भारतीय ताम्रपाषाणिक काल
नवपाषाण युग का अंत होते-होते धातुओं का इस्तेमाल शुरू हो गया। धातुओं में सबसे पहले तांबे का प्रयोग हुआ। कई संस्कृतियों का जन्म पत्थर और तांबे के उपकरणों का साथ-साथ प्रयोग करने के कारण हुआ। इन संस्कृतियों को ताम्रपाषाणिक कहते हैं, जिसका अर्थ है पत्थर और तांबे के उपयोग की अवस्था। यह लगभग 3300 ईसा पूर्व से 1300 ई•पू• तक फैला हुआ है। ताम्रपाषाण युग के लोग अधिकांशतः पत्थर और तांबे की वस्तुओं का प्रयोग करते थे। वे मुख्यतः ग्रामीण समुदाय बनाकर रहते थे और देश के ऐसे विशाल भागों में फैले थे जहाँ पहाड़ी जमीन और नदियाँ थीं। भारत में ताम्रपाषाण अवस्था की बस्तियाँ दक्षिण-पूर्वी राजस्थान, मध्य प्रदेश के पश्चिमी भाग, पश्चिमी महाराष्ट्र तथा दक्षिण-पूर्वी भारत में पाई गई हैं।
मालवा संस्कृति:– मध्य और पश्चिमी भारत की मालवा ताम्रपाषाण संस्कृति की विशेषता मालवा मृद्भांड है जो ताम्रपाषाण मृद्भांडों में उच्चतम माना गया है। मालवा संस्कृति की विशेषता इसकी उन्नत मिट्टी के बर्तनों की तकनीक थी, जिसमें बढ़िया काले चित्रित डिजाइनों के साथ लाल बर्तनों का उपयोग शामिल था। वे धातु विज्ञान में कुशल थे, विशेषकर तांबे की वस्तुओं के उत्पादन में। मालवा संस्कृति स्थलों पर गेहूं और जौ जैसे अनाज की खेती सहित कृषि के साक्ष्य पाए गए हैं। पुरातात्विक निष्कर्षों के आधार पर अन्य समकालीन संस्कृतियों जैसे हड़प्पा सभ्यता के साथ व्यापार संबंध का भी सुझाव दिया गया है।
मालवा संस्कृति भारत में ताम्रपाषाण काल के एक महत्वपूर्ण पहलू का प्रतिनिधित्व करती है, जो इस क्षेत्र के प्राचीन समाजों के तकनीकी और सांस्कृतिक विकास में मूल्यवान अंतर्दृष्टि प्रदान करती है।
गणेश्वर-जोधपुरा संस्कृति: – यह स्थान राजस्थान के उत्तर पूर्वी हिस्से में केन्द्रित है। इस संस्कृति से जुड़े 80 से अधिक स्थलों की खोज हो चुकी है। सर्वाधिक स्थल सिकर जिले में अवस्थित हैं लेकिन जयपुर और झुनझुनु जिलों में भी बहुत से स्थल स्थित हैं। इस संस्कृति का क्षेत्रीय केंद्रीकरण ताम्र अयस्क से जुड़े बालेश्वर और खेतड़ी जैसे स्थानों से जुड़ा हुआ है। जहां पर प्राचीन काल से ताम्बे का प्रयोग होता रहा है। गणेश्वर-जोधपुरा में ताम्बे को गलाने से जुड़े कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं मिले हैं, किन्तु गणेश्वर से सैंकड़ों की संख्या में मिली ताम्र वस्तुओं के आधार पर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि इस समय तक यह ताम्र वस्तुओं के निर्माण का एक महत्त्वपूर्ण केंद्र बन चुका था और जहां से ताम्बे की वस्तुओं को दूसरे क्षेत्र में रह रहे समुदायों को निर्यात भी किया जाता रहा था।
जोरवे संस्कृति:– सबसे विस्तृत उत्खनन पश्चिमी महाराष्ट्र में हुए हैं। वे पुरास्थल हैं- अहमदनगर जिले में जोरवे, नेवासा, पुणे जिले में चंदोली, सोनगाँव, इनामगाँव, प्रकाश और नासिक। ये सभी पुरास्थल जोरवे संस्कृति के हैं। जारवे संस्कृति ने मालवा संस्कृति से बहुत कुछ ग्रहण किया है। जोरवे संस्कृति कुछ भाग को छोड़ सारे महाराष्ट्र में फैली थी।
जोरवे संस्कृति ग्रामीण थी, फिर भी इसकी कई बस्तियाँ, जैसे दैमाबाद और इनामगाँव नगरीकरण के स्तर तक पहुँच गई थीं। महाराष्ट्र के सभी पुरास्थल अधिकतर काली-भूरी मिट्टी वाले ऐसे अर्धशुष्क क्षेत्रों में हैं जहाँ बेर और बबूल के पेड़ थे। महाराष्ट्र के जोरवे और चंदोली में ताम्र-कुठार पाए गए हैं और चंदोली में तांबे की छेनी भी मिली है। इसमें सौ से अधिक घर और कई कब्रें मिली हैं। यह बस्ती किलाबंद है और खाई से घिरी हुई है। इनामगाँव से ताम्रपाषाण युग के लोगों की कला और शिल्प के बारे में बहुत से तथ्य प्राप्त होते हैं। वे लोग कताई और बुनाई जानते थे, क्योंकि मालवा में चरखे, कपास, सन और सेमल की रूई से बने धागे भी मिले हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि वे लोग वस्त्र निर्माण से सुपरिचित थे। अनेक स्थलों पर प्राप्त इन वस्तुओं के शिल्पियों के अतिरिक्त हमें इनामगाँव में कुंभकार, धातुकार, हाथी दाँत के शिल्पी, चूना बनाने वाले और खिलौने की मिट्टी की मूरतें बनाने वाले कारीगर भी दिखाई देते हैं।
साधारणतः इस संस्कृति की तिथि ई•पू• 1400 और 1000 के बीच निर्धारित की जाती है परंतु इनामगांव जैसे स्थलों पर यह संभवत ई•पू• 700 तक विद्यमान रही। घर वर्गाकार, आयताकार या वृत्ताकार होते थे। दीवारे मिट्टी और गारा मिलाकार बनाई जाती थी और उनमें लकड़ी के डंडों की टेक दी जाती थी। छत को गारे से ढक दिया जाता था। मृदभांड के डिजाइन बहुधा ज्यामितीय है जिनमें तिरछी रेखाओं का प्रयोग किया गया है। छोटे उपकरणों का समृद्ध उद्योग विद्यमान था तांबे की वस्तुओं में चूड़ियां, मनके, फलक, छैनियां, सलाइयां, कुल्हाडियां छुरे और छोटे-छोटे बर्तन इत्यादि शामिल थे।
दायमाबाद में तांबे की चार वस्तुएं मिली है रथ चलाते हुए मनुष्य, सांड, गेंडे और हाथी की आकृतियां जिनमें प्रत्येक ठोस धातु की है और उसका वजन कई किलो है। इनके प्रमुख अनाज हैं - जौ, गेहूं, मसूर, मटर और कहीं कहीं चावल भी मिले है। बेर की झुलसी हुई गुठलियां भी पाई गई हैं। नेवासा में पटसन का साक्ष्य मिला है। पालतू बनाए गए पशुओं में गाय, बैल, बकरी, भेड, सुअर और घोड़ा शामिल थे। यहां से ढेर सारे मनके मिले हैं। मृण्मूर्तियों में मात्र देवी के अनेक रूप मिलते हैं। मातृ देवी की एक आकृति सांड की आकृति के साथ जुड़ी हुई मिली है। एक प्रमुख विशेषता यह है कि बहुत सारे शवाधान कलश में किए गए है और यह कलश घरों के फर्श के नीचे रखे मिले हैं।
आहार संस्कृति: – राजस्थान के उदयपुर, चित्तौड़गढ़, भीलवाड़ा, अजमेर, जयपुर और टोंक जिलों में तथा मध्यप्रदेश के मंदसोर में अनेक ताम्रपाषाणयुगीन स्थल मिले हैं। केवल दो स्थलों का उत्खनन किया गया है आहार और गिलुंद। इस ताम्रपाषाण संस्कृति को आहार संस्कृति कहा जाता है। निर्माण कार्य का अधिकांश साक्ष्य आहार से मिलता है। साधारण घर गारे और पत्थर के बने थे। नींवों में पत्थर का प्रयोग होता था। दीवारों को बांस के पद या पत्थर की पिंडिकाओं से सुदृढ़ बनाया जाता था और संभवतः ढलवां छत्ते बनाई जाती थीं। फर्श काली मिट्टी और पीली गाद मिलाकर बनाई जाती थी, और कभी-कभी उस पर नदी के पाट की बजरी बिछा दी जाती थी। परंतु आहार में एक मकान 33 फुट 10 इंच लंबा था और एक कच्ची दीवार से उसके दो हिस्से बना दिए गए थे।
गिलुंद में भंडार-गर्त्त मिले हैं। गिलुंद में पक्की ईंटों के प्रयोग का साक्ष्य भी मिला हूँ। मुख्य मृद्भांड काले और लाल रंगों में मिले हैं जिनमें तरह-तरह के रैखिक और बिंदीदार सफेद डिजाइन बने हैं। तांबे का प्रयोग व्यापक रूप से प्रचलित था। इस संस्कृति के लोग खानों से कच्चा तांबा एकत्र करके उसे घर पर पिघलाते और साफ करते थे। तांबे की वस्तुओं में अंगूठियां चुडीयां, सुरमे की सलाइयां, चाकू के फल और कुल्हाडियां मिली हैं। तांबे को घर पर पिघलाने की पुष्टि तांबे के पत्तर और धातु-मल से होती है। पशुओं की मृण्मूर्तियों, मनके, मुहरे इत्यादि भी मिले है। हल्के रत्नों के मनके भी मिले हैं। आहार में चावल की खेती की जाती थी। संभवतः बाजरा भी मौजूद था। पशु-अस्थियां में मछली, मुर्गे, गाय, भैंस, बकरी, भेड़, हिरण और सुअर की अस्थियां शामिल है। जिनसे अर्थव्यवस्था में पालतु पशुओं के महत्व का संकेत मिलता है। यह तर्क दिया गया है कि इस संस्कृति के सबसे आरंभिक चरण के लिए लोग किसान कम, चरवाहे अधिक थे। वे अपने मवेशियों को संभवतः प्रत्येक वर्ष की किसी कालावधि में अपने घरों के बाहर बांध देते थे। जिस इलाके में मवेशी रखे जाते थे, उसमें लकड़ी के डंडों की बाड़ लगा दी जाती थी। बाड़ के भीतर जो गोबर इकटठा होता था उसे प्रतिवर्ष बाड़ के डंडी के साथ ही जला दिया जाता था।
इस संस्कृति के लोग पत्थर के छोटे-छोटे औज़ारों और हथियारों का इस्तेमाल करते थे, जिनमें पत्थर के फलकों का महत्त्वपूर्ण स्थान था। दक्षिण भारत में प्रस्तर-फलक उद्योग बढ़ा और पत्थर की कुल्हाड़ी भी चलती रही। कई बस्तियों में तांबे की वस्तुएँ बहुतायत से मिली हैं। अहार में सूक्ष्मपाषाण औजारों का इस्तेमाल नहीं होता था। यहाँ पत्थर की कुल्हाड़ियों और फलकों का अभाव था।
आहार के लोग शुरू से ही धातुकर्म जानते थे। आहार का प्राचीन नाम तांबवती अर्थात् तांबावाली जगह है। आहार संस्कृति का काल 2100 और 1599 ई• पू• के बीच माना जाता है और गिलुंद उस संस्कृति का स्थानीय केंद्र माना जाता है। गिलुंद में तांबे के टुकड़े ही मिलते हैं। यहाँ एक प्रस्तर-फलक उद्योग भी पाया गया है। बहुमुखी चूल्हों का प्रयोग यहां देखा जा सकता है। पैर से चलाए जाने वाली चक्की सहित कई अर्ध-कीमती पत्थरों के मनके और सूत कातने के लिए चरखे भी पाए गए हैं। बालाथल, उदयपुर जिले में ही आहार संस्कृति का दूसरा महत्त्वपूर्ण केंद्र है। यहां भीत के बने छोटे-छोटे घरों का अस्तित्व दिखता है, जिनके फर्श को मिट्टी से लीपा गया था। यहां एक विशाल मिट्टी की दीवार द्वारा की गई घेरेबन्दी का प्रमाण मिला है, जो बिल्कुल मध्य में अवस्थित था। इस सुरक्षा दीवार को जगह-जगह पर पत्थरों के द्वारा मजबूती दी गई थी, जो बुर्ज बनाए जाने का स्पष्ट प्रमाण है। 4.80 मीटर से 5 मीटर के बीच मोटाई वाली इस दीवार से लगभग 500 वर्गमीटर के क्षेत्र को घेरा गया था। उत्तर-पश्चिम तथा दक्षिण-पूरब दिशा में जाने वाली एक सड़क का भी प्रमाण मिला है। यहां पर बहु-कक्षों वाले तीन विशाल भवनों को रेखांकित किया जा सकता है जिनमें रसोई घर और भण्डार कक्ष के अतिरिक्त दो कुम्हार की भट्ठी को भी चिन्हित किया गया है।
सवालदा संस्कृति (पश्चिमी दक्कन):– इसकी पहचान चाक पर बने चॉकलेट रंग के मृद्भाण्डों से की जाती है। ये मृद्भांड बनावट में मोटे हैं और इन पर गहरा लेप चढ़ा रहता है। मृद्भांड की आकृतियों में ऊंची गर्दन वाला मर्तबान, तश्तरी, पायदान सहित तश्तरी, कटोरी, नडिया, छल्ला, खूंटी, बड़ा मर्तबान, कुंडीदार ढक्कन, बीकर आदि देखे जा सकते हैं।
सवालदा मृद्भांड की एक विशिष्टता मोटे लेप के ऊपर बनाए गए चित्र हैं, जिसमें मृद्भांड पर हथियार, औज़ार एवं अन्य ज्यामितिय प्रतीकों का चित्रण देखा जा सकता है। काओचे सवालदा संस्कृति का दूसरा केंद्र है। यह इस सभ्यता के लोगों का एक अल्पकालिक निवास क्षेत्र माना जाता है। घरों का आकार अंडाकार या गोलाकार होता था, जिस पर ढलवीं छत बनी होती थी। हड्डियों से बने औज़ारों के अतिरिक्त हड्डी, शंख, कार्नेलियन और टेराकोटा के आकर्षक मनके पाए गए हैं। जंगली हिरण एवं पालतू मवेशी, भैंस, भेड़, बकरी और कुत्तों की हड्डियां चिह्नित की गई हैं। उगाए जाने वाले पौधों में बाजरे की कई प्रजातियों के अतिरिक्त चने और मूंग के अवशेष मिले हैं। यहां से प्राप्त मृद्भाण्डों पर ज्यामितिय तथा प्राकृतिक प्रतीकों के डिजाइन बनाए गए हैं।
ताम्रपाषाण अवस्था में अनाज, भवन, मृद्भांड आदि में क्षेत्रीय अंतर भी दिखाई देते हैं। पूर्वी भारत चावल उपजाता था, तो पश्चिमी भारत जौ और गेहूँ। महाराष्ट्र में मृतक को कलश में रखकर अपने घर में फर्श के अंदर उत्तर-दक्षिण स्थिति में लोग गाड़ते थे। हड़प्पाई लोगों की तरह अलग-अलग कब्रिस्तान नहीं होते थे। कब्र में मिट्टी की हड़ियाँ और तांबे की कुछ वस्तुएँ भी रखी जाती थीं, जो जाहिर है कि परलोक में मृतक के इस्तेमाल के लिए होती थीं। मिट्टी की स्त्री-मूर्तियों से प्रतीत होता है कि ताम्रपाषाण युग के लोग मातृदेवी की पूजा करते थे। कई कच्ची मिट्टी की नग्न मूर्तिकाएँ भी पूजी जाती थीं। इनामगाँव में मातृदेवी की प्रतिमा मिली है। मालवा और राजस्थान में मिली मिट्टी की वृषभ मूर्तिकाएँ यह सूचित करती हैं कि वृषभ (साँड़) धार्मिक पंथ का प्रतीक था।
बस्ती के ढाँचों और शव संस्कार विधि दोनों से पता चलता है कि ताम्रपाषाण समाज में असमानता आरंभ हो चुकी थी। महाराष्ट्र में पाई गई कई जोरवे बस्तियों में एक तरह का ऊँच-नीच का क्रम दिखाई देता है। कुछ बस्तियाँ तो बीस हेक्टर तक की बड़ी-बड़ी हैं, जबकि कुछ केवल पाँच हेक्टर या उससे भी छोटी हैं। बस्तियों के विस्तार में अंतर का अर्थ है कि बड़ी-बड़ी बस्तियों का दबदबा छोटी-छोटी बस्तियों पर रहता था। लेकिन बड़ी और छोटी दोनों तरह की बस्तियों में सरदार और उनके नातेदार आयताकार मकानों में रहते थे और गोल झोंपड़ियों में रहने वाले पर प्रभुत्व रखते थे। इनामगाँव में शिल्पी या पंसारी लोग पश्चिमी छोर पर रहते थे, जबकि सरदार केंद्रस्थल में रहता था। इससे निवासियों के बीच सामाजिक दूरी जाहिर होती है। पश्चिमी महाराष्ट्र की चंदोली और नेवासा बस्तियों में पाया गया है कि कुछ बच्चों के गलों में तांबे के मनकों का हार पहना कर उन्हें दफनाया गया है, जबकि अन्य बच्चों की कब्रों में सामान के तौर पर कुछ बरतन मात्र हैं।
भारत के मध्य और पश्चिमी भागों में ताम्रपाषाण संस्कृतियाँ 1200 ई• पू• में. या 1000 ई• पू• आते-जाते लुप्त हो गई; केवल जोरवे संस्कृति 700 ई• पृ• तक जीवित रही। पश्चिमी भारत और पश्चिम मध्य प्रदेश में ताम्रपाषाण वस्तियों के लुप्त होने का कारण लगभग 1200 ई• पू• के बाद से वर्षा की कमी मानी जाती है। लेकिन लाल मिट्टी वाले क्षेत्रों में, खासकर पूर्वी भारत में ताम्रपाषाण अवस्था के तुरंत बाद, लौह अवस्था आ धमकी और उसने धीरे-धीरे लोगों को पूरा खेतिहर बना दिया। यही बात मध्य गंगा के मैदान में स्थित ताम्रपाषाण संस्कृतियों पर लागू होती है। इसी तरह दक्षिणी भारत के कई स्थलों पर ताम्रपाषाण संस्कृति ने लोहे का इस्तेमाल करने वाली महापाषाण संस्कृति का रूप ले लिया।
भारत में ताम्रपाषाण युग, जिसे ताम्र युग के रूप में भी जाना जाता है, एक ऐसा काल था जिसमें पत्थर और धातु दोनों उपकरणों का उपयोग होता था। इस समय के दौरान भारतीय उपमहाद्वीप के विभिन्न क्षेत्रों के समुदायों ने पत्थर के औजारों के साथ-साथ, आभूषणों और अन्य उपकरणों के लिए तांबे का उपयोग करना शुरू कर दिया। यह परिवर्तन प्राचीन भारतीय समाज के तकनीकी और सामाजिक-आर्थिक विकास में एक महत्वपूर्ण कदम था। भारत के विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग ताम्रपाषाण संस्कृतियाँ थीं, प्रत्येक की अपनी अनूठी विशेषताएँ और प्रथाएँ थीं। इन संस्कृतियों ने बहुमूल्य पुरातात्विक साक्ष्य छोड़े हैं जो उनकी जीवनशैली, व्यापार और सामाजिक संरचनाओं के बारे में जानकारी प्रदान करते हैं।
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