भारतीय महापाषाण काल
'महापाषाण' शब्द ग्रीक 'मेगास' अर्थात बड़ा और 'लिथोस' अर्थात पत्थर से जुड़कर बना है। महापाषाण के अंतर्गत बहुत प्रकार के स्मारक सम्मिलित हैं किन्तु इन सबमें एक समानता यह हैं कि सभी बड़े और अच्छे प्रकार से तराशे गए पत्थर के टुकड़ों से बने हैं। यूरोप, एशिया और अफ्रीका, दक्षिणी तथा मध्य अमेरिका के विभिन्न भागों में महापाषाणों की प्राप्ति होती रही है। भारतीय उपमहाद्वीप में ये विशेषकर दक्षिण भारत में दक्कन, विंध्य और अरावली के क्षेत्र में तथा उत्तर पश्चिमी क्षेत्र में पाए गए हैं। महापाषाणों की संस्कृति को बहुवचन में “महापाषाणीय संस्कृतियों” की संज्ञा दी जाती है न कि एकवचन में "महापाषाण संस्कृति"। महापाषाण संस्कृति एक प्रकार के दफनाने की शैली से जुड़ी हुई संस्कृति है जो विभिन्न स्थानों पर लंबे समय तक प्रचलन में रही। इस प्रकार के दफनाने की प्रथा की शुरुआत नवपाषाण-ताम्रपाषाण काल में ही शुरू हो गयी थी। उदाहरण के लिए, दक्षिण भारत के नवपाषाण ताम्रपाषाण स्थलों में गड्डों अथवा विशाल पात्रों में शवों को दफनाया जाता था। इस युग की पुरातत्त्व संबंधी वस्तुएं दो प्रकार के स्थलों से प्राप्त होती हैं। प्रथम आवास स्थल जहां लोग रहते थे और दूसरे कब्रगाह जो पुरातात्त्विक सामग्री के लिए अधिक महत्त्वपूर्ण स्थल हैं। ये आवास स्थल से दूर उन स्थानों पर होते थे जो कृषि योग्य भूमि नहीं थी। आवास-स्थलों की अपेक्षा कब्रगाहों से प्राप्त सामग्री अधिक सुरक्षित तथा प्रचुर मात्रा में है। यह स्वाभाविक भी है क्योंकि कब्रों में वस्तुओं को रखने का उद्देश्य भी यही था कि व्यक्ति को मरणोपरांत भी आवश्यक वस्तुएं प्राप्त हों सके।
कब्रगाहों में रखी सामग्री से यह स्पष्ट होता है कि मृत्यु के बाद भी आत्मा के विनष्ट न होने पर लोगों का विश्वास था। अपनी आकृति तथा बनावट की भिन्नता के आधार पर निम्नलिखित महापाषाणीय कब्रें 40 विभिन्न किस्मों में विभक्त हैं। पुरातात्त्विक सर्वेक्षण कार्यालय के विद्वान वी० डी० कृष्णस्वामी ने भौगोलिक आधार पर, महापाषाणीय स्मारकों को निम्नलिखित तीन वर्गों में बांटा है-
(क) कक्षयुक्त कब्रें : इस कोटि की कब्रें चौकोर, समकोणीय, आयताकार, विषम चतुर्भुज आकार की हैं। चारों ओर शिलाखंड खड़े करके ऊपर से इसे एक पत्थर से ढका जाता था। कुछ कक्षयुक्त कब्रों में प्रवेश द्वार भी होता था। कक्षयुक्त कब्रों में भी अनेक प्रकार की छोटी-छोटी भिन्नताएं हैं।
(ख) कक्षविहीन कब्रें : इनमें भी अनेकों रूप मिलते हैं। इस प्रकार की कब्रें गड्ढे बनाकर या फिर पत्थर का घेरा बनाकर निर्मित की जाती थी। कलश में शव के अवशेष एकत्र करके गड्ढे में रखा जाता था।
(ग) कब्रविहीन स्मारक : बड़े शिलाखंडों अथवा पत्थर की पटियों को समांतर विशिष्ट ढंग से खड़ा करके इस प्रकार के स्मारक बनाए जाते थे। कर्नाटक में ऐसे स्मारक के लिए खड़े किए गए पत्थरों की संख्या एक हजार है। आंध्र प्रदेश में ऐसे अनेक स्थल प्राप्त हुए हैं।
महापाषाणीय कब्रो का उल्लेख: कक्ष वाले कब्रों में दो या चार पत्थरों के स्लैब रखे होते हैं जिन्हें 'ऑर्थोस्टैट्स' कहा जाता है और इनके ऊपर एक क्षैतिज पत्थर का स्लैब रखा होता है जिन्हें 'कैप्सटोन' कहते हैं। यदि इस प्रकार का कक्ष जमीन के नीचे बना होता है तो इसको ‘सिस्ट’ कहते हैं। यदि इस प्रकार कि कब्र आंशिक रूप से जमीन के भीतर बनी होती है तो इसे 'डॉलमेनॉयड' सिस्ट (ताबूत) कहते हैं। इस प्रकार के महापाषाण से जुड़े कब्र जमीन से ऊपर बने होते हैं तो इन्हें 'डॉलमेन' कहते हैं। कक्ष वाले कब्रों पर व्यवस्थित ऑर्थोस्टेट्स स्लैबों में एक छेद बना होता है जिसे 'पोटहोल' कहा जाता है। कक्ष तक पहुंचने के लिए कई बार मार्ग भी बने होते हैं। कक्ष वाले महापाषाण को कई बार कई भागों में सीधे खड़े स्लैबों के द्वारा बांट दिया जाता है जिन्हें 'ट्रांसेप्ट' कहते हैं। कक्ष वाले कब्रों में प्रमुख हैं टोपीकाल (टोपी वाले पत्थर) तथा कुडईकाल (छाते वाले पत्थर)। ऐसे कक्ष वाले कब्र केरल और कर्नाटक में पाए गए हैं। टोपीकाल वाले कब्रों में जार के अंदर शवों को रखकर जमीन के भीतर गड्ढे में दफनाया जाता था। और एक उत्तल या वृत्ताकार कैप्सटोन के द्वारा ढक दिया जाता था।
दूसरी और बिना कक्ष वाले कब्रों के भी तीन प्रकार देखे गये हैं ये हैं गड्ढे वाले कब्र, जार वाले कब्र तथा ताबूतदार कब्र। गड्ढे वाले कब्रों में शवों को एक गड्ढे के भीतर दफनाया जाता था। यदि किसी गड्ढे वाले कब्र के चारों ओर पत्थरों की गोलाकार संरचना देखी जाती है तो इसे 'पिट सर्कल' कहा जाता है। यदि इस प्रकार के कब्र के ऊपर बड़े-बड़े पत्थरों को एक के ऊपर एक रखा जाता है तो इसे 'केयन' कहा जाता है। यदि पत्थरों के वृत्ताकार व्यवस्था और पत्थरों को एक के ऊपर एक रखने की व्यवस्था दोनों एक साथ देखी जाती है तो ऐसे कब्रों को 'केयन स्टोन सर्कल' कहते हैं। इस प्रकार के गड्ढे वाले कब्र के ऊपर एक बड़ा सीधा खड़ा पत्थर का स्लैब रखा होता है जिसे 'मेनहिर' कहते हैं। एक पाषाण ताबूत कब्र के अंतर्गत टेराकोटा के बने पात्र के भीतर शवों को रखा जाता था। जार में शवों को रखने के बाद उनको एक बड़े पत्थर के स्लैब से ढक दिया जाता था।
महापाषाणों के आकार और भौतिक लक्षणों की व्याख्या करना आसान है। किन्तु उनसे जुड़े विश्वासों तथा आस्थाओं की व्याख्या करना काफी कठिन है। फिर भी यह स्पष्ट है कि जिन लोगों ने इन महापाषाणों को स्थापित किया, ये उनकी संस्कृति के विभिन्न अंग थे। इसके अलावा नवपाषाण-ताम्रपाषाण कब्रों की तुलना में ये ज्यादातर आवासीय क्षेत्र से काफी पृथक स्थापित किए जाते थे। इस प्रकार के जीवित और मृत लोगों के आवास को पृथक करने के पीछे सामाजिक संगठन में हुए परिवर्तनों का कुछ अंदाजा लगाया जा सकता है। कई बार महापाषाण कब्रों को बार-बार इस्तेमाल किया गया है लेकिन ऐसी भी कब्र हैं जिनमें एक साथ अनेक शवों को दफनाया गया जो यह इंगित करता है कि उनकी मृत्यु एक साथ हुई होगी या इन्होंने किसी प्रकार की अनुष्ठानिक आत्महत्या की होगी। महापाषाण कब्रों में अस्त्र-शस्त्र, मृद्भाण्ड और आभूषण की उपस्थिति उनके निर्माणकर्ताओं में मृत्यु के बाद के जीवन के प्रति आस्था की ओर इशारा करती है। कुछ महापाषाण स्थल तो निश्चित रूप से कब्रगाह हैं जबकि कुछ महापाषाण स्थल केवल मृतकों के स्मारक के रूप में भी प्रयोग में लाये गए होंगे।
दक्कन क्षेत्र: दक्कन में बहुत सारे केंद्र महापाषाण संस्कृति के केंद्र थे। बहुत सारे महापाषाणीय कब्रगाह महाराष्ट्र के आवासीय केंद्रों के साथ देखे जा सकते हैं। इसके केंद्रों में नायकुंड, महरझारी, भागिमोहारी, बोरगांव, रंजाला, पिंपलसृति और जूनापानी प्रमुख हैं। इन महापाषाण केंद्रों से जुड़ी हुई बस्तियां कृषक समुदायों की प्रतीत होती हैं। जौ, चावल और अन्य अनाज नायकुंड के घरों के फर्श पर पाये गये हैं। तांबे और लोहे के काफी उपकरण यहां से उपलब्ध होते हैं।
लोहे की वस्तुओं में खंजर, छुरा, छेनी, दो धारी आरी, ब्लेड, मछली-कांटा, चूड़ी, त्रिशूल, भाला और तलवार आदि पाए गए हैं। नायकुंड में लोहे का बना हल्का कुदाल भी पाया गया है और यहाँ से लोहे को गलाने और लोहे के उपकरणों के निर्माण के भी प्रमाण देखे जा सकते हैं। लोहार की भट्टी से जुड़ा हुआ टेराकोटा का एक पाइप पाया गया है। लौह अयस्क यहां से एक कि.मी. दूर एक नाले में पाया गया है। महरझारी भी उस काल के मनके बनाने का एक प्रमुख निर्माण केंद्र प्रतीत होता है। महरझारी और नायकुंड के प्रत्येक महापाषाण स्थल से लोहे की बूटी और तांबे के आभूषणों से सजे घोड़ों के अवशेष प्राप्त हुए हैं। महरझारी के एक कब्र से एक घोड़े का संपूर्ण कंकाल प्राप्त हुआ। जिस पर कटे का निशान यह संकेत करता है कि इसकी बलि दी गई थी और एक मनुष्य के साथ दफना दिया गया था। इसके अतिरिक्त भी दो और नाटकीय शवाधान दिखाई देते हैं एक में एक व्यस्क पुरुष का अवशेष है, जिसका मुंह खुला हुआ है और गर्दन के ठीक नीचे एक तीर बुरी तरह अंदर धंसा हुआ है। दूसरे कब्र में एक व्यस्क मनुष्य के शरीर का सिर्फ उपरी हिस्सा है और उसके सीने पर तांबे के मूठ वाला लोहे का खंजर रखा हुआ है। इस प्रकार की कब्रें वहां की योद्धा परंपरा का संकेत देती हैं।
दक्षिण भारत: दक्षिण भारत में महापाषाण संस्कृति विस्तृत रूप से फैली हुई थी। तमिलनाडु में आदिचनल्लुर, अमृतमंगलम कुन्नदर, सनूर वासुदेवनल्लुर, टेनकासी, कोरकई, कायल, कलुगुमलाई, पेरूमलमेलाई, पुदुक्कोटई, तिरूक्कमपुलियार, आगस्टर जैसे केंद्र महत्त्वपूर्ण थे। केरल में पुलिमट्ट टेक्कल, मनगढ़, कुमाल, माचड़, पजयन्तुर तथा मंग प्रमुख थे।
मनगढ़ केरल के कोल्लम जिले में पड़ता है जो एक महत्त्वपूर्ण महापाषाण संस्कृति का केंद्र था और यहां पर संस्कृति के प्रमाण 1000-100 ई• पू• के बीच लगातार मिले हैं। कर्नाटक के प्रमुख महापाषाण संस्कृति के केंद्रों में ब्रह्मगिरी, मास्की, हनामसागर, टी. नरसीपुर और हल्लूर हैं। आंध्रप्रदेश में कदंबपुर, नागार्जुनकोंडा, मीरापुरम और अमरावती महापाषाण केंद्र थे।
पहले के पुरातत्त्वविदों के द्वारा महापाषाण संस्कृति में पशुपालक समुदायों का वर्चस्व माना जाता था जो घुमंतु जीवन व्यतीत करते थे किन्तु दक्षिण से प्राप्त साक्ष्यों के आधार पर अब यह स्पष्ट होने लगा है कि प्रारंभिक लौह युग से जुड़े समुदाय कृषि, आखेट, मछली पकड़ना और पशुपालन जैसी जीवन निर्वाह पद्धतियों का अनुपालन कर रहे थे। इन केंद्रों से शिल्पकला की समृद्ध परंपरा भी प्रदर्शित होती है। महापाषाण केंद्रों से जुड़े आवासीय क्षेत्रों से अब स्पष्ट होने लगा है कि ये लोग स्थायी जीवन व्यतीत करते थे। यहां लोग अनाज, बाजरा और दालें उगाते थे। कुलथी, मूंग और रागी के जले हुए दाने पैयमपल्ली से प्राप्त हुए हैं। कुर्ग और खाप (कर्नाटक) से धान की भूसी और हल्लूर से जल हुए रागी का अंश भी मिला है। कुन्नतूर (तमिलनाडु) के एक कब्र से चावल के दानों का अंश मिला है। स्वभावतः विभिन्न इलाकों के बीच उगाए जाने वाली फसलों में विविधता दिखाई देती है। कुछ महापाषाणी स्थलों से अनाज काटने और पीसने के उपकरण भी मिलते हैं। केरल के माचड़ नामक स्थान में महापाषाण केंद्र से ग्रेनाइट की चक्की मिली है।
महापाषाण केंद्रों में प्रचलित जीवन निर्वाह की शैलियों का शैलचित्रों और मृण्मूर्तियों के आधार पर भी अनुमान लगाया जा सकता है। मरयर और अट्टल (केरल) में आखेट के बहुत सारे दृश्य शैलचित्रों में देखे जा सकते हैं। कर्नाटक के हीरेबेकल में भी आखेट दृश्यों का वर्चस्व है। यहां पर उपलब्ध कुछ शैलचित्रों में लोग समूह में नृत्य करते हुए भी दिखलाए गए हैं। आखेट दृश्यों में मोरनी, मयूर, हिरण तथा बारासिंगा तथा समूह नृत्य देखने को मिलता है। पालतू और जंगली दोनों प्रकार के पशुओं की हड्डियां अक्सर प्राप्त होती हैं, जिससे शिकार और पशुपालन दोनों के संकेत प्राप्त होते हैं। पालतू पशुओं में गाय, भेड़, कुत्ता और घोड़ा देखे जा सकते हैं। तमिलनाडु के कुछ महापाषाणीय कब्रों से मछली के अवशेष भी प्राप्त हुए हैं।
दक्षिण भारत के महापाषाण स्थलों से शिल्प परंपरा का भी साक्ष्य प्राप्त होता है। दक्षिणी क्षेत्र में ब्लैक-एंड-रेड मृद्भाण्ड की संस्कृति की परंपरा काफी विकसित मालूम पड़ती है। इन मृद्भाण्डों पर पक्षी, पशुओं के चित्र विशेष रूप से अलंकृत किये गये थे जो शायद उत्सव या अनुष्ठान से जुड़े हुए मालूम पड़ते हैं। मनके बनाए जाने की भी परंपरा थी। कब्रों से जुड़ी वस्तुओं में मनके और अन्य सामग्रियां प्रमुख हैं। यहां से तांबे और कांसे के बर्तन और उपकरण पाए गए हैं। कुछ चांदी और सोने के आभूषण भी पाए गए हैं। महापाषाण केंद्रों में लोहे की बनी वस्तुएं अन्य किसी भी धातु की बनी वस्तुओं से अधिक मात्रा में देखी जा सकती हैं। लोहे के उपकरण, लोहे के बर्तन, लोहे के अस्त्र-शस्त्र "तथा शिल्प से जुड़े अन्य औजारों के अतिरिक्त लोहे का उपयोग कृषि से जुड़े उपकरणों के लिए भी होने लगा था।
लोहे के उपकरणों में बर्तन, हथियार, बढ़ईगिरी के औजार (आरी, छेनी, कुल्हाड़ी) और खेती के औजार (हसिया, खनती, फाल) के मिलने से दैनिक जीवन में धातुओं के व्यापक उपयोग का संकेत प्राप्त होता है। इससे पता चलता है कि महापाषाण संस्कृति के लोगों के दैनिक जीवन में लोहे का उपयोग बड़े पैमाने पर किया जाने लगा था। धातु के उपकरणों के निर्माण में विभिन्न प्रकार के धातु विज्ञान की तकनीकों का उपयोग किया जाता था। कुछ तांबे और कांसे से बनी वस्तुएं सांचे में भी ढली हुई पायी गयी हैं। और अन्य वस्तुओं को हथौड़े से आकार दिया गया था। कुछ समुदाय धातुओं के मिश्रण के तकनीक की जानकारी रखते थे। पाजयन्तुर और ब्रहमगिरि, नामक केरल के महापाषाण केंद्रों का अध्ययन से यह पाया गया है कि लोहे के बने उपकरणों में दूसरे किसी भी धातु की उपस्थिति नहीं थी। अपेक्षाकृत ये काफी शुद्ध लोहे के बने हुए थे। इन दोनों स्थानों से प्राप्त धातु की सामग्री के लिए पहले धातु के पतले चादर तैयार किए जाते थे, जिनको बाद में पीटकर आकार दे दिया जाता था। केवल कुछ उपकरणों के निर्माण के लिए साँचे का प्रयोग देखा जा सकता है। पैयमपल्ली (कर्नाटक) में स्थानीय स्तर पर लोहे को गलाने का कार्य किया जाता था।
कोडुमनल जो तमिलनाडु के इरोड जिले में स्थित है, यहां से कुछ नयी विशेषताएं सामने आती हैं। यहां पर उपलब्ध एक महापाषाणीय कब्र में एक हिरन को दफनाया गया था और साथ में कारनेलियन के मनके, एक तलवार और एक कुल्हाड़ी भी रखी गई थी। कुछ महापाषाण कब्रों से यह पता चलता है कि इन कब्रिस्तानों का उपयोग कई सदियों तक किया जाता रहा। परंतु ऐसा लगता है कि एक कब्र को एक पीढ़ी के अंदर एक या दो बार से ज्यादा प्रयोग नहीं किया जाता था। जिससे अनुमान लगाया जा सकता है कि यह शायद किसी छोटे कुलीन वर्ग का कब्रगाह होगा जिससे सामाजिक वर्गीकरण का पता चलता है। पहले के नवपाषाण- ताम्रपाषाण कालीन कब्रगाहों की अपेक्षा महापाषाण संस्कृति के कब्रों में छोटे बच्चों और किशोरों के शव कम दफनाएं गए थे। इनमें अधिकांशतः व्यस्क पुरुषों को दफनाया गया है।
महापाषाण संस्कृति से जुड़े केंद्रों की दूसरी विशेषता यह है कि इन क्षेत्रों के निकटवती इलाकों में शैलचित्रों की एक समृद्ध परंपरा विकसित हुई थी। इन शैलचित्रों में युद्ध के दृश्य, पशुओं के दृश्य, आखेट के दृश्यों का वर्चस्व था। मल्लापदी (तमिलनाडु) एक महापाषाणीय संस्कृति का आवासीय क्षेत्र था। यहां की गुफ में जो शैलचित्र बने थे, वे सफेद चीनी मिट्टी (काओलिन) से बनाए गए थे। इनमें से एक दृश्य में दो अश्वारोही को बड़े बल्लों के साथ दिखलाया गया है। एक दृश्य में एक मानवीय आकृति दोनों हाथों को ऊपर उठाए हुए है और हाथ में एक छड़ी या कोई अस्त्र, औजार पकड़े हुए है। पैयमपल्ली के चित्रों में युद्ध के दृश्यों के साथ-साथ नृत्य करते हुए दृश्य, अश्वारोही, पशु-पक्षी और वनस्पति एवं सूर्य के प्रतीक को चित्रित किया गया है। इस तरह के शैल चित्रों के द्वारा महापाषाण संस्कृतियों के सामुदायिक जीवन के बारे में बहुत कुछ अनुमान लगाया जा सकता है।
महापाषाणकालीन लोग साधारणतया पहाड़ की ढलानों पर रहते थे। अपने आवास के लिए वे तालाब या जलाशय के निकट पर्वत का उपयोग करते थे। ऐसा प्रतीत होता है कि इन लोगों ने सिंचाई की सहायता से धान की उपज प्रारंभ की किंतु आरंभ में कृषि के लिए उपयोगी उपकरण, जैसे फावड़े कुदाल, हंसिया आदि की अपेक्षा युद्ध में काम आने वाले हथियार, जैसे तलवार, बरछे, बाण, कुल्हाड़ी, त्रिशूल आदि अधिक संख्या में मिलने से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि लोग इस काल में कृषि का विशेष विकास नहीं कर सके थे। महापाषाण संस्कृति के लोग सामुदायिक जीवन और प्रयासों में विश्वास रखते थे, क्योंकि महापाषाण कब्रगाहों का या अन्य प्रकार के महापाषाणों का निर्माण भी एक सामुदायिक प्रयास का परिणाम रहा होगा। इन महापाषाण केंद्रों में बहुत सारे अनुष्ठान किये जाते थे जो उनके सामाजिक, सांस्कृतिक जीवन के केंद्र में थे।
Thankyou
Rahul Kumar….✍🏼
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