युद्धरत साम्यवाद
सोवियत राष्ट्र द्वारा जून 1918 से मार्च 1921 तक अपनाई गई नीति को युद्धरत साम्यवाद की संज्ञा दी गई है। विश्वयुद्ध तथा गृहयुद्ध के कारण सोवियत आर्थिक ढाँचा नष्ट हो गया। इसलिए सरकार को युद्धरत साम्यवाद की नीति को अपनाना पड़ा। युद्धरत साम्यवाद के तहत भूमि, किसानों और जमींदारों से छीनकर राज्य की घोषित कर दी गई और फिर उसको किसानों में बांट दिया गया। सरकार ने किसानों से जबरन अनाज लेने की नीति अपनाई, अपने खाने लायक अनाज को छोड़कर बाकी संपूर्ण उत्पादन सरकार को देने के लिए किसान बाध्य हो गया। उत्पादन को बाजार में बेचने से रोकने के लिए सशस्त्र टुकड़ियों को किसानों के अनाजों को जब्त करने के लिए भेजा गया। अनाज संग्रह करने वाले को कठोर सजाएं दी गई। गृह युद्ध और बोल्शेविक सरकार द्वारा बलपूर्वक अनाज लेने के खिलाफ कृषकों ने विद्रोह किया, जिससे कृषि उत्पादन में भारी गिरावट आई। देश में भूखमरी की स्थिति उत्पन्न हो गई और अकाल पड़ गया।
कारण
खेतों का असंतोषजनक विभाजन: बोल्शेविक क्रांति के सफल होने के बाद कृषकों से भूमि छीनकर उसका पुनः बँटवारा किया गया। भूमि के अव्यवस्थित विभाजन से किसानों में आपसी झगड़े होने लगे जिससे उत्पादन में कमी आई। दूसरी ओर सोवियत सरकार ने किसानों के झगड़ों को नियंत्रित करने के बजाए प्रोत्साहित किया। 15 फरवरी 1918 को लेनिन ने साधारण कृषकों को समृद्धिशाली किसानों के खिलाफ युद्ध करने का आदेश दे दिया। अनाज की कमी तथा तैयार माल की बढ़ती कीमतों के कारण किसान अपने खाद्य पदार्थों के लिए ऊँची कीमतें माँगने लगे, लेकिन सरकार ने उनकी दर पर उनसे अनाज खरीदने से मना कर दिया परिणामस्वरूप कृषकों ने कालाबाज़ारी करने का मार्ग अपनाया।
कारखाना समितियों द्वारा कानूनी शक्तियों का दुरुपयोग: अनेक कारखाना समितियों ने कारखानों के प्रशासन को अपने हाथ में ले लिया। दूसरी ओर उद्योगों में श्रमिकों तथा उद्योग प्रबंधकों के बीच आपसी मतभेद होने लगे। उद्योगों के प्रबंधकों ने कारखना समितियों के आदेशों का पालन करने से मना कर दिया। इनमें से कुछ ने मौका ढूँढकर कारखानों को बंद कर दिया और कुछ उस क्षेत्र को छोड़कर दूसरे इलाके में चले गए। 1918 में श्रमिक संघवाद की प्रवृत्ति कारखाना समितियों में पनपने लगी। अब कारखानो को श्रमिकों द्वारा श्रमिकों के लाभ के लिए चलाया जाने लगा। लेकिन इससे उत्पादन में कमी आई तथा अनुशासन भी भंग हो गया।

गृहयुद्ध तथा विदेशी राष्ट्रों द्वारा सशस्त्र हस्तक्षेप: युद्धरत साम्यवाद को अपनाने के अनेक कारणों में से एक 1918 का गृहयुद्ध था। गृहयुद्ध से राष्ट्र की स्थिति बिगड़ती गई। वस्तुओं की कमी गंभीर रूप धारण करने लगी थी। इस कठिन समय में बुर्जुआ वर्ग ने सोवियत सरकार को सहयोग देना बंद कर दिया। उद्योगों के मालिक तथा बड़े व्यापारी पलायन करने लगे। इसके अलावा शत्रुओं ने रेलवे में रुकावट पैदा की, पुलों को उड़ा दिया गया तथा अन्न भण्डारों को नष्ट कर दिया गया। टाइफस (typhus) बीमारी, महामारी के रूप में फैल रही थी। कारखानों में श्रमिकों द्वारा तोड़-फोड़ किया जाने लगा। इस अव्यवस्था को नियंत्रित करने के लिए सख्त कदम उठाने की आवश्यकता थी, इसलिए केंद्रीय सरकार के पास राष्ट्रीयकरण के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं बचा।
विशेषताएँ
खाद्य पदार्थों का अनिवार्य अधिग्रहण: युद्धरत साम्यवाद के प्रमुख कारणों में से एक अनाज की कमी थी। इसलिए सरकार ने फसलों के उत्पादन एवं वितरण पर नियंत्रण स्थापित किया। अब प्रत्येक कृषक के पास पर्याप्त मात्रा में अगली फसल के लिए बीज तथा उसके परिवार के सदस्यों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए खाद्य पदार्थ छोड़ दिए जाते थे, शेष बचे अनाज को सरकार हड़प लेती थी। अनाज के इस अनिवार्य अधिग्रहण को प्रोड्राज़वर्तका (Prodrazverstka) की संज्ञा दी गई। प्रोड्राज़वर्तका की नीति को पूर्ण रूप से लागू करने के लिए मई 1918 में वितरण विभाग या नारकामप्रोड (Narcomprod) का उपयोग किया गया। यह विभाग अनाज का अधिग्रहण करके उसका वितरण सैनिकों तथा श्रमिकों में कर देता था। वह राशन का वितरण करने के लिए वितरण-केंद्रों का भी बंदोबस्त करता था।
नारकामप्रोड ने श्रमिक टुकड़ियों तथा गुप्तचर पुलिस के साथ मिलकर जमाखोरों के माल गोदामों पर छापे मारे तथा जमाखोरों को दण्डित किया। यह अभियान अमीर कृषकों तथा पूर्ण रूप से संपन्न कृषकों के विरुद्ध चलाया गया। 11 जून 1918 में किसानों की समितियों या कोमबेडी (Kombedy) की स्थापना की गई जिनका प्रमुख कार्य अमीर किसानो से अनाज छीनना था। अमीर कृषकों ने इस अनाज के ज़ब्तीकरण का विरोध भी किया। कुछ कृषक अनाज को छुपा देते थे तथा कुछ उसे काले बाज़ार में बेचते थे। इतना ही नहीं कुछ क्षेत्रों में कृषको ने अनाज के बोआई के क्षेत्रफल को भी कम कर दिया।
राष्ट्रीयकरण: 28 जून को सरकारी आदेश द्वारा सभी बड़े उद्यगो का राष्ट्रीयकरण किया गया। राष्ट्रीयकरण का सिद्धांत उन सभी बड़े उद्यगो पर लागू किया गया जिनमें 10 लाख से अधिक पूँजी निवेश की गई थी। जिन उद्योगों का राष्ट्रीयकरण किया गया उनमें धातु, वस्त्र, शीशा, चमड़ा, तंबाकू, सीमेंट तथा लकड़ी शामिल थे। बुखारिन ने राष्ट्रीयकृत संस्थाओं का विवरण देते हुए कहा था कि सितंबर 1919 तक 80% से 90% बड़े उद्योगों का राष्ट्रीयकरण हो चुका था तथा कुछ ही समय में ये 100% होने वाला था। 1920 तक 5 से कम मजदूरों वाली कार्यशालाओं को भी राज्य के अधीन ले लिया गया। मार्च 1918 के एक निर्णय के द्वारा रेलवे को 'मजदूरों के नियंत्रण' से छीन लिया गया और इसे अर्द्धसैनिक नेतृत्व के नियंत्रण में ले लिया गया।

कृषि पदार्थ के वितरण का निर्धारण: कृषि पदार्थों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया गया। प्रथम श्रेणी में अनिवार्य अधिग्रहण के पदार्थ शामिल थे, जिसे ज़बरदस्ती सरकार कृषकों से ले लेती थी। द्वितीय श्रेणी में वे पदार्थ शामिल थे जिनकी खरीद पर राज्य का एकाधिकार स्थापित था परंतु जिनका अनिवार्य रूप से अधिग्रहण नहीं किया जाता था। तीसरी श्रेणी में गैर-उत्पादित पदार्थ शामिल थे जिनका स्वतंत्र रूप से विक्रय या विनिमय किया जा सकता था। कृषक पहली दो श्रेणियों की वस्तुओं का उत्पादन नहीं करना चाहते थे। वे केवल उन वस्तुओं का उत्पादन करना चाहते थे जो तीसरी श्रेणी में आती थीं। किंतु सरकार निरंतर सभी वस्तुओं की खरीद और अधिग्रहण पर अपना एकाधिकार स्थापित करती चली गई। परिणामस्वरूप गृह युद्ध के अंत तक कोई भी वस्तु तीसरी श्रेणी में नहीं बची। सरकार चाहती थी कि कृषक अधिक से अधिक अपने पदार्थ सरकार को बेचें, इसलिए उन्हें ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित किया गया। सरकार ने एक औद्योगिक भण्डार की स्थापना की जिसमें औद्योगिक पदार्थ एकत्र किए जाते थे और उन्हें किसानों को वितरित किया जाता था। सरकार ने खरीद तथा वितरण के कार्य को ठीक प्रकार से चलाने के लिए सहकारी संस्थाओं की सहायता ली।
औद्योगिक प्रशासन में केंद्रीकरण: कृषि क्षेत्र की तरह औद्योगिक प्रशासन में भी केंद्रीकरण किया गया। यह कार्य ग्लावकी तथा केंद्रों की सहायता से किया गया। ग्लावकी भारी उद्योग तथा केंद्र हल्के उद्योगों को नियंत्रित करते था। जैसे-जैसे उद्योगों के राष्ट्रीकरण किया गया, वैसे-वैसे ग्लावकी तथा केंद्रों की संख्या में वृद्धि हुई। ग्लावकी की संख्या में केंद्रों की अपेक्षा अधिक वृद्धि हुई। केंद्रीकरण की प्रवृत्ति की विषेश बात यह थी कि 'माँग एवं वितरण' का कार्य ग्लावकी में केंद्रित था। ग्लावकी का सहकारी संगठनों एवं अन्य संस्थाओं के साथ लेन-देन का संबंध भी था। परंतु वस्तुओं की कमी के कारण ग्लावकी के कार्य 'सर्वोच्च उपयोगितावादी आयोग' के अधीन कर दिए गए। इसका कार्य वस्तुओं के वितरण प्राथमिकताओं को निर्धारित करना था। इस संस्था को "ग्लावकी पद्धति के ताज" की संज्ञा दी गई।
राशन एवं वेतन: युद्धरत साम्यवाद के काल में पारिश्रमिक, धन की अपेक्षा वस्तु के रूप में दिया जाने लगा था। श्रमिक स्वयं पारिश्रमिक, खाद्य-पदार्थों के रूप में लेना चाहते थे क्योंकि उनकी बहुत कमी थी। इसके अलावा रूबलों का काफी अवमूल्यन हो चुका था और सरकार बिना धन के अर्थव्यवस्था को चलाने का प्रयास कर रही थी। युद्धरत साम्यवाद की शुरुआत में सभी श्रमिकों को एक समान वेतन दिया गया परंतु बाद में परिस्थिति बिगड़ने के कारण कुशल तथा विशेषज्ञ श्रमिको को उनकी तकनीकी जानकारी के आधार पर अधिक पारिश्रमिक दिया जाने लगा।
शॉक पद्धति (Shock System): सोवियत सरकार उद्योगों से संबंधित कई विषयों पर बिना पर्याप्त जानकारी के निर्णय ले लेती थी। इससे उद्योगों के काम में गड़बड़ी तथा विलंब भी होता था जिसके कारण निर्धारित उत्पादन भी नहीं हो पाता था। ऐसी स्थिति में कुछ महत्वपूर्ण उद्योगों को एक विशेष श्रेणी में स्थानांतरित कर दिया जाता था जिसे शॉक उद्यम (shock enterprise) की संज्ञा दी जाती थी।
इन उद्यगो के उत्पादन को बढ़ाने के लिए विशेष सुविधाएँ दी जाती थीं। इन्हें अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए केंद्र की अनुमति नहीं लेनी पड़ती थी। इनके लिए सबसे पहले ऊर्जा और कच्चे माल का बंदोबस्त किया जाता था, इनके श्रमिकों को सबसे पहले राशन उपलब्ध करवाया जाता था तथा इनके प्रबंध कार्य उत्तम होते थे। कई बार कुछ उद्योगों को शॉक पद्धति में इसलिए भी शामिल किया जाता था क्योंकि उनके द्वारा निर्मित की गई वस्तु पर अन्य उद्योगो का उत्पादन कार्य निर्भर करता था। इस प्रकार शॉक पद्धति के अंतर्गत सम्मिलित उद्योगों की संख्या लगातार बढ़ती गई। इसका क्षेत्र इतना बढ़ गया कि उसमें कलम, पेंसिल, दफ्तर के छोटे-मोटे संयंत्र भी शामिल हो गए। इस व्यवस्था से सभी प्रकार के उद्योगों को नुकसान हुआ। जो उद्योग शॉक पद्धति के बाहर थे, उनको इसलिए नुकसान हुआ क्योंकि उनकी आवश्यकताओं की तरफ बिल्कुल भी ध्यान नहीं दिया जाता था।
स्वतंत्र बाजार समाप्त करने का प्रयास: 21 नवंबर 1918 को व्यक्तिगत व्यापार पर प्रतिबंध लगा दिया गया और नारकामप्रोड को लोगों में उपभोक्ता पदार्थों को वितरण करने का एकमात्र अधिकार प्रदान किया गया। मार्च 1919 में सहकारी संस्थाओं का स्वतंत्र अस्तित्व समाप्त कर दिया गया और उन्हें भी नारकामप्रोड के वितरण प्रक्रिया के अधीन कर दिए गया। काला बाजारी करना गैर कानूनी घोषित कर दिया गया। वस्तुओं के मुक्त विनिमय पर पाबंदी लगा दी गई। वस्तु विनिमय को निजी क्षेत्र से हटाकर राज्य के एकाधिकार में ला दिया गया। इन वस्तुओं का वितरण राज्य के द्वारा किया जाने लगा। 1918 से 1919 के दौरान राजकीय एकाधिकार सभी उत्पादित एवं निजी उपभोग की वस्तुओं जैसे खाद्य पदार्थ, औद्योगिक सामग्री, कच्चा माल पर स्थापित किया गया।
इन सभी उपायों के बाद भी काला बाज़ारी फलती-फूलती रही क्योंकि सभी प्रकार की वस्तुओं, यहाँ तक कि डबलरोटी की भी बहुत कमी थी। समाज में मेशोचनिकी नामक एक वर्ग का उदय हुआ जिसका अर्थ बोरे वाला आदमी था। मेशोचिनकी चौकीदारों की निगाह से बचकर, खाद्य सामग्री को एक जगह से दूसरी जगह ले जाता था। अनाज की कमी के कारण नगरों की आबादी में गिरावट आई क्योंकि कई लोग नगर छोड़कर गाँव चले गए। बुर्जुआ लोगों को श्रमिकों से भी कम भोजन प्राप्त होता था। इसलिए वे काले बाज़ार से खाद्य सामग्री खरीदने के लिए विवश हो गए थे। एक सोवियत लेखक ने लिखा है कि वस्तु विनिमय में अनाज के बदले एक किसान को वाद्ययंत्र, पियानो मिला था जो कृषक की झोंपड़ी में रखे जाने के लिए बहुत बड़ा था। अतः उसके दो टुकड़े किए गए तथा एक भाग झोंपड़ी के अंदर तथा दूसरा भाग बाहरी कोठरी में रखा गया।

धन की भ्रांति: गृह युद्ध, अव्यवस्था तथा भुखमरी के कारण बाज़ार मे वस्तुओं के भाव बढ़ते जा रहे थे। जिससे रूसी पैसे रूबल का ह्रास हुआ। राजकीय व्यय को रूबल छपवाकर पूरा किया जाता था लेकिन अब इस मुद्रा का कोई महत्व नहीं रह गया था। इसके उपाय के लिए अगस्त 1918 में धन को लेन-देन के माध्यम से हटाया गया। 21 नवंबर 1918 को पूरे निजी आंतरिक व्यापार पर पाबंदी लगा दी गई। नारकामप्रोड को जनता तक उपभोक्ता वस्तुएँ पहुँचाने का उत्तरदायित्व सौंपा गया। उद्योगों के बीच लेन-देन की कार्यवाही लिखित तौर पर कर दी गई। उसमें नकद लेन-देन नहीं होता था। श्रमिकों को वेतन वस्तु के रूप में दिया जाने लगा। थोड़ा बहुत राशन मुफ्त दिया जाने लगा। गाड़ियों तथा रेलगाड़ियों में सफर निःशुल्क कर दिया गया। यह पूरी प्रक्रिया 1920 के अंत तक अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच गई।
1921 की शुरुआत में सरकार ने नागरिकों से कर लेना बंद कर दिया क्योंकि सरकार का मानना था कि उसे जो भी वस्तुएँ चाहिए थीं वह उन्हें वस्तु विनिमय के माध्यम से प्राप्त हो जाती थी और इसलिए उसे धन एकत्र करने की आवश्यकता नहीं थी। जैसे जैसे धन का महत्व कम होता गया, निजी व्यापार को गैर-कानूनी कर दिया गया और सभी औद्योगिक उद्यमों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया।
मज़दूर संघों की भूमिका: श्रमिकों के बारे में ट्रॉटस्की ने श्रमिक सैनिकीकरण की योजना को लागू किया। 1920 में गृह-युद्ध और आंतरिक समस्याओं के कारण श्रमिकों से पुनर्निर्माण कार्य करवाने की आवश्यकता थी। ऐसी स्थिति में ट्रॉटस्की ने 'श्रमिक अनिवार्य भर्ती योजना' का आरंभ किया। इस योजना के अंतर्गत "शॉक उद्यमों" की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए "शॉक बटालियन" बनाए गए। इनमें जो श्रमिक भर्ती किए गए थे, उन्हें वही कार्य करने पड़ते थे जो सरकार उन्हें करने को आदेश देती थी। ट्रॉटस्की की योजना में वे सैनिक भी शामिल किए गए जो युद्ध करके वापस लौटे थे। इन सैनिकों को रेल पटरियों की सफाई, सड़क निर्माण एवं बिजली की लाइनों को ठीक करने के कार्य में लगाया गया। व्यापार संघों को प्रबंधकों का बंदोबस्त करना था। इन प्रबंधकों की स्वीकृति ऊपर से मिलती थी और उन्हें कठोर अनुशासन में रहना पड़ता था।
युद्धरत साम्यवाद को त्यागना: सोवियत सरकार ने युद्धरत साम्यवाद की नीति को उत्साहपूर्वक कार्यान्वित किया और उसे पूर्ण आशा थी कि वह राष्ट्र की समस्याओं का समाधान प्राप्त करने में सफल होगी लेकिन कुछ ही वर्षों में उसे कई कारणों से त्यागना पड़ा जिनका वर्णन निम्नलिखित है:
समीचका को खतरा: बाज़ार, उद्योग एवं कृषि के बीच एक कड़ी का काम करता था। जैसे-जैसे बाज़ार की व्यवस्था को समाप्त किया गया और अनाज ज़ब्तीकरण की नीति को बढ़ाया गया, वैसे-वैसे कृषक विद्रोह बढ़ने लगे। युद्धरत साम्यवाद के काल में, सरकार ने पहले कृषकों को बाध्य किया कि वे अपना संपूर्ण उत्पादन अधिशेष अपने परिवार की आवश्यकताओं के अतिरिक्त सरकार को सौंप दे। इस नियम का किसानों ने बड़ी संख्या में उल्लंघन किया और सरकार को अपनी नीति बदलनी पड़ी। नई नीति के अनुसार स्थानीय अधिकारियों को मनमाने ढंग से अनाज लेने का अधिकार दिया गया था। इस पद्धति ने गृह-युद्ध के काल में सैनिकों एवं नागरिकों को भुखमरी से बचाए रखा था परंतु वह केवल एक अल्पकालीन उपाय था। अनाज को सरकार से छुपाना किसान की एक निपुण कला बन गई थी। परेशान होकर सरकार ने अनाज को एकत्र करने के लिए और कठोर कदम उठाए। इससे कृषक विद्राह बढ़ गए।
उद्योग एवं कृषि के बीच विनिमय: अक्सर किसान जितना उत्पादन सरकार को देता था, सरकार उसी अनुपात में उसे तैयार माल देकर संतुलित कर देती थी। जिस समय किसान सरकार को अनाज देता था, वह उसे एक रसीद देती थी जिसे सहकारी भंडार में दिखाकर वह तैयार माल ले सकता था। लेकिन तैयार माल के मूल्य, कृषि पदार्थों की तुलना में दुगुना या तीन गुना बढ़ गए थे। इसके अलावा तैयार माल का सबसे बड़ा भाग गरीब गाँव वालों को दिया जाता था जबकि वह बहुत कम अनाज पैदा करते थे। समृद्धिशाली किसान जो अधिकांश अनाज उत्पन्न करते थे, सरकार से बहुत कम तैयार माल प्राप्त करते थे। इनको जो तैयार माल दिया जाता था, उसकी मात्रा कई बार उस माल से भी कम होती थी जो गरीब किसानों को दी जाती थी। ऐसा वितरण सरकार अपने उद्देश्यों को पूरा करने के लिए कर रही थी।
सरकारी नीति में एक अन्य त्रुटि यह थी कि वह तैयार माल को 'उपभोक्ता क्षेत्रों' में बेच देती थी क्योंकि वे माल तैयार करने वाले क्षेत्रों के नज़दीक पड़ते थे। इससे 'उत्पादन क्षेत्रों' को बहुत कम तैयार माल मिल पाता था। कई बार सबसे अधिक अनाज उत्पादन करने वाले क्षेत्र को बिल्कुल भी तैयार माल नहीं मिल पाता था। इस प्रक्रिया में अमीर किसानों का जो अधिक उत्पादन करते थे, उनका शोषण किया गया था।" दुखी होकर अधिकतर किसान मुक्त व्यापार की माँग करने लगे थे लेकिन सरकार उनकी बात मानने को तैयार नहीं थी। जिसके चलते खाद्य सामग्री संग्रह करने वाले अधिकारियों पर आक्रमण किया जाने लगा। कई लोगों की हत्याएँ भी की गई। स्थिति इतनी खराब हो गई थी कि कई स्थानों में विद्रोहों को दबाने के लिए सेना भेजनी पड़ी ।
शहरी मज़दूरों में मनमुटाव: युद्धरत साम्यवाद के काल में न केवल कृषक वर्ग बल्कि श्रमिक वर्ग भी सरकार से अपने आपको अलग एवं कटा हुआ महसूस कर रहा था। इसके अतिरिक्त केंद्र और प्रांतों के साम्यवादी दल के सदस्यों में मनमुटाव था क्योंकि एक तरफ "कोट-बूट में सुसज्जित, चुस्त, केक खाने वाले" केंद्रीय कम्मिसर थे और दूसरी तरफ प्रांतीय साम्यवादी जिन्हें राशन भी उपलब्ध नहीं होता था। केंद्रीय अधिकारी श्रमिकों को बिना ईंधन और ऊर्जा दिए, उत्पादन करने के लिए कहते थे। सरकार उनको बाज़ार से खाद्य वस्तुएँ खरीदने के लिए मना करती थी परंतु खुद उनको राशन के पदार्थ उपलब्ध करवाने में असमर्थ थी। श्रमिक, मज़दूर संघों से दुखी थे क्योंकि वे सरकार के 'अस्त्र' बने हुए थे। वे श्रमिकों का पक्ष लेने के बजाए सरकार के आदेशों और नीतियों का समर्थन करते थे।

देश में सामान्य जीवन असंभव: अनेक गाँवों में साधारण लोगों का रहना दूभर हो गया था। विदेशी व्यापार का पतन केवल आंतरिक अराजकता की वजह से नहीं हुआ था बल्कि पश्चिमी ताकतों के कारण भी हुआ। उदाहरण के लिए 1919-20 में ब्रिटिश नौ-सेना बहुत बड़ी संख्या में फिनलैण्ड की खाड़ी में स्थित थी जिससे लेनिनग्राड की नाकेबंदी की गई थी। निस्संदेह युद्धरत साम्यवाद के समय जनता की स्थिति अत्यधिक बिगड़ती चली गई। युद्धरत साम्यवाद लोगों की स्थिति को सुधारने में सफल नहीं हुआ किंतु पूँजीवाद से समाजवाद में परिवर्तन एक महत्वपूर्ण कदम था। किंतु विश्वयुद्ध, गृह-युद्ध और विदेशी हस्तक्षेप की स्थिति में यह परिवर्तन लाना एक प्रशंसनीय कार्य था।
युद्धकालीन साम्यवाद के काल में अपनाई गई नीतियों के कारण कई विद्रोह हुए। इन सबमें से सबसे प्रसिद्ध विद्रोह क्रौनस्टाड् का विद्रोह था जो मार्च 1921 में हुआ था। क्रौनस्टाइ, पैट्रोग्राड के बाहर एक नाविक अड्डा था। इस विद्रोह की विशेषता यह थी कि यह बोल्शेविकों के अपने गढ़ में हुआ था जिससे पता चलता है कि बोल्शेविक नीतियों से लोग परेशान थे। इस नाविक अड्डे की सार्वजनिक सभा में एक प्रस्ताव पास किया गया जिसमें सरकार के अनाज के एकाधिकार की समाप्ति एवं सोवियत चुनाव के आधार पर नई सरकार की स्थापना की माँगें की गईं। लेकिन इन माँगों को अस्वीकार कर दिया गया तब क्रौनस्टाड् के नाविकों ने सशस्त्र विद्रोह कर दिया। उनका नारा था "साम्यवादियों एवं कम्मिसरों के बगैर सोवियतों की स्थापना करो।" क्रौनस्टाड् के दैनिक पत्र में 'नवीन साम्यवादी दासता', 'नौकरशाही व्यापार संघों तथा "कृषक दमन" पर प्रहार किया गया।
युद्धरत साम्यवाद के परिणाम
युद्धरत साम्यवाद के देश के सैन्य, सामाजिक और आर्थिक पहलुओं में अलग-अलग परिणाम हुए। यह एक आपदा साबित हुआ और गृह युद्ध के दौरान अर्थव्यवस्था में सुधार करने में विफल रहा। अतिरिक्त उत्पादन को सरकार को सौंपने की नीति से ग्रामीण इलाकों में भारी आक्रोश फैल गया। अधिशेष अनाज उगाने के लिए कोई प्रोत्साहन नहीं होने के कारण, किसानों का अनाज उत्पादन कम हो गया क्योंकि किसानों ने अपने लिए फसलें उगाने का विकल्प चुना। किसान और शहरी आबादी दोनों भुखमरी, कुपोषण और बीमारी से पीड़ित थे। ईंधन और कुशल श्रमिकों की कमी के कारण कई बड़ी फ़ैक्टरियाँ बेकार हो गईं। खद्यान उत्पादन और औद्योगिक उत्पादन में गिरावट आई क्योंकि एक बड़ी और अप्रशिक्षित नौकरशाही ने उद्योगों की निगरानी की। अनियंत्रित मुद्रास्फीति के कारण कागजी मुद्रा बेकार हो गई, सरकार ने पैसे के उपयोग के बिना वस्तुओं और सेवाओं के विनिमय और वितरण का सहारा लिया। अवैध निजी व्यापार का उदय हुआ। निष्कर्षतः युद्धरत साम्यवाद कृषि और औद्योगिक उत्पादन दोनों में सुधार करने में विफल रहा, जिससे आर्थिक तबाही हुई।
उत्पादन में कमी: भोजन की समस्या युद्ध के कारण विकट हो गई। किसानों को भूमि बांटने के कारण छोटे पैमाने पर कृषि उत्पादन आरंभ हुआ। लेकिन युद्ध के दौरान हुए संसाधनों की हानि के कारण, युद्ध के लिए उत्पादन पर बल दिया जाने लगा परिणामस्वरूप उपभोक्ता वस्तुओं के उत्पादन में गिरावट आई। इस कारण किसानों ने बाजार के लिए उत्पादन करना बंद कर दिया और केवल अपनी जरूरत भर का उत्पादन करने लगे जिसके कारण शहरी क्षेत्रों और युद्ध क्षेत्रों में भोजन की भारी कमी हो गई।
शहर में रहने वाले गरीबों और सैनिकों को भोजन उपलब्ध कराने के लिए सोवियत सरकार किसानों से अधिशेष अनाज जबरन वसूल करने लगी और उद्योग को पुनः जीवित करने के लिए सभी उद्योग पर राज्य का नियंत्रण स्थापित कर दिया गया। इसके जवाब में किसानों ने अपनी उत्पादकता ओर भी कम कर दी। इसके कारण अनाज का उत्पादन बहुत तेजी से गिरा जिससे खाद्यान्न संकट और भी गहरा हो गया और अन्ततः 1920-21 में अकाल पड़ गया। इस समय किसानों ने बड़े पैमाने पर जमाखोरी की और अनाज को काला बाजार में ऊंचे दामों पर बेचा।
उद्योगों के संबंध में भी सरकार ने कठोर नीतियां लागू की। कारखानों पर सरकारी नियंत्रण स्थापित किया गया। कारखानों का समस्त उत्पादन सरकार ने अपने नियंत्रण में लेकर जनता को अपनी ओर से माल देना आरंभ किया। इस प्रकार निजी व्यापार भी बंद हो गया। बैंकिंग प्रणाली भी अव्यवस्थित हो गई, क्याेंकि सरकार ने वस्तु विनियम प्रणाली पर बल दिया। इस प्रकार युद्धरत साम्यवाद की शासन व्यवस्था को आतंक तथा बलपूर्वक चलाया जाने लगा। इस शासन व्यवस्था से रूसी जनता में असंतोष बढ़ता गया, जो एक के बाद एक कई कृषक विद्रोहों के रूप में सामने आया। इतना ही नहीं, नौसेनिकों ने भी विद्रोह किया। इस प्रकार गृह युद्ध एवं विश्वयुद्ध की हानियों के कारण पहले से ही जर्जर राष्ट्र को युद्धरत साम्यवाद ने और भी ज्यादा दुष्प्रभावित किया। अतः लेनिन ने स्थिति की गंभीरता को समझते हुए असंतोष के कारणों को दूर करने और रूस के आर्थिक पुनर्निर्माण के लिए युद्धरत साम्यवाद के स्थान पर नई आर्थिक नीति अपनाई।
युद्धरत साम्यवाद रूसी गृहयुद्ध की परिस्थितियों की प्रतिक्रिया थी, लेकिन इसके गंभीर आर्थिक, सामाजिक और मानवीय परिणाम थे। इसने व्यापक अकाल, आर्थिक पतन और सामाजिक अशांति को जन्म दिया, जिससे किसानों और श्रमिकों दोनों में असंतोष पैदा हुआ। इन कठिनाइयों के जवाब में, बोल्शेविक सरकार ने बाद में 1921 में नई आर्थिक नीति (एनईपी) पेश की, जिसने युद्धरत साम्यवाद की कई नीतियों को आंशिक रूप से सुलझाया और कुछ हद तक आर्थिक उदारीकरण की अनुमति दी।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें
Please do not enter any spam link in the comment box