जहाँआरा बेगम
जहाँआरा बेगम बादशाह शाहजहाँ और मुमताज़ महल की बेटी थीं। जहाँआरा का जन्म अजमेर में 23 मार्च 1614 ई में हुआ था। जब वह चौदह वर्ष की थी, तभी से अपने पिता के राजकार्यों में हाथ बंटाती थी। 1631 में मुमताज़ की दुर्भाग्यपूर्ण मृत्यु के बाद जहाँआरा को शाही मुहर सौंपी गई। उसी समय से उनके कंधों पर मुग़ल साम्राज्य की जिम्मेदारी आ गई। बादशाह शाहजहाँ अपनी पत्नी की मौत से इतने दुखी थे कि उन्होंने एकांत का जीवन गुज़ारना शुरू कर दिया। शाहजहाँ ने ऐसी स्थिति में अपनी किसी दूसरी महिला को महल के मामलों की ज़िम्मेदारी सौंपने के बजाय अपनी बेटी जहाँआरा को पादशाह बेगम बनाया और उनके वार्षिक वजीफ़े में चार लाख रूपये और बढ़ा दिए जिससे उनका वार्षिक वजीफ़ा दस लाख हो गया। इस प्रकार उन्हें मुग़ल साम्राज्य की पादशाह बेगम (पहली महिला) या 'बेगम साहब' की उपाधि मिली। यह पहली बार था कि किसी राजकुमारी को पादशाह बेगम का ताज पहनाया गया था। शाहजहाँ की पसंदीदा बेटी होने के नाते, उसने अपने पिता के शासन के दौरान महत्वपूर्ण राजनीतिक प्रभाव डाला और उस समय उसे "साम्राज्य की सबसे शक्तिशाली महिला" के रूप में जाना गया।
अपनी माँ की मृत्यु के बाद जहाँआरा अपने पिता शाहजहाँ की जीवनभर विश्वासपात्र और सलाहकार बनी रही। उच्च शिक्षा और कूटनीतिक में कुशल होने के कारण उनका व्यक्तित्व काफी प्रभावशाली हो गया था। यहां तक की दरबार में विदेशी दूतों द्वार उनका पक्ष मांगा जाता था। 1654 में शाहजहाँ ने श्रीनगर के राजा पृथ्वीचंद पर हमला किया। युद्ध में हार जाने के डर से राजा ने जहाँआरा से दया की गुहार लगाई। राजकुमारी ने उनसे कहा कि वे अपने बेटे मेदिनी सिंह को मुगल साम्राज्य के प्रति अपनी वफ़ादारी साबित करने को भेजे, जिससे उन्हें सम्राट से माफ़ी मिल सके। अगले वर्ष जब औरंगजेब दक्कन का वायसराय था, वह अब्दुल कुतुब शाह द्वारा शासित गोलकुंडा को अपने अधीन करने पर तुला हुआ था। गोलकुंडा के शासक ने राजकुमारी को एक शाही अनुरोध लिखा, जिससे जहाँआरा ने उसकी ओर से हस्तक्षेप किया। शाहजहाँ ने कुतुब शाह को माफ़ कर दिया और कर का भुगतान करके उसकी सुरक्षा सुनिश्चित की।
फ्रांसीसी यात्री फ़्राँस्वा बर्नियर ने लिखा: "शाहजहाँ को अपनी पसंदीदा संतान पर असीम भरोसा था; जहाँआरा भी अपने पिता की सुरक्षा पर नज़र रखती थी। यहां तक की शाही मेज़ पर कोई भी ऐसा व्यंजन नहीं रखा जाता था जो उसकी देखरेख में तैयार न किया गया हो। विद्वान जी. यज़दानी ने लिखा है कि "जहाँआरा सदन के समारोहों की ज़िम्मेदार होती थी और बादशाह के जन्मदिन के अवसर पर वही मुख्य कार्यवाहक थी।
औरंगजेब और दारा शिकोह दोनो ही मुगल सत्ता के लिए आपस में संघर्ष कर रहे थे। भाइयों में सत्ता संघर्ष को टालने की जहाँआरा ने बहुत कोशिश की, लेकिन वह सफल नहीं हो पाई। 1657 में शाहजहाँ की बीमारी के बाद उत्तराधिकार के युद्ध के दौरान उसने दारा का साथ दिया। वह अंततः अपने पिता के साथ आगरा के किले में जा बसी, जहाँ उसके पिता को औरंगज़ेब ने नज़रबंद कर दिया था। एक आज्ञाकारी बेटी होने के नाते उन्होंने 1666 में शाहजहाँ की मृत्यु तक उनकी देखभाल की। बाद में उन्होंने औरंगज़ेब के साथ सुलह कर ली, जिसने उन्हें 'राजकुमारियों की महारानी' की उपाधि दी। वह फिर से राजनीति में शामिल हो गईं और कई महत्वपूर्ण मामलों में प्रभावशाली रहीं और उन्हें कुछ विशेषाधिकार प्राप्त थे, जो किसी अन्य शाही महिलाओं को नहीं थे। इतालवी यात्री निकोलाओ मनुची, जो उस अवधि के दौरान भारत आए थे, ने लिखा: "जहाँआरा को सभी प्यार करते थे, और वह शानदार जीवन जीती थीं।”
जहाँआरा बेगम ने मुगल राजकुमारी होने की सभी रूढ़ियों को चुनौती दी। उनका जीवन न ही हरम में बीता और न ही उन्होंने परिवार के पुरुषों के इर्द-गिर्द अपने दिन बिताए। दरबार में जहाँआरा की स्थिति इतनी सुरक्षित थी कि वह कभी-कभी औरंगजेब से बहस करती थी। उसे कुछ विशेषाधिकार प्राप्त थे जो अन्य शाही महिलाओं को नहीं थे। वह औरंगजेब के सार्वजनिक जीवन के सख्त नियम और कट्टर इस्लामी मान्यताओं से असहमत थी। उसने 1679 में गैर-मुसलमानों पर जजिया कर लगाने के उसके फैसले के खिलाफ भी सलाह दी। जिसके बारे में उसने कहा कि इससे अधिकांश हिंदू निराश हो जाएंगे।
जहांआर को कई बाग दिए गए जिनमें बाग़ जहाँआरा, बाग़ नूर और बाग़ सफा अहम हैं। उनको जागीर में अछल, फरजहरा और बाछोल, सफापुर, दोहारा और पानीपत का परगना दिया गया। उन्हें सूरत का बंदरगाह भी दिया गया था जहां उनके जहाज़ चलते थे और अंग्रेजों के साथ उनका व्यापार होता था। मशहूर इतिहासकार 'डॉटर ऑफ़ द सन' की लेखिका, एरा मख़ोती बताती हैं- "जब पश्चिमी पर्यटक भारत आते तो उन्हें ये देखकर आश्चर्य होता कि मुग़ल महिलाऐं कितनी प्रभावशाली हैं। वो इस बात पर हैरान थे कि महिलाएं व्यापार कर रही हैं और वो उन्हें निर्देश दे रही हैं कि किस चीज़ का व्यापार करना है और किस चीज़ का नहीं करना है।
सूफ़ियों और संतों की बातों में उनकी गहरी दिलचस्पी थी। जहाँआरा बेगम को उनके भाई दारा शिकोह ने सूफीवाद से परिचित करवाया। लोग उन्हें फ़कीरा (तपस्वी) कहकर भी पुकारते थे। वह मुल्ला शाह बख़्शी की शिष्या थीं, जिन्होंने उसे 1641 में कादिरिया सूफ़ी संप्रदाय में दीक्षित किया था। उन्होंने सूफ़ी मार्ग पर इतनी प्रगति की कि मुल्ला शाह ने उन्हें कादिरिया में उत्तराधिकारी नामित किया होता, लेकिन नियम इसकी अनुमति नहीं देते थे। उनकी पुस्तक रिसालाह-ए-साहिबियाहवास उनके आध्यात्मिक गुरु मुल्ला शाह के जीवन पर आधारित थी। विद्वान रोहमा के अनुसार- "जहाँआरा से मुल्ला शाह बख्शी इतने प्रभावित थे कि वो कहते थे कि अगर जहाँआरा एक महिला न होती तो वो उन्हें अपने उत्तराधिकारी के रूप में नामित कर देते।" जहाँआरा को भी औपचारिक रूप से मुरीद (शिष्य) बनने और अपने पीर (गुरु) के अनुसार जीवन जीने वाली पहली मुग़ल महिला होने पर गर्व था।
वह अजमेर में ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर तीर्थयात्रा पर गई थी। जहाँआरा ने उनके दरगाह पर संगमरमर के मंडप का निर्माण करवाया जिसे बेगुमी सलाम के नाम से जाना जाता है। उन्होंने मु'निस अल-अरवा मोइनुद्दीन चिश्ती की जीवनी लिखी जो अपनी साहित्यिक शिल्पकला के लिए विख्यात है।
जहाँआरा महिलाओं के लिए एक सार्वजनिक स्थान बनाने वाली पहली मुग़ल शहज़ादी थी। उन्होंने दिल्ली से सटे यमुनापार साहिबाबाद में बेगम का बाग़ बनावाया था। इसमें न केवल महिलाओं के लिए स्थान आरक्षित था बल्कि दिन भी आरक्षित थे ताकि वो आज़ादी के साथ बाग़ की सैर कर सकें और वहां की ख़ूबसूरती का आनंद ले सकें। जहाँआरा ने राजधानी शाहजहानाबाद में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने 1648 में जामा मस्जिद के निर्माण को प्रायोजित किया। उनका सबसे प्रसिद्ध वास्तुशिल्प का निर्माण चांदनी चौक है। (शाहजहानाबाद का मुख्य बाज़ार) दिल्ली में चांदनी चौक व्यापार का केंद्र था और कई व्यापारी दूर-दूर से व्यापार करने के लिए यहां आते थे। यह एक खूबसूरत जगह थी जिसके बीच में एक तालाब था और उसके चारों ओर खूबसूरती से अलंकृत प्रवेश द्वार थे। जहाँआरा बेगम सूफी संस्कृति की शौकीन थीं। उन्होंने अपने विचारों को अपने लेखन और वास्तुकला के माध्यम से व्यक्त किया। जब शाहजहाँ ने शाहजहाँनाबाद का निर्माण किया, तो अधिकांश वास्तुकला का निर्माण जहाँआरा ने किया था। उन्होंने निज़ामुद्दीन औलिया की दरगाह में अपने विश्राम स्थल का भी निर्माण करवाया और उसे डिज़ाइन किया। यह खुली हवा में सफ़ेद संगमरमर का मकबरा है जिस पर एक शिलालेख है जिसे उन्होंने खुद लिखा है।
उन्होंने उस क्षेत्र में फ़ारसी और उज़बेक व्यापारियों के लिए एक सराय भी बनवाई, जिसे नहरों और बगीचों से सजाया गया था। इस सराय को 'बेगमाबाद' या 'बेगम का बाग़' के नाम से जाना जाता है। यह उनकी सबसे महत्वाकांक्षी परियोजना थी। यह 50 एकड़ का एक स्थान था जिसे केवल शाही परिवार की महिलाओं और बच्चों के लिए डिज़ाइन किया गया था। इसमें नहर सीधे बगीचे और तालाबों में बहती थी, और नहर के किनारे समरहाउस खड़े थे। चारों तरफ एक ऊंची पत्थर की दीवार के भीतर, इसमें बहते पानी के लिए तालाब और चैनल थे। लाल पत्थर के 12 खंभों पर फव्वारे और छतरियां थीं। ये बगीचे में आने वाले लोगों के लिए शांत विश्राम स्थल प्रदान करते थे। चैनलों में पानी एक विशेष नहर प्रणाली से आता था और अनगिनत रंग-बिरंगे पेड़ों, फूलों के पौधों और फलों के पेड़ों की सिंचाई में मदद करता था।
जहाँआरा ने अपने परिवार की परंपरा को जारी रखा और अंग्रेजों और डचों के साथ व्यापारिक संबंध बनाए रखे। जब 'साहिबी' (एक जहाज जिसे उसने खुद बनवाया था) अपनी पहली यात्रा के लिए रवाना होने वाला था, तो उसने आदेश दिया कि जहाज मक्का और मदीना की यात्रा करे और, "हर साल पचास कोनी चावल मक्का के बेसहारा और जरूरतमंदों में बांटने के लिए जहाज से भेजा जाना चाहिए।" वह अपने धार्मिक दान के लिए भी प्रसिद्ध थीं। उन्होंने महत्वपूर्ण दिनों पर दान का आयोजन किया और अकाल राहत से जुड़ी रहीं और मक्का की तीर्थयात्राओं का समर्थन किया। जहाँआरा ने शिक्षा और कला के समर्थन में महत्वपूर्ण वित्तीय योगदान दिया। उन्होंने इस्लामी रहस्यवाद पर कई कृतियों के प्रकाशन का समर्थन किया।
जहाँआरा ने श्रीनगर में मुल्ला शाह बख़्शी के लिए मस्जिद परिसर का निर्माण करवाया। आगरा में शाहजहानी मस्जिद के पैनलों पर फारसी शिलालेखों में उनकी प्रशंसा की गई है। उन्हें दिल्ली में निजामुद्दीन दरगाह में एक बाड़े में दफनाया गया था। वास्तुकला को संरक्षण देकर जहाँआरा ने राजनीति और शहरी स्थानों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है।
जहाँआरा ने अपने जीवनकाल में ही अपना मकबरा बनवाया था। यह नई दिल्ली में हजरत निजामुद्दीन दरगाह परिसर के अंदर सफेद संगमरमर से बना है और अपनी उल्लेखनीय सादगी के लिए जाना जाता है। उन्हें मरणोपरांत 'साहिबत-उज़-ज़मानी' (युग की महिला) की उपाधि से सम्मानित किया गया। उनकी कब्र पर शिलालेख फ़ारसी में है लेकिन उसका अनुवाद इस प्रकार है: "अल्लाह जीवित है, पालनहार है। मेरी कब्र को हरियाली के अलावा कोई न ढकें, क्योंकि यह घास ही गरीबों के लिए कब्र को ढकने के लिए पर्याप्त है। नश्वर सादगीपूर्ण राजकुमारी जहाँआरा, ख्वाजा मोइन-उद-दीन चिश्ती की शिष्या, विजेता शाहजहाँ की बेटी अल्लाह उनके प्रमाण को प्रकाशित करे।”
सबसे अमीर और ताकतवर शहजादी होने के बाद भी जहांआरा ताउम्र कुंआरी रहीं। ऐसा बिल्कुल नहीं था कि उन्हें कभी प्यार नहीं हुआ। विद्वान निकोलाओ मनूची के मुताबिक, जहांआरा के प्रेमी चुपके-चुपके उनसे मिलने आते थे। इतिहासकारों का कहना है कि शाहजहां का मानना था कि अगर मुगल सल्तनत में बेगम के पति की हिस्सेदारी हुई तो साम्राज्य का क्या होगा। किसी शख्स से जहाँआरा की शादी करने पर उसकी हैसिसत में इजाफा हो जाएगा और वो इंसान भविष्य में मुगल सल्तनत को चुनौती दे सकेगा। जहाँआरा की शख्सियत इतनी प्रभावशाली थी कि उन्हें उनके कद के मुताबिक कोई न मिला। अपने अंतिम दिनों में जहांआरा लाहौर के संत मियाँ पीर की शिष्या बनी रही ओर 16 सितम्बर 1681 ई में जहाँआरा की मृत्यु हो गई।
इस प्रकार जहाँआरा ने एक महिला होकर सार्वजनिक क्षेत्रों में अपनी छाप छोड़ी। मुगल साम्राज्य में महिलाओं का दायरा चार दिवारी के भीतर तक सीमित था। इस सामाजिक परंपरा के बावजूद भी जहाँआरा ने उन कार्यों को अंजाम दिया जो पुरुषों द्वारा किए जाते थे। राजनीतिक हस्तक्षेप, सामाजिक कार्य और वास्तुकला में योगदान देना जहाँआरा को इतिहास में एक विशेष पहचान देता हैं।
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