू धर्म ने उन्हें वंचित कर रखा था।
यह ब्रिटिश उदारवाद का भी युग था। ब्रिटिश प्रशासकों का कार्य विजय प्राप्ति की अपेक्षा सभ्यता का प्रसार करना था। टॉमस मैकौले को जो एक उदारवादी था, ने सक्रिय प्रशासन के द्वारा भारत के मुक्ति का उदारवादी एजेंडा तैयार किया। एक और उदारवादी सी. ई. ट्रैवलयान ने 1838 में कल्पना की थी कि सुख और स्वतंत्रता के लिए हमसे प्रशिक्षण पाकर, हमारे ज्ञान-विज्ञान और राजनीतिक संस्थाओं से लैस होकर भारत ब्रिटिश परंपराओं के परोपकार का सबसे गौरवान्वित स्मारक बना रहेगा।
निष्कर्ष:- ब्रिटेन में ऐसी कई नई बौद्धिक धाराएं थी, जो सुधार की बात करती थी और इसलिए उन्होंने वहां और भारत में सुधार के मुद्दे को उजागर किया। लेकिन भारत में औपनिवेशिक शासन की प्रकृति में बदलाव उपयोगितावाद और इंजीलवाद के दबाव ने पैदा किया। इन दोनों वैचारिक समूह का दावा था कि भारत को पापों या अपराधों के सहारे जीता गया है। लेकिन उन्होंने इसका विरोध करने के बजाय इसमें सुधार की पैरवी की ताकि भारतवासी अपने युग के बेहतरीन विचारों के मुताबिक शासन का लाभ पा सके। यही दो बौद्धिक परंपराएं थी जिनसे आखिरकार यह आस्था पैदा हुई कि इंग्लैंड को भारत में हमेशा बने रहना चाहिए।
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