“जागीरदारी संकट” (इतिहासकार)
परिचय:- मुगल साम्राज्य के पतन को लेकर इतिहासकारों में खूब बहस चली है। मुगल इतिहास के किसी अन्य पक्ष के मुकाबले इस मुद्दे पर विद्वानों के बीच सबसे ज्यादा मतभेद है। मुगल साम्राज्य के पतन में प्रशासनिक अव्यवस्था एक प्रमुख कारण था। इस अव्यवस्था ने जागीर व्यवस्था में संकट को जन्म दिया जो अंत: क्षेत्रीय शक्तियों के उदय में सहायक हुआ। दरअसल, मुगल साम्राज्य के राजनीतिक-प्रशासनिक संगठन का आधार मनसबदारी व्यवस्था थी। मनसब पदानुक्रम में दिए जाने वाला एक ओहदा था जिससे मनसबदार का पद ही नहीं बल्कि स्तर और वेतन भी तय होता था। छोटे मनसबदारो को तो नगद वेतन दिए जाते थे, परंतु बड़े मनसबदारों को वेतन के बदले जागीर का आवंटन किया जाता था। इन्ही मनसबदारो को जागीरदार कहा जाता था। इस जागीरदारी व्यवस्था का विस्तार मुगल साम्राज्य के लिए घातक सिद्ध हुआ। अकबर के शासन काल में मनसबदारो की कुल संख्या दो हजार से भी कम थी, लेकिन औरंगजेब के शासनकाल में उनकी संख्या लगभग 14 हजार तक पहुंच गई। इनमें जागीर आवंटित मनसबदारो अर्थात जागीरदारों की संख्या भी हजारों में थी। बीजापुर और गोलकुंडा विजय के बाद मुगल साम्राज्य विस्तार पूरी तरह थम चुका था। अब नए क्षेत्रों का मुगल साम्राज्य में समावेश नहीं हो रहा था, किंतु अपने सैनिक अभियानों के कारण औरंगजेब को सैनिक अधिकारियों की संख्या में लगातार वृद्धि करनी पड़ रही थी। राज्य को अपने नए मनसबदारो को आवंटित करने के लिए नई जागीरो की निरंतर आवश्यकता पड़ रही थी। इस प्रकार आवंटन हेतु जागीरों की कमी पड़ने लगी। जिसने जागीरदारी संकट को उत्पन्न किया।
1959 में सतीश चंद्र की पुस्तक “पार्टीज एंड पॉलिटिक्स एट द मुगल कोर्ट, (1707-40)”का प्रकाशन हुआ। इसमें पहली बार मुगल साम्राज्य की संरचना के अध्ययन का गंभीर प्रयास किया गया। साम्राज्य की प्रकृति और इसके पतन को समझने के लिए इसकी कार्यपद्धती और इसकी योजनाओं का परीक्षण किया गया। सतीश चंद्रा ने साम्राज्य की कुछ मुख्य संस्थाओं का अध्ययन किया। उन्होंने मुख्य रूप से मनसबदारी और जागीरदारी व्यवस्था की छानबीन की। मुगल साम्राज्य में कुलीन मुख्य राज्य अधिकारी थे। मुगल व्यवस्था में उनके स्थान के अनुसार उन्हें पदवी दी जाती थी। इन पदवियों को “मनसब” कहते थे। मनसब प्राप्तकर्ताओं को मनसबदार कहा जाता था, उन्हें भू-राजस्व(जागीर) के माध्यम से वेतन दिया जाता था। इन्हें एक फौज भी रखनी पड़ती थी। सैनिकों के वेतन की व्यवस्था और फौज का रखरखाव इस जागीर की आमदनी से ही होता था। राजस्व की उपलब्धता निर्धारित करना और मुगलों द्वारा उसे वसूल करना इस व्यवस्था के सुचारू रूप से चलने के लिए आवश्यक थे। सतीश चंद्रा के अनुसार औरंगजेब के शासन के अंतिम वर्षों में मुगल प्रशासन मनसबदार-जागीरदार व्यवस्था को बनाए रखने में असफल सिद्ध हुए। जैसे ही यह व्यवस्था अव्यवस्थित होने लगी वैसे ही साम्राज्य का अंत अवश्यंभावी हो गया।
आगे सतीश चंद्रा कहते हैं कि 17वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में यूरोपीय व्यापारिक गतिविधियों के फलस्वरुप भारत में मुद्रास्फीति बढ़ गई, जिसकी वजह भारी मात्रा में चांदी का साम्राज्य में प्रवेश था। इस स्फीति के कारण प्रशासन के खर्च बढ़ गए जिन्हें पूरा करने के लिए साम्राज्य ने विस्तारवादी नीति अपनाई और इसके लिए बड़ी संख्या में अमीरों की नियुक्ति की।
एक और मुगल अमीरों की संख्या तो बढ़ रही थी परंतु उसी अनुपात में उन्हें देने के लिए जागीरे नहीं थी। दूसरी तरफ मुगल साम्राज्य का दक्कन की और विस्तार भी अतिरिक्त खर्च को पूरा नहीं कर सका। अंत: जागीरदारों को सदैव ही आमदनी की कमी का सामना करना पड़ता था। चंद्रा के अनुसार इस काल में जागीरदारों को भू राजस्व एकत्र करने में मुगल फौजदारों का पर्याप्त सहयोग भी नहीं मिला। अब मुगल जागीरदार अच्छी जागीरो के आवंटन के लिए प्रतिस्पर्धा कर रहे थे। सतीश चंद्रा ने पाया कि इस काल में कई जागीरदारों को वर्षों तक बिना जागीरों के रहना पड़ा। जब कभी जागीर का आवंटन हो भी जाता था तो इसे वास्तविक रूप से हस्तांतरित होने में समय लगता था। मुगल साम्राज्य में भ-ूराजस्व से प्राप्त 80% आय जागीरदार-मनसबदार के ही नियंत्रण में थी परंतु इस आय का वितरण बहुत असमान था। 17वीं शताब्दी के मध्य में तकरीबन 8,000 मनसबदारी में से 445 ऐसे थे जिनका भू-राजस्व की 61% आय पर नियंत्रण था। मुगल प्रशासन महत्वपूर्ण मनसबदारो के अधिकार कम करने का जोखिम नहीं ले सकता था। परिणामस्वरूप मुगल साम्राज्य को आर्थिक संकट का सामना करना पड़ रहा था।
इतिहासकार अतहर अली ने 1966 में 18वीं शताब्दी के अंत में कुलीन और उनकी राजनीति पर एक पुस्तक लिखी द मुगल नोबिलिटी अंडर औरंगजेब। इस पुस्तक में दक्कन राज्यों के अधिग्रहण, मुगल कुलीन वर्ग में मराठों और दक्कनी समावेश और जागीरो में आई कमी जैसी समस्याओं का विशेष रूप से अध्ययन किया गया है। अली के अनुसार दक्कन और मराठा राज्य क्षेत्रों में इस साम्राज्य के विस्तार के कारण कुलीनों की संख्या तेजी से बढ़ी और इससे जागीर व्यवस्था की कार्यपद्धति में संकट उत्पन्न हो गया। कुलीनो के समावेश के कारण जागीरो की कमी पड़ने लगी।
अच्छी जागीरें प्राप्त करने के लिए कुलीनो में होड़ मच गई। इससे बहुत हद तक जागीरदारी पर आधारित राजनैतिक संरचना चरमराने लगी।
सतीश चंद्रा ने अपने बाद के अध्ययन में मुगल दरबार की गुटबाजी को भी जागीरदारी संकट से जोड़कर देखा। मुगल साम्राज्य में मनसबदारी-जागीरदारों को समाज में सम्मान और ऊंचा स्थान प्राप्त था। इस सम्मान को बनाए रखने के लिए उन्हें उच्च जीवनस्तर बनाए रखना पड़ता था जो पर्याप्त आर्थिक साधनों के बिना लगभग नामुमकिन था। इस तरह की आर्थिक समस्या के वातावरण ने कुलीनो में गुटबाजी को बढ़ावा दिया।
जे.एफ.रिचर्डस में 1970 के दशक में किए गए अपने अध्ययन के आधार पर सतीश चंद्रा के मत का खंडन किया है। उनके अनुसार मुगल साम्राज्य में बेजागीरी की समस्या नहीं थी। गोलकुंडा से प्राप्त दस्तावेजों के आधार पर रिचर्ड्स ने इस विचार को भी चुनौती दी कि दक्कन में जागीरो की कमीं थी जिससे विजागीरी उत्पन्न हुई। उनके अनुसार जागीरदारी संकट मूलरूप से प्रशासकीय और प्रबंधन के स्तर पर था। उनका मानना है कि दक्कन राज्य के साम्राज्य में विलय से राजस्व स्रोतों में निश्चय ही वृद्धि हुई थी परंतु कुलीनों की संख्या भी बढ़ गई थी। रिचर्ड्स ने यह भी बताया कि कर्नाटक और मराठों के विरुद्ध युद्ध के खर्च को पूरा करने के लिए औरंगजेब ने समृद्ध जागीरो को खालसा भूमि में परिणित कर दिया था। अतः जागीरदारी संकट वास्तव में बेजागीरी के कारण नहीं अपितु प्रशासनिक प्रबंधन की अयोग्यता के कारण उत्पन्न हुआ।
1980 में अपने शोध को पुनरनिर्मित करते हुए सतीश चंद्रा ने जागीरदारी संकट को बेजागीरी की समस्या से अलग कर दिया। चंद्रा ने नए स्रोतों और दस्तावेजों के आधार पर बेजागीरी और जागीरदारी में संकट के बीच स्पष्ट अंतर स्थापित किया। उन्होंने अपनी पुस्तक “मेडिवल इंडिया: सोसाइटी, दी जागीरदारी क्राइसिस एंड द विलेज” में जागीरदारी संकट को मुगल प्रशासनिक और सामाजिक व्यवस्था से जोड़ा। उन्होंने माना कि जागीरदारी संकट जागीरो की कमी, बेजागीरी मनसबदार आदि के कारण नहीं अपितु व्यवस्था के सुचारू रूप से न चल पाने के कारण ही उत्पन्न हुई।
सतीश चंद्रा के अनुसार 17वीं शताब्दी में व्याप्त सामाजिक संघर्षों को मुगल अपने वर्गीय संबंधों के ढांचेे के अंदर सुलझा न सके और इसके कारण वित्तीय संकट उत्पन्न हुआ और जागीर व्यवस्था में भी संकट बढ़ा क्योंकि ये एक दूसरे से जुड़े हुए थे। जहांगीर और शाहजहां के शासनकाल में गंगा-यमुना दोआब के उपजाऊ क्षेत्र के बाहर साम्राज्य के विस्तार होने से यह संकट उभर कर सामने आ गया। शाहजहां के शासनकाल के अंत में जागीर भूमि के जमा और हासिल का अंतर स्पष्ट हो गया था। अगर कोई मनसबदार अपनी जागीर से एक वर्ष के राजस्व में से पांच महीने के बराबर का राजस्व वसूल कर लेता था तो वह भाग्यवान समझा जाता था। इसी वसूली के अनुसार उसे सवारों की संख्या भी घटाने पड़ती थी। दक्कन में यह वसूली और भी कम थी। वहां तीन महीने के बराबर का राजस्व वसूल हो पाता था और इसी तरह वहां के जागीरदार का प्रभाव भी कम था। जैसे ही जागीरदार की सैन्य शक्ति में कमी आई वैसे ही किसानों, जमीदारों और जागीरदारों के संबंध छिन्न-भिन्न हो गए और इस पर आधारित साम्राज्य ढह गया।
सतीश चंद्रा के अनुसार जागीरदारी व्यवस्था का यह संकट कृषि और गैर-कृषि अर्थव्यवस्था को तेजी से विकसित करके रोका जा सकता था। शासकों और कुलीनो के लिए व्यापार अतिरिक्त आय का साधन था। किंतु शासकों की ओर से कृषकों को पर्याप्त प्रोत्साहन नहीं दिया गया। सतीश चंद्रा पुन: कहते हैं कि जागीरदारी संकट का मूलभूत आधार उस मध्यकालीन सामाजिक व्यवस्था में निहित है जिसके कारण कृषि का विकास सीमित रहा। इसी संरचना पर प्रशासनिक व्यवस्था आधारित थी और दोनों के बीच क्रिया प्रतिक्रिया होती रहती थी।
अतः शासकीय वर्ग का बढ़ता आकार, कुलीनो की जीवन शैली में बढ़ता आडंबर परिणामस्वरूप उत्पादन के विस्तार के लिए उपलब्ध अधिशेष में कमी और इसके कारण धीमा आर्थिक विकास आदि इस संकट को विकट बनाने में पूरक तत्व का कार्य कर रहे थे, जो मुगल साम्राज्य के पतन के लिए जिम्मेदार है।
शानदार
जवाब देंहटाएंThankyou
हटाएं