मुगलकाल में शिल्पकला
परिचय:- मुगलकाल में अनेक लघु पैमाने वाले उद्योग संचालित थे। ऐसे उद्योग हस्तशिल्प के रूप में स्थापित थे। किंतु तकनीकी कौशल एवं अर्थव्यवस्था के घटक के रूप में उनका महत्वपूर्ण स्थान था। उपयोगिता की दृष्टि से किसी भी दशा में उनका महत्व बड़े पैमाने के उद्योगों से कम नहीं था। इन लघु उद्योगों ने मुगल काल में शिल्पकला के विकास में योगदान दिया। तकनीकी परिवर्तन ने इसके विकास को और तीव्र कर दिया। मुगल बादशाहों ने अपने रोजमर्रा के इस्तेमाल में आने वाली वस्तुओं के निर्माण के लिए भी शिल्प उद्योगों को बढ़ावा दिया। बादशाह एवं अमीर वर्ग कीमती वस्तुओं को अपनी शानो -शौकत दिखाने के लिए तथा अपने कक्ष को सजाने के लिए इन वस्तुओं का निर्माण करवाते थे।
कपड़ा उद्योग:- सल्तनत काल से ही वस्त्र उद्योग का महत्वपूर्ण यंत्र चरखी प्रचलन में थे। जिससे मोटे प्रकार का सूत काता जाता था। इरफान हबीब के अनुसार इसमें 11वीं सदी में हैंडल लग गया था। हैंडल लगने के कारण चरखे की गति बढ़ गई थी अर्थात चरखा पहले की तुलना में अधिक सूत की कताई करता था। 17वीं सदी में नकाशीदार सिल्क, सूती तथा जरीदार कपड़ों की बुनाई होती थी। नकाशीदार सिल्क की बुनाई ड्रा लूम आने के बाद से शुरू हुई। बहुरंगी नकाशी को रंगीन बनाने के लिए दो मुख्य तरीके थे। इसके अंतर्गत नकाशी को रंगीन तथा रंगहीन रखने के लिए रंग-संस्थापक तथा रंग-रोधी मसालों का प्रयोग होता था। इन मसालों का इस्तेमाल चाहे छपाई या चित्रकारी के माध्यम से हो लेकिन उनका परिणाम लकड़ी के सांचों की तुलना में कहीं अधिक बेहतर था क्योंकि उससे समय और लागत में किफायत रहती थी।
इस काल में लाहौर, आगरा एवं फतेहपुर-सीकरी में अकबर के संरक्षण में कालीनों की बुनाई शुरू हुई तथा दूसरा बड़े पैमाने पर रेशम और रेशम के धागों का उत्पादन होने लगा।
काष्ट उद्योग:- मुगल काल में लकड़ियों का व्यवसाय होता था। चूंकि काष्ट उद्योग के विकास में कच्चे माल की कोई जरूरत नहीं होती थी, इसलिए लकड़ियों से निर्मित वस्तुओं का उत्तम उत्पादन सारे देश में होता था। अबुल फजल ने आईने-ए-अकबरी में 72 किस्म की लकड़ियों का विवरण दिया है। जलयान, नावें तथा बैलगाड़ियां लकड़ी पर आधारित प्रमुख उद्योग थे। रथ तथा पालकी बनाने में भी लकड़ी का प्रयोग किया जाता था। भवन निर्माण में भी लकड़ी का प्रयोग होता था। घर की विभिन्न आवश्यकताओं जैसे दरवाजों, खुटियों, कुर्सियों, पलंगों, खिलौनों, बर्तनों तथा अन्य उपकरणों के निर्माण में भी लकड़ी की आवश्यकता पड़ती थी। लकड़ी से निर्मित चारपाई, संदूक सहित श्रृंगारदान की भी अच्छी मांग थी।
अबुल फजल ने आठ विशिष्ट प्रकार की लकड़ियों को चिन्हित किया है। जिनमें प्रमुख हैं:-
(1) सिसुआ:- यह अपनी सुंदरता और टिकाऊपन के लिए विख्यात थी।
(2) चंदन:- यह लकड़ी सजावट, दरवाजे तथा खंबे आदि के निर्माण में प्रयोग की जाती थी।
खेती के उपकरण तथा भारतीय बुनकरों द्वारा उपयोग किए जा रहे उपकरण जैसे:- धुनिया की कमान, सूत लपेटने का परेता, चरखा तथा करघा आदि लकड़ियों से निर्मित किए जाते थे। शतरंज की तख्ती तथा मोहरें एवं तीर-धनुष भी लकड़ी के बनते थे।
लकड़ी पर अलंकारी अर्थात कलात्मक एवं जड़ाऊ कार्य द्वारा विविध प्रकार की वस्तुओं का निर्माण भी महत्वपूर्ण था। सोने-चांदी से जड़ाऊ पलंगों का निर्माण होता था। मैसूर में चंदन की लकड़ी पर सुंदर व अलंकारिक कारीगरी का कार्य होता था। कश्मीर भी लकड़ी के कार्य के लिए प्रसिद्ध था। यहां लकड़ी की सुंदर डिजाइन तथा कलात्मक वस्तुएं बनती थी। बनारस लकड़ियों के खिलौने के लिए मशहूर था। वस्त्रों पर छपाई के लिए लकड़ी के ठप्पे का निर्माण भी होता था। लकड़ी से निर्मित वस्तुओं को पॉलिश तथा उन्हें विविध रंगों से रंगा जाता था।
उपर्युक्त विवरण के आधार पर मुगलकाल में लकड़ी उद्योग की उन्नति के विषय में कोई संदेह नहीं रह जाता। निश्चित ही लकड़ी उद्योग की उन्नति का कारण लकड़ियों के सस्ते मूल्य, सरलता से उनकी प्राप्ति तथा भारतीय बढ़ई की दक्षता और उनकी तकनीकी कार्यकुशलता ही रही होगी। मुगलकालीन बढ़ई साधारण से लेकर बारीक कार्य करने में दक्ष थे और वे बड़े बड़े नगरों, कस्बों तथा गांवों में रहते थे। शाही कारखानों में भी उच्च कोटि के शिल्पकार थे जो सही उपयोग की वस्तुएं तैयार करते थे। काष्ठ शिल्पकारों की दक्षता के पीछे उनके द्वारा प्रयोग किए जाने वाले उपकरणों की भूमिका महत्वपूर्ण थी। लकड़ी को काटने, छीलने, चिकना बनाने तथा डिजाइन उकेरने आदि के लिए भारतीय बढ़ई लगभग आज प्रयुक्त किए जाने वाले उपकरणों का ही प्रयोग परंपरागत रूप से करते थे। बर्मी तथा गिरमिट जैसे छेदक यंत्र मुगलकालीन उद्योग में प्रचलित थे। इस काल में खराद तकनीक का प्रचलन भी महत्वपूर्ण था। शिल्पकार हस्तचलित खराद मशीन की सहायता से लकड़ी में कोणिक काट देते हुए विविध प्रकार की वस्तुओं तथा खिलौनों का निर्माण करते थे। विशेषरुप से तिपाई, पलंग तथा श्रृंगारदान में खराद तकनीक का उपयोग होता था।
कागज उद्योग:- भारत में कागज का इस्तेमाल 14वीं शताब्दी में होने लगा था। किंतु भारत में छपाई की कला व्यापक पैमाने पर विकसित न होने तथा शिक्षा का प्रसार मंद होने के कारण मुगलकाल में कागज का प्रयोग सीमित मात्रा में ही हो रहा था। फिर भी शाही कार्यालयों में कागज का उपयोग होता था और हिसाब- किताब के लिए व्यापारी भी इसका प्रयोग करते थे। विद्वान पांडुलिपियां तैयार करने में कागज का प्रयोग करते थे। कागज का फूल, मोहर्रम के ताजिए, चित्रकारी के आर्ट पेपर तथा धार्मिक ग्रंथों की प्रतियां आदि लिखने हेतु भी कागज की आवश्यकता थी। इस प्रकार कागज की बढ़ती मांग ने कागज उद्योग को बढ़ावा दिया। 17वीं शताब्दी तक कागज के उत्पादन में पर्याप्त वृद्धि हुई थी। मुगल दरबार में कागजी पत्र व्यवहार अत्यंत प्रचलित था इसलिए उस काल को “कागजीराज” कहा जाता था।
जहां तक कागज के उत्पादन तथा उत्पादन की तकनीक का प्रश्न है तो यह कच्ची सामग्री सन, बांस की छाल, पुराने चिथड़े तथा पुराने रद्दी कागज से बनाया जाता था। उत्तर भारत के विभिन्न भागों में इसे हाथों से बनाया जाता था। कागज बनाने के लिए छाल के रेशे पीटकर अन्य रद्दी सामग्री पानी में भिगाई जाती थी। फिर उसे हाथों से गूंथकर एक लुग्दी तैयार की जाती थी। समतल सतह पर इसकी पतली परत फैलाकर सुखा लिया जाता था। कागज को चिकना बनाने के लिए इसकी खुरदरी सतह रगड़ी जाती थी। साधारण किस्म का कागज बनाने का काम “कागजी” कहलाने वाले मुसलमान करते थे। कागज उत्पादक केंद्रो में कश्मीर, लाहौर, आगरा, दिल्ली, पटना, राजगीर, अवध, अहमदाबाद, गया, सहजादपुर, सियालकोट आदि प्रमुख थे। उत्तम किस्म के कागज बनाने के लिए कश्मीर तथा कुछ अन्य स्थानों पर मुगल सम्राटों के राजकीय कारखाने थे।
चमड़ा उद्योग:- मुगलकाल में चमड़ा उद्योग का भी विकास हुआ। हालांकि चमड़े की मांग अधिक नहीं थी। चमड़े से आवश्यकता की अनेक वस्तुएं बनती थी। पानी खींचने की डोर, चीनी, तेल, घी, शराब व इत्र आदि के पैकेट चमड़े से बनते थे। चप्पले तथा जूतियां भी चमड़े से बनाई जाती थी। घोड़े की जीन, लगाम तथा रकाबें एवं पुस्तकों की जेल्दें तथा तलवार की मयाने भी चमड़े से ही बनाई जाती थी। गुजरात के लोग पशु पक्षियों के चित्रों से सुसज्जित तथा सोने चांदी के तारों से कशीदाकारी वाले चमड़े की लाल तथा नीली दरियां बनाते थे। गेंडे की मोटी कठोर खाल का प्रयोग ढाल बनाने के लिए किया जाता था। भैंस की खाल की ढाल भी सामान्यता प्रयोग में लाई जाती थी। चमड़े का आंशिक रूप से प्रयोग वस्त्र बनाने में भी किया जाता था। कश्मीर जैसे ठंडे स्थानों पर जाड़े के मौसम में लोग फर वाले जानवरों की खालों से निर्मित वस्त्र पहनते थे। चमड़े का प्रयोग व्यापारियों द्वारा अपने माल को भीगने से बचाने के लिए भी किया जाता था। यह उद्योग स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए संपूर्ण देश में फैला हुआ था और सिंध इसका महत्वपूर्ण केंद्र था। इतिहासकार हमीदा खातून नकवी ने सिंध को “चर्म उद्योग का ग्रह” कह कर संबोधित किया है।
रंगसाजी तथा छपाई उद्योग:- 16वीं शताब्दी में प्रौद्योगिकी परिवर्तन की दृष्टि से रंगाई एवं छपाई उल्लेखनीय उद्योग रहा। रंगाई मुख्यत: सूती वस्त्र पर की जाती थी, तथापि रेशम को रंग कर उसमें भी विविध प्रकार के फूलदार वस्त्र तैयार किए जाते थे। वस्त्रों की रंगाई के लिए देसी वनस्पति रंगों का प्रयोग किया जाता था। रंगाई की प्रक्रिया बहुत जटिल थी। रंगने से पहले रंगरेज निश्चित अनुपात में विविध तत्वों को पानी में मिलाकर उबालते थे। उसके बाद कपड़ों की धुलाई करते और फिर उन्हें धूप में सुखा देते थे।
इसके लिए एक खास किस्म के पानी की जरूरत पड़ती थी। रंगाई की इस प्रक्रिया में पूरे कपड़े या कपड़े के कुछ हिस्से पर वांछित शेड पैदा करने की क्रिया भी की जाती थी। कपड़े के कुछ हिस्से को बांधकर रंगाई करने की पद्धति भी प्रयोग में लाई जाती थी। बंधन आया गुलबंद कही जाने वाली इस विधि में दोरंगे या तिरंगे वस्त्र तैयार किए जाते थे। इस प्रकार हम देखते हैं कि मुगलकालीन रंगरेज उत्कृष्ट परिणाम प्राप्त करने के लिए उपलब्ध कच्चे माल तथा तकनीक का भली-भांति प्रयोग करने में सक्षम थे और उन्हें रंगाई कला में काफी महारत हासिल थी। दिल्ली, बयाना, आगरा, अहमदाबाद, लखनऊ, फर्रुखाबाद, मछलीपट्टनम, सरखेज, गोलकुंडा, ढाका, कासिम बाजार आदि वस्त्र रंगाई के महत्वपूर्ण केंद्र थे।
रंगाई के साथ-साथ वस्तुओं पर आकर्षक छपाई का उद्योग भी मुगलकाल में काफी उन्नत था। कपड़े पर पेंट के दो तरीके थे- हाथ से ब्रश की सहायता से या लकड़ी का ठप्पों से। ठप्पों की निचली सतह पर विविध फूल पत्तियों की अलंकारिक, डिजाइन, चित्र, आकृतियां, अक्षर आदि के ब्लॉक कटे रहते थे। ठप्पे को रंग में डुबोकर कपड़े पर छाप देते थे। ब्रश से डिजाइन छापना अपेक्षाकृत कठिन था। इस तकनीक में पहले कपड़ा धो कर सुखा लेते थे। फिर भरे जाने वाली जगह पर फिटकरी का पानी लगाते थे। फिर रंगों को कपड़े पर फिटकरी लगे स्थानों पर भर देते थे। कभी-कभी कागज पर छेद करके किसी डिजाइन की स्टैंसिल बनाकर कपड़े पर रख देते थे और कच्चे कोयले को स्टैंसिल्स पर रगड़ कर ड्राइंग उतार देते थे। फिर ब्रश द्वारा उस में रंग भर देते थे। 17वी शताब्दी के अंत में भारत आए डच यात्री डी.हैवर्ट ने लिखा है कि पालकोलू में छपाई कारीगरों को जो नमूना दिया जाता था उसकी हूबहू नकल वे तैयार कर देते थे। अंग्रेज इतिहासकार जे.इर्विन ने लिखा है कि कारीगर अपनी कल्पना से डिजाइन बनाते थे।
इमारती सामान तथा गृह निर्माण उद्योग:- भवन निर्माण सामग्री के चार मूल तत्व थे- मिट्टी, ईंट, पत्थर एवं लकड़ी। साधारण लोगों के मकान घास -फूस तथा मिट्टी के बने होते थे और उन पर छप्पर पड़ा होता था। सरकंडे बांस तथा घास-फूस छप्पर बनाने की सामग्री के रूप में प्रयोग किए जाते थे। कभी-कभी यह छत खपड़ों की भी होती थी। आईन-ए-अकबरी में बांस, कलई, सन, चूना, मंजू आदि इमारती सामग्रियों का उल्लेख मिलता है। उच्च वर्ग के मकान ईंट तथा पत्थर के बने होते थे क्योंकि उसको काटने एवं पॉलिश करने का काम काफी महंगा था तथा इसकी प्रक्रिया भी परिश्रमी थी। मुगल काल में इमारतें बनाने का कार्य अनियंत्रित ढंग से चलता था। इस कारण अनेक राजमिस्त्रियों, मजदूरों, पत्थर तराशों, बढ़ईयों एवं अन्य कारीगरों को रोजगार मिला हुआ था।
मिट्टी के सामान का उद्योग:- मुगल काल में मिट्टी के बर्तन बनाने की कला का भी अत्यधिक विकास हुआ। कुम्हार मिट्टी के बर्तन, मटके तथा विभिन्न प्रकार के कलात्मक खिलौने आदि बनाते थे। मिट्टी के बने हुक्के, चिलम की भी अच्छी मांग थी। मिट्टी के बर्तन और खिलौने जयपुर, ग्वालियर, अयोध्या, बनारस, लखनऊ, कश्मीर, दिल्ली आदि में बनते थे। मिट्टी की विविध वस्तुओं का निर्माण कुम्हार अपने चाक पर करता था। कुम्हार द्वारा प्रयोग किया जाने वाला चाक मिट्टी की निर्माण कला का महत्वपूर्ण उपकरण था। घूमते हुए चाक पर गीली मिट्टी का ढेर रखकर कुम्हार अपनी उंगलियों के इशारे से उन्हें आकार देता था और पल भर में ही वस्तु तैयार हो जाती थी। इन्हें एक बारीक सूत से काटकर सावधानी से चाक पर से हटाया जाता था। खिलौने का निर्माण लकड़ी के सांचे में गीली मिट्टी भरकर किया जाता था।
इस प्रकार तैयार मिट्टी के सामान पहले धूप या हवा में सूखने के लिए छोड़ दिए जाते थे। थोड़ा कड़ापन आने पर उसे आग में तपाया जाता था। आग में पक जाने पर उन्हें निकाल दिया जाता था। कभी-कभी कुम्हार उन्हें रंगों से अलंकृत भी करते थे।
निष्कर्ष:- उपर्युक्त विवरण से पता चलता है कि मुगलकाल में शिल्पकला का पर्याप्त विकास हुआ। मुगल बादशाहों तथा अमीरों ने अपने साजो-सामान तथा अपने कक्ष के लिए जरूरतमंद वस्तुओं के निर्माण के लिए शिल्पकारो को आर्थिक सहायता दी। यह शिल्पकार अपने कार्य में दक्ष होते थे और लोगों की रूचियों के अनुसार वस्तुओं का निर्माण करते थे। शाही आदेश पर निर्मित की गई वस्तुओं की कीमत अधिक होती थी जिसके लिए शिल्पकारों को अच्छी कीमत दी जाती थी।
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