बुकर टी. वाशिंगटन और नागरिक अधिकार आंदोलन

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बुकर टी. वाशिंगटन और नागरिक अधिकार आंदोलन अफ्रीकी-अमेरिकी नागरिक अधिकार आंदोलन (1955-1968) का उद्देश्य अफ्रीकी अमेरिकी लोगों के खिलाफ नस्लिय भेदभाव को गैर कानूनी घोषित करना और दक्षिण अमेरिका में मतदान अधिकार को पुन: स्थापित करना था। गृहयुद्ध के बाद अश्वेतों को गुलामी से मुक्त कर दिया गया था लेकिन उसके बावजूद भी उनकी स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया। पुनर्निर्माण और द्वितीय विश्वयुद्ध के बीच अश्वेतों की स्थिति ओर खराब हो गई। इस दौरान बुकर टी. वाशिंगटन इनके लिए एक प्रभावशाली नेता बनकर उभरे। वाशिंगटन ने अफ्रीकी-अमेरिकियों के लिए व्यावसायिक शिक्षा और औद्योगिक शिक्षा को बढ़ावा दिया ताकि वह आर्थिक रूप से संपन्न और कुशल बन सके। पृषठभूमि दक्षिण अमेरिका में अश्वेतों ने संघर्ष कर अपने आपको दासता मुक्त कराया। अश्वेतों ने अपनी संस्थाएं बनाई जिससे अश्वेत राष्ट्रवाद का उदय हुआ। नेशनल नीग्रो कन्वेंशन जैसे कई नीग्रो संगठन बने। गृहयुद्ध के दौरान अफ्रीकी-अमेरिकी नेताओं के बीच कट्टरपंथी विचारों का विकास हुआ। बिशप एम. टर्नर, मार्टिन आर. डेलानी और अलेक्ज़ेंडर क्रूमेल ने अश्वेतों के लिए एक स्वायत्त राज्य की...

बाल्कन क्षेत्र की समस्या ओर राष्ट्रीयता का उदय

परिचय:- क्रीमिया युद्ध के बाद हुई पेरिस संधी के फलस्वरुप टर्की यूरोपीय राष्ट्रीय व्यवस्था का सदस्य बन गया। उसने अपनी ईसाई प्रजा के साथ सदव्यवहार करने व दशा सुधारने का वचन दिया था। परंतु टर्की ऐसा नहीं कर सका। उधर इटली व जर्मनी में हुए राष्ट्रीय आंदोलनों व एकीकरण के प्रयासों का प्रभाव पूर्वी यूरोप के बाल्कन प्रदेश पर भी अपना असर दिखाने लगा। पूर्वी यूरोप में जहां एक और सर्बिया, बुल्गेरिया व रुमानिया की जनता में राष्ट्रीयता व राजनैतिक स्वतंत्रता की प्रेरणा जागृत होने लगी वहीं बाल्कन प्रायद्वीप में स्लाववाद की भावनाएं उभरने लगी। रुस व ऑस्ट्रिया बाल्कन प्रदेश में अपना ध्यान केंद्रित करने लगे। टर्की की खराब होती जा रही दशा व अराजकता ने टर्की साम्राज्य में राष्ट्रवादी गतिविधियों को भड़काने में अहम भूमिका निभाई। रूस ने बाल्कन प्रदेश में निवास करने वाले स्लावो को संगठित हो स्वतंत्र होने के लिए उकसाना प्रारंभ किया व सर्वस्लव-वादी आंदोलन छेड़ दिया।

टर्की शासन के विरुद्ध स्लावो का प्रथम विद्रोह सन 1874 में बोसेनिया व हर्जेगोविना में हुआ। सन 1876 में बुल्गेरिया के ईसाईयों ने भी टर्की के शासन के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। इस बीच बाल्कन समस्या का हल निकालने के लिए 1877 में कुस्तुनतुनिया सम्मेलन बुलाया गया जो असफल हो गया। जब रूस को अच्छी तरह पता चल गया कि टर्की ईसाइयों की दशा सुधारना नहीं चाहता तो अप्रैल 1877 में उसने टर्की के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। रुमानिया ने भी रूस का साथ दिया। युद्ध में रूस को सफल होते देखकर ब्रिटेन व ऑस्ट्रिया ने यह सोचकर कि कहीं रूस अकेला ही संपूर्ण टर्की को न हड़प जाए वह भी युद्ध में कूद पड़े। बदलती स्थितियों में रूस ने टर्की से 1878 में सेनस्टीफेनो की संधि कर ली। इस संधि के परिणामस्वरूप टर्की के सुल्तान ने सरबिया, मोंटेनीग्रो व रोमानिया को पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान कर दी।

बुल्गेरिया को भी एक स्वशासित राज्य बना दिया गया परंतु, दिखलाने के लिए उसे टर्की के सुल्तान के निरीक्षण में रखा गया। इस तरह टर्की का यूरोप स्थित राज्य प्राय समाप्त हो गया। इस संधि ने बुल्गेरिया को तो बहुत कुछ दिया परंतु ग्रिस, सरबिया, अल्बानिया व रूमानिया के साथ उचित न्याय नहीं किया गया। इस संधि ने रूस के प्रभाव को बाल्कन में पुनः स्थापित किया। इस संधि से रूस के सर्वशक्तिशाली राष्ट्र बन जाने का खतरा पैदा हो गया जो ऑस्ट्रिया-हंगरी एवं ब्रिटेन को स्वीकार्य नहीं था। उन्होंने सेन- स्टीफनों संधि का विरोध किया व पूर्वी समस्या का हल मात्र एक राष्ट्र रूस द्वारा न किए जाकर सभी राष्ट्र द्वारा सम्मिलित रूप से किए जाने की मांग की। जर्मनी ने भी यही चाहा। अत: रूस को इस हेतु मानना पड़ा। इस तरह बिस्मार्क के निमंत्रण पर एक सम्मेलन जून 1878 में बर्लिन में बुलाया गया। इस बर्लिन संधि के फलस्वरुप सरबिया, मोंटेनीग्रो व रूमानिया तीन बाल्कन राज्य पूर्णत: स्वतंत्र हो गए। एक नवीन राज्य बुल्गेरिया का भी निर्माण हुआ जो नाममात्र का टर्की के अधीन था। इस तरह बर्लिन कांग्रेस ने 4 ईसाई राष्ट्रों का निर्माण किया। इस बीच दो महत्वपूर्ण घटनाएं और घटी जो माल्डेविया व वैलेशिया के एकीकरण तथा रूस द्वारा कालासागर संबंधी धारा के उल्लंघन से संबंध रखती थी।

माल्डेविया व वैलेशिया का एकीकरण:- पेरिस संधि द्वारा इन दोनों राज्यों को प्रथम धार्मिक, कानूनी तथा व्यापारिक स्वतंत्रता प्रदान की गई थी। इन पर टर्की का नाममात्र का अधिकार शेष था। इन राज्यों की प्रजा इससे संतुष्ट नहीं थी तथा दोनों राज्यों का एकीकरण और टर्की के अधिकार से पूर्ण मुक्ति प्राप्त करना चाहती थी। इनमें राष्ट्रीय भावनाओं का विकास व जागरण हो रहा था। दोनों राज्यों के लोग एक ही जाति, भाषा, सभ्यता व संस्कृति थी तथा दोनों को अपने अतीत पर गौरव था।

यह दोनों राज्य टर्की तथा रूस के हाथ में शतरंज का मोहरा नहीं बनना चाहते थे। परंतु नेपोलियन तृतीय के अतिरिक्त अन्य सभी राष्ट्रों के राजनीतिज्ञ उनकी राष्ट्रीय भावनाओं का समर्थन नहीं करते थे।

इंग्लैंड टर्की के अस्तित्व को बनाए रखना चाहता था। वह इस क्षेत्र में रूस के प्रभाव को भी घटाना चाहता था। मोल्डेविया व वैलिशिया के एकीकृत हो जाने से टर्की की सत्ता के लिए खतरा पैदा हो सकता था व इस क्षेत्र में रूस का प्रभाव भी बढ़ सकता था। इसलिए इंग्लैंड इन दोनों के एकीकरण का विरोधी था। टर्की का सुल्तान भी इस एकीकरण के विरुद्ध था। ऑस्ट्रिया की नीति भी इस प्रकार के आंदोलनों का विरोध करने की रही थी। यदि वह ऐसे आंदोलन को प्रोत्साहन देता तो उसके स्वयं के साम्राज्य में राष्ट्रीयता की भावना उजागर हो सकती थी और स्थान स्थान पर विद्रोह हो सकते थे।

परंतु इन राष्ट्रीय भावनाओं का दमन संभव नहीं हो सका। सन 1859 में मोल्डेविया की राजधानी जैस्सी में तथा वैलेशिया की राजधानी बुखारेस्ट में राष्ट्रीय संसद ने सर्वसम्मति से एक ही व्यक्ति कर्नल एलेग्जेंडर कौग को अपना शासक चुना व एक नवीन एकीकृत राष्ट्रीय रूमानिया के जन्म की घोषणा की। बड़ी शक्तियां एक बार तो इस घटना से उत्तेजित हो उठी, परंतु बाद में उन्होंने यथास्थिति को मान्यता दे दी। सन 1862 में टर्की ने भी इस एकीकरण को मान्यता दे दी। कर्नल कौग ने कई महत्वपूर्ण सुधारों की घोषणा की। चर्च की संपत्ति को ज़ब्त कर लिया गया व सामंत प्रथा को समाप्त कर दिया गया। सन 1866 में कर्नल कौग के विरुद्ध विद्रोह उठ खड़ा हुआ जिसके परिणामस्वरूप उसे गद्दी त्याग देनी पड़ी। चार्ल्स प्रथम रूमानिया का शासक बना। उसने प्रशा की सहायता से रुमानिया के लिए एक शक्तिशाली सेना तैयार की।

बाल्कन में राष्ट्रीयता का विकास:- क्रीमिया युद्ध के पश्चात हुई पैरिस की संधि के फलस्वरुप टर्की यूरोपीय राष्ट्रीय व्यवस्था का सदस्य बन गया। उसने इस बात के लिए आश्वस्त किया कि वह अपनी ईसाई प्रजा के प्रति सद्व्यवहार करेगा। टर्की ने एक सीमा तक अपने इस वचन का निर्वाह करने की कोशिश की। परंतु स्थिति यह थी कि टर्की में निवास करने वाले ईसाई प्रजा को धार्मिक स्वतंत्रता तो प्राप्त थी किंतु राजकीय सेवाओं में अच्छे पद अभी भी उन्हें प्राप्त नहीं थे। इसके अतिरिक्त इटली एवं जर्मनी के राष्ट्रवादी आंदोलनों व एकीकरण के प्रयासों ने बाल्कन प्रदेश में भी राष्ट्रीयता की भावना को तेजी से उजागर किया। सरबिया, बुल्गेरिया व रूमानिया की जनता भी राष्ट्रीयता की भावना से ओत-प्रोत हो स्वतंत्रता का स्वप्न देखने लगी। इसी दौरान सर्वस्लवाद की भावना भी प्रबलता से मुखरित हुई। टर्की एवं हैप्सबर्ग साम्राज्य में निवास करने वाले स्लावों में जातीय आधार पर संगठित होने की भावना ने जोर पकड़ा। इस भावना को भड़काने एवं उसे एक भावात्मक आधार प्रदान करने में रूस ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। रूस बाल्कन प्रदेश में निवास करने वाली स्लाव जाति को अपनी तरफ करने के लिए प्रयत्नरत था।

टर्की की अवस्था में गिरावट:- क्रीमिया युद्ध के बाद यूरोपीय शक्तियों को ऐसा विश्वास था कि टर्की की सरकार एवं प्रशासन अपने अनुभव से सबक लेकर अपनी दशा को सुधारने की चेष्टा करेगी। किंतु शीघ्र ही यह पता चल गया कि टर्की की दशा में सुधार तो दूर रहा उसकी अवस्था निरंतर खराब होती चली गई। टैक्स कार्नरों द्वारा कर वसूली के समय किसानों पर किए जाने वाले मनमाने अत्याचारो, प्रशासनिक अव्यवस्था, भ्रष्टाचार, आर्थिक अराजकता से उत्पन्न अफरा-तफरी ने टर्की साम्राज्य के पतन की प्रक्रिया को तीव्र कर दिया। इस स्थिति ने टर्की साम्राज्य में राष्ट्रवादी गतिविधियों के लिए न केवल अनुकूलता ही पैदा की तथा उनकी गतिशीलता को बढ़ाने में भी सार्थक भूमिका निभाई।

सर्व-स्लाव-वाद:- रूस के यूरोपीय क्षेत्रों में निवास करने वाले अधिकांश प्रजाजन एवं पूर्वी बाल्कन में निवास करने वाले लोग स्लाव जाति के थे। जब रूस क्रीमिया युद्ध में असफल हो गया व डोर्डेनल्स जलडमरूमध्य के मार्ग से भूमध्यसागर तक नहीं पहुंच पाया तो रूसी दार्शनिक केडीव ने बाल्कन क्षेत्र से गुजर कर एड्रियाटिक व इंजीयन सागर तक पहुंचने का नया मार्ग सुझाया। केडीव का सुझाव था कि सभी बाल्कन स्लावों को जातीय आधार पर संगठित कर तुर्की शासन से मुक्त करा दिया जाए और इस प्रकार जब इस क्षेत्र में संतुलन बिगड़ जाए तो स्वतंत्रता पाने वाले नए राष्ट्रों को रूसी कठपुतली बनाकर भूमध्य सागर तक पहुंचाने का मार्ग खोल लिया जाए।

रूस ने मोंटीनीग्रो में टर्की द्वारा किए जा रहे स्लावो के दमन का विरोध किया। सन 1867 में बेलग्रेड व दूसरे सर्वियन स्थानों से अपनी सेना को हटाने के लिए टर्की पर दबाव डाला। इससे साइबेरिया के स्लाव रुस के प्रति कृतज्ञ हो गए। सन 1867 में ही रूस ने सेंटपीटर्सबर्ग में स्लाव जातियों का 1 सम्मेलन बुलवाया। इसमें जार अलेक्जेंडर ने स्लाव जाति के प्रतिनिधियों को स्लाव भाइयों कहकर संबोधित किया। रूस ने सन 1970 में स्लाव जाति को अपनी ओर मिलाने के लिए एक महत्वपूर्ण कदम और उठाया। रूस ने टर्की की सरकार से एक स्लाव चर्च व धार्मिक नेता की मांग। सुल्तान ने इस मांग को स्वीकार किया। रूस केे इन कार्यों से बाल्कन में रहने वाले स्लाव काफी प्रोत्साहित हुए। सन 1871 में देनीलोवस्की की पुस्तक “रूस तथा यूरोप” प्रकाशित हुई। इस पुस्तक में एक लंबे युद्ध का आह्वान किया गया। जिसका उद्देश्य स्लाव जाति को केंद्रीय व पूर्वी यूरोप में उचित स्थान दिलाना था। वस्तुत यह समग्र विचारधारा राजनीति से प्रेरित थी तथा सेंटपीटर्सबर्ग में कुछ विशेष तत्व इसका उपयोग गिरते हुए टर्की का शीघ्रतिशीघ्र पतन करने के लिए कर रहे थे।

बोसेुनिया तथा हर्जेगोविना में विद्रोह:- टर्की शासन के विरुद्ध स्लावो का प्रथम विद्रोह सन 1874 में बोसेुनिया व हर्जेगोविना में हुआ। इस विद्रोह के कई कारण थे। वह मोंटेनीग्रो के निकट थे जहां किसान ने अपना समग्र जीवन टर्की से संघर्ष में बिताया था। सामाजिक व आर्थिक कठिनाइयां, निर्दई सामंती प्रथा, अधिकारियों द्वारा किसानों का शोषण व अत्याचार इस विद्रोह के अन्य कारण बने। टर्की की आर्थिक हालत खराब होने से सैनिकों को कई महीनों से वेतन नहीं मिला था इससे वहां के सैनिकों में असंतोष व्याप्त था। इससे भी बोसेनिया-हर्जेगोविना के किसानों को काफी प्रोत्साहन मिला। 1874 में दुर्भिक्ष पड़ने से किसानों की हालत और खराब हो गई। इन सभी कारणों से हर्जेगोविना के किसानों ने टर्की के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। रूस और सर्बिया ने विद्रोहियों को गुप्त रूप से सहायता की। किसानों ने टैक्स देने से इंकार कर दिया। उन्होंने एक टर्की सेना को भी परास्त कर दिया। सर्विया, मोंटेनीग्रो, डलमेंशिया से विद्रोहियों के प्रति सहानुभूति उमड़ पड़ी। बोसनिया भी विद्रोह में सम्मिलित हो गया।

इस विद्रोह से ऑस्ट्रिया-हंगरी के शासक घबरा गए। ऑस्ट्रिया को भय था कि इस विद्रोह से कहीं ऑस्ट्रिया के स्लाव न भड़क उठे। उसने यह प्रस्ताव रखा कि टर्की का सुल्तान अपनी ईसाई प्रजा की दशा को सुधारने के लिए कुछ कार्य करें। इस प्रस्ताव को जर्मनी, रूस और फ्रांस ने स्वीकार कर लिया किंतु ब्रिटेन ने इसे स्वीकार नहीं किया। ब्रिटेन इसे टर्की की सार्वभौमिक सत्ता पर आघात मानता था। टर्की की सरकार ने इसका लाभ उठाते हुए सुधार लागू करने की बात को गंभीरता से नहीं लिया। उस समय ब्रिटिश प्रधानमंत्री डिजरैली था जो टर्की के सुल्तान पर किसी प्रकार का दबाव डालना नहीं चाहता था। यही कारण था कि बाल्कन समस्या का कोई हल नहीं निकल सका।

बुल्गेरिया में विद्रोह:- इसी बीच सन 1876 में बुल्गेरिया के ईसाइयों ने भी राष्ट्रीयता की भावना से प्रेरित होकर टर्की के शासन के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। बुल्गेरिया चुकी कुस्तुनतुनिया के समीप था अतः इस विद्रोह का प्रभाव कुस्तुनतुनिया पर भी पड़ने का खतरा था। टर्की की सरकार ने इस विद्रोह को कुचलने के लिए एक बड़ी सेना बुल्गेरिया भेजी। टर्की की सेना ने निर्ममतापूर्वक विद्रोह का दमन किया। 12 हजार बुल्गेरियन ईसाई मौत के घाट उतार दिए गए। गांव के गांव नष्ट भ्रष्ट हो गए।

निष्कर्ष:- इतने विद्रोह और संधि होने के बावजूद भी बाल्कन क्षेत्र की समस्याओं का पूर्ण रूप से हल नहीं हो सका। राजनीतिक कारणों को अपने हित में साधने के लिए शक्तिशाली देश बाल्कन क्षेत्र के छोटे-छोटे राज्यों को अपनी ओर करने के लिए प्रोत्साहन देते रहते थे। साथ ही साथ टर्की द्वारा किए जा रहे बाल्कन क्षेत्रों के शोषण ने उनमें राष्ट्रीयता की भावना को जागृत किया जिसे रूस ने बढ़ावा दिया। इस राष्ट्रीयता की भावना से प्रेरित होकर बाल्कन क्षेत्रों के लोगों ने टर्की के विरुद्ध कई विद्रोह किए। किसी भी विद्रोह को पूर्ण रूप से सफलता नहीं मिली और अधिकतर विद्रोह को टर्की ने कुचल दिया।

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