अकबर के शासनकाल मनसब व्यवस्था का विकास
- लिंक पाएं
- X
- ईमेल
- दूसरे ऐप
प्रश्न:- अकबर के शासन काल में मनसब व्यवस्था का वर्णन कीजिए।
परिचय:- एक शक्तिशाली सेना के बिना अकबर न अपने साम्राज्य का विस्तार कर सकता था और न उस पर नियंत्रण रख सकता था। इस उद्देश्य के कारण उसके लिए अपने अमीर वर्ग को और अपनी सेना को भी संगठित करना आवश्यक था। अकबर ने यह दोनों उद्देश्य मनसबदारी व्यवस्था के सहारे पूरे किए। इस व्यवस्था में हर अधिकारी को एक मनसब दिया जाता था। मनसबदारी व्यवस्था मुगलों को एक प्रकार की नागरिक सेवा व्यवस्था प्रदान करती थी। मनसब का शाब्दिक अर्थ पदवी, गौरव या प्रतिष्ठा है। "इरविन" के अनुसार मनसबदारी व्यवस्था का अभिप्राय पदों में क्रम स्थापित करना तथा वेतन निर्धारित करना था। यह मनसबदार नागरिक और सैनिक दोनों विभाग में होते थे। सबसे कम मनसब 10 का और सबसे अधिक 5,000 का था। शाही परिवार के शहजादे इससे अधिक का मनसब पाते थे। अकबरी दौर के अंतिम भाग में सबसे ऊंचे मनसब को 5,000 से बढ़ाकर 7,000 कर दिया गया और साम्राज्य के दो प्रमुख कुलीनो अर्थात मिर्जा अजीज कोका और राजा मानसिंह को 7000 के मनसब दिए गए थे। अकबर के काल में मनसब व्यवस्था का क्रमिक विकास हुआ।
1594-95 में मनसबों को दो भागों में बांट दिया गया- जात और सवार। जात शब्द का अर्थ व्यक्तिगत है। इसमें एक व्यक्ति के निजी पद का और उसे देय वेतन का निश्चय किया जाता था। सवार से संकेत मिलता था कि एक व्यक्ति को कितने घुड़सवार रखने हैं। किसी व्यक्ति से उतना ही सवार रखने की आशा की जाती थी जितना उसका जात का मनसब था, तो उसे उन सब की पहली श्रेणी में रखा जाता था। अगर वह उससे आधे या आधे से अधिक सवार रखता था तो दूसरी श्रेणी में आता था और अगर आधे से कम सवार रखता था तो उसे तीसरी श्रेणी में रखा जाता था। इस तरह मनसब में तीन श्रेणियां होती थी। किंतु "ब्लैकमैन" के अनुसार जात का अर्थ सैनिकों की उस संख्या से है जो मनसबदार को अपने पास रखने चाहिए थे तथा सवार का अर्थ था सैनिक की वह संख्या जो वास्तव में वे अपने पास रखते थे।
अमीरों द्वारा भर्ती किए गए सवार अनुभवी हो और उनके घोड़े उम्दा हो- यह सुनिश्चित करने का बहुत प्रयास किया जाता था। इसके लिए सैनिक का एक विवरण(चेहरा) रखा जाता था और उसके घोड़े पर शाही निशान बनाया जाता था। हर मनसबदार को अपने दस्ते को समय-समय पर निरीक्षण के लिए इसी काम के वास्ते बादशाह द्वारा नियुक्त व्यक्तियों के सामने लाना पड़ता था। घोड़ों का सावधानी से निरीक्षण किया जाता था और सिर्फ अरबी और इराकी नस्ल के उम्दा घोड़ों को रखा जाता था।
हर एक मनसबदार को हर 10 सवारों के पीछे 20 घोड़े रखने पड़ते थे। यह इसलिए जरूरी था क्योंकि मुहिम के दौरान घोड़ों को आराम देना पड़ता था तथा युद्ध के समय घोड़ा घायल हो सकता था। केवल एक घोड़ेवाले सवार को सिर्फ आधा सवार माना जाता था। जब तक 10-20 के इस नियम का पालन किया जाता रहा, मुगल सवार सेना युद्धकुशल बनी रही।
इस बात का प्रबंध किया गया कि कुलीनो के दस्ते मिश्रित हो अर्थात मुगल, पठान, हिंदुस्तानी और राजपूत सभी समूह से भर्ती किए जाए। इस तरह अकबर ने कबीलावाद की शक्तियों को कमजोर करने का प्रयास किया। दस्तों में सवारों के अलावा तीरंदाजों, खंदक -खोदने और सुरंग बिछाने वालों को भी भर्ती किया जाता था। बंदूकची पैदल सेना के महत्वपूर्ण अंग थे और जब बंदूकों का महत्व बढ़ा तो बंदूकचियों का अनुपात भी बढ़ा। वेतन अलग- अलग थे, एक सवार का औसत वेतन ₹20 प्रतिमाह था। ईरानियों और तूरानियों को राजपूतों और हिंदुस्तानियों से अधिक वेतन दिया जाता था। एक पैदल सैनिक लगभग ₹3 प्रतिमाह पाता था। सैनिकों को देय वेतन एक मनसबदार के निजी वेतन में जोड़ दिया जाता था। जिसकी अदायगी के लिए उसे एक जागीर दी जाती थी। कभी-कभी मनसबदारों को नकद वेतन भी दिया जाता था।
500 जात से नीचे के पद वालों को मनसबदार, 500 से लेकर 2500 तक वालों को अमीर तथा 2500 या उससे अधिक वालों को "अमीर-ए-उम्दा" या "उम्दा-ए-आजम" कहा जाता था। लेकिन कभी-कभी तीनों ही श्रेणियों के लिए मनसबदार शब्द का प्रयोग हुआ है। इस वर्गीकरण के आधार पर एक अमीर या अमीर-ए-उम्दा अपनी सेवा में एक मनसबदार या अमीर को रख सकता था। पर एक मनसबदार ऐसा नहीं कर सकता था। 5000 की श्रेणीवाला 500 जात तक के एक मनसबदार को सेवा में रख सकता था तथा 4000 की श्रेणी वाला 400 जात तक के मनसबदार को रख सकता था, आदि।
व्यक्तियों को कम मनसब देकर उनकी योग्यता और बादशाह की कृपादृष्टि के आधार पर धीरे-धीरे तरक्की दी जाती थी। दंडस्वरूप किसी व्यक्ति का मनसब घटाया भी जा सकता था। "बर्नियर" के अनुसार, सम्राट उन्हें अपनी इच्छा के अनुसार सम्माननीय बना देता था या अपमानित कर नष्ट कर देता था। मनसबदार को अपने वेतन में से अपने निजी खर्च पूरे करने के अलावा निर्धारित संख्या में घोड़े, हाथी, बोझढोने वाले पशु और गाड़ियां रखनी पड़ती थी। गुणवत्ता के आधार पर घोड़ों को 6 और हाथियों को 5 श्रेणियों में बांटा गया था तथा उनकी संख्या और गुणवत्ता का निर्धारण सावधानी से किया जाता था।
इसका कारण यह था कि उम्दा नस्ल के घोड़ों और हाथियों को बहुत महत्व दिया जाता था और उन्हें युद्धतंत्र के कुशल संचालन के लिए अनिवार्य माना जाता था। इन खर्चों को पूरा करने के लिए मुगल मनसबदार को बहुत अच्छा वेतन दिया जाता था। 5000 के एक मनसबदार को प्रतिमाह ₹30,000, 3000 वाले को ₹17000 और 1000 वाले को ₹8,200 दिए जाते थे। इन वेतनों का मोटे तौर पर चौथाई भाग यातायात के दस्तों पर खर्च होता था।
अकबर ने घुड़सवारो के एक बड़े दस्ते को अपना अंगरक्षक बना रखा था। उसके पास घोड़ों का एक बड़ा अस्तबल था। उसके पास शरीफ सैनिकों का एक दस्ता भी था। यह लोग अहदी कहलाते थे। यह कुलीनवंशी होते थे जिनके पास सैनिक टुकड़ी खड़ी करने के साधन नहीं थे या फिर जिन्होंने बादशाह को प्रभावित कर लिया था। उन्हें 8 से 10 घोड़े रखने की अनुमति थी और वे प्रतिमाह लगभग ₹800 का भारी वेतन पाते थे। यह सिर्फ बादशाह के आगे जवाबदेह और उनका विवरण रखने के लिए एक अलग व्यक्ति होता था। अकबर घोड़ों और हाथियों का बहुत शौकीन था। उसके पास एक शक्तिशाली तोपखाना भी था। तोपों में अकबर की खास दिलचस्पी थी। उसने ऐसी तोंपे बनवाई थी जिनको हाथियों या ऊंटो पर लादा जा सकता था।
अकबर के शासनकाल में कोई मनुष्य केवल जन्म या परिवार के आधार पर किसी विशेष मनसब पर अधिकार नहीं जमा सकता था। एक पांच हजारी मनसबदार का पुत्र अपने पिता का उत्तराधिकारी बनने पर ही पांच हजारी मनसबदार नहीं बन जाता था। "सतीश चंद्र" के अनुसार किसी सरदार के लड़के को राजा की नौकरी में जाना किसी बाहर वाले की अपेक्षा सरल था। मुगल सम्राट अच्छे परिवार में जन्म लेना एक महत्वपूर्ण गुण मानते थे, किंतु गुण और शिक्षा तो और भी अधिक महत्वपूर्ण थे और तुछ परिवार में जन्म लेने वाले व्यक्ति भी सर्वोच्च पद प्राप्त कर सकते थे और उन्होने प्राप्त किए भी।
इसी प्रकार किसी मनसबदार के मरने के बाद उसके पुत्र को अपने पिता कि उपाधि, स्थान, संपत्ति और पद प्राप्त नहीं होते थे। जबकि कानून के अनुसार जब कोई मनसबदार मर जाता तो उसकी सारी संपत्ति सम्राट जब्त कर लेता था। "सर थॉमस रो" ने अलंकारिक तौर पर कहा है कि, मनसबदारो के मरने के बाद उनकी संपत्ति सम्राट के पास इस प्रकार चली जाती है, जैसे नदियां समुद्र में चली जाती हो। "बर्नियर" के अनुसार सम्राट द्वारा उसकी विधवा के लिए थोड़ी संपत्ति और पेंशन पोषण-वृत्ति के रूप में दी जाती थी।
जब्ती-कानून से सम्राट को बहुत-सा धन प्राप्त होता था। इस कानून का मनसबदारो के चरित्र पर भी बहुत अच्छा प्रभाव पड़ता था। उन्हें इस बात का भली-भांति ज्ञान था कि जो भी धन वे निर्दोष व्यक्तियों को तंग करके प्राप्त करेंगे वह उनकी संतान को नहीं मिलेगा और उसका जीवन सुखमय नहीं हो पाएगा, इस कारण वे घूसखोरी और अन्य अनाधिकार की चेष्टा से दूर रहने का प्रयत्न करते थे। इस कानून के कारण मनसबदार बड़े फिजूलखर्च करते थे। इसका परिणाम यह हुआ कि कभी-कभी मनसबदार की मृत्यु के पश्चात कुछ भी नहीं बसता था। जब मनसबदारो की संपत्ति की गिनती की जाती तो पुराने जूतों से भरे बक्सों के अलावा कुछ भी प्राप्त नहीं होता था। इस बात से मनसबदारों की मनोवृति का थोड़ा सा ज्ञान होता है।
"जादूनाथ सरकार" के अनुसार इस जब्ती-कानून से मुगलों का सरदार वर्ग एक स्वार्थी लोगों का दल बन गया जो प्रत्येक उत्तराधिकार के लिए होने वाले युद्ध में विजयी पक्ष का समर्थन करता था अथवा विदेशी आक्रमणकारियों का साथ देता था, क्योंकि वे सब जानते थे कि उनकी जागीर अथवा व्यक्तिगत संपत्ति पर नियमित रूप से उनका अधिकार नहीं है तथा वह केवल सत्ताधारी सम्राट की इच्छा पर निर्भर है।
निष्कर्ष:- अकबर के काल में मनसबदारी प्रणाली बड़ी कुशलता से प्रचलित रही। इस प्रथा को अधिकाधिक कार्यकुशल बनाने के पूर्ण प्रयत्न किए गए। मनसबदारो की संख्या कम थी किंतु जैसे-जैसे समय बीतता गया और मनसबदारों की संख्या बढ़ती गई तो उनकी नियुक्ति के समय अधिक ध्यान नहीं दिया जाने लगा। मनसबदारो ने अकबर के राजनीतिक अभियानों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और साम्राज्य के विस्तार के साथ-साथ उसे सुचारू रूप से चलाने में भी मदद की। जहांगीर के शासनकाल में भी बहुत बड़ी संख्या में मनसबदार बनाए गए।
- लिंक पाएं
- X
- ईमेल
- दूसरे ऐप
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें
Please do not enter any spam link in the comment box