नवीन आर्थिक नीति (NEP)
नई आर्थिक नीति (NEP) को 1921 में व्लादिमीर लेनिन द्वारा सोवियत अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने के लिए शुरू किया गया था। इसके अंतर्गत छोटे व्यवसायों को निजी तौर पर काम करने की अनुमति दी गई। इसका प्रथम उद्देश्य किसानो से अतिरिक्त उत्पादन की जगह कर वसूल करना था। किसान अब अपने उत्पादन को कर चुकाने के बाद बाजार में बेच सकते थे और तैयार माल खरीद सकते थे। जिससे जमाखोरी की संभावना कम हो गई और शहरी केंद्रों में भोजन की आपूर्ति बढ़ गई। व्यक्तिगत व्यापार की भी इजाजत दे दी गई। बड़े व मध्यम औद्योगिक संस्थान विदेशी पूंजीपतियों को दे दिए गए। व्यवस्था का केंद्रीकरण खत्म कर दिया गया तथा स्थानीय आर्थिक समितियों के अधिकारों में वृद्धि की गई। संस्थाओं को कच्चा माल बेचने की स्वतंत्रता मिल गई। अनेक कारखाने जिन पर राज्य पूंजी लगाता था, लाभ व हानि के सिद्धांत में बदल दिये गये। इतना ही नहीं सार्वजनिक अनिवार्य श्रम खत्म कर दिया गया। मजदूर प्रणाली को समाजवादी सिद्धांत के अनुसार स्थापित किया गया। श्रमिको को श्रम व गुण के अनुसार ही वेतन दिया जाने लगा। जबकि गृहयुद्ध के दौरान कुशल व अकुशल मजदूर दोनो का वेतन एक समान था।
लेनिन का विश्वास था कि कुछ समय के लिए इस मार्ग पर चलने से सोवियत समाज में स्थिरता आ जाएगी और फिर समाजवाद की स्थापना हो जाएगी इसलिए वह इस नीति को समाजवादी अर्थव्यवस्था की स्थापना का प्रारंभिक कदम मानता था।
इस नीति के अंतर्गत साम्यवादी दल ने संपूर्ण राजनीतिक नियंत्रण अपने हाथों में ले लिया। आर्थिक क्षेत्र में सरकार ने बड़े एवं मध्यम उद्योगों, परिवहन, विदेश व्यापार तथा थोक व्यापार पर अपना एकाधिकार स्थापित किया। उद्योगों को आंशिक रूप से व्यापार करने की स्वायत्ता प्रदान की गई। व्यक्तिगत निजी व्यापार करने की छूट दी गई तथा मुद्रा का पुनः प्रयोग किया गया। इन सब परिवर्तनों से सोवियत सरकार ने बिगड़ी हुई आर्थिक स्थिति को सुधारने का प्रयास किया।
कर नीति में बदलाव
नई कर नीति के अंतर्गत कृषक अपनी उपज का जीविका अनुसार हिस्सा अपने पास रखकर शेष बचे अनाज के आधार पर कर देता था। कर की मात्रा निश्चित होती थी क्योंकि यह कृषक के उत्पादन अधिशेष का निश्चित अंश होता था। इस प्रक्रिया से कृषक को अपने उत्पादन को बढ़ाने का प्रोत्साहन मिला क्योंकि कर देने के पश्चात शेष बचे उत्पादन का प्रयोग कृषक अपनी इच्छानुसार कर सकता था। इस कर की मात्रा युद्धरत साम्यवाद के काल में एकत्र किए जाने वाले अनाज के कुल अंश का आधा भाग थी। यह मात्रा सेना तथा श्रमिकों की खाद्य आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पर्याप्त थी। आगे चलकर 1924 में मुद्रा के प्रचलन से वस्तु कर का स्थान मुद्रा कर ने ले लिया। कृषक को व्यापार करने का अधिकार मिल गया था। अनाज को बेचने से कृषि उत्पादन के बाजारों की संख्या में बढ़ोतरी हुई। इससे कृषि एवं उद्योग के बीच बाज़ार संबंधों की स्थापना हुई। व्यापार एवं बाज़ार की पुनः स्थापना से मुद्रा का प्रयोग फिर से होने लगा।
शुरू में कृषक अपने उत्पादन को स्थानीय बाज़ार में ही बेच सकता था, परंतु बाद में यह पाबंदी हटा दी गई। जैसे ही कृषक अपनी इच्छानुसार व्यापार करने लगे, वैसे ही कृषि उत्पादन से संबंधित खरीदने और बेचने का एकाधिकार समाप्त हो गया। सहकारी संघ और संस्थाओं को भी वाणिज्यिक स्वायत्ता प्राप्त हो गई, जिससे बाज़ार में वे अपनी इच्छानुसार कार्य कर सकती थीं। इसके अलावा औद्योगिक उद्यमों को भी कच्चे माल को खरीदने तथा तैयार माल के बेचने की स्वायत्ता मिल गई।
उद्योगो का पुनःस्थापन
उद्योगों को पट्टे के रूप में औद्योगिक संस्थाओं को दे दिया गया। इसके अलावा जिन उद्योगों में 20 से कम श्रमिक काम करते थे उन्हें पुराने मालिकों के अधीन कर दिया गया। ईंधन की कमी के कारण राज्य द्वारा संचालित अनेक कारखाने बंद कर दिए गए। उद्योगों में उत्पादन के लिए अब सरकार द्वारा आर्थिक सहायता नहीं दी जाती थी। कारखानों के प्रबंधकों को कहा गया था कि वे उत्पादन की बिक्री द्वारा अपने संसाधनों का प्रबंध करें। कारखानों में जिन श्रमिकों की ज़रूरत नहीं थी, उन्हें बाहर निकाल दिया गया। श्रमिकों को अब वेतन, वस्तु या राशन के स्थान पर नकद में दिया जाने लगा। नवंबर 1921 को राशन प्रणाली समाप्त कर दी गई। जुलाई-अगस्त 1921 से बिजली, जल जैसी सेवाओं पर शुल्क लगाया गया। नवीन आर्थिक नीति की शुरुआत में कृषि और औद्योगिक पदार्थों के मूल्यों में वृद्धि हुई। कई बार बेची गई वस्तुओं से उत्पादन मूल्य की पूर्ति भी नहीं होती थी और बाज़ार में माल न बिकने के कारण उसका ढेर लग जाता था।
उद्योग अपने श्रमिकों को वेतन दे नहीं पा रहे थे। बेरोज़गारी बड़ी तीव्रता से बढ़ती जा रही थी और आधा सर्वहारा वर्ग शहरों को छोड़कर चला गया था। इस तरह उद्योगों को एकदम से वाणिज्यिक सिद्धांतों पर चलाना सफल नहीं हो पाया। इसके उपाय में 1923 में 'सिण्डीकेटों' की स्थापना की गई। जिसने तैयार माल का विक्रय किया साथ ही अपने माल के लिए अधिक मूल्य मांगा। उद्योगों में उत्पादन को बढ़ाने के लिए कुशल श्रमिको द्वारा नए तरीकों और साधनों की खोज की जाने लगी। श्रमिक उत्पादन सम्मेलनों का आयोजन किया जाने लगा। इन बैठकों में श्रेष्ठ व कुशल श्रमिको के साथ उत्पादन को सुधारने के प्रश्न पर विचार-विमर्श किया जाता था। यह श्रमिक इन बैठकों में उत्पादन को बढ़ाने, उत्पादन की गुणवत्ता सुधारने आदि के संबंध में सुझाव देते थे।
सहकारी समितियां
सरकार ने सहकारी संस्थाओं को छूट दी कि वे अपनी शर्तों पर कृषकों तथा सरकारी संस्थाओं के साथ व्यापार करें। सहकारी समितियों को सरकार ने अनेक सुविधाएँ प्रदान की। घरेलू उद्योग, कृषि उत्पादन, कृषि-पदार्थ विक्रय आदि क्षेत्रों में सहकारी समितियों की संख्या को बढ़ाया गया क्योंकि "पूँजीवाद" व्यवस्था में इनका एक महत्वपूर्ण स्थान था।
स्वतंत्र व्यापार में वृद्धि
1921 में जब सोवियत सरकार ने कृषक को स्वतंत्रता दी कि वह वस्तु कर देने के पश्चात अनाज अधिशेष का अपनी इच्छानुसार प्रयोग कर सकता था, तब सरकार को स्वतंत्र व्यापार को भी कानूनी मान्यता देनी पड़ी। जिससे छोटे पूँजीपतियों को अपनी जड़ें मज़बूत करने का मौका मिला। यह पूंजीपति पहले गाँव में कृषक से अनाज खरीदते थे और फिर उसे शहर में बेचकर गाँव वालों के लिए मुर्गी, अण्डे तथा सब्ज़ी लाते थे। इस प्रक्रिया में उन्होंने गांवों में दुकानें खोलनी शुरू कर दी। इसी समय नगरों में भी कई निजी दुकानें स्थापित की गई। जिसके चलते व्यापारियों ने थोक व्यापार में भी रुचि ली।
मुद्रा सुधार
युद्धरत साम्यवाद के काल में मुद्रा के उपयोग को वर्जित कर दिया गया था। लेकिन नेप के सिद्धांतों को पूरी तरह से लागू करने के लिए एक स्थायी मुद्रा की स्थापना करना आवश्यक था। इसलिए मुद्रा संबंधी कई निर्णय लिए गए। अब लोग बैंको में जितना चाहे धन जमा कर सकते थे। विभिन्न सेवाओं जैसे रेल, डाक, टेलीग्राफ, जल, बिजली तथा 'गैस' के लिए अब भुगतान करना पड़ता था। निवास तथा व्यावसायिक प्रयोग के लिए दिए जाने वाले भवनों पर भी किराया लगता था। जून 1921 में कई पुराने कर फिर से लागू कर दिए गए। इनमें मुख्य थेः औद्योगिक एवं व्यापारिक उद्यमों पर कर। शराब, तम्बाकू, माचिस, चाय एवं काफी पर कर।
मुद्रा सुधार ने अर्थव्यवस्था को स्थिर करने और व्यापार और उत्पादन को प्रोत्साहित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1922 में "चेर्वोनेट्स" नामक एक नई मुद्रा की शुरूआत की गई। चेर्वोनेट्स का उद्देश्य पिछली अस्थिर मुद्रा सोवियत रूबल को बदलना था। सोवियत सरकार ने नई मुद्रा की स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए सख्त मौद्रिक नीतियों को लागू किया। इन नीतियों में राजकोषीय अनुशासन, नई मुद्रा जारी करने पर कड़ा नियंत्रण और सट्टेबाजी और जमाखोरी से निपटने के उपाय शामिल थे।
मुद्रा सुधार के दौरान प्रमुख चुनौतियों में से एक अर्थव्यवस्था में प्रचलित कई मुद्राओं का सह-अस्तित्व था। चेर्वोनेट्स के अलावा, विदेशी मुद्रा तथा अन्य विभिन्न मुद्राएं प्रचलन में थी। इसके उपाय के रूप में सोवियत सरकार ने मुद्रा जारी करने और प्रचलन पर एकाधिकार स्थापित किया। राज्य द्वारा नियंत्रित बैंकिंग प्रणाली ने धीरे-धीरे अन्य मुद्राओं को समाप्त किया और चेर्वोनेट्स को एकमात्र मुद्रा के रूप में स्थापित किया। मुद्रा सुधार का एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू 1924 में सोने के मानक की शुरूआत थी। सोवियत सरकार ने मुद्रा को स्थिरता प्रदान करने और अर्थव्यवस्था में विश्वास बहाल करने के उद्देश्य से चेर्वोनेट्स को सोने से जोड़ दिया। सोने के मानक ने चेर्वोनेट्स के मूल्य को स्थिर करने और रूस और विदेशी निवेशकों के बीच मुद्रा में विश्वास को बढ़ावा देने में मदद की।
श्रमिकों की बदली हुई परिस्थिति
नवीन आर्थिक नीति के प्रारंभ होने से श्रमिकों की स्थिति में कुछ परिवर्तन हुए। श्रमिकों का अनिवार्य सैनिकीकरण समाप्त कर दिया गया जिससे उन्हें कुछ राहत मिली। अब उन्हें ज़बरदस्ती राज्य के लिए श्रम नहीं करना पड़ता था। श्रमिकों को युद्धरत साम्यवाद के काल में मुफ्त में राशन तथा कई सेवाएँ उपलब्ध करवाई जाती थीं लेकिन अब ऐसा नहीं होता था। बढ़ती महँगाई में उन्हें थोड़े से वेतन में गुज़ारा करना पड़ता था। नेप के दौरान एक श्रमिक को पारिश्रमिक के रूप में प्रति माह 9.47 रूबल दिए जाते थे। दूसरी ओर वस्तुओं की कीमत इतनी ज्यादा थी की श्रमिक उसे खरीद नहीं पाता था। इसके अतिरिक्त श्रमिकों को पूरा वेतन मुद्रा के रूप में देना संभव नहीं था। 1921 में केवल 6.8% पारिश्रमिक और 1922 में तकरीबन 50% पारिश्रमिक धन के रूप में दिया जाता था, बाकी वस्तु एवं सेवाओं के रूप में दिया जाता था। किंतु नवीन आर्थिक नीति के सिद्धांतों को लागू करने के परिणामस्वरूप उत्पादन बढ़ा और आर्थिक स्थिति में सुधार भी हुआ। श्रमिकों को मासिक पारिश्रमिक अब स्थायी रूबलों में दिया जाने लगा। 1922 में श्रमिक कानून में परिवर्तन किए गए। इस कानून द्वारा श्रमिकों के लिए काम करने के आठ घण्टे तथा भारी उद्योगों में कम घण्टे निश्चित किए गए। श्रमिकों को पूरे वेतन के साथ दो सप्ताह का पूरा अवकाश दिया गया। सामाजिक बीमा सुविधाएँ (बीमारी में वेतन, बेरोज़गारी भत्ता, चिकित्सा सहायता आदि) भी प्रदान की गई तथा वेतन एवं काम की परिस्थितियों को नियंत्रित किया गया। साथ ही 'विवाद आयोग' द्वारा श्रमिकों के दुखों को सुनने एवं उनका निदान करने की व्यवस्था भी की गई।
मज़दूर संघों की भूमिका
मज़दूर संघों का दायित्व था कि वे उन श्रमिकों के हित का संरक्षण करें जो उनके संघ के सदस्य थे। इस कार्य को करने के लिए उन्हें या तो उन मालिकों से लड़ना था, जो श्रमिकों का शोषण करते थे या नए उदारवादी कानून बनवाने थे जो श्रमिकों के पक्ष में हों। कुछ व्यापार संघ के नेता, जिनमें टामस्की (Tomsky) उल्लेखनीय था, विचित्र स्थिति में थे क्योंकि वे दल तथा मज़दूर संघ दोनों का नेतृत्व करते थे। दल के वरिष्ठ नेता होने के कारण उन्हें भली-भाँति मालूम था कि राष्ट्र की आर्थिक स्थिति खराब थी तथा सभी नागरिकों का सामूहिक उत्तरदायित्व था कि वे राष्ट्र की नौका को डूबने से बचाएँ। हड़तालों तथा विरोधों से आर्थिक प्रगति का कार्य रुकता था, इसलिए मज़दूर संघ के नेताओं का नैतिक कर्त्तव्य बनता था कि वे अपने पद का प्रयोग करके मज़दूर संघों को ऐसे हानिकारक कार्य करने से रोकें। किंतु मज़दूर संघ के सदस्य ऊपर वर्णित तथ्य से सहमत नहीं थे। उनका मानना था कि मज़दूर संघ के नेताओं का प्राथमिक कर्त्तव्य सर्वहारा वर्ग के हित की रक्षा करना था। निजी रूप में काम करवाने वाले मालिकों के संबंध में मज़दूर संघ वैधानिक भूमिका निभाते थे क्योंकि ऐसे मालिकों का स्वार्थ, राष्ट्र के हित में न होकर निजी लाभ के लिए होता था।

बेरोज़गारी
इस समय की एक अन्य महत्वपूर्ण समस्या बेरोज़गारी की थी। यह 1923 में बहुत बढ़ गई थी। जनवरी 1924 तक बेरोज़गारी 12.4 लाख पहुँच गई थी। बेरोज़गारी ने युवा वर्ग को काफी प्रभावित किया। 1922 के श्रमिक कानून द्वारा श्रमिक को विशेष रियायतें दी गई थीं जैसे प्रतिदिन काम करने के केवल 7 घण्टे निश्चित करना, जिससे प्रबंधक उन्हें नौकरी देने से पहले कई बार सोचते थे। उनके लिए नौकरियाँ बहुत कम थीं। परिणामस्वरूप युवा वर्ग को अपराध के रास्ते भी अपनाने पड़े। इस विषय पर विद्वान जेफ्री होस्किंग ने कहा है, "सुरक्षित सामाजिक आधार के बगैर, साम्यवादी दल, नवीन आर्थिक नीति को उस प्रकार निर्देशित नहीं कर सका था जैसे वह चाहता था। अर्थतंत्र एक ऐसी गाड़ी के समान था जिसका 'ड्राइवर' उसका चालक नहीं था। सट्टेबाज, पूँजीपति, ईश्वर जाने कौन-कौन वास्तव में गाड़ी को चला रहे थे, परंतु अक्सर वह ऐसी दिशा में जाती थी जिसकी कल्पना भी उसके चालक ने नहीं की होती थी।
नेप का अंत
1925 में नवीन आर्थिक नीति अपनी चरमावस्था पर पहुंच चुकी थी और स्टालिन के समयकाल में इसका अंत निश्चित हो चुका था। रूसी साम्यवादी दल के इतिहासकार नेप की समाप्ति को एक सामान्य प्रक्रिया मानते थे। उनके अनुसार नेप के अंदर कुछ ऐसे तत्व विद्यमान थे जिनको समाप्त करना सरकार के लिए आवश्यक था अगर वह समाजवाद को सोवियत रूस में स्थापित करना चाहते है। नेप साम्यवादी दल के अधिकतर सदस्यों के लिए "शत्रुओं के साथ किया गया समझौता था।
कुल मिलाकर, लेनिन की नई आर्थिक नीति वर्षों के युद्ध और उथल-पुथल के कारण हुई आर्थिक तबाही के प्रति एक व्यावहारिक प्रतिक्रिया थी, और इसने रूसी गृहयुद्ध के बाद सोवियत अर्थव्यवस्था को स्थिर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। नई आर्थिक नीति का उद्देश्य श्रमिक वर्ग और कृषकों के आर्थिक सहयोग को सुदृढ़ बनाना, नगरों और ग्रामों में श्रमजीवी वर्ग को देश की अर्थव्यवस्था का विकास करने के लिए प्रोत्साहित करना था।
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