अमरीका में दासता
अमेरिकी में दासता संयुक्त राज्य अमेरिका के इतिहास का एक काला अध्याय था, जिसमें लाखों अफ्रीकियों को जबरन अमेरिका लाया गया और सदियों तक गुलामी में रखा गया। गुलामी ने संयुक्त राज्य अमेरिका के आर्थिक और सामाजिक विकास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, विशेष रूप से दक्षिण में, जहां गुलामो से शारीरिक परिश्रम करवाया जाता था। गुलामी का उन्मूलन एक लंबी और कठिन प्रक्रिया थी जिसमें राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक कारकों के साथ-साथ उन्मूलनवादियों के प्रयास और गुलामी के खिलाफ लड़ने वालों के बलिदान शामिल थे, जिनमें खुद गुलाम भी शामिल थे। गुलामी की समाप्ति के बावजूद, इसकी विरासत ने अमेरिकी समाज को आकार देना जारी रखा, क्योंकि इसके बाद के वर्षों में अलगाव,भेदभाव और नस्लीय असमानता बनी रही। दासता के मुद्दे पर उत्तर के स्वतंत्र राज्य दक्षिण के गुलाम राज्यों से अलग हो गए थे, क्योंकि दक्षिण राज्य दासता के कारण मिलने वाले आर्थिक लाभों को छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे और यदि 1787 के संविधान में दासता को मान्यता नहीं दी जाती तो गुलाम रखने वाले राज्य संघ में शामिल होने से इंकार कर देते और यह राज्य दक्षिण में पड़ने वाले स्पेन शासित क्षेत्रों के प्रभाव में आ सकते थे। इसलिए दासता को कानूनी और संवैधानिक मान्यता देना अमेरिकी संघ के संरक्षण के लिए एक आवश्यक शर्त बन गया।
दासो की स्थिति -
दक्षिण के ज्यादातर नागरिक कृषि पर आधारित थे। वे अपने परिवार व नीग्रों दासों के साथ मिलकर अपने खेतो पर काम करते थे। दक्षिण भाग अपनी कुछ विशेषताओं की वजह से उत्तरी और पश्चिमी भाग से भिन्न था वह थी वहां प्रचलित दास-प्रथा और बगान व्यवस्था। यह लोग मैदानी इलाको में रहते थे इसलिए इतिहासकार फ्रेंक एल ओवस्ले ने इन्हे "मैदानी लोक समाज" का नाम दिया था। इन लोगो में से कुछ के पास खेतों में काम करने के लिए दास थे और कुछ के पास नहीं। ये लोग अपने उगाये गए अन्नाज से अपना जीवन निर्वाह करते थे। खेती मुख्यतः टेनिसी, उत्तरी कैरोलिना, ज्योर्जिया, अलाबामा और मिसिसिपी में की जाती थी। कृषि से अपनी जीविका चलाने वाले गौरे लोगो की जनसंख्या लगभग 76% थी। एक से लेकर बीस गुलामों की सहायता से खेती करवाने वाले बगान मालिकों की संख्या लगभग 23% थी। जबकि बड़े बड़े गुलाम मालिकों के संख्या मात्र 1% थी। दक्षिणी समाज और उसकी अर्थव्यवस्था से दास-प्रथा का गहरा सम्बन्ध था।
दक्षिण की अर्थव्यवस्था कपास उत्पादन पर आधारित थी और कपास उत्पादन का काम गुलामों की सहायता से करवाया जाता था। दास-प्रथा की शुरुआत पंद्रहवी शताब्दी में हुई जब एक पुर्तगाली व्यापारी ने अफ्रीका से दास-मजदूरों का आयात करना शुरू किया। 1661 में दास-व्यपार को क़ानूनी मान्यता मिल गयी। दास-गुलामों के लिए कई नियमों का निर्माण किया गया जो उनकी स्थिति को परिभषित करती थी।
गुलामों को संपत्ति समझा जाता था। गुलाम अपना कोई भी मामला अदालत में नहीं ले जा सकते थे। वे बागान मालिकों से अनुमती लिए बिना कहीं नहीं जा सकते थे, अपने पास कोई बारूदी हथियार नहीं रख सकते थे, सामान की खरीद-फरोख्त नहीं कर सकते थे, यहां तक की वह दूसरे गुलामों से भी नहीं मिल सकते थे जब तक की कोई श्वेत व्यक्ति उनके साथ न हो। गुलामों से सम्बंधित मुद्दों के लिए विशेष न्यायिक प्रक्रिया थी। यदि कोई गुलाम लूट-पाट करता हुआ पकड़ा जाता या श्वेत महिला के साथ बलात्कार करता या अन्य गुलामों को विद्रोह के लिए भड़काता तो उसे फांसी की सजा तक दी जा सकती थी। सहिंता के अनुसार उन्हें पढ़ने लिखने की अनुमति नहीं थी। वे अदालन में श्वेत व्यक्ति के विरुद्ध गवाही नहीं दे सकते थे। किन्तु दासता के कानून का कड़ाई से पालन नहीं किया जाता था। कभी कभी दास सम्पत्ती कमा लेते थे और उन्हें पढ़ने की सुविधा दी जाती थी। उनके अपराधों की सुनवाई उनके स्वामी ही करते थे। कुछ स्वामी अपने दासों को दाग भी देते थे ताकि उनकी पहचान की जा सके।
दक्षिण के पेशवर व्यापारी दासो की खरीद बिक्री करते थे। वे दासो को दक्षिण के एक भाग से दूसरे भाग में ले जाते थे। कभी कभी इन दासों को पैदल भी काफी दुरी तय करनी पड़ती थी। दासो की बिक्री नीलामी द्वारा होती थी। क्रेता दासो का भलीभांति निरिक्षण करते थे। उन्हें वह खड़ा होने और पैदल चलने को कहते थे। वे ठीक तरीके से उनके दांत, पैर, बाँह आदि का निरिक्षण करते थे।
क्रेता दास-विक्रेताओं की चाल जानते थे और उनकी धोकेबाजी से बचने के लिए हर प्रयास करते थे। होता यह था की कभी कभी दास-विक्रेता अपने दासो के सफ़ेद बालो को काला कर देता था, उनके सूखे चमड़े पर तेल लगा देता व अन्य तरीके से उनके शारीरिक दोष छुपा लेता था। अंतः दास क्रेता बड़े सावधान रहते और सूझ बुझ से सौदा करते थे। 1840 और 1850 में एक दुरुस्त युवक दास का मूल्य 500 से 1700 डॉलर तक होता था। एक कनीज व सुन्दर दास युवती का मूल्य कई हजार डॉलर होता था।
1787 में यह निर्णय लिया गया की 20 वर्ष बाद गुलामों का आयात नहीं किया जाएगा, जिसके अनुसार 1808 में गुलामो के व्यापार पर प्रतिबंध लगा दिया गया। इसके बावजूद चोरी-छिपे गुलामों का आयात होता रहा। दक्षिण राज्यों के हर गुलाम मालिक को अपने गुलामों को बेचने या खरीदने का अधिकार था, इतना ही नहीं उनको किराये पर भी उठाया जा सकता था तथा गिरवी रखा जा सकता था। उन्हें जहाजों पर लाद कर एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाया जाता था तथा उनकी नीलामी की जाती थी। उन्हें दिन रात अपने मालिकों की गुलामी करनी पड़ती थी। गुलाम पालना पूंजी निवेश की तरह था और गुलामों की कीमतें लगातार बढ़ती जा रही थी। इसलिए गुलामों के मालिक गुलामों की बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति करते थे। गुलाम दीर्घजीवी हो, उनका स्वास्थ्य ठीक रहे तथा प्रकृतिक तौर पर उनकी संख्या में वृद्धि के उपाय किये जाए - यह सब मालिकों के हित में था।
इतिहासकार Robert W. Fojel तथा Stenli H. angerman की पुस्तक टाईम आन द क्रास (1974 ) से पता चलता है कि एक वयस्क गुलाम को दैनिक खाद्य सामग्री के रूप में दो पाउंड मक्का और आधा पाउंड सूअर का मांस दिया जाता था। साथ में गोमांस, भेंड़-बकरी का गोश्त, सब्जियां और फल भी होते थे। गुलाम परिवारों के लिए अलग अलग मकान होते थे। गुलामों के स्वास्थ के देखभाल के लिए नर्से और दाइयाँ भी राखी जाती थी। कुछ बड़े बड़े बगानो के अपने हस्पताल भी होते थे जिनमें पुरुष और स्त्री के लिए अलग-अलग वार्ड थे। इन गुलामों में परिवार प्रथा का प्रचलन था और बगान मालिक उनके विवाह को प्रश्रय देते थे।
ज्यादातर गुलाम खेतों पर जत्थो में काम करते थे। बड़े बच्चे या तो पानी भरने का काम करते या खेती के हल्के-फुल्के कामों में लगाए जाते थे। जो गुलाम बूढ़े हो जाते थे जिनसे खेती का काम नहीं होता था उन्हें गुलामों के छोटे बच्चों की देखभाल के काम पर लगा दिया जाता था। मालिकों का प्रयत्न यह होता था की कोई गुलाम खाली न बैठे। कपास चुनने और फसल कटाई के दिनों में गुलामों को लम्बे समय तक काम करना पड़ता था। और दिनों में ये लोग मवेशियों की देखभाल करते थे, बाड़ो-जंगलों की मरम्मत करते थे या नई फसले बोते थे। कुछ गुलाम घरों में रसोई का काम देखते थे या कुछ शिशुओं की देखभाल करते थे। दासों के शादी-विवाह, जन्म-मृत्यु से सम्बंधित उनके अपने अलग प्रकार के रीती रिवाज थे। इस तरह श्वेतो की दुनिया के बीच गुलामों की दुनिया अलग से पहचानी जा सकती थी।
मालिक और गुलामों के हित परस्पर जुड़े होते थे। मालिक अपने सेवकों की अच्छी तरह से देखभाल करते थे और उन्हें संरक्षण प्रदान करते थे। इसलिए गुलामों को खुश रखने के लिए उन्हें चिकित्सा से सम्बन्धी सेवाएं प्रदान की जाती थी और अधिक उत्पादन करने पर उन्हें इनाम भी दिया जाता था इतना ही नहीं कभी कभी तो काम से छुटटी भी दी जाती थी। पर यदि काम में किसी प्रकार की ढील दिखाने, मालिक का कहा न मानने या बुरा आचरण दिखाने पर उन्हें सबके सामने कोड़े मारे जाते थे। अपराधियों को जंजीर से जकड़ा जाता था और घोर अपराध पर गोली मार दी जाती थी।
दक्षिण के बगान मालिक
दक्षिण की अर्थव्यवस्था को बड़े-बड़े बगानो से जोड़ कर देखा जाता रहा है इतना ही नहीं बगान शब्द का प्रयोग बड़ी-बड़ी जोतों के लिए किया जाता था, जिसमें एक प्रबंधक के नियंत्रण में कई कामगार गुलाम लगे होते थे। यू बी फिलिप्स के अनुसार बगान भूमि की वह इकाई है जिसपर कम से कम 20 मजदुर खेती का काम करते थे। बगानो के मानक का कोई निश्चित आंकड़ा नहीं है किन्तु अनुमान के अनुसार एक बगान कम से कम 400 एकड़ का होता था। इन बगानो में गुलामो से परिश्रम करवाया जाता था। गुलामों से मजदूरी का काम लेने पर बगान मालिकों को आर्थिक फायदा मिलता था। साथ ही उनपर नियंत्रण रखने के लिए बहुत कम संसाधनों की आवश्यकता होती थी।
गुलाम टोलियों में बंटे होते थे जैसे- खेतों पर काम करने वाले, घरों में काम करने वाले, हल जोतने वाले आदि। यह सभी टोलियां किसी निगरानीदार की देखरेख में काम करती थी। साल भर ये गुलाम कपास की बुआई करते थे। सर्दी के दिनों में जब उनपर काम नहीं होता था तो उन लोगो से नई जमीन साफ कराने, बाड़-मेड़ लगाने या औजारों की मरम्मत करने का काम करवाया जाता था। इस प्रकार बगान मालिक गुलामों को काम काज में लगाकर उनका पूरा लाभ उठाते थे।
दासो का बागवानी जीवन बगान मालिकों द्वारा संचालित किया जाता था। छोटे बगान मालिक खुद ही दासो के कार्यों का निरिक्षण करते थे। बड़े बगान मालिक इसके लिए ओवरसियर और उसकी सहायता के लिए एक सहायक नियुक्त करते थे। विश्वस्त और उत्तरदाई दास को प्रधान चालाक बनाया जाता था। जो ओवरसियर के अधीन कार्य करता था। दासो से काम लेने के दो तरीके थे। पहले तरीके के अंतर्गत दास को सुबह से एक ख़ास काम दे दिया जाता था जैसे एक एकड़ जमीन जोतना, इस काम को कर लेने के बाद उसे दिन भर की छुट्टी मिल जाती थी। दूसरी पद्धति के अनुसार एक साथ अनेक दास कार्य पर लगाए जाते थे। कपास, गन्ना और तम्बाकू में इसका इस्तेमाल होता था जिसमे दासो को कई समूहों में बाँट दिया जाता था जो एक चालक द्वारा निर्देशित होते थे। दासो से पूरा काम लेने के लिए उनकी आवश्यकताओं का भी ध्यान रखा जाता था। उनके खाने की व्यवस्था की जाती थी। उन्हें अपने उपयोग के लिए बाग़-बगीचे लगाने की अनुमति दे दी जाती थी। सस्ती दर पर कपडे और जूते दिए जाते थे। बीमार होने पर उनकी दवा का प्रबंध किया जाता था।
बागानों में काम करने वाले दास घरेलु कार्य भी करते थे। वे लोग अपने स्वामी और उसके परिवार के निकट रहते थे। स्वामी और उसके परिवार के सदस्य जो जूठन छोड़ते थे, उसे वे खाकर रह जाते थे।
दासता का उन्मूलन
अफ्रीका से गुलामों के आयत पर 1808 में ही क़ानूनी प्रतिबंध लग चूका था, फिर भी अमेरिका में गुलामों की संख्या निरंतर बढ़ती गई। 1830 में उनकी संख्या 20 लाख से ज्यादा हो चुकी थी। इतना ही नहीं अमेरिकन कोलोनाइजेशन नामक संस्था उन गुलामों को वापस अफ्रीका भेजने का प्रयास कर रही थी। किन्तु यह समाधान आंशिक हल ही प्रस्तुत कर सका। 1830 के बाद दासता उन्मूलन से सम्बंधित सुधार आंदोलन ने संगठित आंदोलन का रूप धारण कर लिया। थियोडर ड्वाइट वेल्ड, विलियम लॉयड गैरिसन, चार्ल्स ग्रेंडीसन फन्ने जैसे सुधारवादियों ने संगठित होकर दासता उन्मूलन का बीड़ा उठाया। गैरिसन ने 1831 में The Liberator नाम का समाचारपत्र निकालना शुरू किया। जिसमें दस्ता उन्मूलन की मांग का जोरदार समर्थन किया गया। 1833 में अमेरिकी दासता विरोधी समिति संगठित हुई जो काले और गोरे सभी लोगो के लिए क़ानूनी रूप से समानता के लिए प्रतिबद्ध थी। दास प्रथा का विरोध करने वाले व्यक्तियों में डेविड वाकर भी एक प्रसिद्ध व्यक्ति थे। 1829 में उसने एक पुस्तक प्रकाशित की, जिसमें उसने बताया की "अमेरका हम लोगो का भी देश है, यह केवल श्वेत लोगो का देश नहीं है। हम लोगो ने भी इसे खून पसीने से संपन्न बनाया है। श्वेतों को दासो की आवश्यकता है और एक दिन ऐसा आएगा जब उन्हें दास ढूंढ़ने पर भी नहीं मिलेंगे”।
दास प्रथा का एक कट्टु आलोचक फ्रेड्रिक डगलस भी था। वह दास प्रथा के विरुद्ध मंच पर बोलने लगा। वह न केवल दासो की उन्मुक्ति चाहता था बल्कि उनके लिए सामाजिक और आर्थिक समानता भी चाहता था। उसने दो वर्षो तक इंग्लैंड में भी दास प्रथा का प्रचार किया। इतना ही नहीं अमेरिका लौटने पर दास प्रथा के विरोध में नार्थ स्टार नामक समाचार पत्र का प्रकाशन करने लगा।
दासता के विरोध में Lioyd Garrision ने अपनी सप्ताहिक पत्रिका The Liberator का प्रकाशन शुरू किया। वह दासो की मुक्ति शीघ्र-अतिशीघ्र चाहता था। उसने अमेरिकी औपनिवेशिक समाज की निंदा की। उसका मानना था की इस समाज में दासो की मुक्ति संभव नहीं है बल्कि इससे दास प्रथा को ओर प्रोत्साहन मिलता है। इसे नीग्रो दासो का समर्थन भी प्राप्त था। इनके नेतृत्व में दास-प्रथा विरोधी समाज की स्थापना की गई। उसने सरकार का विरोध किया और संविधान की निंदा की। उसने चर्च की निंदा करते हुए उसे दासता का पोषक बताया। दासता की विरुद्ध सर्वाधिक महत्वपूर्ण कृति Harriet Beecher Stowe की Uncle Tom's Cabin थी। प्रथम वर्ष में ही इसकी 3 लाख प्रतियां बिक गई। यह उपन्यास शीघ्र ही लोकप्रिय हो गया। इस उपन्यास का अनेक कंपनियों ने रंगमंच पर अभिनय किया और इसकी कहानी को लोकप्रिय बनाया।
दास प्रथा से सम्बंधित समितियों के अनेक सक्रिय सदस्य उन्मूलनवादी थी। यह लोग दास स्वामियों का ह्रदय परिवर्तन चाहते थे। वे उन्हें विश्वास दिलाने चाहते थे की दास प्रथा पापपूर्ण है। किन्तु बाद में वह राजनितिक कार्यवाही पर उतर आये। उन्होंने उत्तरी राज्यों और संघ राज्यों से आर्थिक सहायता की मांग भी की। Garrision ने दासो को विश्वास दिलाया की उसका उद्देश्य उनके लिए सम्मान अधिकार प्राप्त करना है। इसके लिए उन्होंने नीग्रो के लिए स्कूलों की स्थापना की। 1837 में श्वेत महिलाएं दास बच्चो को शिक्षा देने लगी थी। सुधारवादियों ने सभी सार्वजानिक स्कूलों में रंगभेद की निति को त्यागने के लिए कहा जहां श्वेत और दासो के बच्चे समान रूप से शिक्षा प्राप्त कर सके। अदालतों में पृथकवादी निति का विरोध किया जाने लगा की नीग्रों बच्चो के लिए पृथक स्कूल न खोले जाए। इतना ही नहीं सुधारवादी उन कानूनों को रद्द कराने में सफल रहे जिसके अंतर्गत रेलगाड़ियों में नीग्रों को बैठने के अलग डिब्बे होते थे।
इतिहासलेखन तथा इतिहासकार
दासता के अध्ययन की शुरुआत यू. बी. फिलिप्स की रचना अमेरिकन नीग्रो स्लेवरी (1918) और लाइफ एंड लेबर इन द ओल्ड साउथ (1929) से हुई। फिलिप्स का मानना है की नीग्रों की कुछ प्रजातीय विशेषता है जो उन्हें श्वेत लोगो से अलग करती है और इन्ही विशेषताओं के कारण वह दासता की बेड़ियों में जकड़े गए। इनकी रचना दास प्रथा पर प्रमाणित कृति मानी गयी। उनका विचार था की नीग्रो आलसी, अनुत्तरदाई और आज्ञाकारी होते थे। इसके मूल में उनकी अफ्रीकी प्रजाति का खून है। अमेरिका में दास बन जाने के कारण उसके रंग की अपेक्षा उसके स्वभाव में परिवर्तन आया।
फिलिप्स को विश्वास था की अमेरिकी नीग्रो अपनी अफ्रीकी सभ्यता-संस्कृति को भूल चूका है। 1939 में समाजवादी E. Franklin Frazier ने लिखा की मानव-इतिहास में कोई भी अपनी सामाजिक विरासत से इस तरह अलग नहीं किया गया। जबकि नीग्रो को अफ्रीका से अमेरिका लाकर उसे सामाजिक विरासत से अलग कर दिया गया।
किन्तु इनकी इस मान्यता को चुनौती दी गयी। विद्वान कीनीथ एम. स्टैम्प के गुलामों की जैविक हीनता की अवधारणा को नकारा और दासता की प्रकृति में निहित शोषण सम्बन्धी तत्वों को उजागर किया। फिलिप के अनुसार दास प्रथा दक्षिण पर भार बन कर जीवित रही। उनके अनुसार कपास की कीमतें निरंतर गिरती गई, जबकि गुलामो की कीमतें बढ़ती गयी। इसका परिणाम यह निकला की गुलाम-मालिक लाभ से वंचित रह गए। चार्ल्स डब्लू रेम्जडल ने भी कुछ इसी तरह का विचार व्यक्त किया कि दास प्रथा स्वयं अलाभकारी हो जाती क्योंकि दक्षिण में लगातार उपजाऊ धरती की मांग बढ़ रही थी जिससे कपास की अधिक मात्रा में पूर्ति संभव हो जाती और कपास की कीमतों में भारी गिरावट आती। दास-प्रथा के इन विचारों का खंडन 1950 के दशक में हुआ। विद्वान एल्फ्रेड कोनरड और जॉन मेयर ने अपनी रचना में यह तथ्य प्रस्तुत किया कि 1846-50 के दौरान यदि कोई व्यक्ति गुलाम खरीदने पर जितना धन लगाता तो उससे उसे उतना ही लाभ अर्जित होता जितना की वह उसे किसी अन्य प्रकार के निवेश में लगाकर प्राप्त कर सकता था। इन लेखकों के अनुसार गुलामों की कीमतें बाजार-शक्तियों से निर्धारित होती थी।
अन्य विद्वान जैसे रोबर्ट फोजेल और स्टेनली ऐंगरमन के अनुसार गुलामों की कीमतों में कमी-बेशी उनकी आर्थिक गुणवत्ता और उत्पादन क्षमता से निर्धारित होती थी और इन्ही दोनों पहलुओं के कारण गुलामों की मांग घटती-बढ़ती रहती थी। गुलामों के मालिकों को तो बस इस बात से मतलब था की वह उनसे कितना लाभ बटोर सकते है।
किन्तु इसका विरोध भी कई विद्वानों ने किया। मानवशास्त्री Melville J. Herskovits ने अपनी पुस्तक The Myth of the Negro Past में कहा कि दासत्व के बावजूद भी दासो में अफ़्रीकी सभ्यता संस्कृति जीवित रही। मार्क्सवादी इतिहासकार Herbert Aptheker ने अपनी पुस्तक में कहा की अमेरिकी दासत्व के इतिहास में लगभग 250 बार दासो के विद्रोह हो चुके है। इनका मानना है की असंतोष और विद्रोह अमेरिकी नीग्रो दासो की विशेषता रही है। विद्वान Stanley M. Elkins ने अपनी पुस्तक में कहा है की दास बनाने में मनोवैज्ञानिक झटके और उस पर दास स्वामी के अधिकार दास-जीवन को दुखमय बना देते है। इस प्रक्रिया में दास अपनी प्रजातिया या सांस्कृतिक पहचान खो देते है। उनके लिए व्यक्तिगत स्वतंत्रता बनाये रखना मुश्किल हो जाता है।
इतिहासकार John Blassingame ने Harskovits के मत का समर्थन किया, किन्तु Elkins के विचारों का विरोध किया। Blassingame ने अपनी रचना The Slave Community में कहा की दासत्व की सम्पूर्ण प्रक्रिया का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पहलु दासो का अपनी पैतृक संस्कृति को धारण करने की क्षमता है।
इसके अनुसार दास परिवार के कारण ही दास अपने पूर्वजों की संस्कृति धारण करते है तथा इसका कोई कानूनी आधार नहीं है। Robert W. Fogel ने अपनी पुस्तक में बताया की स्वयं बागान मालिकों ने अपने स्वार्थ के लिए दासो के बीच पारिवारिक सम्बन्ध को प्रोत्साहित किया। उन्होंने दासो को आलसी और असक्षम नहीं बताया, बल्कि उन्हें कर्मठ मजदुर कहा है जिसमें कुछ कुशल भी थे।
दासता की उत्पत्ति को केवल अमेरिकी समाज के माथे पर कलंक ही नहीं माना गया बल्कि अमेरिका में पूंजीवादी विकास की राह का रोड़ा भी समझा गया। दासता की समस्या को सुलझाने में उद्योग प्रधान उत्तरी राज्यों का महत्वपूर्व योगदान रहा। बागानों में गुलामी का अंत करके तथा गुलामों को मुक्ति देकर स्वतंत्र उत्तरी राज्यों ने अमेरिकी क्रांति के अधूरे कार्य को पूरा किया। विद्वान यूजीन जेनोविज का तर्क है कि दासता ने दक्षिणी राज्यों के आर्थिक विकास को मंद कर दिया क्योंकि गुलामों की कमाई ने स्थानीय बाजार के आकार को दक्षिण राज्यों के औद्योगिक उत्पादनो के लिए सीमित कर दिया।
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