असहयोग और सविनय अवज्ञा आंदोलन में गांधी जी की भूमिका
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प्रश्न:- असहयोग और सविनय अवज्ञा आंदोलन में एक लोकप्रिय नेता के रूप में गांधी की भूमिका का विश्लेषण कीजिए।
परिचय:- आधुनिक भारत के निर्माण में जो स्थान मोहनदास करमचंद गांधी (1869-1948) को प्राप्त है, वह किसी अन्य भारतीय नेता को नहीं है। दक्षिण अफ्रीका से गांधीजी 1915 में लौटे और भारतीय राजनीति में उनका प्रवेश 1919 में रौलट एक्ट के विरुद्ध सत्याग्रह आंदोलन से हुआ। इसके बाद भारत के राष्ट्रीय आंदोलन का चरित्र बिल्कुल बदल गया। अपनी संगठनात्मक क्षमता, भाषणों एवं अपनी बुद्धिमता के बलपर गांधी शीघ्र ही व्यापक जन समूह के नेता के रूप में उभरे। गांधीजी के राष्ट्रीय आंदोलन में प्रवेश से पूर्व भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का नेतृत्व अभिजात वर्गों के पास था। इसमें पश्चिमी अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त लोगों के सीमित वर्ग का प्रभाव था। यही कारण है कि गांधी युग से पूर्व के राष्ट्रीय आंदोलन को "ज्यूडिथ ब्राउन" ने, "सुविचारिथ सीमा बंदियों की राजनीति" कहा है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का दायरा संकुचित था और प्रभाव सीमित इसलिए यह आम जनता तक अपनी पहुंच नहीं बना सकी। गांधी जी के नेतृत्व के फलस्वरुप भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस जन जन तक पहुंची तथा भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन ने एक जनांदोलन का रूप ले लिया।
रोलट विरोधी सत्याग्रह के वापस लेने के बाद गांधी खिलाफत आंदोलन से जुड़ गए, जिसमें उनको अंग्रेजों के विरुद्ध हिंदू और मुसलमानों को एकजुट करने का अवसर मिला। इलाहाबाद में 1 जून 1920 को केंद्र खिलाफत समिति की बैठक ने एक 4 चरणों वाला असहयोग आंदोलन चलाने का निर्णय किया। इसमें पदवीयों, सिविल सेवाओं, पुलिस और सेना की नौकरी का बहिष्कार और अंत में करो की अदायगी पर रोक का निर्णय किया गया। दिसंबर 1920 के नागपुर कांग्रेस अधिवेशन ने गांधीजी के असहयोग आंदोलन के प्रस्ताव को स्वीकृति दे दी। गांधी ने "केसर हिंद" की उपाधि सरकार को लौटा दी।
1920 की पूरी गर्मी में गांधी ने इस कार्यक्रम के लिए जनसमर्थन जुटाने हेतु व्यापक यात्राएं की जिससे असहयोग के लिए समर्थन बढ़ता ही गया। "यंग इंडिया" में एक लेख में उन्होंने घोषणा की कि इस आंदोलन के द्वारा वे एक साल में स्वराज दिलाएंगे। गांधी जी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन 1921 में शुरू हुआ। गांधी जी को राजनीतिक पिछड़ेपन के शिकार प्रांतों और समूह से समर्थन मिला, जो अभी तक कांग्रेस की राजनीति में शामिल नहीं थे।
गांधीजी ने भरोसा दिलाया कि इस आंदोलन से स्वराज मिल जाएगा। अगर ऐसा नहीं हुआ तो एक सविनय अवज्ञा अभियान शुरू किया जाएगा, जिसमें करो की अदायगी रोक दी जाएगी। उन्होंने यह भी कहा कि जिला और गांव स्तर की इकाइयां गठित करके कंग्रेस पार्टी को एक सच्चा जन संगठन बनाया जाएगा। एक कुशल राजनीतिक नेता के रूप में गांधीजी की क्षमता स्थापित हो चुकी थी। राजनीतिक समर्थन के नए-नए क्षेत्रों तक उनके पहुंच थी जो पहले के कांग्रेसी नेताओं की पहुंच से बाहर थे। गांधी को मुसलमान खिलाफत समर्थकों से, पिछड़े क्षेत्रों से और पिछड़े वर्गों से समर्थन मिल रहा था।
गांधीजी के विशाल जन समर्थन को देखकर कांग्रेस के अन्य नेताओं ने भी गांधीजी के रास्ते को स्वीकार कर लिया। गांधी जी को भी कांग्रेस के नेताओं की आवश्यकता थी, जिनके बिना वे एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन चलाने की आशा नहीं कर सकते थे। उनका उद्देश्य विभिन्न वर्ग और समुदायों का एक महागठबंधन तैयार करना था। असहयोग आंदोलन में मध्यवर्गीय भागीदारी की तुलना में किसान और मजदूरों की भागीदारी अधिक प्रभावशाली थी। असहयोग के साथ गांधीजी को दूसरे सामाजिक आंदोलन, जैसे शराब विरोधी अभियानो में भी सफलता मिली।
गांधीजी ने 1920 के ऐतिहासिक प्रस्ताव में छुआछूत के कलंक से हिंदू धर्म को मुक्त कराने की एक अपील भी जोड़ी थी। गांधीजी को आदिवासियों का समर्थन भी मिला, जो उनको एक असाधारण व्यक्ति मानते थे। आंदोलन का जोर हमेशा एकता बढ़ाने, वर्ग और समुदाय की खाई को पाटने या उनके बीच तालमेल पैदा करने के प्रयासों पर रहा। दूसरी और अक्सर जनता ने अहिंसा के रास्ते को अपनाकर गांधीवादी सीमाओं को तोड़ा। गांधीजी ने इसकी निंदा भी की। यही वह कारण था जिसके चलते गांधीजी सविनय अवज्ञा आंदोलन या मालगुजारी न देने का अभियान शुरू करने से झिझक रहे थे।
आखरी हद उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले में 4 फरवरी 1922 के चोरा चोरी कांड से टूटी। जब गांव वालों ने स्थानीय थाने में 22 पुलिसवालों को जिंदा जला दिया। इसलिए 11 फरवरी 1922 को असहयोग आंदोलन वापस ले लिया गया। आंदोलन को वापस लिए जाने पर कांग्रेसी नेताओं ने गांधी जी की आलोचना की। पर वे अहिंसा में अपनी आस्था पर कायम रहे और झुकने से इनकार करते रहे। 10 मार्च 1922 को उन्हें गिरफ्तार करके 6 साल की जेल की सजा सुनाई गई। खिलाफत आंदोलन भी धीरे-धीरे समाप्त हो गया। यह गांधी के लिए एक और समस्या सिद्ध हुआ।
1924 में जेल से रिहा होने के बाद गांधीजी सक्रिय राजनीति से अलग रहे और अपनी शक्ति रचनात्मक कार्यक्रमों में लगाते रहे, जैसे छुआछूत निवारण अभियान, चरखे के उपयोग को प्रोत्साहन और साबरमती में एक आश्रम की स्थापना, जहां वे आदर्श सत्यग्रहियों के एक दल को प्रशिक्षित कर सकें।
सविनय अवज्ञा आंदोलन के आरंभ से पहले भारतीय राजनीति में दो घटनाएं हुई। 1928-29 में साइमन कमीशन विरोधी आंदोलन चलाया गया, दूसरा 1928 में नेहरू रिपोर्ट अस्तित्व में आई। दिसंबर 1936 में लाहौर में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन हुआ। इस बीच अपने रचनात्मक कार्यक्रमों को लेकर गांधी जी ने सारे देश का दौरा किया। गांधीजी ने आंदोलन शुरू करने से पहले वायसराय इरविन को एक पत्र लिखा। जिसमें उन्होंने ब्रिटिश सरकार के समक्ष अपनी 11 मांगे रखी। उनकी मांगों को ब्रिटिश सरकार ने अस्वीकार कर दिया। बाध्य होकर गांधी जी ने अपना आंदोलन दांडी मार्च से आरंभ करने का निश्चय किया। गांधी जी ने दांडी नामक गांव में समुद्र के जल से नमक बनाकर इस आंदोलन की शुरुआत करने का निश्चय किया। 12 मार्च 1930 को वह अपने सहयोगियों के साथ समुद्रतट पर बसे गांव दांडी के लिए निकल पड़े।
5 अप्रैल 1930 को गांधी ने दांडी पहुंचकर समुद्र के पानी से नमक बनाया और अहिंसक तरीके से सरकारी कानून का उल्लंघन किया। गांधी जी द्वारा कानून भंग किए जाने की घटना का आम जनता पर व्यापक असर पड़ा। जो जहां था वहीं सरकारी नौकरी से इस्तीफा दे दिया, किसानों ने लगान देना बंद कर दिया, मजदूरों ने हड़तालें और प्रदर्शन किए।
औद्योगिक घरानों ने सविनय अवज्ञा आंदोलन को समर्थन दिया। उन्होंने आंदोलन के लिए धन दिया और विदेशी कपड़ों का बहिष्कार किया। बड़ी संख्या में स्त्रियों की भागीदारी इस आंदोलन की दूसरी सबसे अहम विशेषता थी। गांधीजी को सुनने के लिए दांडी मार्च के दौरान लगभग हजारों की संख्या में स्त्रियां सामने आई। उन्होंने बढ़-चढ़कर इस आंदोलन में भाग लिया क्योंकि गांधी का नाम राष्ट्र के प्रति कर्तव्यों में ऐसे कार्यों को वैध बना देता था। इस आंदोलन के जवाब में ब्रिटिश सरकार ने कांग्रेस को गैरकानूनी संस्थान घोषित कर दिया और 15 मई 1930 को गांधीजी गिरफ्तार कर लिया गया। इससे अन्य नेता भड़क गए। गांधीजी के समर्थकों ने ब्रिटिश सरकार पर इतना दबाव बढ़ा दिया कि अब वह समझ चुके थे कि गांधी को ताकत के बल पर नहीं दबाया जा सकता।
विवश होकर सरकार को गांधी के साथ समझौता वार्ता करनी पड़ी, जो गांधी- इरविन पैक्ट के नाम से जाना जाता है। 5 मार्च 1931 के इस समझौते के द्वारा आंदोलन को वापस ले लिया गया और भारत के भावी संविधान पर विचार विमर्श करने के लिए कांग्रेस ने दूसरे गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने का निश्चय किया। इस दौरान उड़ीसा के किसानों ने इस समझौते को गांधी की विजय मानकर जश्न मनाया और उनमें करो की अदायगी रोकने तथा नमक बनाने का उत्साह और बढ़ा।
गांधीजी जानते थे कि नमक कर वाली शिकायत जनता के सभी वर्गों को प्रभावित करती थी। वह सरकार के खजाने या किसी स्वार्थ के लिए कोई खतरा नहीं थी और इसलिए गैर- कांग्रेसी राजनीतिक तत्व को नाराज नहीं करती, न ही सरकारी दमन को न्योता देती। गांधीजी भली-भांति जानते थे कि इससे भारत का प्रत्येक वर्ग आकर्षित होगा और इसमें योगदान देगा। नमक जनता की बुनियादी जरूरतों में से एक था, जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता था। इसने जनता को ब्रिटिश सरकार का विरोध करने के लिए अहिंसा के मार्ग की दिशा प्रदान की। गांधीजी ने इस प्रकार जनता में आत्मविश्वास को जगा कर उन्हें अपने देश हित की ओर प्रेरित किया।
निष्कर्ष:- गांधीजी ने असहयोग और सविनय अवज्ञा आंदोलन को नेतृत्व प्रदान करके इसको राष्ट्रव्यापी बना दिया। इसमें गांधी जी को समाज के प्रत्येक वर्ग का समर्थन मिला। गरीब किसान तथा मजदूरों ने इसमें महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। गांधी जी ने अपने कौशल के जरिए आम जनता को लामबंदकर आंदोलन की दिशा में अग्रसर किया। आम जनता गांधीजी को एक असाधारण मनुष्य मानती थी। उनको लगता था कि अगर वह गांधी का नाम लेंगे तो पुलिस की गोलियां उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकेंगीं। जनता के मन में उठे इन्हीं विचारों ने गांधीजी को भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का एक राष्ट्रीय नेता बना दिया।
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टिप्पणियाँ
Can uh pls share some notes on indian national congress
जवाब देंहटाएंCheck my youtube playlist... Available there...
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