बुकर टी. वाशिंगटन और नागरिक अधिकार आंदोलन

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बुकर टी. वाशिंगटन और नागरिक अधिकार आंदोलन अफ्रीकी-अमेरिकी नागरिक अधिकार आंदोलन (1955-1968) का उद्देश्य अफ्रीकी अमेरिकी लोगों के खिलाफ नस्लिय भेदभाव को गैर कानूनी घोषित करना और दक्षिण अमेरिका में मतदान अधिकार को पुन: स्थापित करना था। गृहयुद्ध के बाद अश्वेतों को गुलामी से मुक्त कर दिया गया था लेकिन उसके बावजूद भी उनकी स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया। पुनर्निर्माण और द्वितीय विश्वयुद्ध के बीच अश्वेतों की स्थिति ओर खराब हो गई। इस दौरान बुकर टी. वाशिंगटन इनके लिए एक प्रभावशाली नेता बनकर उभरे। वाशिंगटन ने अफ्रीकी-अमेरिकियों के लिए व्यावसायिक शिक्षा और औद्योगिक शिक्षा को बढ़ावा दिया ताकि वह आर्थिक रूप से संपन्न और कुशल बन सके। पृषठभूमि दक्षिण अमेरिका में अश्वेतों ने संघर्ष कर अपने आपको दासता मुक्त कराया। अश्वेतों ने अपनी संस्थाएं बनाई जिससे अश्वेत राष्ट्रवाद का उदय हुआ। नेशनल नीग्रो कन्वेंशन जैसे कई नीग्रो संगठन बने। गृहयुद्ध के दौरान अफ्रीकी-अमेरिकी नेताओं के बीच कट्टरपंथी विचारों का विकास हुआ। बिशप एम. टर्नर, मार्टिन आर. डेलानी और अलेक्ज़ेंडर क्रूमेल ने अश्वेतों के लिए एक स्वायत्त राज्य की...

फ्रांसीसी कांति की बौद्धिक पृष्ठभूमि

फ्रांसीसी कांति की बौद्धिक पृष्ठभूमि
18 शताब्दी यूरोप में एक बौद्धिक आंदोलन चल रहा था। दार्शनिक, वैज्ञानिक तथा विचारक मध्यकालीन अंधविश्वासों से मुक्त होकर स्वतंत्र रूप से विचार करने लगे थे। वे चली आ रही राजनीतिक, आर्थिक सामाजिक, धार्मिक और न्यायिक संस्थाओं के दोषों को उजागर कर समाज का ध्यान अपनी और आकर्षित कर रहे थे। ऐसे विचारक यूरोप के सभी देशों में थे, परंतु उनमें सबसे मुख्य फ्रांस के विचारक थे। इन्हीं दार्शनिकों के साहित्य ने फ्रांसीसी क्रांति को लाने में आग में घी का काम किया। फ्रांस की क्रांति में दार्शनिकों का महत्वपूर्ण भाग था। उन्होंने क्रांति का मनोवैज्ञानिक आधार तैयार किया। जनता का ध्यान फ्रांस में फैली हुई बुराइयों की ओर आकर्षित किया। क्रांतिकारी परिवर्तनों के लिए जनता को उन्होंने ही तैयार किया। इस तरह का प्रभाव यूरोप के किसी अन्य देश में नहीं पढ़ रहा था। नवीन और क्रांतिकारी विचारधारा को पढ़ने और समझने के लिए जागृत समुदाय की आवश्यकता होती है और इस तरह का समुदाय फ्रांस में मौजूद था। इसके अतिरिक्त मान्टेस्क्यू, वॉल्तेयर, रूसो तथा दिदरो जैसे विचारको का मुख्य कार्यक्षेत्र फ्रांस ही था और यह फ्रांस में क्रांति होने का एक महत्वपूर्ण कारण था। प्रसिद्ध इतिहासकार शातोब्रियां ने लिखा है फ्रांस की क्रांति बौद्धिक जागरण और जनसाधारण के दैनिक जीवन की कठिनाइयों के मेल से उत्पन्न हुई। यह बात सत्य है कि समजिक और अर्थिक बुराइयों के बावजूद फ़्रान्स में शायद क्रांति नहीं हो पाती यदि लोगों को इन बुराइयों से अवगत नहीं कराया जाता। इस काम को फ्रांस के दार्शनिको और लेखकों ने किया। कहा जा सकता है कि फ्रांस की क्रांति के लिए उस समय की दार्शनिकों की विचारधाराएं बहुत हद तक जिम्मेदार है। 
इतिहासकार केटेल्बी ने लिखा है फ्रांस की क्रांति को सभी तरह के लेखकों ने तैयार किया था। इस काल का साहित्य राज्य को नष्ट करने के लिए बढ़िया गोला-बारूद के समान था। इसके पहले क्रांति इतने शब्दों से कभी सज्जित नहीं हुई थी। 

मान्टेस्क्यू:- इनका जन्म फ्रांस के कुलीन घराने में 1685 में हुआ था। वह एक न्यायधीश का काम करते थे। इसलिए इन्हें फ्रांस के शासन की पूर्ण जानकारी थी। यह इंग्लैंड की लोकतंत्रात्मक शासन पद्धति से काफी प्रभावित हुए। उसने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक The Spirit of Law में अपने विचारों को व्यक्त किया। उसने राजा के दैवी अधिकारों के सिद्धांतो का खंडन किया और फ्रांसीसी संस्थाओं की कड़ी आलोचना की। वह वैधानिक शासन तथा व्यक्तिगत स्वतंत्रता का प्रबल समर्थक था। उसने इंग्लैंड की शासन पद्धति की खूब सराहना की और संवैधानिक राजतंत्र के लिए प्रस्ताव रखा। उसका कहना था कि इंग्लैंड का शासन संसार में सर्वोत्तम है क्योंकि वहां जनता की स्वतंत्रता सुरक्षित है। उसका विश्वास था कि जब तक शासन के क्षेत्र में शक्तियों का पृथक्करण नहीं हो जाता तब-तक निरंकुश शासन का अंत नहीं होगा। इसलिए उसने अपने प्रसिद्ध सिद्धांत Principle of Separation Of Powers का प्रतिपादन किया। जिसके अनुसार उसने यह विचार दिया कि शासन के तीन प्रमुख अंग कार्यपालिका, व्यवस्थापिका और न्यायपालिका तीनों पृथक-पृथक व्यक्तियों के हाथ में रहे। ऐसा करने से तीनों शक्तियां एक दूसरे के अधिकारों को सीमित रखेंगी तथा जनता के अधिकारों की रक्षा करेंगी। हालांकि फ्रांस में तीनों शक्तियां राजा के हाथ में केंद्रीत थी, इसलिए फ्रांस की जनता को स्वतंत्रता नहीं है। उसके विचारों का फ्रांस पर कोई तत्कालिक प्रभाव नहीं पड़ा, किंतु बाद में क्रांति के दौरान उसके सिद्धांतों का असर दिखाई देने लगा।

वाल्तेयर:- वह अपने समकालीन लेखकों में सबसे दक्ष लेखक थे। वह एक महान लेखक, कवि, दार्शनिक, नाटककार, पत्रकार, आलोचक तथा व्यंगकार था। उनका जन्म फ्रांस के एक मध्यवर्गीय परिवार में हुआ था और वह राज्य, चर्च तथा सामाजिक कुप्रथाओं पर अपने लेखों द्वारा प्रहार करता था। उसने तत्कालीन समाज की दशा का अध्ययन किया और उसके सुधारों पर जोर दिया। उसका उद्देश्य अत्याचार, अन्याय और असहिष्णुता तथा अंधविश्वास पर आक्रमण करना था। उसने चर्च के तत्कालीन संगठन पर गहरा प्रहार किया। चर्च की ओर संकेत करते हुए वह उस संस्था को कुचल देने को कहता था। वह व्यक्तिगत स्वतंत्रता का पुजारी था। उसने लिखों, पुस्तकों, पत्रों आदि में अपने विचारों को प्रकट करके राजा की निरंकुशता की खुले रुप से निंदा की। उसने सभी प्रकार के शोषण अंधविश्वास तथा अत्याचार का घोर विरोध किया। उसके लेखों के प्रभाव से जनता राजा और चर्च के आतंक से मुक्त हो गई। उसने जनता को बतलाया कि वह उसी बात को ठीक समझें जो उनके विचारों के अनुसार ठीक हो। उसने जनता से अपील की कि चर्च और पादरियों के भ्रष्ट जीवन के कारण धर्म जर्जर हो रहा है। इसमें विश्वास करना मूर्खता है।

किंतू राजनीति के क्षेत्र में उसके विचारों को प्रजातांत्रिक नहीं माना जा सकता क्योंकि उसे प्रजा के सुधार की शक्ति में बिल्कुल विश्वास नहीं था। आवश्यक सुधार के लिए वह राजा को ही उपयुक्त मानता था। लेकिन उसकी प्रभावशाली शैली लोगों के दिलों में विद्रोह की भावना उत्पन्न कर रही थी। इसी कारण फ्रांस की सरकार उससे घबराती थी। कई बार इसे देश से निष्कासित भी किया गया। उसके राजनीतिक विचार प्रगतिशील नहीं माने जा सकते लेकिन बौद्धिक जागरण में उसकी देन अमूल्य मानी जाती है। उसके लेखों के प्रभाव से राज्य तथा चर्च के लिए जनता के हृदय में जो आदर भावना थी और उनका उस पर जो प्रभाव था उसमें निर्बलता आ गई जो उसकी सबसे बड़ी देन है। 
रूसो:- यह अपने युग का सर्वश्रेष्ठ लेखक और विचारक साबित हुआ। उसने अनेक ग्रंथ लिखे जिनमें भावना की प्रधानता मिलती है। यह एक नवीन समाज की स्थापना करना चाहता था। उसने तर्क के आधार पर पुरातन व्यवस्था की धज्जियां उड़ा दी और जनसाधारण के भीतर क्रांति की भावना भर दी। इसलिए रूसो को क्रांति का अग्रदूत कहा जाता है। नेपोलियन कहा करता था कि रूसो न होता तो फ्रांस में क्रांति न होती। रूसों के क्रांतिकारी विचारों का पता उसकी पुस्तक Social Contract से चलता है, जिसका प्रकाशन 1762 में हुआ था। इसी महान ग्रंथ में उसने अपने सामाजिक सिद्धांत का प्रतिपादन किया था। इसका आधारभूत सिद्धांत यह था कि प्राकृतिक मनुष्य स्वभावत: अच्छा होता है। सभ्यता और संस्थाओं ने उसका पतन कर दिया है और उसे स्वतंत्रता तथा प्रसंन्नता के लिए प्राकृतिक अधिकारों से वंचित कर दिया है। रूसो ने लिखा “मनुष्य स्वतंत्र पैदा होता है परंतु सर्वत्र जंजीरों में जकड़ा हुआ है”। मनुष्य को सुख की प्राप्ति के लिए अपनी आदिकालीन सरलता और प्रसन्नता की ओर लौट जाना चाहिए। उन संस्थाओं को नष्ट कर देना चाहिए जिन्होंने उसे दास बनाया है। 

रूसो मनुष्य को सभी बंधनों से मुक्त करना चाहता था और यह कैसे संभव हो सकता है इसका उत्तर उसने अपनी पुस्तक सोशल कॉन्ट्रैक्ट में देने का प्रयत्न किया। इसके लिए उसने मानव इतिहास का बड़ा ही रोचक विश्लेषण किया, कि शुरू में मनुष्य बिल्कुल स्वतंत्रता था, वह किसी प्रकार के बंधन में नहीं था और प्राकृतिक अवस्था में मनुष्य प्रत्येक दृष्टि से सुखी था। लेकिन कुछ समय बाद उसके जीवन में जटिलता आ गई। सभ्यता और विज्ञान का विकास हुआ। मनुष्य तरह -तरह की कठिनाइयों का अनुभव करने लगा। 

इन सारी असुविधाओं से मुक्ति पाने के लिए लोगों ने समझौता करके एक शासन के अधीन रहना स्वीकार कर लिया। ताकि उनका जीवन तथा उनकी संपत्ति सुरक्षित रह सके। इस प्रकार जीवन को नियमित और संचालित करने के लिए राज्य की उत्पत्ति हुई। समाज के सभी व्यक्तियों ने मिलकर एक समझौता किया, एक व्यक्ति शासक नियुक्त हुआ जिसे प्रतिज्ञा करनी पड़ी कि वह सार्वजनिक हित में शासन का संचालन करेगा।

लेकिन आज फ्रांस में मूल सामाजिक समझौता टूट रहा चुका है। राजा इस समझौते को भंग करके निरंकुश शासक बन चुका है। यह समझौता अन्यायपूर्ण भी हो चुका है क्योंकि उसमें विशेषाधिकार वर्ग को अनुचित लाभ मिल रहा थे। इसी कारण रूसो चाहता था कि लोग आधुनिक समाज को नष्ट कर प्राकृतिक अवस्था में लौट जाए। अधिक संतोषजनक समझौता करके नवीन समाज की रचना करें। इसका सिद्धांत था कि जनता ही सर्वोपरि है, समस्त सत्ता उसी के हाथ में होनी चाहिए, किसी एक व्यक्ति या वर्ग के हाथ में नहीं। रूसो इसको General will कहता था। उसका कहना था कि राज्य के कानून को सामान्य इच्छा की अभिव्यक्ति होना चाहिए। लेकिन कानून का स्वरूप ऐसा नहीं रह गया है। वह शासक की इच्छा पर निर्भर करने लगा है। इसलिए राजा की कोई आवश्यकता नहीं है। फ्रांस की जनता अपने अधिकारों से वंचित हो चुकी है। समझौता टूट चुका है। इस हालत में राजा को शासन करने का कोई अधिकार नहीं रह गया है। 
रूसो ने आधुनिक जनतंत्र के सिद्धांतों का प्रतिपादन किया। फ्रांस की तत्कालीन स्थिति में इस सिद्धांत का जबरदस्त प्रभाव पड़ा। 
जनता की सार्वभौमसता तथा समस्त नागरिकों की राजनीतिक समानता का प्रतिपादन किया जो तत्कालीन व्यवस्था के लिए घातक थी। यह एक क्रांतिकारी दर्शन था और इसके प्रभाव से फ्रांस का राजतंत्र नष्ट हो गया। रूसो के सिद्धांत को पढ़ने वाले सभी लोग क्रांतिकारी बन गए। सामाजिक संविदा का सिद्धांत क्रांतिकारियों का मूल मंत्र बन गया। फ्रांस के सभी उग्र-क्रांतिकारियों रूसों के अनुयाई थे। 

रूसो के साहित्य ने विशेषाधिकारयुक्त वर्ग पर भी अपना असर डाला। फ्रांसीसी समाज के संपन्न क्षेत्रों में भी रूसो की कृतियां को पढ़ा जाने लगा। इसके दो उपन्यासों मिलोई तथा एमिल ने मनुष्य की प्राकृतिक भावनाओं को उभारने का कार्य किया और शानो-शौकत के जीवन की आलोचना की। उनके उपन्यासों ने विशेषाधिकार युक्त वर्ग के मनोबल को गिरा दिया। कृत्रिम उद्यानों के स्थान पर प्राकृतिक जलाशयों का निर्माण किया गया। रानी मेरी एन्त्वायनेत वर्साय के बगीचे में एक छोटा सा गांव बसाकर प्राकृतिक जीवन का अनुभव लेने के लिए वहां कुछ दिनों तक निवास करने लगी। इस प्रकार के विचारों ने कुलीनों के उत्कृष्ठता के सिद्धांत की मानसिक नीव को हिला दिया। फ्रांस की क्रांति को रूसो की यह सबसे बड़ी देन है।
दिदरो:- यह प्रभावशाली महान ग्रंथ ज्ञानकोष का संपादक थे। इसमें अपने समय के योग्यतम व्यक्तियों की रचनाएं संकलित है। लोगों के समक्ष ज्ञान के पहलुओं को तर्क के आधार पर रखने के लिए इस महान ग्रंथ का आयोजन हुआ था। इसमें धर्म और राजनीति से संबंधित बड़े ही आलोचनात्मक लेख छपे हुए थे। इसमें राजतंत्र की निरंकुशता, चर्च की भ्रष्टता, सामन्त पद्धति तथा सामाजिक असमानता, शासन का भ्रष्टाचार तथा कानून आदि पर कई लेख लिखे गए थे। 

इन लेखो ने जनता को एक नया दृष्टिकोण प्रदान किया। फ्रांस की सरकार विश्वकोश के लेखों से बहुत घबरा गई। इसलिए दिदरो को कैद कर लिया गया और सरकारी आज्ञा द्वारा ज्ञानकोष के प्रकाशन को बंद कर दिया गया। लेकिन ज्ञानकोष का कार्य चलता रहा। ज्ञानकोष ने फ्रांस में तहलका मचा दिया। इनमें छपे लेखों को पढ़कर जनता में एक नए जोश का संचार हुआ। वे राजा, सामंत तथा पादरियों के अत्याचारों का विरोध करने लगे। इस प्रकार दिदरो के विचारों ने क्रांति की भावना को उत्तेजित करने में योगदान दिया। 

अर्थशास्त्री:- कुछ ऐसे अर्थशास्त्री भी थे जिन्होंने आर्थिक मामलों पर सरकार के प्रतिबंधों की खुली आलोचना की। क्वेसने इस सिद्धांत का बहुत बड़ा समर्थक था। उसने मुक्त व्यापार का जोरदार समर्थन किया। उसका विश्वास था कि आर्थिक क्रियाकलाप में जब तक सरकारी हस्तक्षेप रहेगा तब तक देश का आर्थिक विकास असंभव है। वह व्यापारियों पर चुंगी लगाने का विरोधी था। अतः फ्रांस में व्यापारियों ने क्वेसने के विचारों का स्वागत किया और इस आधार पर वह भी राज्य से अपने अधिकारों के लिए लड़ने को तैयार हो गए। 

दार्शनिकों के प्रभाव का मूल्यांकन:- दार्शनिकों की आलोचना ने 18वीं शताब्दी में फ्रांस ने यूरोप का नेतृत्व किया। इसके लेखकों ने फ्रांस को ही नहीं, पूरे यूरोप को भी प्रभावित किया। उन्होंने विशेषाधिकार पर स्थित राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक संस्थानों की आलोचना कर उस पर गहरा आघात किया। एक लेखक ने यहां तक कहा है “इसके पूर्व के लोगों ने क्रांति को अपने हाथों का कार्य बनाया, वह उनके मस्तिष्क में संपन्न हो चुकी थी।
फ्रांस की क्रांति फ्रांस में होने का एक प्रमुख कारण वहां की बौद्धिक क्रांति अन्य देशों की तुलना में अत्यधिक प्रबल थी और वहां के लोग इतने अधिक जागृत थे कि सुधारों की मांग कर सकते थे। क्रांति के लिए कष्टो की तीव्रता ही पर्याप्त नहीं होती, उस तिव्रता का पर्याप्त ज्ञान भी आवश्यक है। फ्रांस के दार्शनिकों ने वहां की जनता में चेतना लाकर क्रांति का मार्ग प्रशस्त किया।

किंतु यह कहना कि फ्रांस की क्रांति के जन्मदाता दार्शनिक थे अथवा फ्रांस में क्रांति केवल दार्शनिकों के प्रचार से हुई, गलत होगा। इसमें कोई संदेह नहीं कि फ्रांस में क्रांति के प्रसार में दार्शनिकों का बहुत बड़ा योगदान था। लेकिन इनके विचारों को क्रांति के विस्फोट का प्रत्यक्ष कारण बतलाना गलत होगा। इन दर्शनीको ने क्रांति का आह्वान नहीं किया था। उन्हें अधिक से अधिक सुधारवादी कहा जा सकता है। क्योंकि वे किसी निरंकुश राजा का समर्थन करने को तैयार थे, जो उनके विचारों को कार्यान्वित करने को तैयार होता है। दार्शनिकों का प्रभाव क्रांति पर बाद में पड़ा, जब क्रांति ने एक रास्ता पकड़ लिया तब क्रांतिकारी नेता अपनी कृतियों को उचित बतलाने के लिए दार्शनिकों का हवाला देने लगे, सामाजिक असमानता, शोषण, अत्याचार आदि से फ्रांस में जनसाधारण का जीवन असहनीय हो गया था। विचारको और दार्शनिकों ने इस व्यवस्था की कमजोरियों को स्पष्ट कर दिया। दार्शनिकों का प्रचार प्रभावी इसलिए हो सका क्योंकि इसका सीधा संबंध तत्कालीन अवस्था से था। आर्थिक तथा सामाजिक व्यवस्था के प्रति लोगों में विरोध की भावना सुलग रही थी वह व्यक्त हो रही थी। दार्शनिकों ने इसे व्यक्त करने के लिए वाणी दी। उन्होंने जनता के समक्ष उन्हीं की तकलीफों को जोरदार शब्दों में रखा और उनके हृदय में क्रांतिकारी विचारों का बीज बोया। अपने लिखो से उन्होंने अंधविश्वास को दूर कर दिया और जनता की आंखें खोल दी। उन्होंने समाज और राजनीति की बुराइयों पर आघात किया और सुधार लाने की प्रेरणा प्रदान की। उन्होंने प्राचीन मान्यताओं की नींव को हिला दिया। जिसके फलस्वरूप लोगों का दृष्टिकोण बदलने लगा।

उनके पुराने विश्वास तितर-बितर हो गए और वह एक नई जिंदगी पाने के लिए उत्सुक हो उठे। दार्शनिकों ने एक ऐसी आशा प्रज्वलित की जो कभी शांत नहीं हो सकती थी। उन्होंने अपनी रचनाओं से फ्रांस में ऐसी शक्ति का संचार किया कि वह उस मृत्यु-जाल को तोड़कर उठ बैठा जो धीरे-धीरे उसे जकड़ रहा था। किसी भी हालत में इस जाल को टूटना था, परंतु दार्शनिकों ने इस कार्य को थोड़ा सुगम बना दिया। फ्रांस में विस्फोट के लिए बारूद पहले ही सूखी हुई थी। अब केवल एक चिंगारी की आवश्यकता थी। दार्शनिकों के विचारों ने इसी चिंगारी का काम किया।












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