बुकर टी. वाशिंगटन और नागरिक अधिकार आंदोलन

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बुकर टी. वाशिंगटन और नागरिक अधिकार आंदोलन अफ्रीकी-अमेरिकी नागरिक अधिकार आंदोलन (1955-1968) का उद्देश्य अफ्रीकी अमेरिकी लोगों के खिलाफ नस्लिय भेदभाव को गैर कानूनी घोषित करना और दक्षिण अमेरिका में मतदान अधिकार को पुन: स्थापित करना था। गृहयुद्ध के बाद अश्वेतों को गुलामी से मुक्त कर दिया गया था लेकिन उसके बावजूद भी उनकी स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया। पुनर्निर्माण और द्वितीय विश्वयुद्ध के बीच अश्वेतों की स्थिति ओर खराब हो गई। इस दौरान बुकर टी. वाशिंगटन इनके लिए एक प्रभावशाली नेता बनकर उभरे। वाशिंगटन ने अफ्रीकी-अमेरिकियों के लिए व्यावसायिक शिक्षा और औद्योगिक शिक्षा को बढ़ावा दिया ताकि वह आर्थिक रूप से संपन्न और कुशल बन सके। पृषठभूमि दक्षिण अमेरिका में अश्वेतों ने संघर्ष कर अपने आपको दासता मुक्त कराया। अश्वेतों ने अपनी संस्थाएं बनाई जिससे अश्वेत राष्ट्रवाद का उदय हुआ। नेशनल नीग्रो कन्वेंशन जैसे कई नीग्रो संगठन बने। गृहयुद्ध के दौरान अफ्रीकी-अमेरिकी नेताओं के बीच कट्टरपंथी विचारों का विकास हुआ। बिशप एम. टर्नर, मार्टिन आर. डेलानी और अलेक्ज़ेंडर क्रूमेल ने अश्वेतों के लिए एक स्वायत्त राज्य की...

बाबरनामा


बाबरनामा

बाबर की आत्मकथा "बाबरनामा" अथवा "तजुक-ए-बाबरी” जीवन-चरित्र भी है और इतिहास भी है। इसीलिये यह दूसरी बहुत सी आत्मकथाओं से अधिक महत्व रखती है। बाबर ने जिन्दगी में कभी भी दो वर्षों तक एक ही स्थान पर ईद नहीं मनाई थी। ऐसे व्यक्ति ने कहीं पर भी स्वयं इतिहासकार होने का दावा ही नहीं किया परन्तु फिर भी आज यह मान्यता है कि आत्मकथाओं में बाबरनामा निश्चय ही एक ऐसी उच्च कोटि की रचना है जिसके आधार पर बाबर को आत्मकथा लेखकों का शिरोमणि माना जा सकता है। बाबरनामा को पढ़ते समय जहां हम एक और रोमांचक साहित्य-सागर देखते है वहीं दूसरी ओर इतिहास के अमूल्य रत्न भी हमारे हाथ लग जाते हैं। इसीलिये Denison Ross ने लिखा है कि,"बाबर के आत्म-संस्मरण को सभी समयों के साहित्य में सबसे अधिक सम्मोहनकारी और रोमांटिक रचनाओं में स्थान मिलना चाहिये।" A.S Beveridge ने इस आत्मकथा का मूल्यांकन करते हुये लिखा है कि, "बाबर की आत्मकथा एक अनमोल ग्रन्थ है जिसकी तुलना सन्त आगास्टाइन और रूसो के स्वीकृति पत्रों तथा गिब्बन और न्यूटन की आत्मकथाओं से की जा सकती है। बाबर की इस अनूठी आत्मकथा का आधार उसका सच्चाई से लिखना ही है। वह स्वयं लिखता है कि "इस इतिहास में मैं इस बात पर दृढ़ रहा हूं कि हर बात जो लिखूं, वह सच लिखूं और जो घटना जिस प्रकार घटी हो उसको ठीक-ठीक उसी प्रकार लिखूं। इस कारण यह आवश्यक हो गया कि जो कुछ अच्छा बुरा ज्ञात हुआ, उसे लिख दूं। किसी पर छींटाकशी करने का मेरा इरादा बिलकुल नहीं है।”

इस रोमांचकारी आत्मकथा के लेखक का जन्म 14 फरवरी 1483 ई. में फरगना में उमरशेख मिर्जा के यहाँ हुआ था। उसका पूरा नाम जहीरूदद्दीन मोहम्मद था परन्तु प्यार में उसे बाबर कह कर ही पुकारा जाता था और वह इसी नाम से जाना जाता है। बाबर को शुरू से ही मुसीबतों का सामना करना पड़ा था। 1494 ई. में उसके पिता की अचानक मृत्यु हो गई परन्तु वह इससे घबराने वाला व्यक्ति नहीं था। बाबर के बचपन की घटनाओं का विवरण हमें बहुत कम मिल पाया है क्योंकि एक ओर तो उसने अपनी आत्मकथा की शुरुवात फरगना का राज्याधिकारी होने के समय से की है और दूसरी और उसके सम्बन्धी उसमें अधिक रुचि नहीं लेते थे। पर इतना अवश्य है कि बचपन में जिन लोगों के संरक्षण में रहा उन्होंने उसे तुर्की भाषा पर अच्छा ज्ञान करवा दिया था जिसका प्रमाण उसकी आत्मकथा है। 

बचपन से ही जिन भाग्य के थपेड़ों ने उसे झकझोरा था। सम्भवतः बही बाबर के व्यक्तित्व को निखारने में अधिक उपयोगी सिद्ध हुये। 11 वर्ष की उम्र में अपने पिता के राज्य फरगना की रक्षा की जिम्मेदारी उस पर आ पड़ी थी और दूसरी और उसके सम्बन्धी इस छोटे से राज्य को हड़पने के फिराक में थे। उसके इन्हीं सम्बन्धियों ने उसे लगातार पराजित कर उसे बेघर बना दिया था जिससे मजबूर होकर वह एक स्थान से दूसरे स्थान पर और दूसरे स्थान से तीसरे स्थान पर मारा-मारा फिरता रहा। उसने लिखा है कि, "मैं किसी भी विपदा में घबराया नहीं। कठिनाइयों का सामना करने से मुझे सुख मिलता था। दुख और दुर्भाग्य के दिनों में जब मुझे कहीं स्थान न मिलता तो मैं जंगलों और पहाड़ों पर घूमा करता था। ज्यादातर मैं किसी दूरवर्ती अपरिचित देश में चले जाने का इरादा किया करता था।”

बाबरनामा की भाषा तथा उसके अनुवाद

बाबरनामा की भाषा चगताई तुर्की है जिसमें एक तिहाई शब्द अरबी तथा फारसी से लिये गये हैं परन्तु बाबर की विशेषता है कि वह बड़े ही सरल व स्पष्ट वाक्यों में अपनी बात पाठकों तक पहुँचा देता है। उसने एक बार हुमायूँ को भी सरल शब्दों का प्रयोग करने की सलाह दी थी। वह यह मानता था कि भाषा पर अधिकार रखने वालों की लेखनी में कोई शब्दाडम्बर नहीं होता और यही सरलता उसकी भाषा की सुन्दरता बन जाती है। बाबर ने अपने ग्रन्थ की लगभग दो रचनाएं तैयार की थीं परन्तु दुर्भाग्य है कि अब इन मूल राचनाओं का कोई पता नहीं चलता है। ऐसा लगता है कि दोनों ही रचनाएं नष्ट हो गई। A.S Beveridge ने 15 हस्तलिपियां बताई हैं जो विभिन्न स्थानों पर मिलती हैं।'

बाबरनामा का फारसी में पहला अनुवाद शेख जैन वफाई ख्वाफी ने किया जो बाबर का खास था। उसने केवल हिन्दुस्तान से सम्बन्धित भाग का ही अनुवाद किया था। दूसरा और तीसरा अनुवाद पायंदा खाँ तथा अब्दुल रहीम खानखाना (1589 ई.) ने किया। पायंदा खाँ ने केवल पहले 6 वर्षों तथा 7वें वर्ष के एक खण्ड का ही अनुवाद किया है। खानाखाना ने सम्पूर्ण ग्रन्थ का अनुवाद किया है और इसकी हस्तलिखित प्रतियां यूरोप व एशिया के अनेक पुस्तकालयों में मिलती है। फारसी के अतिरिक्त यूरोप की अन्य भाषाओं में भी इसका अनुवाद हो चुका है। अंग्रेजी में पहली बार इसका अनुवाद सन् 1826 में Leyden और Erskine's ने किया। इन्होंने फारसी अनुवाद को लेकर ही इसका रूपान्तर किया था। 

दूसरा अंग्रेजी अनुवाद 1905 ई. A.S Beveridge ने किया। Beveridge ने हैदराबाद के सालारजंग म्युजियम की तुर्की हस्तलिखित रचना को काम में लिया था इसलिये यह अधिक प्रमाणिक है। फ्रेंच भाषा में इसका अनुवाद पावेत दी कार्त ने 1871 ई. में किया था। इन सभी अनुवादों में अनेक प्रकार के अन्तर पाये जाते हैं जिनका कारण ढूंढना आवश्यक है।

शैली:- बाबरनामा में दो विभिन्न प्रकार की रचना-शैली मिलती है। पहला भाग जिसमें 1493-94 ई. से लेकर 1508-09 ई. तक का हाल है, इतिहास के रूप में और प्रत्येक वर्ष की घटनाओं का हाल अत्यन्त विस्तार से है। इस भाग को बाबर ने भारत पर आक्रमण के बाद दोहराया और बढ़ाया था, इसलिये यह दूसरे भाग से अच्छा है। दूसरा भाग डायरी जैसा है जिसमें प्रत्येक दिन की घटना का विवरण अलग-अलग किया गया है। ये विवरण कहीं-कहीं विस्तृत और लम्बे हो गये हैं लेकिन कुछ दिनों के विवरण बहुत ही संक्षेप में लिखे गये हैं। बाबर ने अपने जीवन के 48 वर्षों में जिन घटनाओं का वर्णन किया है, उनमें केवल 18 वर्ष की घटनायें ही मिलती हैं और इनमें भी कहीं-कहीं पर कुछ अधूरी हैं। उसकी आत्म-कथा में जिन वर्षों का उल्लेख मिलता है, वे इस प्रकार हैं :

(अ) 1493-94 से 1502-3 ई. तक।
(ब) 1504-05 ई. से 1507-08 ई. तक।
(स) 1508-09 ई. तक कुछ वर्णन मिलता है। 
(द) 1519 ई. से 24 जनवरी 1520 ई. तक।
(क) 17 नवंबर 1525 ई. से 2 अप्रैल 1528 ई. से. तक।
(ख) 18 सितम्बर 1528 ई. से 7 सितम्बर 1529 ई. तक।

बाबर के इस अधूरे वर्णन के अनेक कारण बताये जाते हैं, हो सकता है कि उसने जिन दिनों का वर्णन नहीं किया है उनको वह महत्वपूर्ण ही नहीं समझता हो, अथवा परिस्थितियों के कारण वह लगातार और सिलसिलेवार घटनाओं को न लिख सका हो, अथवा जिन्दगी की भाग-दौड़ में उसके कुछ पन्ने ही नष्ट हो गये हों। इस संबंध में बाबरनामा में कुछ जानकारी मिलती है। उसने लिखा है कि, "उस रात (25 मई, 1529) को एक पहर के बाद एक भीषण तूफान आया। बरसात के मौसम वाले काले काले बादलों से आसमान छिप गया और उसके बाद ही इतनी जोर की आंधी उठी कि हमारे बहुत से खेमे उखड़कर गिर गये....उस तूफान में हमको अपने लिखे हुये कागजों को सम्हालने का भी मौका नहीं मिला...मेरे लिखे हुये पन्ने पानी में बहुत भीग गये। किसी प्रकार मैंने उनको एकत्रित किया और फिर उन्हें सिंहासन के ऊनी कालीन की तहों में रखकर कम्बलों से दबा दिया। मुझे बहुत देर तक अपने पन्नों के भीग जाने और खराब हो जाने का अफसोस होता रहा।” 

एक अनुमान ये भी बताया जाता है कि बाबर ने अपनी कमजोरियों को छिपाने के लिये ही अनेक घटनाओं का उल्लेख नहीं किया है। इस प्रकार की धारणा को मानना कुछ कठिन सा मालुम पड़ता है क्योंकि अपनी जिन कमजोरियों का उल्लेख बिना किसी संकोच के उसने अपनी रचना में किया है, वे साधारण नहीं हैं।

अपनी भूलों और कमजोरियों को स्वीकार करने की आदत बाबर में थी। किन्तु उसके इस आदत के खिलाफ हमारे पास एक बड़ा ही अचूक प्रमाण हैं। बाबर की रचना में 1508 से 1516 ई. तक का विवरण नहीं मिलता है। इसका कारण बताया जाता है कि बाबर ने क्योंकि शाह इस्माईल सफवी की अधीनता स्वीकार कर ली थी और वह इस तथ्य को छिपाना चाहता था इसलिये इन बर्षों का हाल उसने छोड़ दिया। 

1508 से 1519 ई. तथा 1520 से 1525 ई. तक की घटनाओं के न लिखने का कारण बताया जाता है कि क्योंकि उसने आलम खां लोदी से काम लेकर उसके साथ विश्वासघात किया था और इन दोनों कालों की घटनायें इससे सम्बन्धित थीं इसलिए बाबर ने इनका उल्लेख नहीं किया है। किंतु इस सम्बन्ध में यह जान लेना अच्छा होगा कि यह घटना इतनी महत्वपूर्ण भी नहीं थी कि इसकेलिये इतने समय की घटनाओं को न लिखा जाता। इसलिये अधिक सम्भावना यही है कि इन विभिन्न कालों के पृष्ठ नष्ट हो गये होंगे। 

बाबरनामा में उसके धार्मिक विचार

उसकी आत्मकथा इस सम्बन्ध में दो विचार बताती है। उसे ईश्वर में अटूट विश्वास था और वह अपनी समस्त कामयाबी केवल ईश्वरीय इच्छा से ही मानता है। उसने लिखा है कि "यदि समस्त संसार की तलवारें चलें तो भी एक नस तक नहीं काट सकती यदि ईश्वर की इच्छा न हो।" इसी प्रकार दिसम्बर 1525 ई. में अपने बीमार पड़ने पर उसने लिखा है कि, "हे ईश्वर, हमने आत्मा के प्रति अत्याचार किया है, यदि तू हमें क्षमा न करेगा और हमारे प्रति दया न करेगा तो हम निःसन्देह उन लोगो में होंगे जो कि नष्ट होने वाले हैं।" इसी प्रकार इब्राहीम लोदी पर प्राप्त विजय को भी उसने ईश्वरीय देन ही स्वीकार किया है।

इसके अतिरिक्त यह अधिक महत्वपूर्ण है कि बाबर नमाज और रोजे के प्रति बड़ा ही सतर्क था परन्तु अपने धार्मिक विचारों में मध्यममार्गी था। न तो वह रूढ़ीवादी और न ही अत्यधिक उदार था। यदि वह धर्मान्ध होता तो सम्भवतः मथुरा के मन्दिर न बच पाते और न ही राजा बीरसिंह देव से उसके मित्रतापूर्ण सम्बन्ध होते। यह ठीक है कि वह विचारधारा से सच्चा सुनी था परन्तु उसने धर्म को राजनीति पर हावी नहीं होने दिया था।

हिन्दुस्तान का वर्णन

उसने लिखा है की हिन्दुस्तान बड़ा लम्बा-चौड़ा देश है। यह मनुष्यों तथा उपज से परिपूर्ण है। यह बड़ा ही आश्चर्यजनक देश है और यदि हम अपने देशों से इसकी तुलना करें तो यह एक अन्य ही संसार ज्ञात होगा। यहां के पर्वत, नदियां, जंगल, नगर, खेत, पशु, वर्षा तथा वायु सभी विभिन्न हैं। सिन्ध नदी को पार करते ही पर्वत श्रेणी के प्रदेश आ जाते हैं जो कश्मीर से मिले हुये हैं। कश्मीर छोड़ने के बाद पहाड़ियों में अनेकानेक जातियां और राज्य मिलते हैं जो बंगाल तक फैले हुये हैं। हिन्दुस्तान के बारे में वह लिखता है कि, "हिन्दुस्तान के प्रदेश तथा नगरों में कोई आकर्षण नहीं हैं। इनके समस्त नगर एवं समस्त भूमि एक ही प्रकार की है। इसके अधिकांश स्थानों पर समतल मैदान स्थित है। वर्षा के समय कुछ नदियां तथा नालों में बाढ़ आ जाती है और उनको पार करना बड़ा कठिन हो जाता है। हिन्दुस्तान में गांव तथा नगर क्षण भर में बस जाते हैं और उसी प्रकार नष्ट भी हो जातें हैं। 

इस प्रकार बड़े-बड़े नगरों के निवासी जो वर्षों से वहाँ बसे होते हैं, यदि वहां से भागना चाहते हैं तो वे एक या डेढ़ दिन में वहां से इस प्रकार भाग जाते हैं कि उनका वहां कोई चिन्ह नहीं रह जाता। यदि उन्हें किसी स्थान को आबाद करना होता है तो उन्हें नहर खोदने की आवश्यकता नहीं पड़ती, जिसका कारण यहां वर्षा के सहारे पर कृषि होती है और जनसंख्या की तो कोई सीमा ही नहीं ।”

हिन्दुस्तान के निवासियों का वर्णन करते हुये वह लिखता है कि "हिन्दी वाले काफिर को हिन्दू कहते हैं, यहां जो लोग बस्तियों एवं गांवों में रहते हैं उनके भी नाम कबीलों के नाम पर होते हैं! यहां जितने भी शिल्पकार हैं उनके पिता तथा पितामह भी पीढ़ियों से वहीं कार्य करते चले आ रहे हैं।” हिन्दुस्तान के दोषों को बताते हुये उसने लिखा है कि,"हिन्दुस्तान में बहुत कम आकर्षण है। यहाँ के निवासी न तो रूपवान होते हैं और न सामाजिक व्यवहार में कुशल होते हैं। ये न तो किसी से मिलने जाते हैं और न कोई इनसे मिलने आता है। न इनमें प्रतिभा होती है और न इनमें कार्यदक्षता। न इनमें शिष्टाचार होता है और न उदारता। न तो यहाँ अच्छे घोड़े होते हैं और न अच्छे कुत्ते, न अंगूर, न खरबूजा, और न ही उत्तम मेवे। यहां न तो बरफ मिलती है और न ठंडा जल। यहां के बाजारों में न तो अच्छी रोटी मिलती है और न अच्छा भोजन ही प्राप्त होता है। यहाँ न गरम स्नानागार है, न मदरसे, न मशाल। कृषक तथा निम्न वर्ग के लोग अधिकांश नंगे ही रहते हैं। वे लोग एक कपड़े का टुकड़ा बांधते हैं जो लंगोटा कहलाता है। नाभि के नीचे एक कपड़े के टुकड़े को दोनों जांघों के बीच से लेते हुये पीछे ले जाकर बांध देते हैं। स्त्रियां भी लुग्गी बांधती हैं। इसका आधा भाग कमर से नीचे होता है और दूसरा सिर पर डाल लिया जाता है।" 


वैसे बाबर के इन सारे आरोपों का खंडन अमीर खुसरो की रचनाओं से हो जाता है जो हिंदुस्तान और हिंदुस्तानियों की प्रशंसा से भरी पड़ी हैं।

बाबर का ये विवरण उचित नहीं मालुम पड़ता। बाबर ये समझने में असमर्थ रहा कि वह विजित और विजेता के सामाजिक व्यवहार का वर्णन कर रहा है जिनमें अलगाव होना स्वाभाविक है। इसके साथ ही वह यहां के निवासियों की व्यक्तिवादी प्रवृत्तियों का उचित रूप से मूल्यांकन नहीं कर पाया। इसीलिये उसे यहाँ के सामाजिक व्यवहार में बड़ा ही अटपटापन लगता है। इसके अतिरिक्त बाबर हिन्दुस्तान के शासकों द्वारा कृषकों के प्रति अपनाई जाने वाली नीति को भी नहीं समझ सका। यहाँ के शासकों की यह नीति रही कि किसान के पास मात्र इतना छोड़ा जाए जिससे कि वो मुश्किल से अपना भरण-पोषण कर सकें तथा जमीन को छोड़कर न भागे। बाबर का यह कहना कि हिन्दुस्तान के लोग अर्ध-नग्न रहते हैं उचित नहीं हैं। बाबर के आक्रमण का समय मोटे रूप से गर्मी का मौसम ही था जब यहां गर्मी के अनुसार कम से कम कपड़े पहने जाते हैं। इसके अतिरिक्त बाबर यहां कि प्रचलित प्रथाओं को भी समझने में असमर्थ रहा। 
हिन्दुस्तान की विशेषताओं के संबंध में बाबर लिखता है कि "यहां की सबसे बड़ी विशेषता है कि यह बहुत बड़ा देश है। यहाँ अत्यधिक सोना-चांदी है। वर्षा ऋतु में यहाँ की हवा बड़ी ही उत्तम होती है। कभी-कभी दिन भर में 15-20 बार वर्षा हो जाती है। यहाँ की वर्षा से पानी का सैलाब आ जाता है और जिस स्थान पर बिल्कुल भी जल नहीं होता वहाँ नदियाँ बहने लगती है। केवल वर्षा ऋतु में ही नहीं अपितु शीत-काल तथा ग्रीष्म में भी हवा बड़ी ही उत्तम रहती है।

इन दिनों में उत्तरी-पश्चिमी हवा के लगातार चलने के कारण मिट्टी-धूल बढ़ जाती है। ग्रीष्म ऋतु में यह बड़े जोरों से चलती है। गर्मियों में जब वर्षा निकट होती है तो यह हवा इतनी तीव्र गति से चलती है और धूल तथा मिट्टी इतनी अधिक उड़ने लगती है कि कोई एक दूसरे को देख भी नहीं सकता। लोग इस हवा को आंधी कहते हैं। किन्तु यहाँ कन्धार के समान तेज गर्मी नहीं पड़ती और जितने समय तक वहां गर्मी पड़ती है उसकी अपेक्षा यहाँ आधे समय तक भी गर्मी नहीं पड़ती। हिन्दुस्तान का एक बहुत बड़ा गुण यह है कि यहाँ हर प्रकार एवं हर कला के जानने वाले असंख्य कारीगर पाये जाते हैं प्रत्येक कार्य तथा कला के लिये जातियां निश्चित हैं जो अपने पिता और पिता के पिता के समय से वही कार्य करते चले आ रहे हैं मेरे आगरा, सीकरी, धौलपुर, ग्वालियर तथा कोल के भवनों के निर्माण में 1469 पत्थर काटने वाले रोजाना कार्य करते थे। इस प्रकार हिन्दुस्तान में प्रत्येक प्रकार के अनगिनत शिल्पकार तथा कारीगर हैं।"

बाबर ने अपनी रचना में यहाँ के वन, पशुओं में हाथी, गेंडे, जंगली भैसे, नील गाय, मृगों के उल्लेख के साथ बन्दर, गिलहरी की भी चर्चा की है। पक्षियों में मोर, तोते, सारस, शाह मुर्ग, चमगादड़, नीलकंठ, कोयल आदि का भी विवरण दिया है। जल जन्तुओं में घड़ियाल, मेंढ़क, मछलियों आदि की चर्चा है। फलों में उसने केले, बेर, इमली, जामुन, नारियल, आम आदि का वर्णन किया है। ऐसा लगता है कि बाबर को अमीर खुसरो कि तरह आम रुचिकर नहीं लगा। बाबर ने अपने अधिकार में आये हुए प्रदेशों का राजस्व भी लिखा है। वह लिखता है कि,"भीरा से बिहार तक जो प्रदेश इस समय मेरे अधीन हैं उनकी जमा (राजस्व) 52 करोड़ है। इसमें से 8 तथा 9 करोड़ उन रायों तथा राजाओं के परगनों से प्राप्त होते हैं जो बहुत समय पूर्व से आज्ञाकारी हैं और जिन्हें यह परगने स्थायी रूप से दे दिये गये हैं।”

बाबर ने अपने पूर्व के हिन्दुस्तान के राज्यों का भी वर्णन किया है। इब्राहीम लोदी व उसके अमीरों के बारे में बाबर ने चर्चा की है। उसने अनेक स्थानों पर अफगानों के राज्य की शक्तिहीनता एवं विद्रोहों की चर्चा की है, और इस बात को अधिक स्पष्ट किया है कि उनको दबाने में उसे अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था। अपने पूर्व के दो आक्रमणकारियों - सुल्तान महमूद व सुल्तान शिहाबुद्दीन मुहम्मद गोरी के साधनों एवं सेना का उल्लेख करते हुये उसने अपने साधनों से उनकी तुलना की है। उसने अफगानों के अतिरिक्त गुजरात, दक्षिण, मालवा, बंगाल, विजयनगर एवं राणा सांगा के राज्यों का भी विवरण दिया है।

वह स्वयं एक कुशल सैनिक था इसलिये उसने यहाँ कि सैनिक व्यवस्था के बारे में भी लिखा है। सुल्तान इब्राहीम लोदी की सैन्य व्यवस्था के बारे में उसने लिखा है कि, "हिन्दुस्तान में यह प्रथा है कि ऐसे महान संकटों के अवसर पर धन देकर सेना भारती कर ली जाती है।" सेना रखने की विधि की चर्चा करते हुये वह लिखता है कि "हिन्दुस्तान में प्रचलित नियम के अनुसार एक लाख की विलायत वाले 100 अश्वारोही और एक करोड़ की विलायत वाले 10,000 अश्वारोही रखते थे।" बाबर का यह विवरण बड़ा ही महत्वपूर्ण है। सुरक्षा व्यवस्था के सम्बन्ध में उसने लिखा है कि “यहाँ के मैदानों के बहुत से भागों में बड़े-बड़े कांटेदार जंगल होते थे जहाँ परगनों के निवासी शरण ले लेते थे और विद्रोह कर देते थे तथा कर नहीं देते थे। अशान्ति के समय भी इसी प्रकार के सुरक्षित स्थानों का उपयोग किया जाता था।”

बाबर ने सत्य तथा व्यक्तिगत सम्मति को प्रायः घुला-मिला लिया था। उन्होंने यह दावा किया कि उनकी सेना की कुल संख्या 12,000 थी जबकि इब्राहीम लोदी ने पानीपत के मैदान में 1,00,000 सेना एकत्र कर रखी थी। बाबर की सेना की संख्या दुगुनी अर्थात 24,000 के आस-पास जरूर रही होगी क्योंकि अपनी सेना की संख्या घटाकर ये विजय के लिए अपने आपको अधिक श्रेय देना चाहता था किंतु एक आत्मकथा में ऐसा होना स्वाभाविक ही माना जाएगा। बाबरनामा की दूसरी कमी बीच-बीच में समय के अंतराल हैं। इस कमी को पूरा करने के लिए हमें मिर्जा हैदर दौगलत की तारीख-ए-रशीदी, गुलबदन बेगम की हुमायूँनामा और अहमद की तारीख-ए-शाही का सहारा लेना पड़ता है। Beveridge के मत से पता चलता है कि बाबरनामा कई बार दुर्घटना की चपेट में आई थी। 

बाबर का राजनीति के प्रति दृष्टिकोण

बाबर अविभाजित प्रभुसत्ता में विश्वास करता था। सुल्तान हुसैन की मृत्यु के बाद उसके उत्तराधिकारियों ने शासन-प्रबन्ध की जो योजना बनाई वह बाबर को रूचिकर नहीं लगी। बाबर मंत्रणा व विचार-विनिमय में विश्वास करता था क्योंकि उसने हिन्दुस्तान पर आक्रमण करने के पूर्व अपने सलाहकारों से इस सम्बन्ध में बातचीत की थो। पानीपत के युद्ध के पहले भी उसने मिलजुलकर रणनीति निश्चित की थी। इसी प्रकार वह वीजित प्रदेशों में वहां की शासन व्यवस्था को ही लागू रहने देता था। सम्भवतः इसका कारण था कि एक और तो उसे न केवल अपने साम्राज्य की बढ़ोतरी करनी थी परन्तु साथ ही साथ उसमें कुशल प्रशासन के गुणों का भी अभाव था। 

आरम्भिक अवस्था में एक विजेता के लिये यह उपयुक्त भी था क्योंकि यह सम्भव नहीं था कि वो अपने प्रदेश की शासन व्यवस्था को एकदम वैसा ही यहाँ लागू करे। भीरा की विजय के उपरान्त उसने वहाँ के लोगों की सलाह से स्थानीय प्रशासन को ही लागू रखा। हिन्दुस्तान पर अधिकार करने के बाद भी उसने यहां की शासन व्यवस्था में कोई परिवर्तन नहीं किया और पुरानी इक्तादारी प्रथा को ही लागू रखा।

बाबर में नेतृत्य की अपूर्व शक्ति थी। पानीपत के युद्ध के बाद जिस प्रकार सेना में काबुल लौट जाने की बात जोर पकड़ रही थी उसका मुकाबला बाबर जैसे व्यक्तित्व के आदमी के लिये सम्भव था। बाबर ने कभी ये आशा भी नहीं की थी कि उसके लोग उसके संकल्प के विरुद्ध कुछ कहने का साहस करेंगे। उसने समस्त बेगों को इकट्ठा कर कहा कि, "राज्य एवं विजय बिना साधन तथा अस्त्र-शस्त्र के सम्भव नहीं...घोर युद्ध के उपरान्त हमने ईश्वर की कृपा से शत्रुओं की इतनी बड़ी संख्या को इस आशय से पराजित किया कि ऐसे विस्तृत प्रदेशों तथा राज्यों को अपने अधिकार में कर लें…क्या हमारे भाग्य में यही लिखा है कि हम सर्वदा काबुल में दरिद्रता के कष्ट भोगते रहें। अब आज से मेरे किसी हितेषी को ऐसी बात नही करनी चाहिये किन्तु जिस किसी में शक्ति नहीं है और उसने जाना निश्चय कर लिया है तो फिर उसे रूकना भी नहीं चाहिये।”


साहित्यकार के रूप में बाबर

सामान्यतः यही माना जाता है कि बाबर ने मोटे रूप से केवल बाबरनामा की ही रचना की है परन्तु उसने इसके अतिरिक्त अन्य रचनायें भी की थी। उसने लगभग 116 गजल, 8 मसनवी, 104 रुबाई, 52 मुआम्मस, 8 कोते, 15 तुयुग तथा 29 सीरी मुसन्न की तुर्की भाषा में रचना की थी। इसके अतिरिक्त फ़ारसी में 3 गजल, 1 कीता तथा 18 रुबाईयों की भी रचना की थी। अबुलफजल ने उसकी एक मसनवी की और ध्यान दिलाया है जो काफी प्रचलित थी। उसने फ़ारसी में एक "दीवान" तथा "रिसाना-ए-वलीदीया" का भी अनुवाद किया था। बाबर ने फ़ारसी में एक मसनवी की भी रचना की जिसको "मुबइयाँ" कहकर पुकारा जाता है। एक विजेता में इस प्रकार के साहित्यिक गुणों का मिलना एक विचित्र गुण है जो बहुत ही कम व्यक्तियों में पाये जाते हैं।

इस प्रकार हम यह कह सकते हैं कि बाबरनामा अपने समय की ऐतिहासिक सामग्री का भण्डार है। साथ ही साथ हिन्दुस्तान के लोगों, उसके आचार विचारों, रहन-सहन आदि के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी देता है। अबुलफ़जल के पहले वह सम्भवतः पहला व्यक्ति था जिसने हिन्दुस्तान के विभिन्न प्रदेशों के राजस्व के आंकडों को दिया है। यह ठीक है कि उसमें अनेक स्थानों पर पक्षपातपूर्ण विवरण भी दिया है परन्तु हमें यह भी ध्यान रखना पड़ेगा कि विषय निष्ठता का उस समय कहीं नामो-निशान भी नहीं था। परन्तु इसके बाद भी यह तो मानना पड़ेगा कि जिस सच्चाई के साथ उसने अपने संस्मरण लिखे हैं उतनी सच्चाई का पालन करना हर व्यक्ति के लिये सम्भव नहीं। उसने अपनी त्रुटियों और असफलताओं को भी उतने ही खुले रूप से लिखा है जितना अपनी सफलताओं और वीरता के कारनामों को।



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