आधुनिक भारत में इतिहासलेखन ||Women's and Gender (वाद-विवाद)
भारतीय पारंपरिक इतिहास मुख्य रूप से पुरुषों के संदर्भ में लिखा गया है लेकिन 19वीं शताब्दी के मध्य से प्रारंभ हुए सामाजिक सुधार कार्यों ने महिलाओं की स्थिति और उनके इतिहास पर जोर दिया। हालाँकि यह सुधार कार्य भी बड़े पैमाने पर पुरुषों द्वारा ही शुरू किया गए। इन सुधार कार्यों ने लिंग के प्रश्न पर चिंताजनक बहस को जन्म दिया। साथ ही 1920 के दशक में महिला आंदोलन ने जोर पकड़ा जिसके परिणामस्वरूप महिलाएँ इतिहास की प्रमुख वस्तु-विषय बन गईं। स्वतंत्रता संग्राम में महिलाओं की भागीदारी में वृद्धि होने लगी। हालाँकि इसने महिलाओं के लिए समानता की मांग नहीं की क्योंकि राष्ट्रवादी आंदोलन ने भारतीय समाज की पितृसत्तात्मक प्रकृति को खत्म करने का प्रयास नहीं किया। इसने केवल आम लोगो की महिलाओं के प्रति धारणा को बदल दिया और नए पितृसत्तात्मक मॉडल को फिर से स्थापित किया। सुधार आंदोलन और राष्ट्रवादी आंदोलन दोनों का महिला प्रश्न और लिंग संबंधों के साथ एक जटिल रिश्ता रहा है। औपनिवेशिक और आधुनिक भारत के अध्ययन में इसके बारे में कई ऐतिहासिक बदलाव स्पष्ट रूप से देखे जा सकते हैं।
इतिहासकारों के अनुसार मिशनरी और उपयोगितावादियों के लेखन में लिंग के प्रति भेदभाव देखने को मिलता है, जो अपने आगमन से पहले भारतीय महिलाओं की स्थिति को अत्यधिक निम्न स्तर का मानते थे। इतिहासकार जेम्स मिल ने लिखा है कि"औपनिवेशिक भारत में महिलाओं की सामाजिक स्थिति उनके पुरुषों पर निर्भर करती थी"। उनके अनुसार "महिलाओं की स्थिति सभ्यता की सीढ़ी पर समाज के पायदान को दर्शाती है" और इस सीढ़ी पर भारत की स्थिति सबसे नीचे थी। यह वाक्य ब्रिटिश अधिकारियों के 'सभ्यता मिशन' के' सिद्धांतों को सही ठहराता है और इस विश्वास को मजबूत करता है कि उनके शासन ने भारतीय महिलाओं की स्थिति में महत्वपूर्ण सुधार किए।
इस दिशा में राष्ट्रवादी इतिहासकारों का लेखन भी आवश्यक है। राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने सामाजिक सुधार आंदोलन के प्रमुख नेताओं विशेषकर राजा राममोहन राय और ईश्वरचंद्र विद्यासागर का महिमामंडन किया है। राष्ट्रवादियों के अनुसार सुधारकों की पहल ने ही महिलाओं की मुक्ति का मार्ग प्रशस्त किया न कि ब्रिटिश अधिकारियों ने। राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने प्राचीन काल की महिलाओं को समाज में प्राप्त उच्च दर्जे के रूप में चित्रित किया, जिसे भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग कहा जाता है। इतना ही नहीं राष्ट्रवादियों ने सुधारकों के प्रयास को भारत का खोया हुआ गौरव हासिल करने के रूप में देखा, जिसे मध्यकाल में अपमानित किया गया था तथा जिसे “अंधकार युग” भी कहा जाता है। राष्ट्रीय आंदोलन में महिलाओं ने बढ़चढ़ कर भाग लिया। आंदोलन में महिलाएं या तो आज्ञाकारी शिष्याएँ थीं या शहीद। गेल पियर्सन के अनुसार महिलाओं की भागीदारी ने राष्ट्रीय आंदोलन को सार्वभौमिक आधार प्रदान किया।
इसके विपरीत वामपंथी इतिहासकार राष्ट्रवादियों से पूर्ण रूप से सहमत नहीं है। इस समूह ने नारीवादी विद्वानों के साथ असहमत होने के बावजूद भी कुछ बिंदुओं पर सहमति व्यक्त की है। उनके अनुसार अधिकांश सुधारक पुरुष थे जिन्होंने महिलाओं की स्थिति में कोई खास सुधार नहीं किए। उनमें से अधिकांश उच्च जाति और मध्यम वर्ग के पुरुष थे जिन्होंने उच्च जाति की हिंदू महिलाओं की समस्याओं को संबोधित किया। एक अध्ययन के अनुसार औपनिवेशिक भारत का आधुनिक राष्ट्रवादी इतिहासलेखन काफी हद तक हिंदू केंद्रित रहा है और इसने मुस्लिम महिलाओं और निचली जाति की महिलाओं को विवादास्पद, अदृश्य, पीड़ित और पिछड़ा बना दिया है।
मार्क्सवादी इतिहासकारों के अनुसार ब्रिटिश उपनिवेशवादी अपने साथ भारत में पूंजीवाद लेकर आए। इस पूंजीवाद ने भारत में एक नए पूंजीपति वर्ग को जन्म दिया जिसमें मध्यम वर्ग और उच्च जाति के पुरुष शामिल थे। अंग्रेजों का अनुकरण करते हुए इस नए वर्ग ने भारत में मौजूद सामंती पितृसत्ता को खत्म कर दिया और आधुनिक पूंजीवादी पितृसत्ता का निर्माण किया। इसने शिक्षित उपनिवेशवादी महिलाओं के अनुसार भारतीय महिलाओं को शिक्षित करने की वकालत की।
विद्वान आशीष नंदी अपने औपनिवेशिक भारत के अध्ययन में पुरुषत्व के महत्व को सामने लाए जिसके चलते नंदी का काम विविध आलोचनाओं का विषय रहा। उनके आलोचकों का कहना है कि नंदी औपनिवेशिक काल को भारत में पितृसत्ता की जड़ें जमाने वाला काल मानते है, और ऐसा करके उन्होंने औपनिवेशिक काल से पहले भारत में मौजूद पितृसत्ता की अनदेखी की है। ऐसा प्रतीत होता है की अंग्रेजों के आने से पहले भारतीय समाज में यौन संहिता लचीली थी। कुछ विद्वानों ने तर्क दिया कि यह आधुनिक भारतीय इतिहास और उसके लिंग संबंधों की अत्यधिक सरल और तुच्छ समझ है। कई नारीवादी विद्वानों ने ब्रिटिश उपनिवेशवादियों और एंग्लो-इंडियन के भीतर जटिल पदानुक्रमों की ओर भी इशारा किया है। मृणालिनी सिन्हा की रचनाओं ने औपनिवेशिक भारत में विकसित होते लैंगिक संबंधों की व्यापक आलोचना की है। विद्वान चारु गुप्ता भी औपनिवेशिक भारत में समलैंगिकता के बारे में बात करके एक नया पहलू सामने लाई हैं।
बहस को आगे बढ़ाते हुए विद्वान पार्थ चटर्जी ने लिंग अध्ययन पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाला है। उनके तर्क 'घर' और 'दुनिया' के द्वंद्व के बारे में बात करते हैं। जिसमें घर एक घरेलू स्थान का प्रतिनिधित्व करता है जिसमें भारत ने अपनी संस्कृति और समाज को बनाए रखा जबकि भारतीय पुरुष बाहरी दुनिया में ब्रिटिश उपनिवेशवादियों से हार गए। इस प्रकार महिलाओं को भारतीय संस्कृति के भंडार के रूप में देखा जाने लगा और उनकी गतिशीलता विचार और जीवन पर नियंत्रण कड़ा कर दिया गया। चटर्जी के अनुसार बीसवीं सदी की शुरुआत में राष्ट्रीय आंदोलन के विकास के लिए महिलाओं के प्रश्न को राजनीतिक परियोजना में शामिल कर लिया गया लेकिन अन्य उद्देश्यों के लिए इसे रोक दिया गया।
चटर्जी के आलोचकों ने उन पर बंगाल के अनुभव और इतिहास को शेष भारत के लिए एक मॉडल के रूप में इस्तेमाल करने का आरोप लगाया, जिसमें एक गलत और विशिष्ट प्रवृत्ति है। उदाहरण के लिए, उत्तर भारत के कई हिस्सों में महिलाओं का सवाल राष्ट्रवादी आंदोलन के साथ मेल खाता था जिसके परिणामस्वरूप यह फीका नहीं पड़ा। विद्वान जे देविका एक अन्य उदाहरण में पार्थ चटर्जी के बंगाल मॉडल और केरल के अनुभव के बीच अंतर को सामने लाती हैं, जिसमें 20वीं सदी के दौरान आंतरिक और बाहरी विभाजन को चुनौती दी गई और कुछ हद तक तोड़ा भी गया।
उपनिवेशी इतिहासकारों ने औपनिवेशिक भारत के लिंग इतिहासलेखन पर अपनी छाप छोड़ी है। उन्होंने पूर्ववर्ती इतिहासकारों के साथ यह माना कि आधुनिक औपनिवेशिक भारत में उपनिवेशवादी और स्वदेशी पुरुषों के दबावपूर्ण आवेग देखे गए। वे बताते हैं कि सुधारकों और राष्ट्रवादियों का ध्यान इस बात पर नहीं था कि महिलाएँ क्या चाहती हैं, बल्कि इस बात पर था कि उन्हें कैसे आधुनिक बनाया जाए, ताकि वे उनकी बेहतर साथी और बेहतर माँ बन सकें। उन्होंने यह भी लिखा कि यह असमानताएँ उपनिवेश-पूर्व युग में भी व्याप्त थीं, लेकिन औपनिवेशिक काल ने उन्हें और अधिक स्थायी रूप से बढ़ाया और स्थापित किया। वह वर्ग, जाति, लिंग और धर्म के संदर्भ में अंतर्संबंध के पहलू को सामने लाए। उदाहरण के लिए, उन्होंने 'श्वेत उपनिवेशवाद' के बारे में बताया जिसमें उपनिवेशवादियों के बीच कई पदानुक्रम मौजूद थे।
विद्वान गेल मिनाल्ट भारत में 'विस्तारित परिवार' की बात करते हैं। जिसमें भारत माता की लोकप्रिय छवि को पूरे देश में फैले संयुक्त परिवार की पालन-पोषण करने वाली माँ के रूप में माना और सराहा जाता है। इस छवि ने गांधीवादी आंदोलनों में महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी की अनुमति दी लेकिन केवल एक राष्ट्रवादी और धार्मिक कर्तव्यों के रूप में, जिसके अंतर्गत उपवास और महिलाओ कें बलिदान के गुण पर जोर दिया गया।
गांधीवादी राष्ट्रवादी आंदोलन में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी पर जोर दिया जाने लगा। भले ही इसमें शामिल होने वाली अधिकांश महिलाएँ उच्च वर्ग और जाति की थीं और बड़े पैमाने पर हिंदू थीं, फिर भी उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को वैध बनाया। विद्वान गेराल्डिन फोर्ब्स ने राष्ट्रीय आंदोलन में महिलाओं की विविधता पर प्रकाश डाला है। उनके अनुसार आंदोलन में युवा और बुजुर्ग, गृहिणियाँ और विधवाएँ, शिक्षित और अशिक्षित महिलाओं ने बढ़ चढ़ कर भाग लिया। पहली बार आम महिलाओं ने जेल जाकर क्रांतिकारी जोश दिखाया, राष्ट्रवादी कारणों के लिए धन और आभूषण दान किए, विदेशी कपड़े और शराब की दुकानों पर धरना दिया और शांतिपूर्ण प्रदर्शनों में भाग लिया। विद्वान जे. देविका स्थानीय राजनेताओं द्वारा महिलाओं के 'प्राकृतिक गुणों' और 'कोमल शक्ति' के गांधी के प्रचार को अपनाने के बारे में बात करती हैं, ताकि महिलाओं से स्थानीय संगठनों और नागरिक निकायों में भाग लेने और उनका हिस्सा बनने की अपील की जा सके।
हालांकि, कई नारीवादी विद्वान गांधी के कथनों और उनके कार्यों के बीच विभाजन और पाखंड को सामने लाए है। उन्होंने विवाह में समानता की वकालत की, जबकि उसी समय अपनी पत्नी कस्तूरबा देवी को अपने अधीन काम करने के लिए मजबूर किया। उन्हें कभी भी अपने स्वयं के कारणों का नेतृत्व करने की अनुमति नहीं दी। भले ही एक समय पर उन्होंने कमलादेवी चट्टोपाध्याय और सरोजिनी नायडू जैसी महिलाओं को महिलाओं के मुद्दों की वकालत करने के लिए प्रोत्साहित किया, लेकिन उन्हें लगा कि एक महिला का स्थान आखिरकार घर था और स्वतंत्रता के बाद उसे एक अच्छी पत्नी और एक माँ होने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। उन्होंने महिलाओं के लिए एक शुद्ध गुण के रूप में कामुकता पर भी जोर दिया। इसलिए विद्वान चारु गुप्ता लिखती हैं की उन्होंने केवल एक 'गांधीवादी पितृसत्ता' की कल्पना की जहां केवल राष्ट्रवादी महिला ही स्वतंत्र और योग्य महिला थी।
नारीवादी विद्वानों ने आधिकारिक स्रोतों के अलावा विभाजन के पुनर्निर्माण के लिए मौखिक इतिहास और साक्ष्यों का इस्तेमाल किया। यह विद्वान विभाजन के बाद की समस्याओं को भी सामने लाए। जिसमें भारत और पाकिस्तान के पितृसत्तात्मक राज्यों ने महिलाओं को राज्यों पर आश्रितों के रूप में देखा। बाद में इन महिलाओं की सहमति के बिना तथा इनके जीवन पर विचार किए बिना उन्हें उनके पैतृक देशों और परिवारों में वापस भेजने के लिए सहमति जताई गई।
1990 के दशक से नारीवादी इतिहासकारों के लेखन में एक नया बदलाव देखा गया। उन्होंने इतिहास को फिर से पढ़ा और लिंग तथा नारीवादी दृष्टिकोण से सुधारों और राष्ट्रवाद का एक वैकल्पिक विवरण प्रस्तुत करने का प्रयास किया। उन्होंने सुधारकों के परोपकारी और मानवतावादी होने के व्यापक रूप को चुनौती दी और उनके कार्यों के पीछे उनके पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण को सामने लाए। उन्होंने महिलाओं के स्वास्थ्य, काम, भावनाओं, इच्छाओं के बारे में पूर्व इतिहासलेखन की अज्ञानता की ओर ध्यान आकर्षित किया। महिलाओं की आर्थिक कानूनी एजेंसी के महत्व को कम किए जाने पर औपनिवेशिक न्यायविदों और स्वदेशी पुरुषों के बीच गठबंधन की आलोचना की। वास्तव में नए कानूनों ने नई पितृसत्ता और सामाजिक अनुशासन को जन्म दिया। उदाहरण के लिए, औपनिवेशिक न्यायविदों का मानना था कि संयुक्त परिवार कानूनी जीवन का मुख्य आधार थे और संपत्ति प्राप्त पुरुष समुदाय की शक्ति संरचनाओं को मजबूत करने की दिशा में काम करते थे।
नारीवादी विद्वानों ने यह भी माना है कि आधुनिक काल में महिलाओं के लिए रास्ते खुले थे। महिलाओं की शिक्षा का सवाल इसका उदाहरण है, क्योंकि भारतीय उच्च जाति और मध्यम वर्ग के पुरुषों ने महिलाओं की शिक्षा की वकालत की थी। लेकिन एक बार जब महिलाओं ने पढ़ना-लिखना सीख लिया, तो उनके पढ़ने और लिखने पर नियंत्रण रखने का कोई तरीका नहीं था। महिलाओं ने प्रिंट, शिक्षा, साहित्य, लोकप्रिय संस्कृति, कानून, विवाह और राजनीति में अपनी खुद की एजेंसी विकसित की। साथ ही कई महिलाएँ पितृसत्तात्मक व्यवस्था के विध्वंसक के रूप में उभरीं जैसे पंडित रमाबाई, सावित्रीबाई फुले इसके कुछ उदाहरण हैं।
आधुनिक भारत के इतिहास ने कई समृद्ध और विविध ऐतिहासिक बदलाव देखे। सुधार आंदोलन और राष्ट्रवाद जैसे आधुनिक भारतीय रुझानों ने नारीवाद को पढ़ने के लिए न केवल अधिक व्यापक समझ की अनुमति दी, बल्कि आधुनिक भारत को देखने के लिए महत्वपूर्ण नए ढांचे प्रदान किए।
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