अलबरूनी (973-1048 ई•)
परिचय:- मध्यकाल के आरंभिक इतिहास की जानकारी हमें अलबरूनी की कृति किताब-उल-हिंद से मिलती है। अलबरूनी द्वारा लिखित यह पुस्तक कुल 80 अध्यायों में विभाजित है। यह एक विशाल ग्रंथ है जिसमें भारतीय धर्म दर्शन, त्यौहार, खगोल विद्या, रीति-रिवाज, परंपराओं, सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन, माप-तोल की विधियां, मूर्तिकला, कानून, प्रांतों की सीमाओं, भौगोलिक स्थिति, पर्यावरण, नदियां आदि की विस्तृत जानकारी मिलती है। अलबरूनी का यह ग्रंथ मध्यकालीन भारतीय सांस्कृतिक इतिहास की जानकारी प्रदान करता है। अलबरूनी का जन्म 973 ई• में खीवा में हुआ था। महमूद गजनवी ने उसकी योग्यता से प्रभावित होकर उसे अपने दरबारी विद्वानों में स्थान दिया। अलबरूनी महमूद गजनवी के भारतीय आक्रमणों के दौरान भारत आया। भारत आकर अलबरूनी ने संस्कृत भाषा, भारतीय दर्शन एवं ज्योतिषशास्त्र का अध्ययन किया। अलबरूनी की कृति किताब-उल-हिंद या तहकीके हिंद उसके द्वारा 1017 ई• से 1030 ई• के मध्य किए गए भारतीय जीवन के अध्ययन एवं निरीक्षण पर आधारित है।
अलबरूनी इतिहास लेखन कला के मूलभूत तत्वों से सुपरिचित था। उसने 10वीं एवं 11वीं सदी में भारतीय इतिहास लेखन की कमी को इंगित किया। अलबरूनी बताता है कि दुर्भाग्य से हिंदू ऐतिहासिक तथ्यों की ओर अधिक ध्यान नहीं देते, वह शासकों के तिथिक्रम के प्रति जागरुक नहीं है। जब भारतीयों से इतिहास विषयक कोई जानकारी हासिल करने का प्रयास किया जाता है तो वे कहानियां सुनाने लगते हैं।
अलबरूनी ने अपने कृति में ऐतिहासिक तथ्यों की प्रस्तुति पर विशेष ध्यान दिया है। वह एक ही स्थान पर लिखता है कि “जझौती की राजधानी खजुराहो है। खजुराहो एवं कन्नौज के मध्य दो प्रमुख दुर्ग ग्वालियर व कालिंजर स्थित है। वह यह भी बताता है कि राजनीतिक रूप से भारत छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित है। यह राज्य पारस्परिक युद्धों में उलझे रहते है। उन्हें राष्ट्रीय हित की कोई परवाह नहीं रहती। संभवत: वे राष्ट्रीय शब्द की अवधारणा से अनभिज्ञ है। समाज जाति प्रथा की कठोरता से जकड़ा हुआ है। धर्म में अंधविश्वास प्रवेश कर चुका है”।
अलबरूनी मात्र एक इतिहासकार नहीं थे। उनके ज्ञान और रुचियां की व्याप्ति जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी थी। इनके बारे में अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं है, जो जानकारी मिलती है वह उनकी कृतियों से ही प्राप्त होती है। अलबरूनी की अपनी पहली प्रमुख रचना में इस्लाम के इतिहास को एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में रखकर देखा गया है। एक जगह वह संकेत देते हैं कि उन्होंने 113 कृतियों की रचना की। इनमें उनके मित्रों की वे कृतियां शामिल नहीं है जो उन्होंने उनके अनुसंधानों एवं विचारों के आधार पर लिखी थीं। इनके लेखन का क्षेत्र बहुत विस्तृत था- खगोलविज्ञान, भौतिक विज्ञान, खनिज-विज्ञान और रसायन विज्ञान। वे यूनानी चिंतन से परिचित थे और उन्होंने प्रमुख यूनानी चिंतकों को उनके अरबी अनुवादों के माध्यम से पढ़ा था। इन्होंने अपनी रचनाओं में अन्य अनेक यूनानी विद्वानों के साथ-साथ प्लेटो तथा अरस्तु का उल्लेख किया है जिनकी कृतियों का इन्होंने अध्ययन किया था। महमूद गजनवी के भारत के अभियान के समय अलबरूनी भारत आए थे। उन्होंने इस अवसर का लाभ उठाकर संस्कृत सीखीें और यहां के विद्वानों से बातचीत की।
अलबरूनी तुलनात्मक धर्म के अध्ययन में दिलचस्पी लेते थे। उन्होंने बताया कि भारतीय धर्म के बारे में जो भी सामग्री उपलब्ध है उसका अधिकांश भाग गौण सामग्री पर आधारित है और इसमें आलोचनात्मक दृष्टि का अभाव है। उन्होंने यह महसूस किया कि चूंकि मुस्लिम धार्मिक संप्रदायों को तरह तरह से गलत रूपो में पेश किया जाता रहा है, अतः यह तय है कि अन्य धर्मों को भी गलत रूपों में पेश किया जाता रहा होगा। जहां तक मुस्लिम धर्म-संप्रदायों का सवाल है, मुसलमान होने के नाते वे उनका पता लगाते भी हैं किंतु वे अन्य धर्मों में झूठी बातों का पता लगाने में असमर्थ है क्योंकि उनका पता तभी लगाया जा सकता था जब वे उन धर्मों का भली-भांति अध्ययन कर लें।
इसलिए उन्होंने मूल स्रोतों से सूचना एकत्र करने का सिलसिला शुरू किया और इसके लिए उन्होंने संस्कृत का अध्ययन किया। धार्मिक तथा वैज्ञानिक पुस्तकों को पढ़ा और विभिन्न विषयों के ऐसे पंडितों से मिले जो उन्हें ये मूल पुस्तकें समझाने और उसके द्वारा उठाई गई समस्याओं पर विचार-विमर्श करने के लिए तैयार थे। वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखने के कारण धार्मिक पूर्वाग्रह उनके ज्ञानात्मक गुणों को विकृत नहीं कर पाते थे। उन्होंने अनेक सांस्कृत रचनाओं का उपयोग किया जिनमें ब्रह्मगुप्त, बलभद्र तथा वराहमिहिर की रचनाएं विशेष रूप से उल्लेखनीय है। उन्होंने कपिल के सांख्य और पतंजलि की रचना का भी उल्लेख किया है। उन्होंने इन प्राचीन रचनाओं से बहुत से उदाहरण दिए हैं और यह अपने आप में काफी ज्ञानवर्धक है क्योंकि इन पुस्तकों के जिन संकलनों का वे इस्तेमाल कर रहे थे उनमें से कुछ आजकल उपलब्ध संकलनों से काफी भिन्न है। वे किसी खास विषय पर भारतीय विद्वानों के विचारों को बताने के लिए काफी परिश्रम करते हैं। वे प्राय इनकी तुलना प्राचीन यूनानी सिद्धांत से करते हैं।
वह जोर देकर कहते हैं कि वे भारतीयों के सिद्धांतों के पक्ष में सफाई नहीं दे रहे, बल्कि उन्हें पूरी इमानदारी से प्रस्तुत कर रहे हैं ताकि उन्हें और अच्छी तरह समझा जाता जा सके।
वे यह स्वीकार करते हैं कि संबंध विषय के बारे में उनकी जानकारी अपूर्ण है। वे ऐसे तथ्यों का उल्लेख तो करते हैं जिन्हें उन्होंने स्वयं जांच कर न देखा हो, किंतु साथ ही वे यह भी बताते हैं कि उन्हें सत्यापित करके नहीं देखा गया है। भारतीय परंपराओं, रीति-रिवाजों, त्योहारों, उत्सवों तथा धार्मिक अनुष्ठानों के विवरण की वजह से इनकी रचना विशेष रूप से रोचक हो उठी है। उनके और कथन भी काफी दिलचस्प है। वह विधि प्रणाली के व्यावहारिक पहलुओं को रेखांकित करते हैं और इनमें तथा कानूनी पुस्तकों में प्रतिपादित विधि-सिद्धांतों में जो अंतर है उसका भी उल्लेख करते हैं। जाति व्यवस्था पर टिप्पणी देते हुए वे कहते हैं कि विभिन्न जातियां वर्ण-व्यवस्था की सूचक है। उन्होंने भारत में इस्तेमाल होने वाले बाटों, पैमानों तथा दूरियों की मापन-पद्धति को समझने के लिए भारी प्रयास किया है। वह भारतीय अक्षरमाला के अनेक रूप-भेदो को नोट करते हैं और उनका विवरण देते हैं। वह बहुत ही रोचक भौगोलिक आंकड़े प्रदान करते हैं और यहां के खगोल-संबंधी तथा गणितीय सिद्धांतों के बारे में चर्चा करते हैं। इस चर्चा से जो उन्हें निष्कर्ष प्राप्त होते है उनके प्रति भी उनका दृष्टिकोण बहुत आलोचनात्मक है। उन्होंने इस बात पर खेद व्यक्त किया है कि उनके समसामयिक भारतीयों ने अपने पूर्वजों के वैज्ञानिक दृष्टिकोण को त्याग दिया है। उनके पूर्वजों के दिमाग ज्ञान के आदान-प्रदान के लिए खुले हुए थे और उन्होंने उन्मुक्त भाव से अन्य लोगों से सीखा था और जो कुछ वे जानते थे या उन्होंने सीखा था उसके प्रति उनका रवैया आलोचनात्मक था।
वह यह भी बताते हैं कि भारतीयों ने अब परंपरा तथा प्रमाण पर निर्भर करना शुरू कर दिया है जो वास्तविक बौद्धिक खोज के नियमों के विपरीत है। उन्होंने यह अनुभव किया कि भारतीयों की ज्ञान- विषयक तथा वैज्ञानिक चेतना को क्षति पहुंची है क्योंकि उन्होंने धर्म में बताई गई बातों को शत-प्रतिशत स्वीकार कर लिया है।
अलबरूनी पहला मुसलमान था जिसने इस प्रकार के अध्ययन की जिम्मेदारी अपने ऊपर ली। किंतु उसने अपने अध्ययन को एक प्रकार के बौद्धिक विशिष्ट वर्ग पर ही केंद्रित किया। वह उन लोगों की हंसी उड़ाते हैं जिन्हें वे अज्ञानियों की कोटी में रखते हैं अर्थात ऐसे लोग जिनकी इतिहास, भूगोल तथा विज्ञान संबंधी धारणाएं उपहासास्पद है। किंतु साथ ही वह यह भी नहीं भूलते कि अन्य धर्मों तथा अन्य देशों में भी ऐसे लोग है। ऐसी स्थिति में उत्तरी भारत पर तुर्कों के हमले से ठीक पहले के काल के अध्ययन के लिए उनकी रचना का जो महत्व है, उसका मुकाबला किसी अन्य कृति से नहीं किया जा सकता।
इस प्रकार अलबरूनी के कृति से हमें इतिहास की प्रमाणिक जानकारी मिलती है। एक आदर्श इतिहासकार की तरह अलबरूनी ने यथासंभव पूर्वाग्रह से मुक्त होकर इतिहास लेखन का प्रयास किया। अलबरूनी ने अपने कृति किताब-उल-हिंद का सृजन अरबी भाषा में किया था। सल्तनत काल के आरंभ का सांस्कृतिक इतिहास जानने का किताब-उल-हिंद अत्यंत महत्वपूर्ण स्रोत है। इसमें उस समय की तथ्यपरक, महत्वपूर्ण एवं उपयोगी जानकारी प्रदान की गई है।
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