बुकर टी. वाशिंगटन और नागरिक अधिकार आंदोलन

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बुकर टी. वाशिंगटन और नागरिक अधिकार आंदोलन अफ्रीकी-अमेरिकी नागरिक अधिकार आंदोलन (1955-1968) का उद्देश्य अफ्रीकी अमेरिकी लोगों के खिलाफ नस्लिय भेदभाव को गैर कानूनी घोषित करना और दक्षिण अमेरिका में मतदान अधिकार को पुन: स्थापित करना था। गृहयुद्ध के बाद अश्वेतों को गुलामी से मुक्त कर दिया गया था लेकिन उसके बावजूद भी उनकी स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया। पुनर्निर्माण और द्वितीय विश्वयुद्ध के बीच अश्वेतों की स्थिति ओर खराब हो गई। इस दौरान बुकर टी. वाशिंगटन इनके लिए एक प्रभावशाली नेता बनकर उभरे। वाशिंगटन ने अफ्रीकी-अमेरिकियों के लिए व्यावसायिक शिक्षा और औद्योगिक शिक्षा को बढ़ावा दिया ताकि वह आर्थिक रूप से संपन्न और कुशल बन सके। पृषठभूमि दक्षिण अमेरिका में अश्वेतों ने संघर्ष कर अपने आपको दासता मुक्त कराया। अश्वेतों ने अपनी संस्थाएं बनाई जिससे अश्वेत राष्ट्रवाद का उदय हुआ। नेशनल नीग्रो कन्वेंशन जैसे कई नीग्रो संगठन बने। गृहयुद्ध के दौरान अफ्रीकी-अमेरिकी नेताओं के बीच कट्टरपंथी विचारों का विकास हुआ। बिशप एम. टर्नर, मार्टिन आर. डेलानी और अलेक्ज़ेंडर क्रूमेल ने अश्वेतों के लिए एक स्वायत्त राज्य की...

इंशा साहित्य

इंशा साहित्य 

इंशा एक अरबी शब्द है जिसका अर्थ रचना अथवा निर्माण है। समय बीतने के साथ इंशा का तात्पर्य गद्य लेखन, पत्र, दस्तावेज़ एवं राजकीय कागजात की रचना से लगाया जाने लगा। इंशा गद्य लेखन का एक विशेष तरीका होता था जो साधारण गद्य लेखन से भिन्न था। धीरे धीरे यह शैली अरबी एवं फ़ारसी का एक विशिष्ट रूप बन गई। इंशा साहित्य को इसकी खूबियों की वजह से पढ़ा जाने लगा, इसकी अच्छाइयों और खामियों को जाना जाने लगा। पत्र लेखन व अन्य दस्तावेज इसका हिस्सा बने और इसकी अपनी एक अलग पहचान बन गयी। पत्र व्यवहार संदेशों को न केवल एक जगह से दूसरी जगह ले जाने का काम करते थे बल्कि साहित्य दृष्टि से भी बेहतरीन थे। उस समय के इतिहास को जानने के लिए उन्हें महत्वपूर्ण स्त्रोत माना जाता है। इंशा साहित्य से हमें मध्यकाल में प्रशासन के संचालन, सामाजिक-सांस्कृतिक स्थितियों और विचारों के विषय में भी प्राथमिक जानकरी उपलब्ध कराते है। 

इंशा लेखन का इस्तेमाल अपनी आंतरिक भावनाओं को व्यक्त करने के लिए भी किया जाता था, किन्तु इसको लिखने की अपनी एक कला थी। इसे अर्थपूर्ण भाषा में लिखा जाता था। इसमें शब्दों का चयन भी विशिष्ट स्थान रखता था क्योंकि इन शब्दों के एक से अधिक अर्थ निकाले जा सकते थे। इसे व्यंगात्मक, पहेलियों, दावपेंच से युक्त शैली में लिखा जाता है। परम्परागत शैली में इंशा को "रसायल" के रूप में भी जाना जाता है, जिसका अर्थ पत्र होता है। रसायल साहित्य को दो भागो में विभाजित किया जा सकता है, पहला "तौकियात" और दूसरा "मुहावरात"। तौकियात शासको एवं अधिकारीयों के आदेश तथा निर्देश होते थे, जबकि मुहावरात के तहत पत्र एवं पत्राचार को शमिल किया जाता था। 

यदि पत्र पाने वाला कोई उच्च अधिकारी होता तो पत्राचार के लिए प्रयोग होने वाले पत्र को "मुराफ़ा" कहा जाता था और यदि पदाधिकरी निम्न स्तर का होता तो उसको भेजे जाने वाले पत्रों को "रक्का" कहा जाता था। यदि पत्र भेजने वाले और पाने वाले का पद स्तर सम्मान होता तो उनके मध्य होने वाले पत्राचार के पत्रों को "मुरासाला" के नाम से जाना जाता था। इसके अलावा पत्रों की अन्य श्रेणियाँ भी पत्र भेजने वाले व लिखने वाले के पद स्तर एवं सम्बन्ध पर निर्भर करती थी। उदाहरण के लिए यदि पत्र लेखक राज्य का शासक होता था, तो उसके द्वारा लिखित इंशा को फरमान, मानसुरा अथवा फतहनामा की श्रेणी में रखा जाता था। 

इंशा के रूप में साहित्य लेखन का विकास अरबी और फ़ारसी को माना जाता है। उपलब्ध स्रोतों के आधार पर इसकी ऐतिहासिकता को प्राचीन साम्राज्यों में खोजा जा सकता है। यह पता चलता है कि इस प्रकार के लिखित दस्तावेजों का प्रयोग अरब क्षेत्र में इस्लाम के आगमन से पूर्व होने लगा था परन्तु इन दस्तावेजों की संख्या सीमित है। अरब क्षेत्र में इस प्रकार के दस्तावेज निर्देशों, संधियों और पत्रों के रूप में अरबी भाषा में देखने को मिलते है। इस्लाम के उद्भव के साथ इस प्रकार के दस्तावेजों का प्रयोग काफी बढ़ गया। इस्लामिक राज्य के विस्तार के साथ पदाधिकारियों के साथ होने वाले पत्राचार, उनको दिए गए निर्देशों, आदेशों के रूप में इंशा साहित्य का प्रयोग बढ़ गया। 

भारत में दिल्ली सल्तनत की स्थापना मध्य एशिया, खुरासान एवं इराक में मंगोल शासन सत्ता के स्थापना के साथ हुई। गौरी की विजय के साथ ही भारत में पश्चिम से लोगो का स्थानांतरण बढ़ा, जो दिल्ली सल्तनत के दौरान और अधिक बढ़ता गया। यहां पर आने वाले विद्वानों, लेखकों एवं कवियों ने फ़ारसी भाषा के योगदान में विशेष योगदान दिया। 13वी शताब्दी तक फ़ारसी साहित्य परम्परा का पर्याप्त विकास हो चूका था, परन्तु इंशा साहित्य शैली प्रचलन में नहीं थी। दिल्ली सल्तनत के काल में जो भी इंशा साहित्य का संग्रह हुआ उसमें से मात्र तीन ही सुरक्षित रह पाए। जिसमें से दो उत्तर भारत में एवं एक दक्षिण भारत का है।

इनमें अमीर खुसरो की "एजाज-ए-खुशरवि", आइन उल मुल्क की "इंशा ए मेहरु" दिल्ली सल्तनत के उत्तर भारत में संग्रहित हुए। वहीँ दूसरी और बहमनी साम्राज्य के प्रसिद्ध वजीर ख्वाजा जहां महमूद ने "रियाज-उल-इंशा" के नाम से एक इंशा साहित्य की रचना की थी। इनमें से एजाज-ए-खुशरवि एवं रियाज-उल-इंशा की रचना फ़ारसी गद्य रचना के तौर पर हुई। परन्तु इंशा–ए–मेहरु सामान्य फ़ारसी शैली में लिखी गई। यदि तुलना के सन्दर्भ में देखे तो अमीर खुसरों की एजाज-ए-खुशरवि एक उच्च कोटि की इंशा लेखन है। इसका संकलन 1292 ई. के आस पास किया गया था। अमीर खुसरों स्वयं स्वीकार करते है कि उन्होंने अपनी कल्पना का उपयोग तथ्यात्मक पत्रों के लेखन में किया था। 

उनके कुछ पत्र समकालीन इतिहास पर पर्याप्त प्रकाश डालते है। उनके द्वारा उल्लेखित दो ऐसे महत्वपूर्ण पत्र है - अलाउद्दीन के पदारोहण पर जारी किया गया फरमान और लखनौती की विजय के बाद बलबन द्वारा जारी किया गया फरमान। खुसरो का संग्रह इसलिए भी उपयोगी है कि इन पत्रों के माध्यम से हमें उस अवधि की विभिन्न साहित्यिक और समाजिक शख्सियतों के बारे में जानकारी मिलती है। 

मुग़ल सत्ता की स्थापना के बाद भारत में फ़ारसी इंशा लेखन का एक नया दौर शुरू हुआ। मुगलों के अधीन फ़ारसी साहित्य एवं गद्य लेखन की शाखा के रूप में इंशा शैली अपनी नई ऊंचाइयों पर पहुंच गई। दिल्ली सल्तनत के समय से जो इंशा शैली चली आ रही थी उसमें न केवल विकास हुआ बल्कि अन्य इंशा शैलियों का प्रचलन भी आरम्भ हुआ। इस समय इंशा लेखन के कई विद्वान् खुरासान एवं मध्य एशिया से मुगलों की सेवा में आए थे। उनमें से एक जॉन काफी, खांदामीर, युसूफ बिन मुहम्मद युसुफी और कई अन्य शामिल थे। उन्होंने मुग़ल दरबार में इंशा शैली को बढ़ावा दिया। 

शेख जॉन के इंशा लेखन की नक़ल बाबर की "बाबरनामा" में देखी जा सकती है, जब बाबर खानवा के युद्ध में अपना एक फरमान जारी करता है एवं राणा सांगा पर अपनी विजय का दावा करते हुए फतहनामा जारी करता है। बाबर के यह फरमान और फतहनाम दोनों शेख जॉन की इंशा शैली में लिखे गए है। इसी प्रकार 1527-30 के दौरान उपलब्ध एक अन्य स्त्रोत "वाकयात ए बाबरी" में भी शेख जॉन की गद्य शैली को देखा जा सकता है।

खांदामीर की गध शैली को उसके "नामा-ए-नामी एवं "हबीब-ए-सियार" में देखा जा सकता है। साधारण शैली एवं पूर्ण स्प्ष्टता उसकी शैली की विशेषता थी। उसकी लेखन शैली जटिलता एवं बनावटीपन से मुक्त दिखाई देती है। युसुफ की रचना "वादा-उल-इंशा" भी लेखन का एक बेहतरीन उदाहरण है, उसकी रचना भी प्रलोभनो एवं चापलूसी से मुक्त है। वह अपनी रचना में अरबी शब्दों एवं फ़ारसी मुहावरों का अधिक प्रयोग करता है। साथ ही चिकित्सा, खगोलशास्त्र, दर्शनशास्त्र जैसे विषयों के शब्दों का भी लगातार प्रयोग करता है। 

मुग़लकालीन इंशा साहित्य में हुमायूं के कई महत्वपूर्ण पत्र भी उपलब्ध है, जिन्हे उसने फारस प्रवास के दौरान वहां के शासक शाह तहमाश को लिखे थे। हुमायूं के यह पत्र सीधी एवं साधारण भाषा में लिखे गए। इसके अतिरिक्त हुमायूं काल के कई अन्य इंशा लेखन उपलब्ध है जिनसे यह स्पष्ट होता है कि हुमायूं के दरबार में आसान शैली में इंशा लेखनों का प्रचलन था। सोलहवीं शताब्दी में इंशा का सबसे बेहतरीन उपयोग अबुल फज़ल के लेखन में देखा जा सकता है, जो मुग़ल बादशाह अकबर का प्रमुख अमीर था। अबुल फज़ल का संग्रह फ़ारसी इंशा का महत्वपूर्ण उदाहरण है। उसके लेखन में देखा गया है कि पूर्व प्रचलित विभिन्न इंशा शैलियों की तुलना में अबुल फज़ल ने अपेक्षाकृत अधिक रचनात्मक शैली का प्रयोग किया। अबुल फज़ल शब्दों की जटिलता पर और भाषाई बनावटपन पर जोर नहीं देता है बल्कि उसके लेखन के दो मुख्य उद्देश्य दिखाई देते है जैसे लेखन के मुख्य सन्देश को प्राप्त करने वाले तक पंहुचा देना और दूसरा सन्देश में एक दार्शनिक भावना को व्यक्त करना। 

यदि अबुल फज़ल के दस्तावेजों का सूक्ष्म परीक्षण करते है तो स्प्ष्ट होता है कि वह अपने दस्तावेजों को जटिल बनाने की अपेक्षा उनमें छिपे दार्शनिक संदेशों को व्यक्त करने पर विशेष बल देता था। उसका प्रत्येक दस्तावेज दर्शनशास्त्र के शब्दों का प्रयोग करते हुए एक दार्शनिक सन्देश को अभिव्यक्त करता प्रतीति होता है। इसके आलावा वह अपने अकबरनामा में ऐसे लेखकों की आलोचना करता है जो अपने लेखन में जटिल एवं बनावटी भाषा का प्रयोग करते है। अबुल फज़ल की "मुकातबात-ए-अल्लामी"और रुक्कात, अकबर और शाही खानदान के सदस्यों तथा मुग़ल उमरा को लिखे गए पत्रों का संकलन है। इन पत्रों को तीन भागों में बांटा जा सकता है। 1) बादशाह की ओर से अधिकारीयों तथा अन्य विदेशी जनों को भेजे गए पत्र, फरमान और अन्य सरकारी दस्तावेज शामिल है। 2) राज्य की ओर से अबुल फज़ल द्वारा अकबर को प्रस्तुत याचिकाएं और अबुल फज़ल के सहकर्मियों द्वारा उसे लिखे गए पत्र। 3) सामान्य तथा विभिन्न प्रकृति के पत्र। इनके पत्र अकबर के धार्मिक दृष्टिकोण की व्यापक समझ भी उपलब्ध कराते है। 

अकबर के काल में ऐसे बहुत से लेखक थे जिन्होंने इंशा लेखन की अपनी एक अलग शैली अपनाई थी। इनमें सबसे प्रमुख अबुल फज़ल के भाई शेख अबुल फ़ैज़ी थी। यह अकबर के दरबार का एक प्रतिष्ठित कवि था। इसके अतिरिक्त हाकिम अबुल फ़तेह, अबुल कासिम नामकिन का नाम भी उल्लेखनीय है। फ़ैज़ी ने इंशा साहित्य का बड़ा संग्रह अपनी विरासत के तौर पर छोड़ा, जिसे "लातिफ-ए-फ़ैज़ियात" के नाम से जाना जाता है। इसी प्रकार हकीम अब्दुल फतह के पत्रों का प्रकाशन "रकियात ए हाकिम" के नाम से हुआ है।

फैजी की लेखक के तौर पर महत्वता को अबुल फज़ल के कथन के आधार पर समझा जा सकता है जिसमें अबुल फज़ल लिखता है कि फैजी की मृत्यु के बाद यहां पर कोई एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं है जो इंशा लेखन में सलाह दे और उसके लेखन में सुधार करे। फैजी अकबर को जिलअल-अल्लाह (ईश्वर की छाया) कहता था। वह लुधियाना के फौजदार के अत्याचारों का उल्लेख भी करता है तथा सरहिंद,थानेसर तथा पानीपत के फ़ौजदारो की तारीफ करता है। वह दिल्ली के आसपास की डकैतियों में गुज्जरों के शामिल होने का उल्लेख भी करता है। इस प्रकार फैजी का इंशा संग्रह तत्कालीन राजव्यवस्था, समाज और संस्कृति को समझने के लिए जानकारी का एक मूल्यवान स्त्रोत है।  

इसी प्रकार अबुल कासिम की इंशा शैली भी उल्लेखनीय है। उसकी शैली को उसकी रचना "मुंशात-ए-नामकिन" के आधार पर समझा जा सकता है। इनकी रचना को अकबर के काल कि इंशा संग्रहों में एक बड़ा संग्रह माना जाता है। इसमें दस्तावेजों को बड़ी ही रोचक एवं क्रमबद्ध ढंग से व्यवस्थित किया गया है, जिससे अकबर कालीन राजनितिक, प्रशासनिक, संस्थागत व्यवस्था एवं संस्कृति की जानकारी प्राप्त होती है। इनकी रचना में अकबर के काल के 44 वर्षों का इंशा संग्रह है, जिसे 1603 में अकबर को समर्पित किया गया था। मुंशात आज की तारीख में उपलब्ध सबसे लम्बे इंशा संग्रहों में से एक है। इसका अंतिम भाग वाला हिस्सा सर्वाधिक ऐतिहासिक महत्त्व का है। यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि इसमें अकबर के प्रारंभिक काल से सम्बंधित ऐसी कई सूचनाएँ तथा पत्र शामिल है जो अन्य किसी स्त्रोत में उपलब्ध नहीं है। 

मुंशात में निकाहनामा से सम्बंधित दस्तावेज विवाह की सामाजिक संस्था पर व्यापक प्रकाश डालते है। इन सबके अलावा प्रशासनिक व्यवस्था, सैन्य व्यवस्था एवं विभिन्न प्रांतो के अधिकारीयों के मध्य होने वाले पत्राचारों के दस्तावेजों को "दीवान-ए-रिसालत" के तौर पर संग्रहित किया गया। इसमें शाह तहमास के अकबर को पत्र, उसकी माता हमीदा बानो बेगम को लिखे गए पत्र, अब्दुला उज्जबेक के अकबर को पत्र, साथ ही उच्च अधिकारीयों के नियुक्ति पत्र भी शामिल है। 

इंशा में कुल 134 दस्तावेज है जिसमें मुख्य रूप से निष्ठा की शपथ, याचिकायें, व्यक्तिगत पत्र और उद्धघोषणायें शामिल है। यह इस अवधि की सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक और प्रशासनिक इतिहास पर रौशनी डालती है। इंशा धार्मिक अनुदानों के उद्देश्य पर भी दिलचस्प जानकारी प्रदान करते है। विद्वान इस ऐतिहासिक इंशा धरोहर के महत्त्व पर अभी भी शोध कार्य कर रहे है। बहुत से इंशा शोध का प्रकाशन भी हो चूका है और यह मध्यकालीन इतिहास एवं फ़ारसी साहित्य को समझने एवं जानने के प्रमुख साधन बने हुए है। 







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