बुकर टी. वाशिंगटन और नागरिक अधिकार आंदोलन

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बुकर टी. वाशिंगटन और नागरिक अधिकार आंदोलन अफ्रीकी-अमेरिकी नागरिक अधिकार आंदोलन (1955-1968) का उद्देश्य अफ्रीकी अमेरिकी लोगों के खिलाफ नस्लिय भेदभाव को गैर कानूनी घोषित करना और दक्षिण अमेरिका में मतदान अधिकार को पुन: स्थापित करना था। गृहयुद्ध के बाद अश्वेतों को गुलामी से मुक्त कर दिया गया था लेकिन उसके बावजूद भी उनकी स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया। पुनर्निर्माण और द्वितीय विश्वयुद्ध के बीच अश्वेतों की स्थिति ओर खराब हो गई। इस दौरान बुकर टी. वाशिंगटन इनके लिए एक प्रभावशाली नेता बनकर उभरे। वाशिंगटन ने अफ्रीकी-अमेरिकियों के लिए व्यावसायिक शिक्षा और औद्योगिक शिक्षा को बढ़ावा दिया ताकि वह आर्थिक रूप से संपन्न और कुशल बन सके। पृषठभूमि दक्षिण अमेरिका में अश्वेतों ने संघर्ष कर अपने आपको दासता मुक्त कराया। अश्वेतों ने अपनी संस्थाएं बनाई जिससे अश्वेत राष्ट्रवाद का उदय हुआ। नेशनल नीग्रो कन्वेंशन जैसे कई नीग्रो संगठन बने। गृहयुद्ध के दौरान अफ्रीकी-अमेरिकी नेताओं के बीच कट्टरपंथी विचारों का विकास हुआ। बिशप एम. टर्नर, मार्टिन आर. डेलानी और अलेक्ज़ेंडर क्रूमेल ने अश्वेतों के लिए एक स्वायत्त राज्य की...

लिंग और जाति में अंतर्संबंध

लिंग और जाति में अंतर्संबंध 

प्राचीन भारत में जाति और लिंग दोनों ही महत्वपूर्ण सामाजिक संरचनाएं थी, और दोनों के बीच एक जटिल संबंध था। जाति व्यवस्था प्राचीन भारत में एक प्रमुख सामाजिक व्यवस्था थी, जिसमें समाज को चार मुख्य वर्गों में विभाजित किया गया था: ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। प्रत्येक जाति के अपने कर्तव्य और अधिकार थे, और जाति के आधार पर व्यक्तियों की सामाजिक स्थिति और भूमिका निर्धारित की जाती थी। लिंग के संदर्भ में, प्राचीन भारत में महिलाओं की स्थिति जटिल और समय के साथ बदलती रही है। वैदिक काल में महिलाओं को शिक्षा और संपत्ति के अधिकारों सहित कुछ अन्य अधिकारों का आनंद मिलता था, लेकिन बाद की अवधि में उनकी स्थिति में गिरावट आई। महिलाओं का कार्य घरेलू दायरे तक सीमित कर दिया गया और उनके अधिकार पुरुषों के अधीन कर दिए गए। जाति और लिंग के बीच एक महत्वपूर्ण संबंध यह था कि जाति व्यवस्था ने लिंग के आधार पर महिलाओं की भूमिकाओं को निर्धारित किया। अक्सर महिलाएं जाति के आधार पर भेदभाव का सामना करती थी, और उन्हें जाति के नियमों और रीति-रिवाजों को पालन करने के लिए मजबूर किया जाता था।

इसके अतिरिक्त, जाति व्यवस्था ने महिलाओं के लिए विवाह और विरासत के नियमों को भी निर्धारित किया, जो उनके अधिकारों को पुरुषों के अधीन करते थे। हालांकि प्राचीन भारत में महिलाओं की स्थिति एकसमान नहीं थी बल्कि जाति और क्षेत्र के आधार पर भिन्न थी। कुछ महिलाएं उच्च जातियों से ताल्लुक रखती थीं और उन्हें अधिक अधिकार और स्वतंत्रता प्राप्त थी, जबकि निम्न जातियों से संबंधित महिलाओं को अधिक भेदभाव और दमन का सामना करना पड़ता था। इसलिए इतिहास में सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक क्षेत्रों में महिलाओं की अधीनता और पुरुषों की श्रेष्ठता को समझना अत्यधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे हमें जाति और लिंग के बीच आपसी संबंधों का पता चलता है।

लिंग और जाति के बीच संबंधों पर चर्चा करने से पहले, इन दोनों को जानना आवश्यक है। जाति, भारतीय समाज की एक महत्वपूर्ण संस्था है। वैदिक समाज को चार वर्णो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में वर्गीकृत किया गया है। इन चारो वर्णों को उनके जातिगत कार्यो के अनुसार सूचीबद्ध किया गया हैं। जाति को इस प्रकार से परिभाषित किया जा सकता है, “जाति एक वंशानुगत और अंतर्जातीय समूह है जिसका जुड़ाव पारंपरिक रूप से किसी व्यवसाय से होता है। जातियों के बीच संबंध शुद्धता की अवधारणा द्वारा नियंत्रित होता हैं। विभिन्न जातियों में सदस्यता चयन या योग्यता से नहीं बल्कि जन्म से निर्धारित होती है। जाति इस प्रकार एक निर्धारित श्रेणी है। प्रत्येक जाति का अपना पारंपरिक व्यवसाय होता है और वे सजातीय विवाह करते हैं। 

सजातीय विवाह के बिना जाति का पुनरुत्पादन नहीं किया जा सकता, यही कारण है कि सजातीय विवाह को जाति और लिंग की अधीनता और निरंतरता का साधन माना जाता है। विवाह के इस नियम के कारण ही अलग-अलग जातियां अपना अस्तित्व बनाए रखने में कामयाब होती है और जाति की पारंपरिक शुद्धता बनी रहती है। किसी महिला को अपनी जाति से बाहर विवाह करने पर प्रतिबंध लगाकर जाति संरचना को सुरक्षित रखा जाता है। इसलिए महिलाओं को किसी भी जाति के प्रवेश द्वार के रूप में माना जाता है। इस प्रकार जाति की शुद्धता महिलाओं की कड़ी सुरक्षा के माध्यम से सुनिश्चित की जाती है। जाति का रक्त हमेशा द्विपक्षीय होता है यानी इसका गुण माता-पिता दोनों से प्राप्त होता है। इसलिए माता-पिता दोनो का एक ही जाति का होना अनिवार्य शर्त है।

इस मोड़ पर अनुलोम और प्रतिलोम विवाह की अवधारणाएँ भी महत्वपूर्ण है। अनुलोम के अनुसार एक उच्च जाति का लड़का निम्न जाति की लड़की से विवाह करता है और उसे स्वीकृत भी किया जाता था। जबकि उच्च जाति की महिला का निम्न जाति वाले पुरुष के साथ विवाह अस्वीकृत था और उसे प्रतिलोम कहा जाता था। इसमें विवाह के बाद पैदा हुए बच्चों को अछूत माना जाता था। इसलिए किसी महिला को अपने से नीचे जाति में विवाह करने पर समाज उसे स्वीकार नहीं करता था। इस प्रकार किसी वंश के लिए रक्त की शुद्धता और सामाजिक पदानुक्रम बनाए रखना महिलाओं पर निर्भर था।

इसके अलावा क्षत्रिय पुरुष जो योद्धा और शासक थे, उन्हे आपसी सहमति से सभी वर्णों की महिलाओं से विवाह करने की अनुमति प्राप्त थी। हालाँकि क्षत्रिय या ब्राह्मण महिला उनकी पहली पसंद होती थी, लेकिन शूद्र महिलाओं को क्षत्रिय पुरुष से विवाह करने से नहीं रोका जाता था। दूसरी ओर क्षत्रिय महिलाएँ अपने पुरुष की तरह, मर्दाना अनुशासन से अवगत थी। वह युद्ध कला से पूरी तरह परिचित थीं तथा राजा की अनुपस्थिति में कर्तव्यों का निर्वहन करने का अधिकार रखती थीं। एक क्षत्रिय महिला संकट के समय में राज्य की रक्षा करने और अपने वंशजों को युद्ध कौशल सिखाने में सक्षम थी। सिंहासन पर निरंतरता सुनिश्चित करने और क्षेत्रों पर संप्रभुता का दावा करने के लिए क्षत्रिय राजा की वंशावली को महिलाओं द्वारा शुद्ध रखा जाता था।

वैश्य जाति के पुरुष व्यापार और वाणिज्य में संलग्न थे। वैश्य महिलाएँ भी व्यापार, पशुपालन और कृषि में अपने पतियों की सहायता करती थीं और काम का बोझ साझा करती थीं। वे चार वर्णों में से अपनी पसंद का जीवनसाथी चुनने के लिए समान रूप से स्वतंत्र थी, हालाँकि शूद्र को चुनने का कड़ा विरोध किया जाता था। वैश्य महिलाओं को कानून के तहत संरक्षण प्राप्त था, और पुनर्विवाह सामान्य था। एक वैश्य महिला को अपने पति की आकस्मिक मृत्यु के मामले में पैतृक संपत्तियों पर समान अधिकार था, और वह अपने पति के समर्थन से अपने बच्चों के पालन-पोषण के लिए समान रूप से उत्तरदायी थी।

भारतीय इतिहास में मनु के धर्मशास्त्र के अनुसार महिलाओं को निचले स्तर का माना जाता था, जो कुछ आभूषणों के लिए विश्वासघात कर सकती थीं। एक महिला के रूप में उनमें दुष्टता और छल का आवास था। उनमें एक अतृप्त वासना होती थी और वे कामुक होती थीं। यह सब महिलाओं को नियंत्रित करने और उन पर प्रतिबंध लगाने के लिए पर्याप्त कारण के रूप में देखा जाता था। इसलिए उन्हें दिन-रात कड़ी निगरानी में रखा जाता था। उनकी अनियंत्रित कामुकता को एक खतरा माना जाता था। इसलिए महिलाओं की कामुकता को प्रमुख वर्गों के पुरुषों द्वारा नियंत्रण में रखा जाता था। कई हिंदू ग्रंथों में महिलाओं, विशेष रूप से पत्नियों को दंडित करने के लिए हिंसा के उपयोग की बात की गई है, ताकि उन्हें पत्नी की निष्ठा की आवश्यकताओं के अनुरूप ढाला जा सके। समकालीन समय में भी महिलाओं की कामुकता पितृसत्तात्मक और जातिगत नियंत्रण में है और अभी भी इसे औपचारिक रूप से पिता से पुत्र को हस्तांतरित किया जाता है।

पितृसत्ता सभी पहचान निर्माण का हिस्सा है। लिंग, वर्ग और जाति पितृसत्ता से जुड़े हुए हैं। पुरुषों को ज़्यादातर शक्ति प्राप्त है। दूसरी ओर महिलाएँ सभी समूहों में निचले स्थान पर हैं। अधिकांश महिलाएँ पहचान की राजनीति में इस्तेमाल की जाने वाली इन असमानताओं को स्वीकार करती हैं और उनका पालन करती हैं। ऐसा न करने पर उनका समुदाय नाराज़ हो जाता है और उनके रिश्ते भी खराब हो सकते हैं। अपने समुदाय की पहचान संहिता को चुनौती देने से गंभीर परिणाम हो सकते हैं, कुछ मामलों में तो यह मौत का कारण भी बन सकता है। महिलाएँ अपने समुदाय के सम्मान और प्रतिनिधित्व का प्रतीक हैं। उनकी स्वायत्तता नियंत्रित है। पितृसत्तात्मक प्रथाओं की सार्वभौमिकता के कारण, महिलाएँ पितृसत्ता के साथ समझौता कर लेती हैं।

महिलाओं की शुद्धता जाति से जुड़ी हुई है। महिला जितनी ऊँची जाति की होती है, उससे उतना ही अधिक यौन नियंत्रण की उम्मीद की जाती है। ब्राह्मण दुल्हनों को कुंवारी, एक पति के प्रति वफादार और विधवा होने पर ब्रह्मचारी होना अनिवार्य है। इसके विपरीत एक निचले स्तर की महिला कुंवारी हो भी सकती है और नहीं भी और विवाह के बाद भी उसके संबंध बर्दाश्त किए जा सकते हैं और अगर वह विधवा या तलाकशुदा है, तो वह पुनर्विवाह कर सकती है। कामुकता पर नियंत्रण उच्च जातियों की महिलाओं के लिए वंश की शुद्धता सुनिश्चित करने में मदद करता है- जो उच्च स्थिति को बनाए रखने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। उच्च जाति के समाज में महिलाएँ अपना जीवन काफी हद तक पारिवारिक मापदंडों के भीतर जीती हैं। उनपर पारिवारिक प्रतिबंध होता है तथा उन्हें काम के लिए बाहर जाने की अनुमति नहीं होती। घर की पवित्रता और शुद्धता बनाए रखने में महिलाएँ महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।

इस प्रकार, जो महिलाएँ पारिवारिक परंपरा का पालन करती हैं और समाज के पितृसत्तात्मक आदेश का पालन करती हैं, उन्हें सम्मानित किया जाता है; अन्यथा उन्हें कड़ी सजा दी जाती है। महिलाओं से जिन नियमों का पालन करने की अपेक्षा की जाती है, वे ज्यादातर उनके पुरुषों की आवश्यकताओं के अनुरूप बनाए जाते हैं। इन नियमों को आम तौर पर निरपेक्ष माना जाता है और महिलाओं से इनका आँख मूंदकर पालन करने की अपेक्षा की जाती है।

उच्च जाति के पुरुषों और महिलाओं के बीच शुद्धता/अशुद्धता के स्तर में अंतर होता है। उच्च जाति के पुरुष न तो अपनी महिलाओं की तरह खुद को प्रदूषित करते हैं और न ही उन्हें अन्य जातियों के लिए प्रदूषित कार्य करने पड़ते हैं। इसके विपरीत उनकी महिलाएं शारीरिक प्रक्रियाओं, मुख्य रूप से प्रसव के माध्यम से होने वाले प्रदूषण में शामिल होती हैं। वे परिवार के भीतर कुछ प्रदूषणकारी कार्यों को करने के लिए भी जिम्मेदार हैं। एक व्यापक धारणा है कि महिलाएं कभी भी अपनी जाति के पुरुषों की शुद्धता के स्तर को प्राप्त नहीं कर पाती हैं। यह सर्वमान्य है की किसी भी जाति की महिला को हमेशा दूसरा दर्जा ही प्राप्त होता है, क्योंकि उनकी जाति और लिंग के अनुसार उनकी तुलना शूद्रों से की जाती है जिन्हें वेदों की शिक्षा नहीं दी जा सकती।

पुरुषों और महिलाओं के बीच शुद्धता/अशुद्धता के स्तर में अंतर उच्च जातियों की तुलना में निम्न जातियों में बहुत कम है। निम्न वर्ग की महिलाएँ, स्वयं के प्रदूषण के अलावा, दाई का काम, साफ-सफाई, गंदे कपड़े धोना और कई अन्य सेवाओं जैसे व्यावसायिक गतिविधियों के माध्यम से दूसरों के प्रदूषण से भी निपटती हैं। इसके अलावा उनके पुरुषों को भी दूसरों के लिए प्रदूषणकारी कार्य और सेवाएँ देनी पड़ती हैं। निम्न जातियों में महिलाओं और पुरुषों द्वारा आजीविका कमाने के लिए पर्याप्त योगदान देने के कारण लिंग विभाजन कम हो जाता है। हालाँकि, महिलाओं को व्यावसायिक कार्य पितृसत्तात्मक सीमाओं के भीतर और जाति के नियंत्रण के तहत करना पड़ता है। इस प्रकार, उच्च जाति की महिलाओं की स्थिति निचली जातियों की महिलाओं से काफी भिन्न है। जाति पदानुक्रम में स्थान जितना ऊपर होगा, महिलाओं पर नियंत्रण उतना ही अधिक होगा।

जाति की शुद्धता महिलाओं की शुद्धता पर निर्भर है और महिलाओं की शुद्धता सामाजिक पदानुक्रम को बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण है। परिवार की प्रतिष्ठा उसकी बेटियों के हाथों में है, यह एक आम कहावत है और अक्सर लड़कियों के लिए माता-पिता और विवाहित महिलाओं के लिए उनके ससुराल वालों द्वारा दोहराई जाती है। यौवन की शुरुआत एक बेहद खतरनाक स्थिति को चिह्नित करती है। इसलिए जाति की शुद्धता की रक्षा के लिए, उच्च जातियों में यौवन-पूर्व विवाह किया जाता है। निचली जाति के पुरुष जिनकी कामुकता उच्च जाति की शुद्धता के लिए खतरा है, उन्हें हमेशा उच्च जाति की महिलाओं तक पहुँचने से रोका जाता है। इसलिए महिलाओं को लगातार संरक्षित किया जाता है। 

भोजन की तैयारी और वितरण के मामले में महिलाओं को बहुत सावधान रखना पड़ता है। कौन क्या, कहाँ और कब खाता है, इसकी जिम्मेदारी महिलाओं पर होती है। उच्च जाति की महिलाओं को भोजन तैयार करते समय पवित्रता और अपवित्रता के सख्त नियमों का पालन करना पड़ता है। उन्हें ऐसे भोजन से दूर रहना पड़ता है जो वासना और इच्छा को जगाता है। इस प्रकार, भोजन के संबंध में महिलाओं का व्यवहार जाति के पदानुक्रमिक से निर्धारित होता है। इसलिए महिलाओं की पवित्रता और जाति की पवित्रता सुनिश्चित करने के लिए महिलाओं पर प्रतिबंध लगाए गए है, जैसे – उनकी स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाना, एकांतवास लागू करना, घर के बाहर उत्पादक गतिविधियों से उन्हें दूर रखना, तलाक और विधवा पुनर्विवाह पर कठोर प्रतिबंध और विधवाओं से आत्मत्याग और तपस्या के जीवन की अपेक्षा करना जैसे नियम के पालन करने की अपेक्षा की जाती है।

उच्च जाति की महिलाएँ सामाजिक रीति रिवाजों से बंधी होती हैं। एक लड़की के माता-पिता या भाई उनके निर्णय का पालन न करने पर उसे आर्थिक या शारीरिक सहायता नहीं देते, खासकर जीवनसाथी के चयन के समय। विवाह, एक घटना और एक संस्था के रूप में उच्च जाति की महिलाओं की स्थिति को निर्धारित और प्रतिबंधित करता है। इसलिए उन्हे विवाह में विश्वास दिलाया जाता है। उन्हे अपने परिवारों और समुदायों के पितृसत्तात्मक नियमों का पालन करने पर कुछ लाभ भी मिलता है। दूसरी ओर अपने परिवार की आज्ञा न मानने पर उन्हें परिवार के मूलभूत संसाधनों से बाहर निकाल दिया जाता है। यदि महिला किसी निचली जाति के पुरुष के साथ संबंध बनाती है तो उसे दंडित किया जाता है जिसकी कोई सीमा नहीं है। ऐसे कई जोड़ों को क्रूर हत्याओं का शिकार होना पड़ा है। इन हत्याओं में समुदाय की स्पष्ट सहमति होती है, खासकर जिस समुदाय से महिलाएँ संबंधित होती हैं। इस प्रकार निचली जाति के पुरुष और उच्च जाति की महिला को अपनी जान गवानी पड़ती है।

भारत में शोधों से पता चला है कि निचली जाति की महिलाओं के शरीर को जाति और लिंग के आधार पर सामूहिक रूप से लाचार माना जाता है और वे उच्च जाति के वर्चस्व द्वारा प्रवेश को रोकने में सक्षम नहीं है। इस हिंसा को जातिगत विशेषाधिकार के रूप में निर्धारित किया जाता है। उच्च जाति के पुरुष जिनको समाज में विशेषाधिकार प्राप्त है, अपनी शक्ति का उपयोग करके ऐसा कर सकते है। उच्च जाति के पुरुषों को रखैल रखने की स्वतंत्रता है। उनके परिवार की शक्ति और विशेषाधिकार उनकी इस हीनता को छिपाने में काम आती हैं।

पुरुषों ने निम्न जाति की महिला के साथ यौन संबंध के माध्यम से खुद को प्रदूषित होने से बचाने के लिए एक संस्थागत तंत्र बनाया है। इसे शुद्धिकरण स्नान का रूप दिया जाता है। उदाहरण के लिए, कर्नाटक और तमिलनाडु में रूढ़िवादी ब्राह्मण निम्न जाति की महिला के साथ यौन संबंध स्थापित करने के बाद शुद्धिकरण स्नान करते हैं और एक नया पवित्र धागा पहनते हैं। दूसरी ओर, अगर इन समुदायों की महिला 'भटक' जाती है और मामला सार्वजनिक हो जाता है। महिला को निर्वासित कर दिया जाता है, परिवार द्वारा मृत घोषित कर दिया जाता है और उसके लिए एक 'नकली' श्राद्ध (अंतिम संस्कार) किया जाता है। 

निम्न जाति के समाज में महिलाएँ आम तौर पर काम करने के लिए बाहर जाती हैं और परिवार की आय में योगदान देती हैं। जबकि उच्च जाति में शारीरिक श्रम को नीची नज़र से देखा जाता है और महिलाओं को बाहर जाकर काम करने की अनुमति नहीं है। इस प्रकार निम्न जाति की महिलाएँ घरेलू कामों तक ही सीमित नहीं हैं। वे उच्च जाति की महिलाओं की तुलना में कम प्रतिबंधित हैं। किंतु निम्न जाति की महिलाओं का काम के लिए बाहर जाना उनकी आर्थिक आवश्यकता का संकेत है न की बेहतर स्थिति का। निम्न जाति की महिलाएँ जातिगत भेदभाव और लिंग भेदभाव दोनों की शिकार हैं। निम्न जाति की महिलाओं का भूमि के मालिक तथा शक्तिशाली उच्च जाति के पुरुषों द्वारा यौन शोषण किया जाता है। निम्न जाति के पुरुषों के लिए न केवल अपनी महिलाओं को उच्च जाति के स्वामियों और वरिष्ठों की वासना और इच्छा से बचाना मुश्किल है, बल्कि उच्च जाति के ‘बीज’ को भी मौन रखना पड़ता है। उदाहरण के लिए, उत्तर प्रदेश में यह कहा जाता है कि जिस तरह एक बकरी को जब चाहे तब दुहा जा सकता है, उसी तरह एक चमार महिला को भी जब चाहे तब भोगा जा सकता है।

जाति आधारित व्यवस्था एवं पितृसत्ता दो ऐसे कारक हैं जो महिलाओं की स्थिति को हीन बनाए हुए हैं। प्रसिद्ध नारीवादी लेखिका एवं समाजशास्त्री उमा चक्रवर्ती 'ब्राह्मणवादी पितृसत्ता' का वर्णन इस प्रकार करती हैं- "यह वस्तुतः नियमों और संस्थानों का ऐसा पुंज है जिसमें जाति और लिंग एक दूसरे से गुंथे हुए हैं, वे एक-दूसरे का स्वरूप तय करते हैं, जिसमें स्त्रियां जातियों के बीच का विभाजन बनाए रखने के लिए एक साधन के रूप में इस्तेमाल की जाती है। इसने ऐसे नियम बना रखे हैं जिसमें वैवाहिक नियमों का उल्लंघन हुए बिना जाति व्यवस्था बनी रहती है। इसके साथ ही स्त्रियों के लिए बनाए गए ब्राह्मणवादी पितृसत्ता ने स्त्रियों की जाति और उसकी जाति की हैसियत के अनुसार नियम निश्चित कर रखे हैं। इसमें स्त्रियों की यौनिकता पर नियंत्रण का अधिकार ऊंची जातियों के पास है। यह पतिव्रता और साध्वी स्त्रियों का महिमामंडन करता है और नियमों और संस्थानों के माध्यम से सहमति अथवा दमन के आधार पर जाति की पदानुक्रमता और लिंग असमानता बनाए रखता है।" 

प्राचीन भारत में जाति और लिंग के बीच एक जटिल संबंध था, जिसमें जाति व्यवस्था ने लिंग के आधार पर भूमिकाओं और अपेक्षाओं को मजबूत किया। महिलाओं को पारंपरिक रूप से घरेलू कार्यों तक सीमित कर दिया गया था, जबकि पुरुषों को बाहरी दुनिया में काम करने और सार्वजनिक जीवन में भाग लेने की अपेक्षा की जाती थी। जाति व्यवस्था ने महिलाओं के लिए विवाह और विरासत के नियमों को भी निर्धारित किया, जो अक्सर उनके अधिकारों को पुरुषों के अधीन करते थे। उच्च जातियों से ताल्लुक रखने वाली महिलाओं को अधिक अधिकार और स्वतंत्रता प्राप्त थी, जबकि निम्न जातियों से ताल्लुक रखने वाली महिलाओं को अधिक भेदभाव और दमन का सामना करना पड़ता था।

निचली जातियों की महिलाओं को अक्सर नीच कामों में धकेल दिया जाता था और उनकी शिक्षा और संसाधनों तक पहुँच सीमित होती थी। उच्च जातियों की महिलाओं से पवित्रता बनाए रखने और सख्त सामाजिक मानदंडों का पालन करने की अपेक्षा की जाती थी। महिलाओं का व्यवहार और वैवाहिक स्थिति उनके परिवार की जाति की स्थिति और प्रतिष्ठा को प्रभावित करती थी। महिलाओं की कामुकता और श्रम को नियंत्रित करने की पुरुषों की क्षमता ने जातिगत पदानुक्रम को बनाए रखा। निम्न जाति की महिलाओं को दोहरे उत्पीड़न का सामना करना पड़ा, उन्हे जाति-आधारित और लिंग-आधारित भेदभाव दोनों का सामना करना पड़ा। उच्च जाति की महिलाओं को सापेक्ष विशेषाधिकार प्राप्त थे, लेकिन फिर भी उन्हें लिंग-आधारित प्रतिबंधों का सामना करना पड़ता था। मनुस्मृति और अर्थशास्त्र जैसे प्रमुख ग्रंथ इनकी गतिशीलता को दर्शाते हैं और मजबूत करते हैं, जो अक्सर लिंग और जाति पदानुक्रम को कायम रखते हैं।

इतिहास में महिलाओं का दमन जाति व्यवस्था को बनाए रखने के लिए आवश्यक था। सभी समुदायों में पुरुष महिलाओं के जीवन पर प्रभुत्व और नियंत्रण रखते थे। महिलाओं की अधीनता एक सार्वभौमिक घटना थी। कुल मिलाकर, प्राचीन भारत में जाति और लिंग दोनों ही सामाजिक संरचना में महत्वपूर्ण कारक थे, और दोनों के बीच एक जटिल और परस्पर संबंध था जिसने व्यक्तियों की सामाजिक स्थिति और भूमिकाओं को आकार दिया।











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