ब्रिटिश साम्राज्य के कारण भारत में वि- औद्योगिकरण
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प्रश्न:- वि-औद्योगीकरण के विषय में हुए वाद-विवाद का विस्तार से वर्णन कीजिए।
परिचय:- वि-औद्योगीकरण से तात्पर्य किसी भी राष्ट्र की औद्योगिक क्षमता में गिरावट से है। किसी भी अर्थव्यवस्था में यह स्थिति तब आती है जब उद्योगों का अंशदान कम होता जाता है और गैर औद्योगिक क्षेत्र का अंशदान बढ़ता जाता है। दूसरे शब्दों में जब अर्थव्यवस्था में द्वितीय क्षेत्र की भागीदारी कम होती जाती है और प्राथमिक क्षेत्र की भागीदारी बढ़ती जाती है तो स्थिति वि-औद्योगीकरण की होती है। ब्रिटिश भारत के काल में भारत की अर्थव्यवस्था को भी एक ऐसे ही स्थिति से गुजरना पड़ा जिसके लिए वि-औद्योगीकरण शब्द का प्रयोग किया जाता है। वि-औद्योगीकरण का विचार सबसे पहले "दादा भाई नौरोजी" ने 19वीं सदी के अंत में दिया था जिसका समर्थन बाद में रमेश चंद्र दत्त जैसे विद्वानों ने किया। नौरोजी और दत ने इस प्रक्रिया की तार्किक व्याख्या की और आंकड़ों के द्वारा यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि भारत में अंग्रेजों की उपस्थिति का सीधा परिणाम था -वि-औद्योगिकरण।
वहीं साम्राज्यवादी इतिहासकारों, जिसमें "डी. मार्थट" और मॉरिस-डी-माॅरिस प्रमुख है, इस विचार का खंडन करते हुए इसे एक मिथक बताया और कहा "भारत में उद्योगों का पतन अपरिहार्य था क्योंकि भारत के उद्योग आधुनिकीकरण की कीमत चुका रहे थे। इस प्रकार ब्रिटिश शासन के अधीन भारत की अर्थव्यवस्था के रूपांतरण को लेकर ब्रिटिश राज आलोचकों और उसके प्रवक्ताओं के बीच बहस होती रही है।
भारतीय हस्तशिल्प उद्योग का विनाश ब्रिटिश आर्थिक नीतियों का स्वाभाविक परिणाम था क्योंकि जब उत्पादन प्रणाली पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली से जुड़ती है तो इस परिवर्तन के क्रम में उसका टूटना अनिवार्य है। उदाहरण के लिए इंग्लैंड एवं अन्य यूरोपीय देशों को भी इस प्रक्रिया से गुजरना पड़ा लेकिन यहां उल्लेखनीय तथ्य यह है कि उन देशों की स्थिति भारत से भिन्न थी। वहां हस्तशिल्प के विनाश के साथ-साथ फैक्ट्री प्रणाली विकसित हुई। भारत की स्थिति ब्रिटेन सहित अन्य यूरोपीय देशों से अलग थी। यहां हस्तशिल्प का विनाश तो हुआ किंतु उसकी क्षतिपूर्ति में फैक्ट्री प्रणाली का विकास नहीं हो पाया जो आधुनिक उद्योग का आधार बनते। स्वभावत: भारतीय अर्थव्यवस्था पर इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ा।
हस्तशिल्प उद्योगों के ह्राश से ग्रामीण मजदूरों की संख्या में वृद्धि हुई क्योंकि कारीगर एवं दस्तकार काम के अभाव में ग्रामीण क्षेत्रों की ओर पलायन करने लगे। परिणामस्वरूप व्यक्ति और कृषि का संतुलन बिगड़ गया और कृषि, जो भारत की अर्थव्यवस्था की रीढ़ थी, टूट गई।
"कार्ल मार्क्स" से लेकर "रमेशचंद्र दत्त" सभी विद्वानों ने 18वीं सदी के उत्तरार्द्ध और पूरी 19 वीं सदी के दौरान भारत में हुए वि-औद्योगिकरण और उसके फलस्वरुप हुए विनगरीकरण के पक्ष में काफी प्रमाण एकत्रित किए है। मार्क्स ने टिप्पणी की, सूती वस्त्र के निर्यातक देश को सूती वस्त्र के आयातक देश में तब्दील कर दिया गया। वहीं दूसरी और ब्रिटिश पक्षधर इतिहासकार इसका खंडन करते हैं और कहते हैं कि यदि भारतीय लोगों को सस्ता ब्रिटिश वस्त्र उपलब्ध होगा तो वे इसे और अधिक उपयोग में ला सकते हैं। यदि दस्तकार और शिल्पियों को रोजगार नहीं मिलता है तो वे कृषि अर्थव्यवस्था से जुड़ सकते हैं और वैश्विक अर्थव्यवस्था में अपने महत्वपूर्ण भागीदारी निभा सकते हैं। साम्राज्यवाद इतिहासकार माॅरिस यह नहीं मानते की कुटीर उद्योग विशेषकर दस्तकारी उद्योग में जो गिरावट आई, वह ब्रिटिश अर्थव्यवस्था की देन है। वे इसके पतन के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था में देखते हैं।
माॅरीस का यह मानना है कि जनसंख्या में वृद्धि और खपत की आदतों में परिवर्तन के कारण मांग में काफी वृद्धि हो रही थी और भारत का बाजार इतना बड़ा था कि वह एक साथ भारतीय हस्तशिल्प उत्पादन एवं मैनचेस्टर एवं लंकाशायर के उत्पाद की खपत कर सकता था। अतः भारतीय बुनकरों को मैनचेस्टर या लंकाशायर कि आयातित वस्त्रों ने बाजार से नहीं हटाया बल्कि वह अपने अंतर्निहित कमजोरियों के कारण स्वयं बाजार से बाहर हो गए। साथ ही मॉरिस ने यह कहा है कि ब्रिटेन से आयातित धागों से भारतीय बुनकरों को लाभ प्राप्त हुआ और अब वे ब्रिटिश वस्तुओं का बेहतर मुकाबला करने में सक्षम थे।
प्रसिद्ध इतिहासकार "सुमित सरकार" ने मौरिस सहित सभी साम्राज्यवाद इतिहासकारों के विचारों को अस्वीकार करते हुए कहा है कि उनका दिया गया तर्क संदिग्ध है क्योंकि उन्होंने अपने तर्कों को प्रमाणित करने के लिए कोई सांख्यिकी आंकड़े प्रस्तुत नहीं किए हैं। सरकार का मानना है कि जहां लंकाशायर और मैनचेस्टर के उत्पादों को कताई और बुनाई दोनों की लागत कम होने का लाभ प्राप्त हुआ वहीं दूसरी और भारत की बुनकरों को सस्ते आयातित धागे का लाभ तो प्राप्त हुआ लेकिन उन्नत प्रौद्योगिकी का लाभ नहीं मिल पाया, जिससे भारतीय वस्त्रों की उत्पादन लागत ब्रिटिश वस्तुओं की उत्पादन लागत से अपेक्षाकृत अधिक थी यही कारण है कि वे आयातित ब्रिटिश वस्त्रों का मुकाबला नहीं कर सके।
प्रसिद्ध विद्वान "विपिन चंद्र" का मानना है कि मॉरिस का यह तर्क गलत है कि भारत में औद्योगिकरण की परिस्थितियां अस्तित्व में थी। औद्योगिकरण का ब्रिटिश मॉडल ब्रिटेन के लिए उपयुक्त था न कि भारत के लिए। यहां तक की रेलवे में भी जो भारी पूंजी निवेश किया गया और इस पूंजी निवेश द्वारा जिस रेलवे का विकास किया गया वह भारतीय जरूरतों की बजाय ब्रिटिश औपनिवेशिक हितों की जरूरतों के अनुरूप था। यद्यपि इस समय ब्रिटेन के पास विश्व की सबसे अधिक अत्याधुनिक तकनीक थी लेकिन इस तकनीक का भारतीय उत्पादन प्रणाली में कोई योगदान नहीं था। कृषि के वाणिज्यिकरण से कुछ लाभ अवश्य मिला। लेकिन यह लाभ भी विदेश भेज दिया गया। परिणामत: कृषि उत्पादको को इस वाणिज्यकरण से कोई लाभ नहीं हुआ क्योंकि वह औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था के दबाव में लाया गया था।
प्रसिद्ध विद्वान "तपन राय चौधरी" का विचार है कि भारत में वाणिज्य और व्यापार विकसित अवस्था में था। समुद्री तटों एवं उसके आसपास के क्षेत्रों जैसे कोरमंडल तट, मालाबार तट तथा कोंकण तट आदि क्षेत्रों में पूंजी विकास की पर्याप्त संभावनाएं थी। उन्होंने मॉरिस के उस तर्क की आलोचना की है जिसमें कहा गया है कि राजनीतिक अस्थिरता औद्योगीकरण के मार्ग में बाधक थी क्योंकि कई प्रमुख यूरोपीय देश जैसे जर्मनी, इटली, नीदरलैंड, आदि देशों में राजनीतिक अस्थिरता के बावजूद औद्योगिकरण हुआ।
राय चौधरी का मानना है कि भारतीय औद्योगिकरण के वास्तविक कठिनाई यह थी कि भारत में इसके लिए पूंजी का जमाव नहीं हो पाया क्योंकि औद्योगिकरण के लिए जिस पूंजी की आवश्यकता थी उस पूंजी का निष्कासन अंग्रेजों द्वारा उस समय कर लिया गया जिस समय भारत में इसकी सबसे ज्यादा आवश्यकता थी।
भारत में औद्योगीकरण के पक्ष में तर्क देते हुए राष्ट्रवादी इतिहासकारों दादाभाई नौरोजी एवं रमेश चंद्र दत्त ने यह दर्शाने का प्रयास किया है कि ब्रिटिश काल में भारत में काफी तेजी से वि-औद्योगिकरण हो रहा था। अपने विचारों की पुष्टि के लिए उन्होंने सांख्यिकी आंकड़े प्रस्तुत किए हैं जो 1881 से 1931 तक के जनगणना पर आधारित है, जिसके अनुसार पुरुष कार्य शक्ति 65% से बढ़कर 72% हो गई जबकि औद्योगिक क्षेत्र में यह 16% से घटकर 9% हो गई। ऐसा ही आंकड़ा महिला श्रम शक्ति के संबंध में भी प्रस्तुत किया गया है। "डेनियल" एवं "एलिस थार्नर" ने अपने लेख में कहा है कि उपरोक्त आंकड़े सही नहीं है क्योंकि कृषि कार्य को दूसरी श्रेणीयों, सामान्य श्रमिकों और इस तरह के अन्य श्रमिकों के साथ मिला दिया गया है, वहीं दूसरी और व्यापार से जुड़े श्रमिकों को औद्योगिक वर्ग के श्रमिकों के साथ नहीं रखा गया है।
अगर ऐसा किया जाए तो पूरा परिदृश्य ही बदल जाएगा और औद्योगिक क्षेत्र में गिरावट मात्र 3% हो जाएगी। आगे थार्नर ने महिला श्रम शक्ति से संबंधित आंकड़ों को इसी आधार पर गलत बताया है और कहा है कि जनगणना अधिकारियों ने सही आंकड़े एकत्रित नहीं किए हैं। इस विश्लेषण के आधार पर थार्नर इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि जनगणना संबंधी विऔघोगिकरण का कोई उचित आधार प्रस्तुत नहीं किया गया है।
"कृष्णमूर्ति" और "अमिया बागची" ने थार्नर के विचारों का खंडन किया है लेकिन इन दोनों विद्वानों के खंडन का आधार अलग-अलग है। जहां कृष्णमूर्ति ने तत्कालीन वितरणों को अपने अध्ययन का आधार बताया है वही बागची ने अपनी बात कहने के लिए सांख्यिकी आंकड़े का प्रयोग किया है। कृष्णमूर्ति ने एक ब्रिटिश अधिकारी हेमिलटन के विवरणों को उजागर किया है जिसके अनुसार बिहार के गंगा के मैदान में सूती वस्त्र काफी विकसित अवस्था में थे। उच्च कोटि के रेशमी और सूती वस्त्र ढाका और मुर्शिदाबाद में निर्मित होते थे, लेकिन देसी राजवाड़ो के पतन और भारतीयों की क्रमशक्ति में कमी के कारण इन उद्योगों का पतन हो गया।
कृष्णमूर्ति के दूसरे सर्वे के अनुसार 1864 में पटना के तत्कालीन कमिश्नर द्वारा प्रस्तुत किया गया था, जिसमें कहा गया है कि सूती -वस्त्र उद्योग जो 20 वर्ष पहले अधिक विकसित अवस्था में था अब मेनचेस्टर एवं लंकाशायर के आयातित वस्तुओं के कारण पतन की ओर है। कृष्णमूर्ति के तीसरा सर्वे के अनुसार 1874 की रिपोर्ट पर आधारित है जिसमें कहा गया है कि घरेलू उपयोग के लिए निर्मित वस्तुएं बाजार से बाहर हो गई है और उसका स्थान ब्रिटिश निर्मित वस्तुओं ने लिया है। कृष्णमूर्ति के 1892 के चौथे सर्वे के अनुसार इंग्लैंड में निर्मित वस्तुओं के कारण भारतीय वस्तुएं हाशिए पर चली गई।
उपरोक्त सर्वेक्षणों के आधार पर कृष्णमूर्ति इस निष्कर्ष पर पहुंचती है कि भारत के न सिर्फ सूती और रेशमी वस्त्र उद्योग अथवा अन्य कुटीर उद्योगों में भी गिरावट आई और इस उद्योग में लगे लोग दूसरे व्यवसाय की ओर स्थानांतरित होते चले गए। इस पतन के लिए ब्रिटिश आर्थिक नीति सीधे तौर पर जिम्मेदार थी। अमिया बगची ने अपने लेख में 19वीं सदी के आरंभ में बिहार के अनेक जिलों के सर्वेक्षण एवं 1901 के जनगणना के आंकड़ों को सावधानीपूर्वक तुलना करने का प्रयास किया है।
बागची ने इन आंकड़ों के आधार पर यह दर्शाया है कि उद्योग पर आश्रित जनसंख्या 18% से घटकर 8% रह गई थी तथा सूत काटने वाले और बुनने वालों की संख्या में भारी कमी आई थी। इन आंकड़ों के आधार पर बागची का मानना है कि ब्रिटिश शासनकाल में भारत में वि-औद्योगीकरण का दौर आया था।
वि-औद्योगीकरण के संबंध में एक रोचक तथ्य यह है कि इसका प्रभाव सभी उद्योगों पर एक समान नहीं पड़ा। कुछ ऐसे देसी उत्पाद व व्यवसायी थे जिसका विकल्प विदेशी आयात नहीं दे सकते थे। कुम्हार, लोहार एवं बढ़ाई के शिल्प भी अस्तित्व में बने रहे। दूसरी और ग्रामीण इलाकों में बहुत से स्थानों पर एकीकृत बाजार उपलब्ध नहीं थे। इस वजह से बहुत से विदेशी उत्पाद गांव तक नहीं पहुंच सके। इसके अतिरिक्त रोजगार का कोई अन्य साधन उपलब्ध नहीं होने के कारण कुछ शिल्प उद्योग जबरन अस्तित्व में बने रहे। दूसरे शब्दों में वि-औद्योगिकरण के दौर में भी कुछ शिल्पो का अस्तित्व बना रहा।
निष्कर्ष:- वि-औद्योगिकरण का भारतीय अर्थव्यवस्था पर बहुत ही घातक प्रभाव पड़ा विशेषकर इसलिए भी कि इसके समानांतर भारत में आधुनिक उद्योगों का विकास नहीं हो सका जैसा कि ब्रिटेन सहित यूरोप के दूसरे देशों में हुआ था। इस प्रक्रिया में परंपरागत उद्योगों का पतन हुआ। जिससे बेरोजगारी में वृद्धि हुई, कृषि पर बोझ बढ़ा, उत्पादन में कमी आई। भारत एक पिछड़े, निर्धन कर्जदार देश के रूप में सामने आया जो भारतीय औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था का प्रमुख अभिलक्षण बन गया। भारत में वि-औद्योगीकरण था या नहीं इस विषय को लेकर आज भी विद्वानों में बहस जारी है।
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