मुग़ल वास्तुकला/स्थापत्यकला
परिचय:- मुगलकालीन स्थापत्य कला मध्यकालीन भारत में विकसित सांस्कृतिक जीवंत का प्रतीक है। मुगल शासक कला के विभिन्न पक्षों के न केवल संरक्षक तथा पोषक थे, अपितु स्वयं कला के पारखी भी थे। उनके शासनकाल में स्थापत्य कला के क्षेत्र में विभिन्न कला तत्वों का समावेश कर उनकी विशिष्ट शैलियों का विकास किया गया। दिल्ली सल्तनत के पतन के साथ ही स्थापत्य कला का एक अध्याय समाप्त हुआ और मुगल शासन की स्थापना के साथ इस क्षेत्र में एक नए युग का सूत्रपात हुआ। मुगलकालीन स्थापत्य कला के क्षेत्र में नवीन प्रयोग एवं उन्नत तकनीक के बल पर जो मानक स्थापित हुए वे आज भी मौजूद है। इस युग में भवन निर्माण की विशेषता, विविधता तथा सुंदरता ने वस्तुकला विशेषज्ञों तथा इतिहासकारों को भी अचंभित किया है। पर्सी ब्राउन ने जहां इस काल की वास्तुकला को प्रकाश तथा उर्वरा की घोतक ग्रीष्म ऋतु के रूप में संबोधित किया है, वहीं स्मिथ ने इसे वास्तुकला की रानी कहा है।
मुगलकाल में बाबर से औरंगजेब के शासन काल तक महान मुगलों के काल में भवन निर्माण की विशेषता, विविधता और सौंदर्य की तुलना गुप्तकाल से की जा सकती है। इस युग में वास्तुकला के विकास का प्रमुख कारण मुगल सम्राटों की व्यक्तिगत अभिरुचि, साम्राज्य का वैभव और धन-धान्य की प्रचुरता थी। मुगल शासकों तथा कलाकारों के बीच सहयोग के फलस्वरुप ही कला की रानी को प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त हुआ।
मुगल वास्तुकला शैली:- इस विषय पर विद्वान इतिहासकारों का अपना अलग-अलग दृष्टिकोण है। हेवेल तथा फर्गुसन ने इसे भारतीय व विदेशी शैलियों का मिश्रण व समन्वय कहा है। जबकि ब्राउन के अनुसार मुगलकालीन वास्तुकला पर कहीं भी विदेशी प्रभाव नहीं दिखाई देता। मतभेदों के होते हुए भी उपलब्ध तथ्यों के आधार पर मुगलकालीन वास्तु शैली को अभारतीय कहना सही नहीं है। यह कहना उचित होगा कि मुगल वास्तुकला शैली का जन्म हिंदू, मुस्लिम, बौद्ध, जैन, राजपूत, इरानी, अरबी तथा बगदादी आदि वास्तुकला शैलियों के मूल तत्वों के मिश्रण से हुआ। अर्थात यह वास्तुकला की उन सभी शैलियों का संयोजन है जो मध्य एशिया, फारस से लेकर भारतीय उपमहाद्वीप के प्रांतीय राज्यों में प्रचलित थी। इस आधार पर वास्तुकला के क्षेत्र में उस काल में विदेशी तत्वों को कुछ अंश तक स्वीकार किया जा सकता है परंतु इसे भारतीय पर्यावरण के अनुरूप ढ़ालकर भारतीय वास्तुकला की शैली में ही समाहित कर दिया गया।
मुगलों द्वारा प्रयुक्त वास्तु निर्माण सामग्री एवं तकनीक:- मुगल काल में भवनों का निर्माण अधिक बड़े पैमाने पर किया गया। मुगल भवन निर्माण की योजनाएं बड़े पैमाने पर तैयार की जाती थी। धन और संसाधनों की अभूतपूर्व उपलब्धता के कारण अधिक विशाल भवनों का निर्माण किया गया और उनके निर्माण में श्रेष्ठतर सामग्री का उपयोग किया गया। मुगलों द्वारा निर्मित सभी इमारतों में विभिन्न प्रकार के पत्थरों का व्यापक प्रयोग किया। प्रारंभ में लाल बलुआ पत्थर तथा बाद में संगमरमर के विशाल भवन बनाए गए। चुना पत्थर, पीला पत्थर तथा काला पत्थर दूसरे लोकप्रिय पत्थर थे। लाल पत्थर फतेहपुर की पहाड़ियों में तथा संगमरमर जोधपुर के मकराना में उपलब्ध था।
अकबर की सभी इमारतें लाल पत्थर की बनी हुई है। यह पत्थर कठोर और ठोस है लेकिन उसे विभिन्न आकारों में इस प्रकार गढ़ा गया है जिसके परिणामस्वरुप वह कठोर दिखाई नहीं देता। इन पर सुंदर नक्काशी का काम भी हुआ है। दूसरी और शाहजहां को संगमरमर अत्यधिक प्रिय था। उसने इमारतों का निर्माण संगमरमर से करवाया। मकराना के सफेद संगमरमर का व्यापक प्रयोग ताजमहल के निर्माण के दौरान किया गया। संगमरमर अलंकरण के लिए भी उपयुक्त पदार्था था तथा उसको अपेक्षाकृत अधिक सुंदर बनाया जा सकता था। वह बलुआ पत्थर की अपेक्षा अधिक चमकदार भी था। यही कारण था कि शाहजहां के काल में चिकने किए गए संगमरमर के प्रयोग द्वारा ऐसे आकारों का निर्माण किया गया जो कि स्वर्गीय और आध्यात्मिक भावनाओं की अनुभूति कराते हैं, क्योंकि प्रयोग में लाई गई सामग्री का सफेद रंग ही पवित्रता और उच्च भावनाओं का घोतक है। इस प्रकार ऐसे भवनों के निर्माण के द्वारा केवल कलाकृतियों का ही निर्माण नहीं किया गया, अपितू ऐसे सौंदर्य का सृजन भी किया गया जो भौतिक होने के साथ-साथ आध्यात्मिक भी है।
इमारतों में पत्थरों का प्रयोग करने से पहले उन्हें आकार में काटना, गढ़ना तथा पोलीश करना भी महत्वपूर्ण था। यह प्रक्रिया बेहद परिश्रम वाली होती थी। मुगल चित्रकलाओं से, जिनमें फतेहपुर सीकरी के महल के निर्माण का दृश्य देखने को मिलता है, हमें पत्थरों की कटाई के लिए प्रयोग की गई शिल्प विज्ञान की जानकारी मिलती है। पत्थर की सिल्ली को एक-दूसरे पत्थर पर क्षेतिज अवस्था में लिटा कर रखा जाता था। फिर सिल्ली पर पत्थर की मोटाई और आवश्यक आकार को ध्यान में रखकर विभिन्न नापों की लोहे की कीलों से लकड़ी के कुंदो की तरह दरार डाली जाती थी।
लोहे की कीलों को लकड़ी चीरने की भांति पत्थर में सीधी लाइन में लगातार और पास-पास ठोकते चले जाते थे। इस तकनीक से उपयुक्त आकार के पत्थरों को काटा जाता था। पत्थरों को सुडौल बनाने के लिए लोहे की रूखानी तथा हथौड़े की सहायता से उन्हें कुशलता पूर्वक गड़ा जाता था। पत्थर की सतह को चमकदार बनाने के लिए उस पर पॉलिश भी की जाती थी। इस तकनीक में पत्थर की खुरदुरी सतह को अपघर्षीे पत्थर द्वारा रगड़ा जाता था।
पत्थरों पर अलंकरण का कार्य भी इस काल में महत्वपूर्ण था। फतेहपुर सीकरी स्थित बीरबल के महल में प्रयुक्त आकर्षक तोड़े यह सिद्ध करते हैं कि भारतीय कारीगर पत्थर को मोम की तरह काट-छांट सकता था। यही स्थिति शेख सलीम चिश्ती की दरगाह में प्रयुक्त तोड़ो की कटाई भी इतनी दर्शनीय है कि वे संगमरमर के नहीं बल्कि हाथी दांत के बने लगते हैं। संगमरमर पर अलंकरण का यह कार्य शाहजहां के काल में पूर्णत: जीवंत हो उठा। उसके कारीगर रुखानी के स्थान पर सूक्ष्म यंत्रों का प्रयोग करते थे।
मुगलों ने प्रभावशाली ढांचे बनाने के लिए जोड़ने वाली सामग्री के रूप में विभिन्न प्रकार के गारे का प्रयोग किया। जोड़ने के मसालों में सर्वप्रिय थे- सन, सीरीश-ए-काही, समगह, सुर्खी, गुड़ और कुछ दूसरे चिपचिपे पदार्थ। जल-रोधी बनाने के लिए सरूज कहलाने वाला एक विशेष मिश्रण चुने,रेत और लकड़ी की राख से बनाया जाता था। कंकरीट तथा चूने का प्रयोग इमारतों को समय के प्रभाव से होने वाले क्षय से बचाने के लिए किया जाता था। गारे को समतल करने के लिए वस्तु-शिल्पकार करनी नामक एक यंत्र का प्रयोग करते थे।
मुगल इमारतों में प्लास्टर दो विभिन्न तरीकों से किया जाता था। पहला तरीका अस्तरकारी के नाम से जाना जाता था जिसमें चार मूल संगठक- चुना, कलई, सुर्खी और सन मिलाए जाते थे। दूसरा तरीका संदलकारी के नाम से जाना जाता था। इसमें कलई और सुर्खी दूसरे संगठको के साथ मिलाए जाते थे। यह एक विशेष तरह का प्लास्टर था जो निर्मित सतह पर बढ़िया चमक और समतल करने के लिए किया जाता था। दीवारों और छतों पर प्लास्टर करने से पहले तिनकों, मिट्टी और पानी के एक मिश्रण, जो कहगिल कहलाता था, कि एक मोटी परत लगाई जाती थी। रंगीन टाइल्स का भी प्रयोग किया जाता था। जोधाबाई के महल के उत्तरी तथा दक्षिणी दीवारों पर मुल्तान से लाए गए सुंदर नीले रंग के टाइल्स का प्रयोग किया गया है।
भवन निर्माण में पहला कदम नींव खोदना था। नक्शे के अनुसार अपेक्षित गहराई की नींव खोद लेने के बाद उसमें पत्थर और कंक्रीट डालकर उसे लकड़ी या लोहे के एक भारी मुगद्दर से कूंटकर बैठाया जाता था। फिर उसे पक्का करके उस पर नीम की चौड़ी दीवार बनाते थे। दीवार उठा लेने के बाद उस पर डाटदार छत पाटी जाती थी। दीवारों को ऊंचाई पर जोड़ने के लिए दीवारों के समानांतर तथा बांस के खंभों पर टिके मचान बांधे जाते थे। इस पर बैठकर श्रमिक सुविधापूर्वक अपना कार्य करते थे।
अतएव कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि मुगलों द्वारा जिस प्रकार की सामग्री को भवन निर्माण के लिए चुना गया, उनके प्रयोग द्वारा ही ऐसे उत्तम भवनों का निर्माण संभव हो सका। अकबर तथा शाहजहां के काल में भवनों का खाका बनाया जाता था और छोटी-छोटी बातों की ओर विशेष ध्यान दिया जाता था।
भवन निर्माण के विविध आयाम:-
दीवारें:- मुगल काल में निर्मित इमारतों की दीवारें अधिक मोटी नहीं होती थी। 2 से 4 फुट तक चौड़ी इन दीवारों को मजबूती से बनाया जाता था। यह दीवारें ठोस होती थी तथा इनकी चुनाई अच्छे मसालों से की जाती थी। दीवारें सपाट होती थी जिन्हें गुनिया का प्रयोग करके बनाया जाता था। इन दीवारों को प्लास्टर द्वारा अच्छे ढंग से चिकना किया गया है। किले की दीवारें आम इमारतों की दीवारों की अपेक्षा मोटी होती थी जो लाल बलुआ पत्थर से बनाई जाती थी। अजमेर का किला दोहरी मोटी दीवार से घेरा गया है। किले के बाहर बनी खाई में भर जाने वाले पानी से दीवारों की सुरक्षा हेतु उन पर जिप्सम और चूने के बने प्लास्टर का प्रयोग किया जाता था।
कमरें:- दीवारों पर डांटदार छातें पाटकर विविध आकार के कमरे तथा हाल का निर्माण किया जाता था। कमरे प्राय: एकाकी हाल के रूप में निर्मित किए जाते थे। कुछ भावनों में हाल सहित एकाधिक कक्ष भी बनाए गए हैं। उदाहरण के लिए हिमायू के मकबरे में परंपरा के अनुसार एक कक्ष न होकर एकाधिक हाल है जिनके बीच एक विशाल अष्टभुजीय हाल और चारों ओर चार कक्ष है। प्राय मुगलकालीन मस्जिदों में एकाकी हाल होते थे जबकि मकबरों में हाल को बहुधा बरामदों से आबद्ध कर दिया जाता था। प्रशासकीय उपयोग में आने वाली कुछ इमारतों के हाल काफी विशाल होते थे। उदाहरण के लिए आगरे के किले में स्थित दीवान-ए-खास के भीतर एक विशाल हाल है जो 90 फीट लंबा तथा 66 फीट चौड़ा है। कमरे की दीवारों में चौखट, खिड़कियां तथा रोशनदान आदि भी लगाए जाते थे।
स्तंभ:- मुगल वास्तुकला शैली की इमारतों में हमें कई प्रकार के स्तंभ के दर्शन होते हैं। मुग़ल शिल्पकला की एक महत्वपूर्ण विशेषता थी कि ऐसे स्तंभों का निर्माण जो लाल बलुआ पत्थर या संगमरमर के बनाए जाते थे। इन खंभों को चारों ओर से घेर दिया जाता था। खंबे और उसके घेरे के बीच की जगह गारे और रोड़ी से भर दी जाती थी। इसका उद्देश्य इन पर बनी ऊपर की मंजिलों को मजबूती प्रदान करना था। फतेहपुर सीकरी में बना पंचमहाल इसका एक उदाहरण है। पत्थर के गढ़े हुए स्तंभों का प्रयोग अधिक किया गया है। सुंदरता से गढ़े हुए स्तंभों को इमारत में निर्धारित स्थान पर एक चौड़ी तैयार चौकी पर खड़ा करके मसालों से जोड़ दिया जाता था। ईटों के स्तंभ भी निर्मित होते थे। कारीगर बुद्धिमत्तापूर्वक इमारत के साथ-साथ ईंट के स्तंभ भी बनाते जाते थे। इस प्रकार के स्तंभों का निचला हिस्सा चौड़ा तथा ऊपर का हिस्सा पतला रखा जाता था। कहीं कहीं लकड़ी के भी स्तंभ बनाए गए हैं।
दरवाजे:- मुगल वास्तुशैली से निर्मित इमारतों में दरवाजे इमारत की प्रकृति के आधार पर निर्मित किए गए हैं। किलों आदि के मुख्य द्वार तो इतने विशाल तथा भव्य है कि वे स्वयं में एक इमारत लगते हैं। बुलंद दरवाजा इसका जीता जागता सबूत है। संबंध कक्ष तथा हाल आदि के दरवाजे अपेक्षाकृत छोटे थे। यह कम तथा अधिक चौड़े दोनों प्रकार के होते थे। दरवाजे के ऊपर सुंदर रीति से निर्मित डांटे भी देखने को मिलती है। दरवाजों पर किवाड़ भी लगे होते थे जिनके दिलाहों के साथ ऊपरी भाग पर सुंदर अलंकरण किया जाता था।
खिड़कियां तथा रोशनदान:- मुगल वास्तुशैली से निर्मित इमारतों में खिड़कियों तथा रोशनदानों का भी विधान है जिससे इमारत की सुंदरता में वृद्धि होने के साथ प्रकाश तथा शुद्ध वायु के आगमन का भी अच्छा प्रबंध हो जाता था। खिड़कियों के ऊपर डाटे बनी है। इस शैली की लगभग सभी इमारतों में पत्थर से निर्मित सुंदर तथा सजीव जालियों द्वारा ढकी खिड़कियों का विधान मिलता है। कुछ खिड़कियां चौखटे तथा कीवाड़ों से युक्त होती थी। इनकी किवाड़ के दिलाहों को फूल पत्ती की इकाइयों से अलंकृत भी किया गया है। रोशनदान की जालियों के कटाव भी अत्यंत सुंदर विधि से तराशे गए हैं जिनको देखकर कहा जा सकता है कि कारीगरों का अपनी छेनी पर पूर्ण अधिकार था।
गुम्बद:- मुगलकाल में गुंबद का निर्माण विशेषकर मस्जिद तथा मकबरे की रचना में किया जाता था। मुगलकाल में गुंबद विविध आकार- प्रकार के हैं। गुंबद का शिखर कलश द्वारा सुशोभित किया जाता था। अकबर द्वारा फतेहपुर सीकरी में निर्मित कराई गई जामा मस्जिद के ऊपर स्थित विशाल गुंबद पर सुंदर कलश का प्रयोग हुआ है। ताजमहल का तो संपूर्ण सौंदर्य ही उसके विशाल गुंबद में विद्यमान लगता है। पर्सी ब्राउन ने इसे ताजमहल के सौंदर्य का सर्वोत्तम अंग माना है। ताजमहल के गुंबद पर भी एक सुंदर कलश है। 30 फीट ऊंचा यह कलश तांबे से निर्मित है तथा इस पर सोने का पानी चढ़ा है।
मुगलकालीन मकबरों में प्राय एक ही गुंबद बनाए गए जबकि मस्जिदों में आमतौर पर तीन गुंबद होते थे। फतेहपुर सीकरी की जामा मस्जिद में एक ही गुंबद है जबकि दिल्ली की जामा मस्जिद के ऊपरी भाग पर लाल बलुआ पत्थर की धारियों वाले तीन गुंबद है। मध्य का गुंबद किनारे के गुंबद उसे बड़ा है।
मीनारें :- मुगलकाल की कई इमारतों में सुंदर ढंग से मिनारो का निर्माण किया गया है। इन्हें कभी-कभी इमारत के चारों कोनों पर स्थापित किया गया है या फिर मुख्य मार्ग से थोड़ा हटाकर चौकी के चारों कोने पर। 3 से 7 मंजिली मीनारों की प्रथम मंजिल चौड़ी तथा बड़ी बनी है तथा ऊपर की मंजिलें छोटी होती गई हैं। अंतिम मंजिल सबसे छोटी है तथा उनमें डाटदार खिड़कियां बनाई गई है जिससे यह भाग हल्का रहे तथा हवा एवं प्रकाश का भी आवागमन होता रहे। मीनारों की सभी मंजिलें प्राय: सीढ़ियों से संबंध है। ताजमहल की मीनारों में एक महत्वपूर्ण तकनीकी विशिष्टता भी विद्यमान है। निर्माणकर्ता ने इन मिनारों को आंशिक रूप से बाहर की और इस प्रकार झुकाव प्रदान किया है ताकि किसी भी स्थिति में मीनार गिरे तो मुख्य इमारत की ओर न गिर कर बाहर की और गिरे और मुख्य इमारत सुरक्षित रहे।
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