बुकर टी. वाशिंगटन और नागरिक अधिकार आंदोलन

चित्र
बुकर टी. वाशिंगटन और नागरिक अधिकार आंदोलन अफ्रीकी-अमेरिकी नागरिक अधिकार आंदोलन (1955-1968) का उद्देश्य अफ्रीकी अमेरिकी लोगों के खिलाफ नस्लिय भेदभाव को गैर कानूनी घोषित करना और दक्षिण अमेरिका में मतदान अधिकार को पुन: स्थापित करना था। गृहयुद्ध के बाद अश्वेतों को गुलामी से मुक्त कर दिया गया था लेकिन उसके बावजूद भी उनकी स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया। पुनर्निर्माण और द्वितीय विश्वयुद्ध के बीच अश्वेतों की स्थिति ओर खराब हो गई। इस दौरान बुकर टी. वाशिंगटन इनके लिए एक प्रभावशाली नेता बनकर उभरे। वाशिंगटन ने अफ्रीकी-अमेरिकियों के लिए व्यावसायिक शिक्षा और औद्योगिक शिक्षा को बढ़ावा दिया ताकि वह आर्थिक रूप से संपन्न और कुशल बन सके। पृषठभूमि दक्षिण अमेरिका में अश्वेतों ने संघर्ष कर अपने आपको दासता मुक्त कराया। अश्वेतों ने अपनी संस्थाएं बनाई जिससे अश्वेत राष्ट्रवाद का उदय हुआ। नेशनल नीग्रो कन्वेंशन जैसे कई नीग्रो संगठन बने। गृहयुद्ध के दौरान अफ्रीकी-अमेरिकी नेताओं के बीच कट्टरपंथी विचारों का विकास हुआ। बिशप एम. टर्नर, मार्टिन आर. डेलानी और अलेक्ज़ेंडर क्रूमेल ने अश्वेतों के लिए एक स्वायत्त राज्य की...

1848 की क्रांतियां

1848 की क्रांति
1848 का वर्ष यूरोप के इतिहास में "क्रांति का वर्ष" माना जाता है I उस वर्ष यूरोप में छोटी बड़ी 17 क्रांतियां हुई I सर्वप्रथम 14 मार्च को वियना में विद्रोह हुआ जिसके फलस्वरूप मेटरनिख को ऑस्ट्रिया छोड़कर भागना पड़ा I उसी सप्ताह इटली, जर्मनी, बोहेमिया, हंगरी, कोटिया में विद्रोह की आग भड़क उठी I 15 मार्च को पोप के राज्य में विद्रोह की लहर फ़ैल गयी और 18 मार्च को मिलान निवासियों ने विद्रोह का झण्डा खड़ा कर दिया I 22 मार्च को वेनिस ने अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर और दूसरे ही दिन सार्डिनिया के राजा चार्ल्स एल्बर्ट ने ऑस्ट्रिया के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी I इसके पहले ही जर्मनी में 15 मार्च को बर्लिन में विद्रोह हो चूका था और फेड्रिक विलियम को विवश होकर समस्त जर्मन के लिए वैधानिक शासन का सिद्धांत स्वीकार करना पड़ा था I बवेरिया के लोगो ने अपने राजा को सिंहासन त्यागने पर विवश किया और अपने लिए एक उदार शासन स्थापित किया I ऐसे ही विद्रोह डेनमार्क, हॉलैंड, आयरलैंड आदि देशों में हुए I यहां तक की इंग्लैंड भी इस क्रांति से अछूता नहीं रह सका I 

इतिहासकार हाब्सवाम के अनुसार 1789 और 1830 की क्रांतिकारी घटनाएं 1848 तक प्रभावशाली रहीं जिन्होंने क्रांति के युग को जन्म दिया I इतिहासकार ड्रॉज के अनुसार 1848 की क्रांतियां आर्थिक संकट और राजनितिक असंतोष के समिश्रण से हुई I

कुछ विद्वान इसको कृषि संकट मानते है इनका कहना है की इसकी उत्पति आलू की बीमारी से हुई जिसने आयरलैंड और नीदरलैंड में 1847 में आलू की सारी फसल को नष्ट कर दिया I जिन देशो में अर्थव्यवस्था कृषि और उद्योग पर आधारित थी वहां दंगा और अशांति फ़ैल गई I कपड़ा उद्योग में घाटा आया I इससे बेरोजगारी बढ़ी I बैंको और सरकारों द्वारा बड़ी मात्रा में विदेशी कॉर्न खरीदने के कारण देशो के खजाने खली हो गए I कर्ज देने वाली संस्थाओं का दिवाला निकल गया I रेलवे और उद्योगों में निवेश बढ़ रहा था तथा बैंको और निवेशकों की जमाराशि घट रही थी I भूमि में निवेश करने के स्थान पर भूस्वामियों ने बड़ी मात्रा में अपनी पूंजी को स्टॉक और शेयर में लगाया I कंपनियों ने बड़ी मात्रा में शेयर जारी कर दिए जिनका मूल्य तेजी से गिरने लगा I कृषि क्षेत्र में मंदी आई I 1847 में जर्नल दी इकोनॉमिस्ट में लिखा गया की कृषि संकट सामान्य संकट का कारण नहीं उसका परिणाम था I आर्थिक संकट के कारण सत्ता की प्रतिष्ठा कम हो गयी I 

यूरोप में 1848 के विद्रोह की शुरुआत स्विटज़रलैंड के ग्रहयुद्ध से हुई I यहां उग्रवादी प्रोटेस्टेंट ने कैथोलिको का मुकाबला किया I इसमें उग्रवादी प्रोटेस्टेंट वजयी हुए I मेटरनिख उदारवादी कैथोलिकों को सहायता देने में असफल रहा I इससे स्पष्ट हो गया की परम्परागत व्यवस्था क्रांति की लहरों को रोकने में असमर्थ है I 

फ्रांस – 1830 में फ्रांसीसियों ने एक ऐसे शासक वर्ग का स्वप्न देखा था जो उन्हें वयस्क मताधिकार देगा और एक ऐसा राजतंत्र जो सर्वोत्तम गणतंत्र की स्थापना करेगा I परन्तु लुइ फिलिप के रूप में उन्हें ऐसे शासक को झेलना पड़ा जिससे उनकी आशाएं प्रतिक्रिया में बदल गयी I

फ़्रांस के उदारवादी, उग्रसुधारवादी और समाजवादी लुइ फिलिप की नीतियों से असंतुष्ट थे। राजा और मुख्यमंत्री गुंजो की अलोकप्रियता आर्थिक कठिनाइयों के कारण बढ़ गयी। प्रेस में विरोध आरम्भ हो गया। फ़्रांस की जनता ने उदारवादी मांगो का समर्थन और वकालत आरम्भ की। पेरिस यूरोप उदारवाद का केंद्र बन गया। फ्रांसीसियों ने बाल्कन तक अपने उदार विचारों को फैलाया।  

जब लुइ फिलिप ने सुधारो को लागू करने से मना कर दिया तो पेरिस में मध्यवर्ग ने प्रतिबंधों की अवहेलना कर राजनितिक सभाओं और प्रदर्शनों का आयोजन शुरू किया। सरकार द्वारा सड़को पर बेरिकेट लगाए गए कंतु प्रदर्शन जारी रहा। सेना की गोलीबारी में पेरिस के 52 लोग मारे गए। क्रोधित पेरिसवासियों को शांत करने में लुइ फिलिप असमर्थ रहा और अपने पोते के लिए गद्दी छोड़कर इंग्लैंड भाग गया। परन्तु जनता ने उसे स्वीकार नहीं किया और 26 फरवरी को फ़्रांस को एक गणतंत्र घोषित कर दिया। यह क्रांति फ़्रांस की प्रजातंत्रीय व्यवस्था के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण घटना थी। अस्थाई सरकार ने राजतन्त्र का अंत किया और मतधिकार का विस्तार कर देश की सत्ता को जनता के हाथ में सौंपा। समाजवादी सिद्धांतो का प्रयोग आरम्भ हो गया। समाजवादी बुद्धिजीवियों ने मजदूरों की दशा सुधरने के प्रस्ताव रखे। सरकार ने मजदूर संगठन को मान्यता दी तथा दस घंटे प्रतिदिन का कार्यकाल निर्धारित किया। लुइ ब्लॉ के प्रस्ताव पर राष्ट्रीय वर्कशॉप की स्थापना की गयी। इससे आकर्षित होकर हजारों श्रमिक प्रांतो से आकर पेरिस में बसने लगे। राष्ट्रीय वर्कशॉप (कारखाने ) कुछ ही बेरोजगारों को रोजगार,भोजन और चिकित्सा की सहायता कर सके।  

जर्मनी - जर्मन राज्यों में भी उदारवाद के उदय ने मध्यवर्ग में असंतोष को बढ़ाया। 1830 के दंगो के बाद से 1848 तक मेटरनिख जर्मन राज्यों को उदारवादी और राष्ट्रवादी मांगो के विरुद्ध दॄढ रखने में सफल रहा। परन्तु विश्वविद्यालयों ने इन विचारो को जीवित रखा। पुरे जर्मनी में उदारवादियों ने संविधानो,संसदीय शासन तथा विचारों की स्वतंत्रता के लिए आवाज उठाई। पुलिस का आतंक समाप्त करने की मांग रखी गयी। छात्रों, लेखकों, वकीलों और शिक्षित व्यक्तियों ने जर्मन एकता और उदारवादी सुधारो की मांग को बुलंद किया।  

1840 के दशक की आर्थिक मंदी के पश्चात् भूख और बेरोजगारी बढ़ गयी। असंतोष का विस्फोट क्रांति के रूप में हुआ। जर्मन राज्य के उदार नेता वार्षिक सम्मलेन में एकत्रित होकर भविष्य की योजनाएं बनाने लगे। क्रांतिकारी वर्षो में एक प्रमुख विशेषता थी सभाओं का निर्माण। यह शांतिपूर्ण और व्यवस्थित होती थी। इनमे संवैधानिक प्रक्रिया का पालन होता था। इन सभाओं में राजनितिक विवाद को लोकतान्त्रिक मंच मिला और जनसाधारण को शिक्षण भी। प्रत्येक क्षेत्र में एक प्रजातान्त्रिक और उदारवादी क्लब की स्थापना हुई। सभाओं में मध्यवर्ग की प्रधानता थी क्योंकि उनके पास शिक्षा और व्यवसायिक अनुभव अधिक था। कारीगरों, कृषकों और श्रमिकों को लोकतान्त्रिक क्लबों में शामिल किया जाता था, परन्तु उनका प्रभाव नहीं था। कारीगरों और श्रमिकों ने अपने पृथक क्लब भी बनाए। यह राजनितिक कार्यों के स्थान पर आर्थिक नीतियों और सामाजिक समस्याओं पर अधिक ध्यान देते थे। 1848 में प्रेस के सेंसर की समाप्ति से अख़बारों का वितरण तेजी से बढ़ा।  

  

ग्रामीण क्षेत्रों में बढ़ते आतंक से भयभीत होकर जर्मन राजकुमारों ने उदारविदियों को सुविधाएं देना आरम्भ किया। मार्च और अप्रैल 1848 में बादेन, वुत्तनबुर्ग, बवेरिया, सेक्सनी आदि में शासको ने प्रतिक्रियावादी मंत्रियों के स्थान पर उदारवादी नियुक्त किये गए। संविधान की रचना और पार्लियामेंट की स्थापना की गयी। किसानो द्वारा सामंती स्वामियों को दी जाने वाली राशि को समाप्त किया गया। 

ऑस्ट्रिया –लुइ फिलिप के भागने की सुचना जब वियना पहुंची तो वहां की उदारवादी तत्काल सक्रीय हो उठे। वियना विश्वविद्यालयों के प्रोफेसरों ने सम्राट से निवेदन किया की वह सुधर की घोषणा करे। विद्यार्थियों और मजदूरों ने जुलुस निकाला और मेटरनिख के विरुद्ध नारे लगाए तथा उसके मकान को घेर लिया। मटेरनिख वहां से इंग्लैंड भाग गया। जनता ने शासन में सुधार करने के लिए शासक को विवश किया। अतः नविन संविधान तैयार किया गया, जिसमे नागरिकों को अनेक अधिकार दिए गए। परन्तु क्रन्तिकारी उससे संतुष्ट नहीं थे वह जनतंत्र की स्थापना चाहते थे। उन्होंने शासक के विरुद्ध पुनः आंदोलन किया। ऑस्ट्रिया का शासक वियना से भाग कर इंसब्रुक चला गया। किन्तु उससे पहले राजा ने विद्रोहियों को गोली से उड़ाने की आज्ञा दे दी थी। सेना ने वियना पर आक्रमण किया। सेना और क्रांतिकारियों में युद्ध हुआ और वियना की क्रांति असफल हो गयी। क्रांतिकारियों को पूर्ण रूप से न सही परन्तु आंशिक रूप से सफलता मिली। मेटरनिख का पतन और वियना लौटने पर राजा द्वारा लोकप्रिय संविधान की घोषणा क्रांति की दो बड़ी सफलताएं थी।  

हंगरी - हंगरी में विभिन्न जातियां निवास करती थी। मगयार जाती का वहां पर बहुमत था किन्तु क्रोटियन, रुमानियन तथा सेर्वियन आदि जातियां भी वहीँ रहती थी। इन जातियों को सरकार से कोई लाभ नहीं पहुंचा। वहीँ दूसरी और मगयार के बहुमत में होने के कारण उन्हीं के अधकारों के प्रति राज्य आकृष्ट रहा। अन्य जातियों के हित में किसी ने विचार नहीं किया। महान नेता कासुथ इन जातियों के साथ किसी भी प्रकार का समझोता नहीं करना चाहता था। अतः अन्य सब जातियों ने मिलकर हंगरी की सरकार के विरुद्ध इलीबिया में विद्रोह कर दिया। इस विद्रोह को प्रारम्भ कराने में ऑस्ट्रिया की सरकार का भी बहुत बड़ा हाथ था, क्योंकि विद्रोह के बहाने वह पुनः हंगरी पर अधिकार जमाना चाहती थी। हंगरी की सरकार ने ऑस्ट्रिया के इस अनुचित कार्य का विरोध किया तथा ऑस्ट्रिया से पृथक होकर हंगरी को एक स्वतंत्र गणतंत्र राष्ट्र घोषित कर दिया। कासुथ उस गणतंत्र का प्रथम राष्ट्रपति नियुक्त किया गया। 

बोहेमिया - हंगरी की क्रांति का बोहेमिया पर भी प्रभाव पड़ा। चेक जाति के क्रांतिकारियों ने सुधारो की मांग प्रस्तुत करते हुए ऑस्ट्रिया के पास एक आवेदन पत्र भेजा। शासक क्रांतियों से घबराया हुआ था इसलिए उसने आवेदन पत्र स्वीकार कर लिया। बोहेमिया में बसे हुए जर्मनों ने इसका विरोध किया क्योंकि उन्हें भय था की बोहीमिया के स्वतंत्र होते ही चेक उन्हें कुचल देंगे। अतः इस समस्या पर विचार करने के लिए बोहीमिया में बसी हुई जातियों का सम्मलेन बुलाया गया। सम्मलेन में आये हुए कुछ युवकों ने ऑस्ट्रिया के सेनापति के विरुद्ध नारे लगाए। जिससे जनता भड़क उठी और युद्ध आरम्भ हो गया। परन्तु विरोध को दबा दिया गया तथा विद्रोहियों को कठोर दंड दिया गया। 

इटली - इटली में 1815 से यह प्रयत्न चल रहा था की उसे किस तरह विदेशी सत्ता से मुक्ति मिले। इस दिशा में नेपुल्स, टस्कनी, टूयरीन, रोम, सार्डिनिया आदि स्थानों पर कई विद्रोह हो चुके थे। मेटरनिख के पतन की सुचना पाते ही इटली में सर्वत्र जोश फ़ैल गया। मिलान की जनता ने पांच दिनों के प्रयास से ऑस्ट्रिया की सेना को अपने यहां से निकालने में सफलता प्राप्त की। वेनिस से भी ऑस्ट्रिया की सेना निकल गयी। इन राज्यों ने सामूहिक रूप से ऑस्ट्रिया की सत्ता को इटली से समाप्त करने में सैनिक सहायता दी और चार्ल्स एल्बर्ट ने 23 मार्च को ऑस्ट्रिया के विरुद्ध युद्ध छेड़ने की घोषणा कर दी। इसके विपरीत ऑस्ट्रिया ने भी दमनकारी निति का पालन किया जिससे भयभीत होकर पोप, टस्कनी और नेपुल्स के राजाओं ने अपनी फौजो को वापस बुला लिया जिसके फलस्वरूप चार्ल्स एल्बर्ट को युद्ध स्थगित करना पड़ा। सार्डिनिया को छोड़कर सर्वत्र इटली में उदारवाद की पराजय हुई। 

प्रशा - वियना की विद्रोह तथा मेटरनिख के पतन का समाचार सुनकर बर्लिन की जनता का उत्साह बढ़ा। बर्लिन की जनता ने विशाल जुलुस निकला जिसने राजमहल को घेर लिया। प्रशा के सम्राट फेड्रिक विलियम ने पुलिस को गोली चलाने की आज्ञा दे दी जिससे दो सौ व्यक्ति मरे गए। इस घटना से बर्लिन के लोग भड़क उठे तथा स्थान स्थान पर मोर्चाबंदी कर सेना से युद्ध प्रारंभ कर दिया। डर कर राजा ने जनता की सभी मांगो को स्वीकार कर लिया। फलस्वरूप 28 मई 1848 को संविधान बनाने की लिए परिषद् बुलाई गयी। इसके द्वारा निर्मित संविधान का जागीरदारों एवं सामंतो ने घोर विरोध किया इस कारण यह विधान कार्यान्वित न किया जा सका। किन्तु 1850 में सम्राट ने स्वयं अपने राज्य के लिए एक संविधान की घोषणा की।

हॉलैंड - हॉलैंड में विलियम द्वितीय का निरंकुश शासन था। फ़्रांस की क्रांति की सफलता से उत्साहित होकर वहां के उदारवादी नेताओं ने तुरंत ही सुधारों एवं वैध राजसत्ता के लिए आंदोलन शुरू कर दिया। राजा विलियम ने आंदोलनकारियों का दमन करना चाहा किन्तु वह असफल रहा। फलतः आंदोलन और भी उग्र हो गया जिससे राजा विलियम को वैध राजसत्ता की स्थापना करनी पड़ी। इससे विद्रोह शांत हो गया। एक नवीन मंत्रिमंडल बनाया गया, जो अपने कार्यों के लिए व्यवस्थापित सभा के प्रति उत्तरदायी था। प्रेस, भाषण, लेख और समाचार पत्रों पर से प्रतिबन्ध हटा दिया गया। जनता को शासन सम्बन्धी अधिकार प्राप्त हो गए। इस प्रकार 1848 की क्रांति का प्रभाव हॉलैंड पर हितकारी सिद्ध हुआ।  

यधपि इन क्रांतियों को सफलता नहीं मिली, लेकिन वे बहुत की महत्वपूर्ण सिद्ध हई। 1848 को चमत्कारों का वर्ष कहा गया है। यह चमत्कारों का वर्ष था क्योंकि यूरोप के विभिन्न सत्रह राज्यों में एक ही साथ और व्यापक रूप से क्रांतियां शुरू हो गयी थी। प्रशा और सार्डिनिया को छोड़कर इस क्रांति से किसी को स्थाई लाभ नहीं हुआ, परन्तु वे सारी आशाएं जो 1848 में चकना -चूर हो गयी थी, आगे चलकर पूर्ण हुई।

Thankyou
Rahul Kumar
9891072303, 9818786329
rk29089@gmail.com










टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

18वीं शताब्दी “अंधकार युग”

यूनानी इतिहासलेखन परंपरा

रोमन इतिहासलेखन परंपरा