चीन में राष्ट्रवाद के उदय
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प्रश्न:- चीन में राष्ट्रवाद के उदय का वर्णन कीजिए।
परिचय:- बीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में प्रभुसत्ता के अधिकारों की बहाली प्रत्येक प्रबुद्ध चीनी का आदर्श बन गया। 19वीं शताब्दी के अंत तक राष्ट्रीय प्रभुसत्ता और प्रभुसत्ता के अधिकार जैसे पश्चिमी शब्द सरकारी दस्तावेजों में आ गए थे। कुछ ही वर्षों में वे चीनी शब्द भंडार के अभिन्न अंग बन गए। अफीम युद्ध के समय से चीन पर बाहरी आक्रमण होते रहे। प्रत्येक युद्ध का अंत एक असमान संधि के साथ हुआ। चीन को विजेता देशों को हर्जाने, विशेषाधिकार और क्षे्त्रीय रियायतें तक देनी पड़ी। चीन- जापान युद्ध ने चीन की कमजोरी का पर्दाफाश किया। इस युद्ध का परिणाम रियासतों के लिए होड़ के रूप में सामने आया। बक्सर विद्रोह को कुचलने के बाद चीन में कुछ साम्राज्यवादी ताकतों ने निरंकुश लूटमार की। चीन के अतिक्रमण रोक पाने में असमर्थ होने के बावजूद इस समय देश को मजबूत करने और तमाम हाथों से निकली चीजों को फिर से अपने हाथ में लाने के बारे में चीन में कहीं अधिक दृढ़ संकल्प की स्थिति बन गई थी।
बीसवीं शताब्दी के पहले दशक में चीनी अधिकारियों ने अंग्रेजों पर रोक लगाने के लिए तिब्बत पर अधिपत्य तथा प्रभुसत्ता का दावा पेश किया। रूस ने मंचूरिया पर कब्जा कर लिया था, लेकिन 1905 में जापान के हाथों हार जाने के बाद इसकी ताकत कम पड़ गई। चीनियों ने समय नहीं गवाया। उन्होंने मंचूरिया में प्रवास की गति बढ़ा दी और वहां प्रशासनिक तंत्र की फिर से संरचना की। उनका उद्देश्य जापान के विस्तार को रोकना था। आम जनता ने भी पश्चिम और जापान के मंसूबों के प्रति तीखी प्रतिक्रिया दी। स्थानीय और राष्ट्रीय समाचार पत्रों में इन मुद्दों पर चर्चा हुई। अनेक जगहों पर प्रदर्शन और सभाओं के माध्यम से विदेशी ताकतों की निंदा की गई।
गानों और नाटकों के माध्यम से चीन में विदेशियों द्वारा किए जा रहे अत्याचारों को दिखाया गया। इश्तिहारो और दूसरे प्रचार माध्यमों से चीनी राष्ट्रवाद के संदेश का प्रसार किया गया। अधिक जबरदस्त विरोध “बहिष्कार अधिनियम” के विरोध में 1905 का अमेरिका विरोधी बहिष्कार और 1908 में तात्रू मार कांड को लेकर होने वाला जापान विरोधी बहिष्कार था। इन बहिष्कारो ने यह दिखा दिया कि चीनी सौदागर और मजदूर अपने राष्ट्रवादी उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए भौतिक त्याग करने को भी तैयार थे।
राष्ट्रवाद और राष्ट्र निर्माण:- राष्ट्रवाद केवल साम्राज्यवाद का विरोधी ही नहीं था बल्कि इसमें प्रांतवाद और क्षेत्रवाद पर विजय भी निहित थी। पतंनशील मांचू शासन ने जो सुधार के प्रयास किए उसके परिणामस्वरूप चीन में सभी जगहों पर प्रांतीय सभाएं कायम की गई। ये सभाएं वाद-विवाद और विचार- विमर्श का मंच बन गई और इन्होंने राष्ट्रभक्त लोगों को एक जगह पर लाने का काम किया। अनेक स्थानीय मुद्दों पर जो विचार-विमर्श चला उससे साम्राज्यवाद के प्रतिरोध से संबंधित मुद्दों की ओर ध्यान देने की स्थिति बनी। इसमें स्थानीय सौदागरों की अपने व्यापार को फैलाने की इच्छा ने एक साथराष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था की मांग को जन्म दिया। राष्ट्रवादी भावना ने राष्ट्र निर्माण की आवश्यकता को जन्म दिया, जिससे यह मांग बनी कि चीन एक एकीकृत, मजबूत राष्ट्र बन जाए।
मांचूू-विरोधी भावनाएं:- 1644 से चीन पर राज करने वाला चिंग वंश प्रजाति या नस्ल की दृष्टि से उन हान चीनियों से भिन्न था जो देश की आबादी का 4% थे। चिंग वंश के लोग मंचूरिया प्रांत की मांचू प्रजाति के थे जो की संख्या की दृष्टि से नगण्य थे।
जब वंश कमजोर होने लगा तो वंश विरोधी भावनाएं जातीय अर्थों में अभिव्यक्त होने लगी। अनेक हान चीनियों का विश्वास था कि देश पर क्योंकि एक गैर-हान वंश राज कर रहा था इसलिए उसमें हान लोगों जैसा इच्छा और जुनून नहीं था, इसलिए वह इतनी दयनीयता के साथ आधिपत्य स्वीकार कर लेता था। इसके विपरीत, चिंग दरबार में बड़ी संख्या में हान चीनी शामिल थे और साम्राज्यवाद को दूरदराज के क्षेत्रों से जोड़ने वाली देश की लोक सेवा में हान चीनियों का बोलबाला था। चीन पर चीनी मांचू कुलीन वर्ग का राज था। इसी अन्याय के विरुद्ध कुछ गुप्त संघो और समुदायों ने “मांचूओ को उखाड़ फेंको, चीनियों को वापस लाओ” का नारा लगाया। मंचू विरोध की भावना अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग थी, लेकिन इसके बावजूद भी इसने चीनी जनता में एक राष्ट्रीय भावना को जागृत किया।
शांतुंग समस्या और चार मई का आंदोलन:- शांतुंग प्रांत जर्मनी को 1898 के पट्टे के अनुसार 99 वर्षों के लिए दिया गया था। अस्थाई तौर पर इसकी प्रभुसत्ता जर्मनी को दी गई थी लेकिन उस पर चीन का अधिकार आरक्षित था और पट्टे के अनुसार जर्मनी यह प्रांत चीन के अलावा किसी और को नहीं सौंप सकता था। वहीं दूसरी और जापान ने जब युआन शिकाई की सरकार पर 21 मांगे थोंपी तो इस कानूनी स्थिति में एक नया तत्व शामिल हो गया, जिसमें चीन ने यह वचन दिया था कि जर्मनी और जापान के बीच शांतुंग में जर्मनी के अधिकारों के निपटारे को लेकर जो भी सहमति होगी उसे चीन स्वीकार करेगा। चीनियों ने इसका विरोध किया कि यह समझौता चीन पर जबरन थोपा गया और इसलिए यह आवश्यक नहीं था कि उसे माना ही जाए। इस विषय पर अमेरिका जापान के विरुद्ध चीन के साथ था। उसने चीन को आश्वासन दिया कि पेरिस शांति सम्मेलन में वह शांतुंग प्रांत के लिए चीन का समर्थन करेगा।
जब 1919 में पेरिस शांति सम्मेलन हुआ, जिसके परिणामस्वरूप अंत में वर्साय की संधि हुई तो जापानियों को यह विश्वास हो गया कि शांतुंग की प्रभुसत्ता उनके हाथों में दे दी जाएगी। जनवरी के अंतिम दिनों में शांतुंग की समस्या सामने आई। जापानी इस प्रायद्वीप की मांग कर रहे थे और चीन उसे नकार रहा था। जापान ने शांति सम्मेलन में उन दस्तावेजों को प्रस्तुत किया जिनमें चीनी सरकार ने जापान को आश्वासन दिया था। साथ ही पिकिंग सरकार ने एक ऐसे गुप्त समझौते पर हस्ताक्षर किए थे, जिससे इस बात की पुष्टि होती थी कि शांतुंग प्रांत में दो नए रेल मार्ग की वित्त व्यवस्था तथा निर्माण कार्य के लिए जापान के प्रस्ताव चीन को मंजूर थे। इसका परिणाम यह हुआ कि इन गुप्त समझौतों और वचनों की बात सामने आते ही चीनियों का पक्ष कमजोर पड़ गया। अप्रैल में जब बातचीत चल रही थी, तब चीन ने सम्मेलन में एक स्मरण पत्र पेश किया जिसमें 1915 की संधि और जापान के साथ समझौते को रद्द करने की मांग थी। लेकिन सम्मेलन में इसे अस्वीकार कर दिया गया।
अप्रैल 1919 में जब अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस, इटली और जापान के विदेश मंत्रियों की परिषद के सामने शांतुंग का मसला लाया गया तो, अमेरिकी प्रतिनिधिमंडल ने यह सुझाव दिया कि शांतुंग के अधिकार पहले इन पांचों ताकतों के हाथों में दे दिए जाएं और ये ताकतें अंत में इन अधिकारों को चीन को वापस कर देगी। लेकिन जापान ने इस सुधार को अस्वीकार कर दिया। अंत में निर्णय यह हुआ की शांतुंग में जर्मनी के पास जो भी अधिकार है, वह सब जापान को दे दिए जाए। यह एक और तो चीन के लिए लज्जा की बात थी, पर इससे चीन में राष्ट्रवादी भावनाओं को मजबूती मिली।
बौद्धिक प्रतिक्रिया और जन विरोध:- जब से पेरिस में में शांतुंग का मुद्दा उठा, तब से जागरूक जनता ने इस मामले में दिलचस्पी लेना शुरू कर दिया। पेरिस में जो निर्णय लिया गया उससेे चीन में एक विस्फोटक स्थिति बनी, जिसे माई चतुर्थ आंदोलन के नाम से जाना गया। इस आंदोलन का नेतृत्व छात्रों और बुद्धिजीवियों ने किया।
4 मई को 13 संस्थानों के लगभग 3000 छात्र तियानान चौक पर जमा हुए। वहां से उन्होंने स्थानीय पुलिस की चेतावनी के बावजूद दूतावास की ओर कूंच कर दिया। संतरियों ने उन्हें अंदर जाने नहीं दिया। छात्र फिर दूसरी ओर मुड़ गए। उनका नारा था “चलो गद्दारों के घर”, गद्दार से उनका आशय प्रधानमंत्री और उसके भ्रष्ट साथियों से था। छात्रों ने उनमें से कई के आवास पर हमले किए। उनमें से एक के घर को आग लगा दी और एक को निर्ममता से पीटा। इस घटना ने विरोध के एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन के उत्प्रेरक का काम किया। इसके तुरंत बाद अनेक छात्रों ने प्रदर्शनों, हड़ताल और जापान-विरोधी बहिष्कार आंदोलन का आयोजन शुरू कर दिया। इसमें सौदागर, व्यापारियों और चीनी समाज के निम्न मध्यम वर्ग के लोगों ने छात्रों का साथ दिया। सरकार ने इसे रोकने का प्रयास किया लेकिन वह इस लहर को नहीं रोक पाई। पेरिस शांति सम्मेलन के बाद चीन में हुई अशांतिपूर्ण घटनाओं के कारण पूरे चीन में अनेक संगठन बन गए। शंघाई में एक चीनी छात्र संघ की स्थापना की गई। शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों से राष्ट्रवाद की जो भावना उभरी थी उसे माई चतुर्थ आंदोलन से जबरदस्त गति मिली। इसलिए इस आंदोलन को आधुनिक चीनी राष्ट्रवाद के उदय का श्रेय जाता है। यह एक आधुनिक राष्ट्रवाद की नई भावना थी, जिसका स्थान विदेशी-विरोधी से साम्राज्यवाद विरोधी हो गया।
सोवियत संघ:- मार्च 1913 में सोवियत संघ ने चीन में रूसी अधिकारों और विशेषाधिकारों को छोड़ दिया। इससे चीनियों का नए सोवियत राज्य के प्रति अनुकूल रवैया बन गया। इस तरह मार्क्सवाद-लेनिनवाद में कुछ चीनियों को अंत में अपनी राष्ट्रवादी आकांक्षाओं की पूर्ति दिखाई दी। बाद में जब काफी बुद्धिजीवियों ने मार्क्सवाद को अपना लिया तो राष्ट्रवाद इसका एक अत्यंत महत्वपूर्ण तत्व बन गया।
निष्कर्ष:- विदेशी ताकतों के हाथों अपमान और अधीनता झेलने के बाद चीन में बीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में आधुनिक राष्ट्रवाद का उदय हुआ। साम्राज्यवाद विरोध, मांचू विरोध और एक मजबूत राष्ट्र की इच्छा इन तीन कारकों ने राष्ट्रवाद के उदय को प्रेरित किया। 1911 और 1919 के बीच का जो दौर था उसमें एक नवीन राष्ट्रवादी भावना दिखाई देने लगी। सौदागर, बुद्धिजीवी, छात्र और सेना सभी बाहरी शत्रु से लड़ने के लिए एक हो गए। चीनियों ने पेरिस शांति सम्मेलन में शांतुंग मसले को जिस तरह से लिया उससे एक आक्रामक राष्ट्रवादी भावना भड़क उठी। मई चतुर्थ आंदोलन के फलस्वरुप चीन में राष्ट्रवादी भावना वाले सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक पहलू शामिल हुए।
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