बुकर टी. वाशिंगटन और नागरिक अधिकार आंदोलन

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बुकर टी. वाशिंगटन और नागरिक अधिकार आंदोलन अफ्रीकी-अमेरिकी नागरिक अधिकार आंदोलन (1955-1968) का उद्देश्य अफ्रीकी अमेरिकी लोगों के खिलाफ नस्लिय भेदभाव को गैर कानूनी घोषित करना और दक्षिण अमेरिका में मतदान अधिकार को पुन: स्थापित करना था। गृहयुद्ध के बाद अश्वेतों को गुलामी से मुक्त कर दिया गया था लेकिन उसके बावजूद भी उनकी स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया। पुनर्निर्माण और द्वितीय विश्वयुद्ध के बीच अश्वेतों की स्थिति ओर खराब हो गई। इस दौरान बुकर टी. वाशिंगटन इनके लिए एक प्रभावशाली नेता बनकर उभरे। वाशिंगटन ने अफ्रीकी-अमेरिकियों के लिए व्यावसायिक शिक्षा और औद्योगिक शिक्षा को बढ़ावा दिया ताकि वह आर्थिक रूप से संपन्न और कुशल बन सके। पृषठभूमि दक्षिण अमेरिका में अश्वेतों ने संघर्ष कर अपने आपको दासता मुक्त कराया। अश्वेतों ने अपनी संस्थाएं बनाई जिससे अश्वेत राष्ट्रवाद का उदय हुआ। नेशनल नीग्रो कन्वेंशन जैसे कई नीग्रो संगठन बने। गृहयुद्ध के दौरान अफ्रीकी-अमेरिकी नेताओं के बीच कट्टरपंथी विचारों का विकास हुआ। बिशप एम. टर्नर, मार्टिन आर. डेलानी और अलेक्ज़ेंडर क्रूमेल ने अश्वेतों के लिए एक स्वायत्त राज्य की...

1898 के सुधार आंदोलन

प्रश्न:- 1898 के सुधार आंदोलन का विस्तार से वर्णन कीजिए।

परिचय:- 19वीं सदी में चीन में अनेक महत्वपूर्ण घटनाएं घटी जिससे चीन के सभी क्षेत्रों में महत्वपूर्ण परिवर्तन आए। चीन-जापान युद्ध में चीन की पराजय ने उसकी असफलता को स्पष्ट कर दिया। कोरिया में जापान के हाथों चीन की अपमानपूर्ण पराजय ने चीन की सैनिक कमजोरियों को उजागर किया। इस समय अन्य देशों के साथ असमान संबंध बनाते -बनाते चीन धीरे-धीरे एक  अर्धउपनिवेश बन गया। मांचू सरकार इस समस्या को सुलझाने में असफल रही। इस दौरान अनेक आंदोलन हुए जिनमें थाएफिंग, निएन तथा मुस्लिम आंदोलन मुख्य थे। इस स्थिति से निपटने के लिए मांचू सरकार के पास साम्राज्यवादी शक्तियों के साथ समझौता करने के अतिरिक्त दूसरा कोई रास्ता नहीं था। मांचू सरकार ने चीन में परिवर्तन की मांग के प्रति कठोरता का रुख अपनाया। मांचूू सरकार के इस रवैया से उनका अपना भविष्य अंधकारमय हो गया। हालांकि बीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक दशक में उन्होंने सुधार के कुछ प्रयास किए किंतु वे लोगों की आकांक्षाओं से बहुत कम थे। यह समय चीन में राजनीतिक असंतोष का था, जब पूरे चीन में सुधार की मांग उठने लगी। चीन-जापान युद्ध के कारण चीन पर थोपी गई शिमोनेसेकि की संधि के विरूद्ध चीन में हिंसात्मक प्रतिक्रिया हुई।

चीन ने कोरिया के ऊपर अपने अधिकार का परित्याग कर दिया और ताइवान, पेसकेडोरस एवं लियाओतुंग द्वीप को जापान ने अपने अधीन कर लिया। सम्राट के प्रभुत्व के विषय में 1890 के वर्षों से ही प्रश्नों को उठाया जाने लगा। 1894 में कैंटन निवासी सन यात सेन के द्वारा सिंगझोन्गुई के नाम से एक गुप्त संस्था का गठन किया गया। सेन ने सम्राट को सत्ता से हटाने के लिए एक विद्रोह को भी संगठित करने का प्रयास किया, लेकिन उनके षड्यंत्र का भेद खुल गया। इस समय ताइवान द्वीप को जापान के अधीन कर देना का विरोध हजारों कुलनों ने सम्राट को स्मृति-पत्र देकर किया।

कांग-यू-वी:- किस तरह के तूफान में कांग-यू-वी जैसे विद्यार्थियों को भी बहुत प्रभावित किया। उसने सम्राट गोंगशू को एक मांग-पत्र 10,000 शब्दों में लिखा किस मांग पत्र पर 1300 स्नातक विद्यार्थियों के हस्ताक्षर थे। इस मांग-पत्र में बहुत से महत्वपूर्ण मांगे थी:- 

 1. इसमें राजा से प्रार्थना की गई थी कि वह शिमोनोसेकी की संधि को पारित न करे तथा चीन की पराजय के लिए जो उत्तरदाई थे उनको दंड दिया जाए।

2. सेना को पूरी तरह से पुनर्गठित किया जाए तथा उन्हें आधुनिक बनाया जाए।

3. धन संबंधी मामले , बैंकिंग व्यवस्था तथा डाक व्यवस्था को सुधारा आ जाए।

4. सरकार प्राइवेट उद्योग तथा वाणिज्य को प्रोत्साहित करे।

5. कृषि विज्ञान, आधुनिक विज्ञान और तकनीकी विषयों का अध्ययन किया जाए।

6. स्कूलों एवं पुस्तकालयों का निर्माण हो।

7. परीक्षा प्रणाली में परिवर्तन किया जाए। 

8. एक महत्वपूर्ण मांग यह थी की एक निर्वाचित परिषद बनाई जाए तथा यह परिषद राजनीतिक एवं आर्थिक मामलों को निपटाए।

सम्राट ने इस मांग-पत्र को जब देखा तब तक शिमोनेसेकि की संधि पर हस्ताक्षर हो चुके थे। लेकिन कांग के इस मांग पत्र को सभी प्रांतीय गवर्नर लोगों ने पारित कर दिया था। अब नवीन सुधारों के कारण प्रांतों में स्थान-स्थान पर अध्ययन संस्थाएं खुल गई थी। 1895 में क्यांगशूई हुई(स्वयं अध्ययन के लिए संस्था) का प्रारंभ किया गया। इसने भाषाओं का आयोजन किया और बिना किसी मूल्य के अध्ययन सामग्री का वितरण किया। नवंबर 1895 में इस सोसाइटी को यह कहते हुए बंद कर दिया गया कि यह विध्वंसात्मक गतिविधियों का केंद्र बन चुकी है। किंतु प्रेस का प्रसार हो जाने से इन सुधारवादी विचारों का फैलाव काफी व्यापक हो गया था। 1896 से 98 के बीच 25 से भी अधिक पत्रिकाओं का प्रकाशन हुआ। इन पत्रिकाओं में सबसे महत्वपूर्ण शिवूबाओ(तत्कालीन मामलों की पत्रिका) थी। इसका प्रकाशन शंघाई में कांग-यू-वी के शिष्य द्वारा किया गया था। 

कांग ने अपनी एक महत्वपूर्ण पुस्तक दातोगं शू(महान एकता की पुस्तक)में एक ऐसी उपयोगितावादी दृष्टिकोण को विकसित किया जिसके अनुसार अपने अंतिम चरण में सभी प्रकार की असमानताएं तथा सरकारें समाप्त हो जाएंगी। यह एक ऐसा युग होगा जिसमें मानव सौहार्दता एवं प्रसन्नता के साथ रह सकेगा।

कांग चीन के पुनरुत्थान में कुलीन वर्ग की भूमिका को स्वीकार करता था। उसने प्रबुद्ध वर्ग से आग्रह किया कि वह नेतृत्व की भूमिका को स्वीकार करें और सुधारों को निर्देशित करें। वह यह भी मानता था कि चीन का सम्राट भी इस तरह की भूमिका अदा कर सकता है जैसा की मेजी सम्राट ने जापान में और पीटर महान ने रूस ने किया।

यान फू एवं तान सी तोंग:- यान फू ने हक्सले की पुस्तक इवोल्यूशन एंड एथिक्स, एडम स्मिथ की पुस्तक दि वेल्थ ऑफ नेशन तथा हरबर्ट स्पेंसर की पुस्तक स्टडी ऑफ़ सोशियोलॉजी के अनुवाद के द्वारा पश्चिमी विचारों को फैलाने में निर्णायक भूमिका अदा की। डार्विन के तर्को का उपयोग करते हुए यान फू ने तर्क दिया कि चीन का संपूर्ण पुनरनिरीक्षण किया जाए और उसने सुझाव दिया कि विश्व की नई राजनीतिक वास्तविकता में केवल शक्तिशाली ही जीवित रह पाएगा।

तान सी तोंग प्रत्यक्ष तौर पर ना केवल शासक वर्ग की रूढ़िवादिता की कड़ी आलोचना की बल्कि कन्फ्यूशियसवाद के नैतिक नियमों की भी आलोचना की। उसने चीन पर मांचू के प्रभुत्व को समाप्त करने का आह्वान किया।

कांग ने अपने पांचवें स्मृति-पत्र में सम्राट को संबोधित करते हुए राजनीतिक सुधारों के लिए निवेदन किया और यह तर्क भी दिया कि यही एकमात्र ऐसा रास्ता है जिससे चीन एवं शासक वंश को बचाया जा सकता है। अब कांग के स्मृति-पत्रों को भी राजा तक पहुंचाने की आज्ञा दे दी गई थी।

सौ दिन के सुधार:- 11 जून 1898 को सम्राट ने सुधार कार्यक्रम की घोषणा की जिससे सुधार प्रयास का प्रारंभ हुआ। इन सुधारों का यह नाम जिस कारण से रखा गया था वह यह है कि यह 11 जून 1898 से 16 सितंबर 1898 तक अर्थात 103 दिन में लागू किए गए थे। कांग और उसके सहायकों को कार्यक्रम में सहायता करने के लिए पीकिंग बुलाया गया।

सुधार का क्षेत्र :- शाही आज्ञापत्रों में प्रशासन, शिक्षा और अर्थव्यवस्था जैसे महत्वपूर्ण विषयों को शामिल किया गया। कार्यरहित अधिकारियों तथा पदों को समाप्त कर दिया गया तथा मांचूओंं को दी जाने वाली सभी प्रकार की आर्थिक सहायता को भी समाप्त कर दिया गया। परंपरागत रीति से बुनियादी तौर पर अलग होते हुए, सभी अधिकारियों एवं जनता को यह आज्ञा दी गई कि वह अपने सुझाव सीधे-सीधे सम्राट को संबोधित करते हुए भेजें। ऐसा इसलिए किया गया जिससे सम्राट को राजमहल से बाहर निकालकर उसका जनता के साथ सीधा-सीधा संपर्क कायम हो जाए। पुराने शिक्षा केंद्रों को स्कूलों में परिवर्तित कर दिया गया। पीकिंग विश्वविद्यालय की स्थापना की गई। विज्ञान एवं राजनीति को परीक्षा के विषयों के रूप में शामिल कर दिया गया। 

आठ हिस्सों वाली जटिल निबंध प्रणाली को समाप्त करते हुए परीक्षा पद्धति का आधुनिकीकरण करने का प्रयास किया गया। इस निबंध का स्वरूप निबंध लेखन की एक कठोर शैली पर आधारित था। यह निबंध सदियों से निबंध के स्वरूप एवं शैली से संबंधित होता था। किंतु इसके अंतर्गत लेखन के सार का कोई महत्व न था।

आधुनिक वैधानिक व्यवस्था को लागू करने के लिए कार्यालयों को खोला गया और राज्य के वित्तीय प्रबंधन को भी दुरुस्त करने के प्रयास हुए। कृषि, उद्योग तथा व्यापार की देखभाल करने के लिए मंत्रालयों का निर्माण किया गया। प्रांतीय अर्थव्यवस्थाओं को स्थायित्व प्रदान करने के लिए योजनाओं को बनाया गया और चेंबर ऑफ कॉमर्स का प्रारंभ किया गया। इन उपायों का लक्ष्य राज्य की सत्ता को उखाड़ फेंकना नहीं था। इन सब के बावजूद भी मंचू चीनी अधिकारीगण तथा विद्वानों की जमात के बीच इन सुधारों को लेकर एक चिंता व्याप्त थी। इन विद्वानों ने परीक्षाओं की तैयारी में संपूर्ण जीवन लगा दिया था और अब वे इसके लिए चिंतित थे कि नई परीक्षा पद्धति एवं प्रस्तावित शिक्षा व्यवस्था में उनकी स्थिति कैसी होगी। 

न्यायिक सुधारों के लिए कुछ अधिक परिवर्तन नहीं किए गए। 29 जुलाई की घोषणा के अनुसार न्यायालयों को पुराने रुके हुए मुकदमों को जल्द से जल्द निपटाने का हुक्म दिया गया। यह भी घोषणा की गई कि न्यायालयों में नई पद्धतियां प्रयोग की जाएंगी। दीवानी तथा फौजदारी मुकदमा निपटाने के लिए विशेष जजों की नियुक्ति का प्रस्ताव रखा गया। सुधारको ने वित्त व्यवस्था, राजकीय बजट में सुधार करने की भी कोशिश की। कर व्यवस्था, सैन्य व्यय व राजस्व तथा सरकारी खर्चों में सुधार तथा परिवर्तन करने की कोशिश की गई। राजस्व परिषद को आदेश दिया गया कि वह वार्षिक राजस्व तथा व्यय का ब्यौरा तैयार करें तथा उनका मासिक विवरण पेश करें। थल तथा नौसेना के लिए कड़ा प्रशिक्षण आरंभ किया गया। एक ही मापदंड के हथियार बनाने की व्यवस्था की गई। गैर-कानूनी सेनाएं भी भंग कर दी गई तथा उनके सदस्यों को अन्य व्यवसायों में जाने को कहा गया।

किंतु अंत में सुधार आंदोलन के विरोधियों को महासाम्राज्ञी(सर्वश्रेष्ठ रानी) के रूप में एक जबरदस्त समर्थक मिल गया। सेनापति युआन शि-काइ की सहायता से महारानी ने सम्राट को बंदी बना लिया और 21 सितंबर 1898 को सभी सुधारवादियों को गिरफ्तार कर लिया गया। कांग और उसका घनिष्ठ सहयोगी तथा शिष्य विदेश भाग गए। सभी सुधारों को पलट दिया गया। केवल पीकिंग विश्वविद्यालय को जारी रहने दिया गया।

निष्कर्ष:- ऊपर से सुधार असफल दिखाई पड़ते हैं किंतु उनसे कुछ लोगों की कल्पना शक्ति उत्साहित हुई। यह लोग समझ गए कि क्रांति तथा मांचू सरकार का पतन ही चीन की समस्या को सुलझा सकता था। इस सुधार आंदोलन ने जनता के बहुत से समूह पर किसी ना किसी रूप में अपना प्रभाव छोड़ा। सुधारको का एक समूह यह मानने लगा था कि राजनीतिक परंपरा एवं इसकी व्यवस्था के अंतर्गत ही धीरे-धीरे राजनीतिक सुधारों को किया जा सकता है। चीनी जनता यह भी समझ चुकी थी कि राजा चीन की समस्याओं का हल करने में पूर्ण रूप से अयोग्य है।

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