बुकर टी. वाशिंगटन और नागरिक अधिकार आंदोलन

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बुकर टी. वाशिंगटन और नागरिक अधिकार आंदोलन अफ्रीकी-अमेरिकी नागरिक अधिकार आंदोलन (1955-1968) का उद्देश्य अफ्रीकी अमेरिकी लोगों के खिलाफ नस्लिय भेदभाव को गैर कानूनी घोषित करना और दक्षिण अमेरिका में मतदान अधिकार को पुन: स्थापित करना था। गृहयुद्ध के बाद अश्वेतों को गुलामी से मुक्त कर दिया गया था लेकिन उसके बावजूद भी उनकी स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया। पुनर्निर्माण और द्वितीय विश्वयुद्ध के बीच अश्वेतों की स्थिति ओर खराब हो गई। इस दौरान बुकर टी. वाशिंगटन इनके लिए एक प्रभावशाली नेता बनकर उभरे। वाशिंगटन ने अफ्रीकी-अमेरिकियों के लिए व्यावसायिक शिक्षा और औद्योगिक शिक्षा को बढ़ावा दिया ताकि वह आर्थिक रूप से संपन्न और कुशल बन सके। पृषठभूमि दक्षिण अमेरिका में अश्वेतों ने संघर्ष कर अपने आपको दासता मुक्त कराया। अश्वेतों ने अपनी संस्थाएं बनाई जिससे अश्वेत राष्ट्रवाद का उदय हुआ। नेशनल नीग्रो कन्वेंशन जैसे कई नीग्रो संगठन बने। गृहयुद्ध के दौरान अफ्रीकी-अमेरिकी नेताओं के बीच कट्टरपंथी विचारों का विकास हुआ। बिशप एम. टर्नर, मार्टिन आर. डेलानी और अलेक्ज़ेंडर क्रूमेल ने अश्वेतों के लिए एक स्वायत्त राज्य की...

ईसाई इतिहासलेखन की शुरुआत

ईसाई इतिहासलेखन की शुरुआत

परिचय:- प्राचीनकालीन इतिहासलेखन की तुलना में मध्यकालीन इतिहास लेखन की प्रमुख विशेषता यह थी कि इसमें दैवीय विधान को महत्व दिया गया जिसमें कि व्यक्ति की भूमिका नाम मात्र की थी। ईसाई इतिहासलेखन की परंपरा में धर्म को सर्वोपरि स्थान दिया गया और विधर्मियों पर इसाइयत की विजय ने ईसाई इतिहासलेखन की परंपरा के लिए प्रेरित किया। ईसाई इतिहासकारों ने यहूदी धर्म ग्रंथों को मूल स्रोतों के रूप में स्वीकार किया। मध्यकाल में ईसाई सन्यासियों एवं पुरोहित वर्ग की इतिहासलेखन में अत्यधिक अभिरुचि थी। उन्होंने यीशु मसीह, चर्च और उसके संरक्षको तथा स्थानीय शासकों के राजवंशीय इतिहास के विषय में प्रचुर मात्रा में लिखा। प्रारंभिक मध्यकाल में ऐतिहासिक रचनाओं का स्वरूप आख्यानो अथवा इतिवृत्तों के रूप में होता था जिनमें कि साल दर साल की घटनाओं का सिलसिलेवार वर्णन होता था। केवल तिथिक्रमानुसार घटनाओं के वृतांत की इस शैली के लेखन में विशिष्ट घटनाओं और उनके कारणों के विश्लेषण की संभावना नहीं रह पाती थी। मध्यकालीन ईसाई इतिहासलेखन वास्तव में हेलेनिस्टिक व रोमन इतिहासलेखन परंपरा की ही अगली कड़ी है। ईसाई इतिहासकारों ने जिस काल को अपने लेखन का विषय बनाया, उस काल के परिवेश, परिस्थिति एवं अवस्थिति का सामान्यत: उनके लेखन पर प्रभाव पड़ा है।

ग्रीको-रोमन इतिहासलेखन परंपरा में बुद्धि एवं विवेक का स्थान था, वहीं ईसाई इतिहासलेखन परंपरा में धर्म को सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। ईसाई इतिहासकारों ने विधर्मी इतिहासलेखन को शैतान की कृति कहकर उसकी भर्त्सना की है।

ईसाई इतिहासलेखन में ओल्ड टेस्टामेंट को ऐतिहासिक स्रोत के रूप में प्रमुख स्थान दिया गया। प्रारंभिक काल में ईसाई मतानुयायी यीशू मसीह के शिष्य और धर्म प्रचारकों द्वारा उनके उपदेशों एवं उनके कृत्यों के वृतांत पर निर्भर करते थे परंतु धीरे-धीरे जब यीशु मसीह के समकालीन काल के गोद में समाते चले गए तो इस श्रुति परंपरा का स्थान लिखित दस्तावेजों ने ले लिया। प्रथम तथा द्वितीय शताब्दी में लिखित गास्पल ऑफ़ मार्क, गास्पल ऑफ मैथ्यूज, गास्पल ऑफ ल्यूक तथा द्वितीय शताब्दी में लिखित गास्पल आफ जॉन में यीशु मसीह के उपदेशों को ईश्वरीय वचन के रूप में प्रस्तुत किया गया है।

गास्पल ऑफ़ मार्क संभवत प्रथम यहूदी-रोमन युद्ध के पश्चात लिखी गई थी। गास्पल ऑफ मैथ्यूज का लक्ष्य यहूदियों के समक्ष यह बात रखने का था कि यीशु मसीह ही हमारा मुक्तिदाता मसीहा है और वह मोजेज से भी महान है। गास्पल ऑफ ल्यूक सभी गास्पल साहित्यिक कृतियों में सबसे उत्कृष्ट और कलात्मक माना जाता है। गास्पल आफ जॉन का उल्लेख आवश्यक है जिसमें यीशु मसीह को दिव्यवाणी का संदेशवाहक बताया गया है। इसमें यीशु मसीह स्वयं अपने जीवन के विषय में और अपने दिव्य अभियान के विषय में विस्तार से बोलते हैं। इसमें दर्शाया गया है कि यीशु मसीह और उनके उपदेशों में आस्था रखने वालों की ही मुक्ति संभव है।

सेक्सटस जूलियस एफ्रीकैनस (180-250 ई•):- इनकी पांच खंडों की पुस्तक क्रोनोग्राफिया को हम तिथि क्रमानुसार वृतांत की पहली रचना कह सकते है। एफ्रीकैेनस का यह विश्वास है कि यीशु मसीह के 500 वर्ष बाद ही संसार का विनाश हो जाएगा।

यूजिबीयस (260-340 ई•):- सीजेरिया के निवासी यूजीबियस द्वारा सन 324 के आसपास रचित प्रथम इतिहास में लिखित स्रोतों का प्रचुर मात्रा में उपयोग किया गया। प्रथम शताब्दी से लेकर यूजीबियस ने अपने समय तक ईसाई धर्म के विकास का तिथि क्रमानुसार सिलसिलेवार इतिहास लिखा है। इनकी रचनाओं में हिस्टोरिया एक्लेसियास्टिका, डेमोंसट्रेशन ऑफ दि गास्पल, प्रिपरेशन इवेंजेलिका, डिस्क्रिपेंसीज बिटवीन दि गास्पल्स तथा स्टडीज ऑफ द बाइबिकल टेक्स्ट प्रमुख है। यह अपने ग्रंथों में प्लेटो और फिलो के ग्रंथों का उपयोग करते है। यह ओके ऑफ मार्नरे की धार्मिक परंपराओं का उल्लेख करता है तथा ओल्ड व न्यू टेस्टामेंट की समीक्षा करता है। रोमन सम्राटों, विशेषकर कांसटेनटाइन प्रथम के शासनकाल, यहूदियों और ईसाइयों के मध्य संबंध और ईसाई शहीदों के विषय में इसने विस्तार से लिखा है।

यह सामाजिक एवं धार्मिक पहलुओं पर भी प्रकाश डालता है। ईसाई धर्म विज्ञान में यह माना जाता है कि समय एक रेखा के रूप में ईश्वरीय योजना के अनुसार आगे बढ़ता है। चूंकि ईश्वरीय योजना में सभी समाहित होते हैं इसलिए इसका इतिहासलेखन का दृष्टिकोण सार्वभौमिक होता है। इनके चौथी शताब्दी में रचित चर्च संबंधी इतिहास में प्रथम शताब्दी से लेकर इनके अपने समय तक ईसाई धर्म के विकास का तिथि क्रमानुसार इतिहास वर्णित है। इसने अपने ग्रंथों में अनेक धार्मिक दस्तावेजों, शहीदों के कृत्यों, पत्रों, पूर्व में लिखे गए इसाई ग्रंथों के सार-संक्षेपो, बिशपों की सूचियों आदि का उपयोग किया है और उसने अपने ग्रंथों में ऐसे मूल स्रोत-ग्रंथों का उल्लेख कर उनके विस्तृत उदाहरण भी दिया है जो कि अब उपलब्ध नहीं है। इनपर प्राय: यह आरोप लगाया जाता है कि यह जानबूझकर तथ्यों को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करते हैं।

सन्त अगस्ताइन (354-430 ई•) :- मध्ययुगीन इतिहासलेखन की परंपरा के प्रमुख प्रतिनिधि संत अगस्ताइन थे। इन्होंने ऐतिहासिक लेखन में दैवीय घटनाओं को प्रमुखता दी थी। संत अगस्ताइन इतिहासकार, धर्म-विज्ञानी, दार्शनिक, शिक्षक एवं कवि थे। सिटी ऑफ गाॅड इनकी प्रमुख रचना है। इन्होंने ईश्वर की आज्ञा का पालन मनुष्य का परम कर्तव्य माना है। इनके अनुसार ईश्वर की आज्ञा का पालन करने वाले देवता व मनुष्य देव नगर में निवास करते हैं जबकि उसके विरोधी पाप नगर में रहने के लिए विवश है। अपने इस विचार की पुष्टि के लिए उन्होंने रोम के उत्थान और पतन का उदाहरण दिया है। इनके अनुसार रोम का उत्थान ईश्वरीय अनुकंपा के कारण हुआ परंतु कालांतर में जब रोमवासियों ने अपने जीवन और विचारों में पाप, अन्याय व अनैतिकता को स्थान दिया तो उन्हें ईश्वरीय प्रकोप को सहना पड़ा जिसके फलस्वरूप रोम का पतन हुआ।

इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि ईश्वर को भुला देने वाले अथवा उसकी आज्ञा का पालन न करने वालों को ईश्वर द्वारा दंडित किया जाता है। इनकी दृष्टि में राज्य की उत्पत्ति में कुछ भी दैविक नहीं है। यह मानव निर्मित संस्था है अतः इसमें दोषों का होना स्वभाविक है। जब इसमें अच्छाइयों का वास होता है तो इसका उत्थान होता है और जब इसमें बुराइयां घर कर जाती है तो इसका पतन होता है। छोटे से छोटे राज्यों से लेकर बड़े से बड़े साम्राज्यों तथा सभी संस्कृतियों के उत्थान और पतन के साथ यही दैविक नियम लागू होता है। ईश्वर कृत रचनाओं में सब कुछ निर्दोष एवं परिपूर्ण होता है जबकि मानव निर्मित रचनाओं में मौलिकता का अभाव व अपूर्णता होती है। कोई भी शासन व्यवस्था निर्दोष व परिपूर्ण नहीं हो सकती परंतु चर्च की रचना ईश्वर ने की है इसलिए वह दोष रहित व परिपूर्ण हो सकता है।

मानव निर्मित साम्राज्य की स्थापना बिना रक्तपात के नहीं हो सकती जबकि सिटी ऑफ गॉड अपना अधिपत्य बिना रक्तपात के स्थापित करता है। मानव निर्मित राज्यों को अपने क्षणभंगुर कानूनों के अनुपालन के लिए सैन्य दल की आवश्यकता होती है जबकि ईश्वर निर्मित राज्य में शाश्वत दैविक नियमों के अनुपालन हेतु किसी बाहरी बल की आवश्यकता नहीं होती है।

अगस्ताइन का इतिहासलेखन मुख्य रूप से धर्मनिरपेक्ष एवं धर्मतंत्रात्मक शक्तियों के मध्य संघर्ष की गाथा है जिसमें कि उन्होंने धर्मतंत्रात्मा पक्ष का समर्थन किया है। इनके अनुसार ईश्वरीय आदेश के पालन करने वालों को स्वर्गलोक में वास करने का अधिकार मिलता है जबकि उसकी आज्ञा का उल्लंघन करने वालों को नर्क में रहने के लिए बाध्य होना पड़ता है। इन्होंने रोमन साम्राज्य के इतिहास का उल्लेख करते हुए यह बतलाया है कि उसका उत्थान प्रभु की कृपा के कारण हुआ किंतु उसका पतन कालांतर में पाप, अन्याय व अनैतिकता के कारण अर्थात ईश्वरीय आदेश की अवज्ञा के कारण हुआ।

पाॅलस ओरोसियस (380-420 ई•):- यह संत अगस्टाइन के शिष्य थे और उनकी मान्यता है कि विभिन्न समुदायों के भाग्य ईश्वर द्वारा ही निर्धारित होते हैं। इनकी सर्वाधिक महत्वपूर्ण पुस्तक सेवेन बुक ऑफ हिस्ट्री अगेंस्ट दि पैगन्स की रचना सन 411-418 के मध्य हुई थी। इस ग्रंथ में मानव की सृष्टि से लेकर गालों द्वारा रोम के विनाश तक का इतिहास है। इनके लेखन पर अगस्ताइन के अतिरिक्त हेरोडोटस, लिवी, तथा पॉलीबियस की रचनाओं का प्रभाव पड़ा है। इनके ऐतिहासिक ग्रंथ में अनेक महत्वपूर्ण तथ्यों तथा देशों का उल्लेख नहीं किया गया। इस अपूर्णता के अतिरिक्त इनके इतिहास ग्रंथ का सबसे बड़ा दोष यह है कि यह जानबूझकर यह प्रदर्शित करते हैं कि ईसाई धर्मावलंबियों की तुलना में अन्य धर्मों के अनुयायियों को युद्ध, महामारी, अकाल, भूकंप, बाढ़, बिजली गिरना, तूफान, अपराधिक घटनाओं आदि का अधिक सामना करना पड़ता है।

निष्कर्ष:- इसाई इतिहासलेखन की परंपरा में घटनाएं उस रूप में नहीं देखी गई जिस रूप में वह घटित हुई बल्कि उन घटनाओं को एक दैवीय जामा पहनाकर उन्हें ईश्वरीय इच्छा के रूप में प्रस्तुत किया गया। ईसाई धर्मावलंबी इतिहास चिंतकों की दृष्टि में ब्रह्मांड में होने वाली हर घटना के पीछे ईश्वर की इच्छा होती है। इसमें घटना के अच्छे या उसके बुरे होने का कोई भी अंतर नहीं पड़ता है। ऐतिहासिक घटनाओं पर नियंत्रण रख पाने की शक्ति मनुष्य में नहीं है। मनुष्य तो भगवान के हाथ में एक खिलौने की तरह है परंतु उनसे खेलते समय ईश्वर उनमें से किसी पर भी अपना विशेष अनुराग अथवा प्रकोप प्रदर्शित नहीं करता है। ईसाई इतिहास की परंपरा में इतिहास को एक नाटक माना गया है। ईसाई धर्मावलंबी इतिहास चिंतक इतिहास की प्रकृति में विश्वास नहीं रखते हैं उनका यह विश्वास है कि संसार में घटित सभी घटनाओं की दिशा ईश्वर द्वारा ही निर्धारित की जाती है। ईश्वर को सभी घटनाओं की परिणति का पहले से ही ज्ञान होता है। ईश्वर ऐतिहासिक शक्तियों का दिशा निर्देशन करता है अतः ऐतिहासिक शक्तियां सार्वभौमिक है।

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