अकबर की राजपूत नीति का वर्णन
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प्रश्न:- अकबर की राजपूत नीति का वर्णन कीजिए ? क्या अकबर ने धार्मिक उदारता की छाप छोड़ी।
परिचय:- अकबर की राजपूत नीति को तीन चरणों में विभक्त किया जा सकता है। 1569-70 तक पहला चरण माना जाता है जिसमें अकबर ने दिल्ली सुल्तानों की नीतियों का अनुसरण किया। दूसरे चरण में अकबर ने राजपूतों के साथ दोस्ती बढ़ाने का प्रयत्न किया। तीसरे चरण में अकबर ने मुस्लिम कट्टरपंथ से अपने को अलग कर लिया। राजपूतों के साथ अकबर के संबंध को लेकर कई प्रकार के विवाद हुए हैं। कुछ का तर्क है कि अकबर ने एक ऐसी व्यवस्था शुरू की जिसमें धर्म के आधार पर सार्वजनिक नियुक्तियों में कोई भेदभाव नहीं रखा जाता था। दूसरे यह तर्क देते हैं कि साम्राज्य के विस्तार के लिए अकबर ने राजपूत शक्ति का उपयोग किया और उन्हें एक दूसरे के खिलाफ लड़ाया ताकि एकजुट होकर वे साम्राज्य के लिए खतरा ना पैदा कर सकें। यह भी कहा जाता है कि अकबर की राजपूत नीति जमीदारों और लड़ाकू जातियों को अपने और मिलाने की नीति थी। इसमें राजपूत और अफगान दोनों शामिल थे। खैर जो भी हो राजपूतों की स्वामीभक्ति जगप्रसिद्ध थी। वे दरबार के अंदर और बाहर एक महत्वपूर्ण आधारस्तंभ साबित हो सकते थे।
1557 में ही अकबर के मन पर राजपूतों की स्वामीभक्ति की इच्छा पड़ गई थी जब अम्बेर के राजा भारमल के नेतृत्व में राजपूत सेना ने अकबर के प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त की थी। इसके परिणामस्वरूप 1562 में भारमल की पुत्री का विवाह अकबर से हुआ। इस तरह की वैवाहिक संधियां पहले भी हुआ करती थी। यह शादियां राजनीतिक समझौते की उपज थी। इनमें न इस्लाम धर्म अपनाने को मजबूर किया जाता था न ही हिंदू परंपराओं से नाता तोड़ा जाता था। भारमल ने व्यक्तिगत रूप से सम्राट के समक्ष उपस्थित होकर राजनीतिक गठबंधन मजबूत किया। इस प्रकार अकबर का शासनकाल व्यक्तिगत निष्ठाओं का काल रहा।
राजपूतों और मुगलों के बीच हुए वैवाहिक संधियों में कोई विशेष शर्त नहीं रखी जाती थी। इन संधियों के पीछे मुगलों द्वारा राजपूतों को विद्रोही तत्वों का मुकाबला करने या सैनिक लाभों के लिए उनका उपयोग करने जैसी मंशा नहीं रहती थी। अकबर ने 1562-64 के बीच "जजिया" समाप्त कर दिया, तीर्थ कर दो हटा दिया। इन उदारवादी कदमों के कारण अकबर के प्रति लोगों का विश्वास बढ़ा और वह उदारवादी राजा के रूप में प्रतिष्ठित हुए।
पहले चरण में अकबर राजपूतों के प्रति उदार था। रणथंबोर के राज्याध्यक्ष राव दलपत राय को शाही सेवा में स्वीकार कर लिया गया और उसे जागीर दी गई। अकबर ने भगवंत सिंह (कच्छावा का राजा) की बहन से शादी की। भारमल अकबर का विश्वासनीय और घनिष्ठ था। यह बात इस तथ्य से सिद्ध होती है कि जब अकबर गुजरात अभियान के लिए निकला था तो आगरा की सारी जिम्मेदारी उसी पर सौंपी गई थी। किसी भी हिंदू राजा को इस प्रकार का सम्मान पहली बार मिला था।
1570 के अंत तक राजपूतों के साथ संबंध और भी घनिष्ठ हो गए। बीकानेर के राय कल्याणमल ने अकबर के समक्ष अपने पुत्र सहित खुद उपस्थित होकर आत्मसमर्पण किया। जैसलमेर के रावल हर राय और कल्याणमल की बेटियां की शादी अकबर के साथ की गई। दोनों राजाओं ने अपने इलाके में अच्छी तरह पैर जमा लिए और उन्हें शाही सेवा में शामिल कर लिया गया। मुगल राजपूत संबंध के विकास में अकबर का गुजरात अभियान एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। व्यक्तिगत रूप से राजपूतों को सैनिकों के रूप में शामिल किया गया और पहली बार उनका वेतन निश्चित हुआ। इस प्रकार पहली बार राजपूतों को राजस्थान के बाहर नियुक्त किया गया और उन्हें महत्वपूर्ण कार्य सौंप दिए गए।
अकबर को मेवाड़ की समस्या का सामना करना पड़ा। मेवाड़ का राणा व्यक्तिगत समर्पण के लिए तैयार नहीं था। मेवाड़ के राणा और अकबर के बीच हल्दीघाटी में युद्ध हुआ। यह युद्ध हिंदू और मुसलमानों के बीच का युद्ध नहीं था। इसके अलावा इसे विदेशी शासन के खिलाफ स्वतंत्रता संग्राम की संज्ञा भी नहीं दी जा सकती क्योंकि अनेक राजपूत राजा अकबर की ओर से युद्ध कर रहे थे।
मेवाड़ की सीमा से लगे राज्य ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर उससे वैवाहिक संधियां स्थापित की थी। इन राज्यों का मेवाड़ के साथ नजदीकी संबंध था, पर इन्होंने हमेशा इलाके की सर्वोच्च शक्तिशाली राज्य का ही साथ देने की नीति अपनाई। राणा के समर्थकों बूंदी और मारवाड़ के शासकों को दबा दिया गया। इससे राणा की शक्ति काफी कमजोर हो गई और राजपूत अब मात्र सहायक नहीं रह गए बल्कि उनके मुगलों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध हो गए। किंतु दूसरे चरण के अंत तक अकबर की राजपूत नीति इस हद तक उदार नहीं थी जिसे मुस्लिम कट्टरपंथी धार्मिक वर्ग अस्वीकृत कर सके या जो राज्य के मुस्लिम स्वरुप के लिए खतरा बन जाए।
1580 में अकबर के भाई मिर्जा हकीम(काबुल का राजाध्यक्ष) द्वारा पंजाब पर हमला किए जाने पर अकबर को मान सिंह और भगवंत सिंह जैसे राजपूतों पर निर्भर होना पड़ा था, जिन्होंने अभूतपूर्व शौर्य का परिचय देते हुए घेराबंदी का सफलतापूर्वक मुकाबला किया। इनामस्वरूप अकबर ने भगवंत दास को लाहौर का राजाध्यक्ष और मान सिंह को सिंधु क्षेत्र का सेनानायक बना दिया। मिर्जा हकीम के आक्रमण का परिणाम यह हुआ कि अब वे राजपूत साम्राज्य के प्रमुख रक्षक बन गए और उनकी मुगल प्रशासन में सक्रिय हिस्सेदारी हो गई। राजपूतों के इस बढ़ते प्रभाव पर मुगल अभिजात वर्ग के एक दल ने शंका प्रकट की। पर अकबर ने इस प्रकार के विचारों को महत्व नहीं दिया और वह राजपूतों पर भरोसा करता रहा।
अकबर ने राजपूत शासकीय परिवारों से निकट संबंध स्थापित करने की कोशिश की। मुगल- राजपूत संबंधों में कच्छावा परिवार को विशेष सम्मान प्राप्त था। 1580 में भगवंत दास की बेटी रानी बाई की शादी युवराज सलीम के साथ हुई। 1583 में जोधपुर जोकि खालसा भूमि थी, राजा उदय सिंह(मारवाड़) को दे दी गई और उसकी बेटी की शादी सलीम के साथ हुई। राय कल्याण सिंह (बीकानेर) और रावल भीम (जैसलमेर) की बेटियों की शादी भी सलीम के साथ हुई।
विवाह के जरिए अकबर ने अपने उत्तराधिकारीयों को राजपूतों से निकटता का संबंध बनाए रखने की नीति का पालन करने को बाध्य कर दिया। 1583-84 में अकबर ने प्रशासनिक कार्यों के लिए निष्ठावान मुसलमान और हिंदू कुलीनों के चुनाव की नई नीति अपनाई। राजपूतो को जैसे:- भारमल और राय लोकरण शेखावत के बेटों को अस्त्र-शस्त्र और सड़कों की देखरेख का जिम्मा सौंपा गया। घरेलू प्रबंध का जिम्मा रायमल दरबारी को सौंपा गया। यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि राजपूतों को प्रशासनिक कार्यों को सौंपने की नीति किस हद तक सफल हुई। "अबुल फजल" बताता है कि यह सही तरह से लागू नहीं की गई।
प्रशासनिक क्षेत्र में 1585-86 वर्ष एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है क्योंकि इसी वर्ष सूबों को एक नया प्रशासनिक रूप प्रदान किया गया था। प्रत्येक सूबे में दो अमीर या सिपहसालार और एक दीवान तथा एक बक्शी की नियुक्ति की गई थी। राजपूतों में से कच्छावा को सबसे ज्यादा पद दिए गए। लाहौर राजा भगवंत दास और बीकानेर राय सिंह को, काबुल मान सिंह को, आगरा राजा अस्क्रन शेखावत को, अजमेर जगन्नाथ (भारमल का बेटा) को सौंप दिया गया। राठौर और सिसोदियों को भी प्रशासनिक कार्यों के लिए नियुक्त किया गया।
जब एक राजपूत राजा को शाही सेवा में नियुक्त किया जाता था तो उसे मनसब के साथ एक जागीर भी मिलती थी। जिसमें महल भी शामिल होता था, जहां कुल के सदस्य रहते थे। मुगलों ने राजपूतों के बीच फूट पैदा करने की कोशिश नहीं की पर उन्हें राजपूतों के आपसी मतभेदों का पता था और वे जानते थे कि अपने कुल और इलाके को लेकर इनमें अक्सर झगड़े हुआ करते थे।
एक स्वायत्त राजा पर मुगल नियंत्रण कुलीन वर्ग के दृष्टिकोण और राजनीतिक जरूरत द्वारा निर्धारित होता था। अकबर के समय में चित्तौड़ और रणथंबोर किले मुगलों द्वारा नियुक्त अधिकारियों के अधीन थे। राजपूत राजा अपने रीति-रिवाज और कायदे के अनुसार भू राजस्व का निर्धारण और वसूली करते थे। पर वे कोई कर नहीं लगा सकते थे। राजपूत राज्यों में उत्तराधिकार के सवाल को लेकर भयंकर ग्रह युद्ध छिड़ जाता था। मुगल सर्वोच्चता की अवधारणा के तहत इन राज्यों के उत्तराधिकार के प्रश्न को हल किया जाता था। अकबर ने घोषणा कर रखी थी कि टीका देने का विशेषाधिकार केवल मुगल राज्य का है। मुगल सम्राट टीका राजा के बेटे या उसके भाई या भाई के लड़कों को दे सकता था।
मनसब व्यवस्था के विकास के साथ-साथ अकबर ने अपने कुलीनों को विभिन्न जातीय समूहों के सैनिकों की मिश्रित फौज गठित करने के लिए प्रोत्साहित किया। जातीय धार्मिक विभेद को मिटाने के लिए अकबर ने बहुतजातीय फौज के गठन को प्रोत्साहित करने की कोशिश की। किंतु अकबर और उसके उत्तराधिकारीयों के काल में जातीय-धर्मिक बंधन कमजोर नहीं हो सके। शाही सेवा में राजपूतों को महत्व दिए जाने से बहुत से कुलीन नाखुश थे और मुगल सेवा के अनुशासन के अनुरूप अपने को ढालने में राजपूतों को भी काफी दिक्कतें हुई।
आरंभ में राजपूतों के साथ अकबर का संबंध एक राजनीतिक समझौते के रूप में विकसित हुआ पर धीरे-धीरे यह हिंदू- मुसलमानों में समीपता और उदारवादी नीति में ढलता चला गया, जिसमें धर्म का भेदभाव किए बिना सहिष्णुता की नीति को प्रधानता दी गई। यह बात की जाने लगी कि धर्म, निष्ठा, जाति और प्रजाति के भेदभाव के बिना सबको समान स्तर पर न्याय दिया जाएगा। अतः मुगल राजपूत संबंध को धर्मनिरपेक्ष, गैर-कट्टरपंथी राज्य की शुरुआत के रूप में देखा जा सकता है। किंतु मुगल अभिजात वर्ग और उलेमा डरते थे कि उदारवादी नीति अपनाने से उनका महत्व कम हो जाएगा।
निष्कर्ष:- अकबर की राजपूत नीति मुगल राज्य के लिए लाभकारी रही और राजपूतों के लिए भी। इस गठबंधन ने मुगल साम्राज्य को भारत के सबसे बहादुर योद्धाओं की सेवा दिलवाई। राजपूतों की वफादारी साम्राज्य को सुदृढ़ बनाने और विस्तार देने का एक महत्वपूर्ण कारण बन गई। इस गठबंधन ने राजस्थान में शांति सुनिश्चित की और अपने राज्य की सुरक्षा की चिंता से मुक्त रहकर राजपूतों को साम्राज्य के दूरदराज के इलाकों में सेवा करने योग्य बनाया। अकबर की राजपूत नीति को उसके उत्तराधिकारियों जहांगीर और शाहजहां ने भी जारी रखा।
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