बुकर टी. वाशिंगटन और नागरिक अधिकार आंदोलन

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बुकर टी. वाशिंगटन और नागरिक अधिकार आंदोलन अफ्रीकी-अमेरिकी नागरिक अधिकार आंदोलन (1955-1968) का उद्देश्य अफ्रीकी अमेरिकी लोगों के खिलाफ नस्लिय भेदभाव को गैर कानूनी घोषित करना और दक्षिण अमेरिका में मतदान अधिकार को पुन: स्थापित करना था। गृहयुद्ध के बाद अश्वेतों को गुलामी से मुक्त कर दिया गया था लेकिन उसके बावजूद भी उनकी स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया। पुनर्निर्माण और द्वितीय विश्वयुद्ध के बीच अश्वेतों की स्थिति ओर खराब हो गई। इस दौरान बुकर टी. वाशिंगटन इनके लिए एक प्रभावशाली नेता बनकर उभरे। वाशिंगटन ने अफ्रीकी-अमेरिकियों के लिए व्यावसायिक शिक्षा और औद्योगिक शिक्षा को बढ़ावा दिया ताकि वह आर्थिक रूप से संपन्न और कुशल बन सके। पृषठभूमि दक्षिण अमेरिका में अश्वेतों ने संघर्ष कर अपने आपको दासता मुक्त कराया। अश्वेतों ने अपनी संस्थाएं बनाई जिससे अश्वेत राष्ट्रवाद का उदय हुआ। नेशनल नीग्रो कन्वेंशन जैसे कई नीग्रो संगठन बने। गृहयुद्ध के दौरान अफ्रीकी-अमेरिकी नेताओं के बीच कट्टरपंथी विचारों का विकास हुआ। बिशप एम. टर्नर, मार्टिन आर. डेलानी और अलेक्ज़ेंडर क्रूमेल ने अश्वेतों के लिए एक स्वायत्त राज्य की...

खुश्चेव की विदेश नीति



खुश्चेव की विदेश नीति

निकिता खुश्चेव 1953 से 1964 तक सोवियत संघ के नेता थे। खुश्चेव ने एक ऐसी विदेश नीति अपनाई जिसका उद्देश्य सोवियत हितों को बढ़ावा देना और दुनिया भर में सोवियत प्रभाव का विस्तार करना था। 8 फरवरी 1955 को मालनकोव ने प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया जिसके बाद बुलगानिन प्रधानमंत्री बना और निकिता खुश्चेव को दल का सचिव बनाया गया। इन दोनों के द्वारा अपनाई गई विदेश नीति को "बुलगानिन खुश्चेव कूटनीतिज्ञता" के नाम से जाना जाता है। किंतु 3 साल बाद 1958 में खुश्चेव ने स्वयं को प्रधानमंत्री एवं दल के सचिव के रूप में स्थापित कर लिया। बुलगानिन के पतन के बाद खुश्चेव विदेश नीति का वास्तविक प्रमुख बन गया। इसके बाद आंतरिक एवं विदेशी राजनीति में निकिता खुश्चेव सबसे शक्तिशाली व्यक्ति के रूप में उभरा। उसे अंतर्राष्ट्रीय संबंधों और आंतरिक विषयों की पर्याप्त जानकारी थी, इसी योग्यता के बल पर वह विदेश नीति को एक नया रूप देने में सफल हुआ।

1955-56 के मध्य खुश्चेव के उत्कर्ष के साथ सोवियत संघ एक "सुपर शक्ति" बन गया। स्तालिन के विकास कार्यों का लाभ खुश्चेव को विरासत में मिला। औद्योगिक विकास, परमाणु एवं मिसाइल तकनीकों में वृद्धि तथा यूरोप में प्रभावशाली ढंग से सोवियत शक्ति का विकास, स्तालिन युग की महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ थीं। खुश्चेव पूर्वी यूरोप में अपने अधीन राष्ट्रों पर सोवियत संघ की प्रभुता को बनाए रखना चाहता था।


खुश्चेव पश्चिम के विरुद्ध तटस्थ राष्ट्रों का एक समूह बनाना चाहता था। इसलिए वह उन राष्ट्रवादी सरकारों के साथ मित्रता करना चाहता था जो पश्चिम के विरुद्ध हो। राजनीतिक मित्रता के साथ-साथ वह इन राष्ट्रों को आर्थिक सहायता देने को तैयार था। वह यूगोस्लाविया और चीन के साथ अपने तनावपूर्ण संबंध को समाप्त करना चाहता था। जिसके लिए वह उन्हें रियायत देने को तैयार था। खुश्चेव ने यह सभी कार्य साम्यवादी सिद्धांतों के अंतर्गत किया।

यूगोस्लाविया

खुश्चेव ने यूगोस्लाविया के साथ लम्बे समय से चले आ रहे संघर्षों का अंत किया। टिटो बाल्कन में फैला एक छोटा सा क्षेत्र था जो अपना एक राजनीतिक महत्व रखता था। साम्यवादी रूस के साथ इसके संबंध अच्छे नहीं थे इसलिए खुश्चेव ने विदेशी नीति में इस मुद्दे को विशेष प्राथमिकता दी। यह सोवियत राष्ट्र एवं पूर्वी यूरोप के लिए एक प्रमुख खतरा था क्योंकि इसने पश्चिमी राष्ट्र अमरीका से आर्थिक एवं सैनिक सहायता प्राप्त कर ली थी। इसके अलावा यूगोस्लाविया सोवियत संघ के विरोधी तुर्की का मित्र था। सोवियत संघ यूगोस्लाविया के साथ मित्रता का संबंध स्थापित करना चाहता था ताकि यूगोस्लाविया को सुरक्षा चौकी बनाकर खुद को सुरक्षित रख सके।

खुश्चेव ने यूगोस्लाविया से मित्रता स्थापित करने पर ज़ोर दिया। सोवियत संघ एवं यूगोस्लाविया के बीच मित्रता तब हुई जब सोवियत संघ ने यह स्वीकार किया कि "समाजवाद को स्थापित करने के अनेक मार्ग" हो सकते हैं। सितंबर 1955 में युगोस्लाविया के साथ व्यापारिक संधि का गई। सोवियत सरकार ने यूगोस्लाविया को सोवियत माल खरीदने के लिए 5.40 करोड़ डालर की अनुदान राशि दी साथ ही यूगोस्लाविया को 3 करोड़ डालर भी उधार दिए। फरवरी 1956 में टिटो ने सोवियत संघ की बीसवीं कांग्रेस को अपनी शुभकामनाएँ भेजीं जिन्हें सोवियत संघ ने बड़े हर्षोल्लास के साथ स्वीकार किया। 1956 में खुश्चेव ने अपने "गुप्त भाषण" में टिटो के प्रति स्तालिन के व्यवहार की निंदा की। टिटो को प्रसन्न करने के लिए खुश्चेव ने स्तालिनकालीन अनेक अधिकारियों को दंडित किया और उन्हें महत्वपूर्ण पदों से हटा दिया। खुश्चेव की यूगोस्लाविया के साथ मित्रता की नीति 1956 के अंत तक बनी रही।

साम्यवादी चीन

इसी समय सोवियत संघ ने साम्यवादी चीन पर अपना ध्यान केंद्रित किया। अक्तूबर 1954 में खुश्चेव एवं बुलगानिन ने पीकिंग की यात्रा की, जिसमें दोनों देशों ने राजनीतिक एवं आर्थिक विषयों पर विचार-विमर्श किया। इस विचार-विमर्श के फलस्वरूप सोवियत संघ ने 1955 में आर्थर बंदरगाह से अपने सैनिक हटा लिए और वहाँ के सैनिक संस्थान को चीन की सरकार को हस्तांतरित कर दिया। 

इसी के साथ सोवियत संघ ने मंचूरिया एवं सिंकियांग पर चीन की सर्वोच्चता को स्वीकार कर लिया तथा वहाँ पर स्थित चार चीनी सोवियत कंपनियों को समाप्त कर दिया गया। इससे चीन पर सोवियत संघ का आर्थिक प्रभाव समाप्त हो गया और इसी के साथ व्यापार और तकनीकी समझौतों का विस्तार हुआ।

चीन को सोवियत संघ द्वारा 23 करोड़ डालर की राशि दी गई। सोवियत संघ ने चीन में पंद्रह औद्योगिक परियोजनाओं को पूरा करने तथा लेनचाऊ से आलमा आटा तक एक रेलवे लाइन निर्माण करने का निर्णय लिया। किंतु सोवियत संघ ने चीन से अलग किए गए प्रदेश तनु-तुवा को उसे वापस नहीं किया इसके अलावा सोवियत संघ ने बीजिंग की उस कोशिश को भी विफल कर दिया जिसके द्वारा चीन उत्तरी कोरिया को अपने अधीन करना चाहता था।

आस्ट्रिया एवं अन्य क्षेत्र 

1955 में सोवियत नेताओं ने आस्ट्रिया के साथ अपनी नीति में परिवर्तन किया। 15 मई 1955 की संधि के द्वारा सोवियत संघ ने आस्ट्रिया पर किए गए अपने कब्ज़े का अंत किया और उसको "तटस्थ स्थिति" प्रदान की। सोवियत संघ के इस मित्रतापूर्ण संबंध का प्रभाव तुर्की, यूनान तथा ईरान पर भी पड़ा। इसके अलावा सोवियत संघ ने संयुक्त राष्ट्रसंघ के आर्थिक विकास तथा तकनीकी कार्यक्रमों में सहयोग देना आरंभ कर दिया।

जुलाई 1955 में जिनेवा सम्मेलन के दौरान सोवियत संघ, अमरीका, ब्रिटेन एवं फ्रांस ने मिलकर शीतयुद्ध के प्रमुख मुद्दों को निपटाने का प्रयास किया। सोवियत संघ ने संयुक्त राष्ट्रसंघ के महासचिव के पद पर नियुक्ति के लिए अपनी पुरानी ज़िद को त्याग दिया और डॉग हैमरशोल्ड को महासचिव के रूप में स्वीकार कर लिया। इसी समय भारत और सोवियत संघ के प्रयत्नों के कारण साम्यवादी चीन ने ग्यारह बंदी अमरीकी विमानचालकों को मुक्त कर दिया। रूस के इस सहयोग और उदारता के कारण संयुक्त राष्ट्रसंघ प्रभावशाली ढंग से कार्य करने लगा। नवंबर-दिसंबर 1955 में सोवियत संघ, फ्रांस, ब्रिटेन एवं संयुक्त राज्य अमरीका ने यह निश्चय किया कि वे संयुक्त राष्ट्रसंघ की सदस्यता के लिए एक दूसरे के द्वारा प्रस्तावित राज्यों का विरोध नहीं करेंगे। जिसके परिणामस्वरूप 8 दिसंबर 1955 को 18 राज्यों को संयुक्त राष्ट्रसंघ की सदस्यता प्रदान की गई।

जिनेवा सम्मेलन

सोवियत संघ ने जिनेवा सम्मेलन में निर्णय लिया की उनके राष्ट्र आक्रामक कार्यवाहियों में सम्मिलित नहीं होंगे। निःशस्त्रीकरण की नीति को अपनाया गया और कुछ क्षेत्रों में छोटे-छोटे समझौते भी किए गए। सोवियत रूस ने पोरककाला का सामुद्रिक अड्डा फिनलैण्ड को वापस दे दिया, पूर्वी ऑस्ट्रिया से सेना को वापस बुला लिया और सोवियत सेना में 6,40,000 सैनिकों की कटौती की घोषणा की गई। किंतु इस सम्मेलन में सोवियत संघ ने शीत युद्ध के मुद्दों पर विचार-विमर्श नहीं किया। साथ ही वह जर्मनी के एकीकरण के खिलाफ था और उसके पुनःशस्त्रीकरण के कार्यक्रम को रोकना चाहता था।

लेकिन सितंबर 1955 में जब सोवियत संघ ने अपने हथियार मिस्र को बेचे, तब न केवल जिनेवा सम्मेलन की अवहेलना हुई बल्कि पश्चिमी शक्तियों की उपेक्षा भी हुई। अक्तूबर-नवंबर में विदेश मंत्रियों का सम्मेलन सफल नहीं हुआ क्योंकि सोवियत संघ ने जर्मनी को स्वतंत्र रूप से चुनाव करवाने की स्वीकृति नहीं दी तथा सोवियत संघ ने जर्मनी को अपने अंतर्राष्ट्रीय संबंध निर्धारित नहीं करने दिए। इस प्रकार जिनेवा सम्मेलन एक स्वप्न बनकर ही रह गया।

बीसवीं दलीय कांग्रेस 

बीसवीं दलीय कांग्रेस के भाषण में खुश्चेव ने साम्यवादी विचारों में कुछ उदारवादी परिवर्तन किए। इस भाषण में उसने अपने पूर्ववर्ती तानाशाह स्तालिन के अपराधों का खुलासा किया। 

शांतिपूर्ण सहअस्तित्व

खुश्चेव ने "शांतिपूर्ण सहअस्तित्व" का नारा दिया जो उसकी विदेश नीति का आधार-स्तंभ बना। खुश्चेव का मानना था कि वह विविध प्रकार की सामाजिक व्यवस्थाओं वाले राष्ट्रों के साथ शांतिपूर्ण तरीके से रह सकता है। उसने यह भी स्पष्ट कर दिया कि पूँजीवाद और समाजवाद दोनों ही अब शांतिपूर्ण सहअस्तित्व" में रह सकते है।

संसदीय माध्यम से समाजवाद 

खुश्चेव ने समाजवाद की स्थापना संसद के माध्यम से शांतिपूर्ण ढंग से की। सोवियत संघ शांतिपूर्ण ढंग से समाजवाद इसलिए लाना चाहता था क्योंकि वह गैर-साम्यवादी राष्ट्रों को जिनमें भारत, बर्मा और मिस्र सम्मिलित थे अपनी ओर आकर्षित करना चाहता था जिससे उसका प्रभुत्व बढ़ सके। क्रांतिकारी अराजकता के कारण सोवियत संघ इन राष्ट्रों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित नहीं कर सका था। इसलिए सोवियत सरकार ने संसदीय माध्यम से समाजवाद लाने का प्रयास किया गया।

संयुक्त मोर्चे का प्रस्ताव

खुश्चेव ने उन समाजवादी दलों पर ध्यान केंद्रित किया जिनका पश्चिमी यूरोप में बहुत अधिक प्रभाव था। बीसवीं कांग्रेस में खुश्चेव ने अपील की कि विश्व के सभी समाजवादी दल मिलकर एक नया "संयुक्त मोर्चा" बनाएँ जिसमें वे सभी शक्तियाँ संगठित की जाएँ जो युद्ध के विरुद्ध हों जिससे विश्व में शांति बनी रहे। इस मोर्चे को मज़बूत बनाने के लिए श्रमिक आंदोलनों के बीच जो मतभेद थे, उन्हें समाप्त किया गया। जिससे साम्यवाद और समाजवादी दलों के बीच व्यावहारिक संबंध स्थापित हो सके। खुश्चेव का मानना था कि संयुक्त मोर्चा बन जाने से समाजवादियों के साथ मिलकर अनेक महत्वपूर्ण तथा लाभदायक काम किए जा सकते है। जिन राष्ट्रों में समाजवादी दल शक्तिशाली थे उनसे आशा की जाती थी कि वे नाटो से दूर रहेंगे। 


पोलैण्ड

सोवियत संघ के विरोध की शुरुआत सबसे पहले पोलैण्ड के बुद्धजीवियों ने की। "1956 में पोलैण्ड के पोज़नान शहर में क्रांति प्रारंभ हुई। पोलैण्डवासियों ने सोवियत शासन एवं आर्थिक दबावों के विरुद्ध आक्रोश व्यक्त किया। रूसी लोगों के प्रति पोलिश लोगों की घृणा उभर कर सामने आने लगी। खुश्चेव ने इस स्थिति को गंभीरता से लिया और सोवियत संघ ने पोलैण्ड के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने का वचन दिया। रोकोसोविस्की जो पोलैण्ड में सोवियत सैन्य शक्ति के अध्यक्ष पद पर काम कर रहा था, उसे वापस बुला लिया गया। पोलैण्ड के हित में कुछ व्यापारिक और आर्थिक समझौते किए गए। सोवियत सेना को, जर्मनी की समस्या के सुलझ जाने तक, पोलैण्ड में रहने की अनुमति दी गई। आंतरिक मामलों में सोवियत संघ द्वारा पोलैण्ड को स्वतंत्रता प्रदान की गई लेकिन विदेशी विषयों पर पोलैण्ड से आशा की गई कि वह सोवियत संघ के प्रति पूर्ण निष्ठा रखेगा। 

पूर्वी यूरोप की नीति में परिवर्तन

1956 की घटनाओं के बाद सोवियत रूस ने पूर्वी यूरोप में जो नीति अपनाई थी, उसमें परिवर्तन किए। पूर्वी यूरोप के नागरिकों को आंतरिक स्वतंत्रता देकर, सोवियत संघ ने अपनी उदारता का परिचय दिया। हंगरी में क्रांति को दबाने के बाद सोवियत सरकार ने जेनोस कदार को शासक बनाया जिससे हंगरी में आर्थिक सुधार एवं उदारवादी शासन की शुरुआत हुई।

खुश्चेव जानता था कि पश्चिमी यूरोप के बाज़ार पूर्वी यूरोपीय देशों के लिए आकर्षण का केंद्र है, क्योंकि पश्चिमी राष्ट्रों का तकनीकी एवं अन्य क्षेत्रों में विकास पूर्वी यूरोप से अधिक था। पूर्वी यूरोप के राष्ट्रों की आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिए कमिकन नामक संस्था को सशक्त बनाया गया। इस संस्था द्वारा अनेक राष्ट्रों की आर्थिक जानकारी को एक स्थान पर एकत्र किया गया। सोवियत संघ ने पूर्वी यूरोप को पश्चिम के साथ आर्थिक एवं सांस्कृतिक संबंधों को विस्तृत करने के लिए स्वीकृति दी। पूर्वी यूरोप के राष्ट्रों को चेतावनी दी गई कि पूँजीवादी राष्ट्रों के साथ कोई भी ऐसा संबंध स्थापित नहीं किया जाना चाहिए जो सोवियत संघ के किसी भी राष्ट्र के लिए हानिकारक सिद्ध हो।

राष्ट्रीय साम्यवाद और सोवियत संघ

खुश्चेव ने पूर्वी यूरोप के राष्ट्रों के साथ वैसी दमनकारी नीति नहीं अपनाई जैसी स्तालिन ने अपनाई थी। खुश्चेव की नीति उसके पहले के शासक से अधिक व्यवहारिक और व्यापारिक रूप ग्रहण करने में सफल हुई। अब इन राष्ट्रों के प्रशासन पर दैनिक नियंत्रण नहीं रखा गया अपितु उन्हें पर्याप्त स्वायत्ता प्रदान की गई जिसके बदले में उन्हें सोवियत संघ को मज़बूत बनाने में सहयोग देना था। सोवियत संघ ने पूर्वी यूरोप में अपना ध्यान वहाँ के सैनिक एवं सामरिक विषयों पर केंद्रित रखा और पूर्वी यूरोप को आंतरिक विषयों में जिसमें सांस्कृतिक विषय भी सम्मिलित थे पर्याप्त स्वतंत्रता प्रदान की।

कमिकन

1955 में खुश्चेव के नेतृत्व में कमिकन नामक संस्था की स्थापना की गई। इस संस्था द्वारा अनेक राष्ट्रों की आर्थिक जानकारी को एक स्थान पर एकत्र किया गया। उसके पश्चात् विभिन्न राष्ट्रों के बीच आर्थिक समझौते किए गए जो पाँच वर्षों के लिए किए जाते थे। यह समझौते समाजवादी शिविर में आर्थिक एकीकरण लाने के लिए किए गए। 14 दिसंबर 1959 को कमिकन ने एक नया चार्टर अपनाया जिसमें उसके उद्देश्यों को परिभाषित किया गया। इस चार्टर को दिसंबर 1962 एवं जून 1974 में संशोधित किया गया। इस संस्था द्वारा कई आयोग स्थापित किए गए जिसमें बिजली, ऊर्जा, परमाणु शक्ति, यातायात आदि पर विचार होता था। 

ख्रुश्चेव की विदेश नीति के कुछ प्रमुख पहलु

1. डी-स्टालिनाइजेशन: ख्रुश्चेव ने डी-स्टालिनाइजेशन की नीति शुरू की, जिसमें स्टालिन के शासन की ज्यादतियों की निंदा करना और सोवियत संघ को स्टालिन युग के कठोर दमन से दूर ले जाने का प्रयास करना शामिल था। इस नीति के सोवियत विदेश संबंधों पर भी प्रभाव पड़ा, क्योंकि ख्रुश्चेव ने दुनिया के सामने सोवियत संघ की अधिक उदार और कम ख़तरनाक छवि पेश करने की कोशिश की।

2. शांतिपूर्ण सहअस्तित्व: ख्रुश्चेव ने पूंजीवादी पश्चिम, विशेष रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ "शांतिपूर्ण सहअस्तित्व" की नीति की वकालत की। उनका मानना था कि सोवियत संघ और संयुक्त राज्य अमेरिका प्रत्यक्ष सैन्य संघर्ष में शामिल हुए बिना सह-अस्तित्व में रह सकते हैं, इस तरह उन्होंने दो महाशक्तियों के बीच तनाव को कम करने की कोशिश की।

3. पूर्वी यूरोप का डी-स्टालिनाइजेशन: ख्रुश्चेव ने पूर्वी यूरोप में डी-स्टालिनाइजेशन की नीति अपनाई। द्वितीय विश्व युद्ध के अंत से सोवियत वर्चस्व के अधीन रहे उपग्रह राज्यों पर नियंत्रण को ढीला किया गया। इससे पोलैंड और हंगरी जैसे देशों में कुछ हद तक उदारीकरण हुआ, हालांकि ख्रुश्चेव ने इन देशों में विद्रोह को दबाने के लिए सैन्य हस्तक्षेप भी किया।

4. क्यूबा मिसाइल संकट: ख्रुश्चेव की विदेश नीति की सबसे उल्लेखनीय घटनाओं में से एक 1962 में क्यूबा मिसाइल संकट था। सोवियत संघ ने गुप्त रूप से क्यूबा में परमाणु मिसाइलें रखी थीं, जिससे संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ तनावपूर्ण गतिरोध पैदा हो गया था। संकट को बातचीत के माध्यम से हल किया गया, जिसमें ख्रुश्चेव ने क्यूबा पर आक्रमण न करने के अमेरिकी वचन के बदले में मिसाइलों को हटाने पर सहमति व्यक्त की।

नीति का मूल्यांकन

खुश्चेव के सत्ता ग्रहण करने के पश्चात् सोवियत रूस की विदेश नीति में हमें कुछ परिवर्तन मिलते हैं। उसने सोवियत संघ को एक "सुपर शक्ति" की श्रेणी में प्रतिष्ठित कर दिया। उसकी "सहअस्तित्व की नीति" से न केवल शीतयुद्ध में शिथिलता आई बल्कि सोवियत संघ की छवि विश्व शक्ति के रूप में उभरी। इस नीति के अंतर्गत सोवियत संघ ने साम्यवादी राज्यों को अधिक स्वायत्तता प्रदान की। खुश्चेव ने "तीसरे विश्व" के राष्ट्रों के लिए आर्थिक एवं सैनिक सहायता का द्वार खोल दिया।

खुश्चेव के काल में सोवियत रूस किसी भी राष्ट्र के साथ युद्ध की स्थिति में नहीं आया। केवल अवसर पड़ने पर सोवियत संघ ने सेना के प्रयोग की धमकी दी। वह अणु-युग के अलिखित कानून से पूरी तरह परिचित था कि दो बड़ी शक्तियों के बीच यथासंभव युद्ध नहीं होना चाहिए। सोवियत संघ ने अमरीका के साथ सीमित मित्रता की नीति अपनाई जो साम्यवादी चीन की मित्रता के मूल्य पर की गई थी। शांतिपूर्ण सहअस्तित्व का तात्पर्य यह नहीं था कि सोवियत संघ अपनी "सुपर" सैनिक शक्ति को त्यागने को तैयार था। बल्कि वह अन्य परमाणु अस्त्र बनाता रहा। इससे पहले उसने अंतरिक्ष युग में प्रवेश करके स्पुटनिक छोड़ा।

यद्यपि शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की नीति निश्चय ही विश्वशांति की दिशा में एक नया कीर्तिमान था लेकिन सोवियत रूस की विदेश नीति में कुछ कमियाँ थीं। "रूढ़िवादी साम्यवादियों" ने अनुभव किया कि सोवियत संघ द्वारा प्रारंभ किए गए वे सभी कार्य, जिनमें खुश्चेव ने सोवियत संघ एवं अन्य राष्ट्रों के बीच मित्रता स्थापित करने का प्रयास किया था पूरे न हो सके। दूसरे शब्दों में वह समाजवादी राष्ट्रों की संख्या में वृद्धि नहीं कर सका। मिस्र, भारत, सीरिया जैसे राष्ट्रों पर टिकी हुई सोवियत संघ की आशाएँ भी साकार न हो सकीं। जहाँ तक "तीसरे विश्व" का प्रश्न था, केवल क्यूबा एवं हिंदचीन ने साम्यवाद के प्रति कुछ रुचि दिखाई थी। यूरोप में तटस्थ राष्ट्रों की अलग प‌ट्टी बनाने का सोवियत संघ का प्रयास असफल रहा, पूर्वी यूरोप में अधिकतर राष्ट्रों ने उसकी प्रभुता को अस्वीकार कर दिया।

कुल मिलाकर, ख्रुश्चेव की विदेश नीति में पश्चिम के साथ टकराव और सहयोग का मिश्रण था, साथ ही सोवियत संघ के अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में सुधार के प्रयास भी थे।











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