मौर्य राज्य की प्रकृतिमौर्य साम्राज्य की अवधि 325 से 185 ई•पू• तक मानी जाती है। यह विशाल साम्राज्य उत्तर-पश्चिम में अफगानिस्तान, पश्चिम में कठियावाड़ा से पूर्व में उड़ीसा और दक्षिण में कर्नाटक तक विस्तृत है। चंद्रगुप्त मौर्य इस साम्राज्य का संस्थापक था और उसके पौत्र अशोक ने इस साम्राज्य को विस्तार और मजबूती प्रदान की। मेगस्थनीज की इंडिका और कौटिल्य का अर्थशास्त्र ऐसे स्रोत है जो इस साम्राज्य पर प्रकाश डालते हैं। दिव्यदान और मुद्राराक्षस बाद के काल की साहित्यिक कृतियां हैं जो मौर्य साम्राज्य की घटनाओं पर प्रकाश डालते हैं। अशोक के शिलालेख भी इस काल के बारे में सूचना के बहुमूल्य स्रोत है।
मौर्य साम्राज्य के आरंभ के साथ भारतीय इतिहास में एक नए युग का सूत्रपात हुआ क्योंकि इसके साथ भारत में पहली बार राजनीतिक एकता और प्रशासनिक एकरूपता कायम हुई।
प्रांत:- राज्य को कई प्रशासनिक इकाइयों में बांटा गया था। सबसे बड़ी प्रशासनिक इकाई प्रांत थी। प्रांतों का प्रशासन वायसराय रूपी अधिकारी द्वारा होता था। यह अधिकारी राजवंश के होते थे। अशोक के अभिलेखों में उन्हें कुमार या आर्यपुत्र कहा गया है। केंद्रीय शासन की ही तरह प्रांतीय शासन में मंत्रीपरिषद होती थी। डॉ• रोमिला थापर के अनुसार प्रांतीय मंत्रीपरिषद, केंद्रीय मंत्रीपरिषद की तुलना में अधिक स्वतंत्र थी। अशोक के शिलालेखों से पता चलता है कि समय-समय पर केंद्र से सम्राट प्रांतों की राजधानियों में महामात्रों को निरीक्षण करने के लिए भेजता था। साम्राज्य के अंतर्गत कुछ-कुछ अर्थस्वशासित प्रदेश थे। यहां स्थानीय राजाओं को मान्यता दी जाती थी।
किंतु
अन्तपालो द्वारा उनकी गतिविधि पर नियंत्रण रहता था। अशोक के अन्य महामात्र इन अर्थस्वशासित शासित राज्यों में धर्म महामात्रों द्वारा धर्म प्रचार करवाते थे। इसका मुख्य उद्देश्य उनके उद्दंड क्रियाकलापों को नियंत्रित करना था।
रोमिला थापर का तर्क है कि साम्राज्य स्पष्ट रूप से तीन भागों में बंटा था। प्रथम महानगर, दूसरा केंद्रीय भाग और तीसरा सीमांत क्षेत्र। मगध महानगर था क्योंकि यह सत्ता का केंद्र था और यहीं से विजय अभियान और साम्राज्य विस्तार की पहल की जाती थी। केंद्रीय भू-भाग वह क्षेत्र थे जहां राज्य के मिश्रित समाज बसे थे। सीमांत क्षेत्रों में साम्राज्य की सीमा पर बसे भूभाग शामिल थे। माना जाता है कि मौर्य साम्राज्य अत्यंत केंद्रीकृत साम्राज्य था, अर्थात केंद्र से जारी प्रत्येक नीति और फैसले सीमांत क्षेत्रों सहित संपूर्ण साम्राज्य पर एक समान लागू होते थे।
राजा:- अर्थशास्त्र में राजा को सर्वोच्च स्थान पर रखा गया है। कौटिल्य के अनुसार राजा का कर्तव्य प्रजा की खुशहाली सुनिश्चित करना है न कि अपनी। प्रजा की भलाई से ही राजा की भलाई होगी। विशाल भूभाग होने के बावजूद भी मौर्य शासकों ने राजा जैसी साधारण उपाधि धारण की। राजा ने शासन करने का दैेवीय अधिकार प्राप्त होने का कोई दावा नहीं किया, बल्कि स्वयं को पिता के रूप में प्रजापालक माना। सभी महत्वपूर्ण अधिकारी सीधे राजा द्वारा नियुक्त किए जाते थे और वह शासक के प्रति जवाबदेह थे।
मंत्रीपरिषद:- मेगस्थनीज के अनुसार राजा की सहायता के लिए मंत्रियों की एक परिषद होती थी। अर्थशास्त्र में भी मंत्रीपरिषद का उल्लेख आया है जो राजा की सहायता करती थी। मंत्रीपरिषद राजा की नीतियों पर अंकुश लगाने का कार्य करती थी क्योंकि उसे नीति और प्रशासन से संबंधित महत्वपूर्ण विषयों में परिषद की सलाह लेनी पड़ती थी। मंत्रियों की नियुक्ति के लिए मानदंड निर्धारित किया गया है। इसके अनुसार मंत्री के पद के लिए चयनित व्यक्ति
सर्वोपद शुद्ध अर्थात सबसे पवित्र होना चाहिए। इससे तात्पर्य यह है कि उसे धन संपदा का लोलुप नहीं होना चाहिए और किसी भी प्रकार के दबाव में नहीं आना चाहिए। अशोक के शिलालेख 5 में उल्लेख किया गया है कि राजा की अनुपस्थिति में नीतियों, संशोधन संबंधी सुझावों और राजा द्वारा उन्हें सौंपे गए महत्वपूर्ण मामलों के बारे में राजा की अनुपस्थिति में विचार विमर्श किया जा सकता है। लेकिन निर्णय करने का अंतिम अधिकार राजा का ही होगा।
नगर प्रशासन:- मेगास्थनीज ने नगर शासन का विस्तृत वर्णन किया है। नगर का शासन प्रबंध 30 सदस्यों का एक मंडल करता था। मंडल समितियों में विभक्त था। प्रत्येक समिति के 5 सदस्य होते थे। प्रत्येक समिति को उनका कार्य सौंपा गया था। प्रथम समिति उद्योग और शिल्प का दायित्व संभाल की थी। दूसरी समिति विदेशियों से संबंधित कार्य संभालती थी। तीसरी समिति जन्म एवं मृत्यु के पंजीकरण का कार्य संभालती थी। चौथी समिति व्यापार और वाणिज्य, माप-तोल तथा बाजार नियंत्रण का कार्य देखती थी। पांचवी समिति निर्मित सामान का निरीक्षण करती थी। छठी समिति बेचे गए सामान पर कर वसूलती थी। अर्थशास्त्र में उल्लेख है कि नगर प्रशासन का प्रमुख नागरिक होता था जिसकी सहायता के लिए स्थानिक और गोप होते थे।
सेना :- राजस्व का एक बड़ा हिस्सा सेना पर खर्च किया जाता था। सेना का आकार विशाल था। मेगास्थनीज के अनुसार सेना को 6 समितियों में बांटा गया था और प्रत्येक समिति में 5 सदस्य और कुल मिलाकर 30 सदस्य थे। प्लिनी के अनुसार मौर्य सेना में 6,000 पैदल सैनिक, 30,000 घुड़सवार और 9,000 हाथी थे। भारत की परंपरा के अनुसार सेना के चार विभाग होते थे -हाथी, रथ, अश्वारोही और पैदल सेना। अर्थशास्त्र के अनुसार दस्तों में दस, कंपनी में सौ और बटालियन में एक हजार लोग होते थे। प्रधान सेनापति और सेनापति सीधे राजा के अधीन होते थे। इन अधिकारियों को नगद धनराशि दी जाती थी। सेनापति को 48,000 पण्य दिए जाते थे और नायक को 18,000 पण्य मिलते थे। मुखिया उनको 8,000 और अध्यक्ष को 4,000 पण्य दिए जाते थे। अस्त्र-शास्त्र निर्माण और अनुरक्षण पर नजर रखने के लिए एक अलग विभाग था। जिसका प्रमुख आयुधगाराध्यक्ष होता था। सेना से संबंधित अन्य अध्यक्ष थे- रथाध्यक्ष अर्थात रथ का अध्यक्ष और हस्ताध्यक्ष जो हस्ती सेना का दायित्व संभालता था।
गुप्तचर:- राजा गुप्तचर रखता था। इन गुप्तचरो का कार्य गुप्त सूचनाएं जुटाना, मंत्रियों और सरकारी अधिकारियों पर नजर रखना तथा जरूरत पड़ने पर सीधे राजा को रिपोर्ट देना, लोगों की राय के बारे में जानकारी एकत्र करना, विदेशी शासकों के रहस्य जानना और राज्य में मौजूद किसी संदिग्ध तत्व को छल बल से खत्म करना आदि था। अर्थशास्त्र में गुप्तचारों को दो श्रेणियों में बांटा गया है। पहले वह जो यहां वहां भ्रमण करते रहते थे, दूसरे वह जो एक जगह स्थाई रहते थे। गुप्तचर आम आदमियों से सूचनाएं एकत्र करने के लिए अपना रूप और पैशा बदलने में माहिर थे।
न्यायिक व्यवस्था:- प्रशासन सुचारू रूप से चलाने के लिए और कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए न्यायिक व्यवस्था का निर्माण किया गया। न्यायपालिका के शीर्ष पर स्वयं राजा होता था। अर्थशास्त्र में दो प्रकार के न्यायालयों का वर्णन किया गया है। प्रथम
धर्मस्थय, यह न्यायालय व्यक्तिगत मामलो तथा छोटे-मोटे विवादो को निपटाता था। दूसरा
कंटक-शोधन, यह व्यक्तिगत मामलों के साथ-साथ अपराधिक मामलों को निपटाता था। ग्रामीण स्तर पर
ग्रामिकाऐं थी, जो न्यायालय की तरह कार्य करती थी। अपराध के अनुसार दंड का प्रावधान किया गया था। इसमें जुर्माना, कारावास, कोड़े मारना और यातना या बिना यातना मृत्यु प्रदान करना आदि शामिल था।
स्थानीय प्रशासन:- मौर्य के प्रशासन को आगे जिला और तहसील के बराबर छोटे-छोटे क्षेत्रों में विभाजित किया गया था। जिसमें 100 गांव सिंहानिक और 5 से 10 गांव गोप के अधीन होते थे। प्रत्येक के अपने-अपने कर्मचारी होते थे, जिन्हें
युक्त और राजकू कहते थे। उनके जिम्मे अपने-अपने क्षेत्रों में राजस्व वसूली और सामान्य प्रशासन के कार्य थे। वास्तव में वे जनता और सरकार के बीच की कड़ी थे। प्रशासन की सबसे छोटी इकाई गांव थे, जिन्हें अर्ध-स्वायत सत्ता प्राप्त थी। वे प्रतिरक्षा, अनुशासन, कृषि, राजस्व भुगतान, भूमि और जल पर अधिकार इत्यादि के मामले स्वयं तय करते थे और इसके लिए
ग्रामीणीं नियुक्त करते थे। ग्रामीणी का चुनाव गांव के गुरुजनों के बीच में से होता था और वह गांव में छोटे-छोटे विवादों को निपटाने में सरकारी पदाधिकारियों की सहायता करते थे।
राजस्व प्रणाली:- कौटिल्य ने राज्य के खजाने के लिए राजस्व उगाही के अनेक स्रोतों की जानकारी दी है। राजकोष के प्रभारी को सन्निधता कहा जाता था। वह राजस्व के निम्नलिखित 7 स्रोतों से कर उगाही की सिफारिश करता था।:- शहरी केंद्र जहां से 21 प्रकार के कर वसूले जाते थे, ग्रामीण क्षेत्र,
खानें, सिंचाई परियोजनाएं, वन, चारागाह तथा व्यापारिक मार्ग। सभी कर अलग-अलग रूप में वसूल किए जाते थे। खाने राज्य के नियंत्रण में थी और राजस्व का नियमित स्रोत थी। इसके अलावा राज भूमि से प्राप्त राजस्व, किसानों से भू -राजस्व, नौघाटों (नावों के घाट) सड़क अथवा जलमार्ग से यात्रा करने वाले व्यापारियों पर कर, बागानो पर कर, आयात-निर्यात पर कर आदि राजकोष के स्रोत थे। इसके अलावा राज्य में आपात स्थिति के दौरान कर लगाए जा सकते थे। यह सभी कर राज्य के कुशल संचालन तथा सेना, प्रशासन, वेतन और राजा के व्यय के लिए आवश्यक थे।
मौर्य के राजतंत्र से एक सुगठित प्रशासन प्रणाली की झलक मिलती है। इस साम्राज्य के शीर्ष पर राजा था जो शक्ति का अधिकारी था। उसके पास सुसंगठित सैन्य व्यवस्था थी, अपराध नियंत्रण की सक्षम शासन प्रणाली थी, राजस्व के नए स्रोत थे और श्रेणीबद्ध रूप में विशाल नौकरशाही थी और ये सब संयुक्त रूप से राजकीय सत्ता को सुदृढ़ता प्रदान करते थे। किंतु कुछ इतिहासकारों ने प्रशासन के इस केंद्रीकृत स्वरूप पर प्रश्न चिन्ह लगाए हैं। रणधीर चक्रवर्ती के अनुसार यह स्वीकार करना मुश्किल है कि केवल राजनीतिक सत्ता के केंद्र द्वारा जारी आदेशों के अनुसार ही एक समान रूप से प्रशासन चल रहा होगा। जी. फ्यूसमैन का कहना है कि ना केवल विशाल मौर्य साम्राज्य विकेंद्रीकृत था बल्कि प्रांतों में भी प्रशासनिक असमानता थी। ऐसा प्रतीत होता है कि मौर्य प्रशासन ने विशाल साम्राज्य की क्षेत्रीय विभिन्नता को स्वीकार कर लिया था। क्योंकि अशोक के शिलालेख में उल्लेख किया गया है कि उसके अधिकारी आवश्यकतानुसार केंद्रीय आदेश के मूलपाठ में संशोधन कर आदेश जारी कर सकते हैं।
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