मुगल दरबार में फारसी भाषा का विकास
भारत में फ़ारसी भाषा का उद्भव मुगल साम्राज्य में हुआ क्योंकि पहला मुगल सम्राट बाबर अफ़ग़ानिस्तान से आया था। फ़ारसी ईरान की मूल भाषा थी और अफ़ग़ानिस्तान में भी इसका इस्तेमाल किया जाता था। इस वजह से जब मुगल भारत आए, तो वह अपने साथ फ़ारसी भाषा भी लाए। मुगल साम्राज्य में फ़ारसी भाषा का इस्तेमाल दरबारी कामों और लेखन के लिए किया जाता था। यह भाषा मुगल साम्राज्य के प्रशासन, संस्कृति और साहित्य की आम भाषा बन गई। मुगल काल के विभिन्न ऐतिहासिक दस्तावेजों, कला, वास्तुकला और साहित्य में फारसी का प्रयोग किया जाने लगा, जिसमें मुगल साम्राज्य के संस्थापक बाबर की प्रसिद्ध आत्मकथा बाबरनामा भी शामिल है।
पृष्ठभूमि: मुगल शासक तुर्क-मंगोल मूल के थे, जिनकी मातृभाषा तुर्की थी। मध्य एशिया में उनके साम्राज्य के विस्तार के दौरान, वे फारसी संस्कृति और साहित्य के संपर्क में आए और फारसी उनकी दूसरी भाषा बन गई। ईरान में सफाविद वंश का शासन था। मुगल और सफाविद वंश के बीच सांस्कृतिक संबंध थे। इस संबंध के कारण फारसी भाषा भारत में और अधिक प्रचलित हुई। इसीलिए मुगल दरबार में फारसी भाषा का प्रयोग हुआ और यह दरबारी भाषा बन गई। मुगल सम्राट अकबर ने फारसी को अपनी प्रशासनिक भाषा बनाया। राजस्व अभिलेख, फरमान, और अन्य सरकारी दस्तावेज फारसी में लिखे जाते थे। फारसी, मुगल साम्राज्य में विभिन्न क्षेत्रों के लोगों के बीच संचार का माध्यम भी बन गई।
मुगल दरबार में कई प्रसिद्ध फारसी कवि थे, जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से फारसी भाषा को लोकप्रिय बनाया। फारसी साहित्य का विकास भारत मे होने के कारण यह भारतीय संस्कृति का एक अभिन्न अंग बन गई। मुगल काल में मदरसे स्थापित किए गए, जहां फारसी भाषा पढ़ाई जाती थी।
फारसी भाषा अकबर से लेकर शाहजहाँ के शासनकाल तक शाही संरक्षण में विकसित होती रही। हालांकि मुगलों के भारत में स्थापित होने के बहुत पूर्व ही फारसी ने भारत में मुस्लिम अभिजात्य वर्ग की भाषा के रूप में अपनी पहचान बना ली थी। विद्वान मुज़फ़्फ़र आलम की द परस्यूट ऑफ़ फ़ारसी: लैंग्वेज इन मुगल पॉलिटिक्स से हमें फारसी भाषा के विकास की जानकारी मिलती है। भारत में फ़ारसी भाषा का उद्भव 13वीं शताब्दी ई. में देखने को मिलता है। जियाउद्दीन बरनी की तारीख-ए-फिरोजशाही इसका सबसे बेहतरीन उदाहरण है। हालाँकि, मुजफ्फर आलम के अनुसार, मुगल-पूर्व उत्तरी भारत में हिंदवी का उदय भी हुआ, जिसमें धीरे-धीरे फारसी संस्कृति का बहुत कुछ समावेश हो गया, मलिक मुहम्मद जायसी की पद्मावत इस तथ्य का सबसे अच्छा उदाहरण है। बाबर ने फारसी के लिए तुर्की भाषा को प्रोत्साहित किया, जिसका उदाहरण उसकी तुजुक-ए-बाबुरी से मिलता है। मुजफ्फर आलम के अनुसार मुगलों के अधीन फारसी के विकास की व्याख्या मुगल शासन के भीतर के कारकों में खोजी जा सकती है। अकबर के शासनकाल में कुछ प्रतिष्ठित ईरानी उलेमा - हकीम अब्दुल फतेह गिलानी, फतेहउल्लाह शिराज़ी, मीर मुर्तजा शिराज़ी, सैय्यद नूरुल्लाह शुश्तरी, अकबर को विरासत में मिले, जो 1555 में हुमायूं के साथ भारत आए और आगरा में बस गए। फ़ारसी इतिहासलेखन को अबुल फ़ज़ल द्वारा अकबर की जीवनी अकबरनामा में बेहतरीन ढंग से प्रदर्शित किया गया है।
बादशाह अकबर ने अपने शासनकाल में ईरान के साथ अपने सामाजिक तथा सांस्कृतिक संबंधों को बढ़ावा दिया। इसके लिए उसने विद्वानों के कई समूह ईरान भेजें, जिससे कि मुगलों के साथ ईरान के संबंध मजबूत हो सके और अधिक से अधिक ईरानी भारत में आकर बसें। इस संबंध में बादशाह अकबर ने अपने दरबारी विद्वान फैजी को एक दस्तावेज तैयार करने को कहा, जो कि ईरान से आने वाले विद्वानों एवं व्यापारियों की यात्राओं पर आधारित था। जिसका परिणाम यह हुआ कि बड़ी संख्या में ईरान के फारसी विद्वान, कवि एवं लेखक हिंदुस्तान आए। साथ ही ईरान से आने वाले यह प्रवासी भी मुगलों की सेवा में आना अधिक फायदेमंद समझते थे। मुगल बादशाह अकबर का यह विश्वास था कि ईरानी समुदाय न सिर्फ आध्यात्मिक एवं भौतिक समृद्धि के आधार पर मुगल भारत से जुड़ें बल्कि वह हिंदुस्तान को अपना दूसरा घर समझें। यही कारण रहा कि ईरानी संपूर्ण मुगल क्षेत्रों में अपना विस्तार कर सके।
बाबरनामा और गुलबदन बेगम के हुमायूंनामा सहित कई ग्रंथों का फारसी में अनुवाद किया जाने लगा। अकबर ने स्वयं फारसी में दोहे लिखे, फारसी कवियों को संरक्षण दिया और फारसी कवियों के लिए औपचारिक पद स्थापित किए। जहाँगीर की भी फारसी में अपनी शैली थी और उसने अपने संस्मरण एक सुंदर गद्य में लिखे थे। मुजफ्फर आलम टिप्पणी करते हैं कि वह फारसी कविता के एक अच्छे आलोचक भी थे और उन्होंने कई छंद और ग़ज़लों की रचना की। बाद में 17वीं शताब्दी में उत्तरी भारत में फारसी में उच्च स्तर के कई देशी कवि हुए, जिनमें मिर्जा अब्दुल कादिर बिदिल और नासिर अली सरहिंदी शामिल थे।
आगे चलकर फारसी भाषा की सीमाओं का विस्तार साम्राज्य के दायरे से भी अधिक हो गया। यह बादशाह, राजकुमारों एवं उच्च अमीर वर्ग के दायरे से भी आगे बढ़ गई। अकबर भारतीय इस्लामिक बादशाहों में प्रथम था, जिसने उत्तर भारत में प्रशासन के सभी चरणों में फारसी भाषा को अनिवार्य कर दिया। अकबर के राजस्व प्रशासन में फारसी भाषा के महत्व को इस आधार पर समझा जा सकता है कि इस विभाग में नौकरी प्राप्त करने के लिए ईरानियों के साथ-साथ हिंदू खत्री एवं कायस्थ भी बड़ी संख्या में उत्तर भारत के मदरसों में फारसी भाषा का अध्ययन कर रहे थे। यह खत्री एवं कायस्थ फारसी के अच्छे जानकार माने जाने लगे थे। मुगल प्रशासन में मुहर्रिश एवं मुंशी के पदों पर नौकरी करने वाले लिपिक वर्ग को फारसी का ज्ञान होना आवश्यक था। इसमें न सिर्फ ईरानी वर्ग लगा था बल्कि बड़ी संख्या में हिंदू खत्री एवं कायस्थ भी फारसी सीख कर नौकरी कर रहे थे। जिसके बाद शाही आदेशों से लेकर, स्वीकृति पत्रों, सभी मुगल सरकारी कागजात, जो एक गांव के मध्यस्थों (चौधरी) द्वारा लिखे जाते थे, फारसी भाषा में तैयार किए जाने लगे।
अकबर के दरबार में पहला फारसी कार्य बाबरनामा का तुर्की से फारसी भाषा में अनुवाद था। साथ ही उसने इस बात पर भी बल दिया कि आगे से उसकी सभी दरबारी गतिविधियों एवं उपलब्धियों का विवरण फारसी भाषा में ही किया जाए। हुमायूं की बहन गुलबदन बेगम के द्वारा लिखा गया हुमायूँनामा भी फारसी भाषा में लिखा गया। जबकि गुलबदन एवं उसके पति खिज्ज्र ख्वाजा खान की मातृभाषा तुर्की थी।
अकबर के दरबार में महत्वपूर्ण फारसी पुस्तकों का निरंतर पठन-पाठन किया जाता था। उसके पुस्तकालय में अरबी, फारसी, हिंदी, ग्रीक एवं कश्मीरी भाषा की सैकड़ों साहित्यिक पुस्तकें थी परंतु उसके समक्ष जिन पुस्तकों का पठन किया जाता था, वह अधिकतर फारसी भाषा में ही होती थी। दरबार में फारसी भाषा की बढ़ती महत्ता के कारण ही फारसी कवियों एवं विद्वानों के द्वारा शाही संरक्षण का उपभोग भी किया जा रहा था।
अकबर ने अपने दरबार में मलिक-उस-शोअरा जैसे पुरस्कार का चलन शुरू किया। यह पुरस्कार केवल फारसी कवियों को ही दिया जाता था और यह व्यवस्था शाहजहां के काल तक जारी रही। गजाली, हुसैन शानाई, तालिब अमूली, कलीम कसानी एवं कदसी मसहदी जैसे कवि एवं विद्वान मलिक-उस-शोअरा का पुरस्कार पाने वाले सभी ईरानी थे। आगे दीवान या मसनबी की रचना करने वाले हजारों कवियों में केवल कुछ एक को छोड़कर शेष सभी ईरानी थे और फारसी भाषा के कवि थे। इसके अलावा सैकड़ों फारसी कवियों एवं लेखकों को बादशाह का संरक्षण मिल रहा था। निजामुद्दीन बक्शी के अनुसार इनकी संख्या 81 थी, जबकि बदायूनी ने इनकी संख्या 168 बताई है। यहां तक कि बादशाह के अमीर भी फ़ारसी विद्वानों को ही संरक्षण देते थे, जैसा कि केवल अब्दुल रहीम खानखाना से ही लगभग 100 कवि एवं 31 फारसी के विद्वान जुड़े हुए थे।
अतः अब तक फारसी भाषा का उद्भव शासकों की भाषा के रूप में हो चुका था। यह मुगल घराने एवं उच्च अभिजात्य अमीरों की भाषा बन गई थी। अकबर का उत्तराधिकारी जहांगीर की फारसी भाषा पर पकड़ थी और फारसी की उसकी अपनी ही एक शैली थी। उसने अपनी यादों को फारसी भाषा में ही कलमबद्ध किया। वह फारसी भाषा का एक अच्छा विद्वान एवं कवि था। उसने फारसी में कई कविताओं एवं गजलों की रचना की। जहांगीर ने जायसी की पद्मावत का फारसी में अनुवाद भी करवाया। बाद के कालों में मुगल बादशाह औरंगजेब ने भी अपने को फारसी की एक महत्वपूर्ण गद्य लेखक के तौर पर स्थापित किया, परंतु उसके द्वारा जब औपचारिक रूप से मलिक-उस-शोअरा पर रोक लगा दी गई, तो इससे फारसी की प्रभुता पर थोड़ी आंच अवश्य आई परंतु फिर भी संपूर्ण 17वीं शताब्दी उत्तर भारत में ऊंचे दर्जे की फारसी कवियों एवं लेखकों की गवाह अवश्य बनी।
एक ओर इसने हिंदुओं के लिए अच्छे करियर की संभावनाएँ पैदा कीं, तो दूसरी ओर मुसलमानों के लिए इस भाषा ने एक तरह की धार्मिक पवित्रता हासिल की। जमालुद्दीन इंजू की फरहंग-ए-जहाँगीरी में बताया गया है कि फ़ारसी और अरबी दोनों ही इस्लाम की भाषा हैं। शाहजहाँ के समय में धार्मिक विवादों पर फ़ारसी भाषा में ग्रंथ लिखे गए। यह ग्रंथ आम गरीब मुसलमानों के लिए लिखे गए थे ताकि उन्हें ब्राह्मणवादी 'जाल' में फँसने से रोका जा सके, जिससे वे मूर्तिपूजा की ओर न झुकें। इसका सबसे अच्छा उदाहरण हुज्जत-उल-हिंद था। उस समय फ़ारसी संचार का सबसे कार्यात्मक और निपुण माध्यम बन गई थी। विद्वान बर्नार्ड कोहन के अनुसार 18वीं शताब्दी तक इसे लगभग पूरे उपमहाद्वीप में राजनीतिक भाषा के रूप में मान्यता मिल गई।
प्रशासन में फारसी भाषा को बढ़ावा देने के लिए अकबर ने इसकी शिक्षा की भी उचित व्यवस्था कर इसे बढ़ावा दिया। अकबर ने यह व्यवस्था बनाई कि विद्यार्थियों को आरंभिक स्तर पर ही फारसी अक्षरों का ज्ञान हो जाए, इसके लिए मदरसों में फारसी भाषा के शिक्षक तैनात किए गए। कम उम्र में ही विद्यार्थियों को फारसी की नैतिक शिक्षा (अखलाक), गणित (हिसाब), कृषि, माप-तौल, घरेलू अर्थशास्त्र एवं सरकारी प्रशासन के कायदे कानून आदि जैसे कई अन्य विषयों की भी शिक्षा दी जाने लगी। साथ ही उच्च स्तर पर फारसी के काव्य एवं लेखन की साहित्यिक शिक्षा प्रदान की जाती थी। फारसी के दरबारी विद्वान एवं कवि फारसी की उच्च स्तर के ज्ञाता होते थे। इन सब शासकीय गतिविधियों एवं प्रेरणाओं का परिणाम था कि फारसी मुगल दरबार की प्रथम प्रशासनिक भाषा बन गई और भारतीय इस्लामिक शासन में इसने अपना महत्वपूर्ण एवं उच्चतम स्थान प्राप्त कर लिया।
मुगल फारसी भाषा को एक राज्य निर्माण के यंत्र की तरह प्रयोग कर रहे थे। इसके माध्यम से वह मुगल पहचान एवं सांस्कृति की सर्वोच्चता को स्थापित करना चाहते थे। फारसी भाषा ने मुगल प्रशासन को एक उच्च स्तर एवं इस्लामिक पहचान दी। यह कहा जा सकता है कि 16वीं शताब्दी में फ़ारसी राजनीतिक गतिविधियों के लिए एक उपयोगी साधन बन गई। 16वीं शताब्दी के अंत और 17वीं शताब्दी की शुरुआत तक, मुगल शासन ने फ़ारसी भाषा को राज्य-निर्माण उपकरण से एक सामाजिक और सांस्कृतिक के रूप में विकसित किया। प्रशासनिक और राजनीतिक में फ़ारसी के लोकप्रिय होने के साथ-साथ इसका इस्लामी रंग भी जारी रहा। 18वीं शताब्दी तक, फ़ारसी का उपयोग मुख्य रूप से हिंदवी को बढ़ावा देकर लोगों के साथ तालमेल बिठाने के लिए किया जाता था, हालाँकि मुगल दरबार में प्रवेश करने से पहले इसे फ़ारसी बना दिया गया। यह कहना मुश्किल है कि क्या यह भाषा की अंतर्निहित ताकत के कारण था या सिर्फ़ सत्ता और प्रतिष्ठा के साथ इसके जुड़ाव के कारण, लेकिन मुगल शासन से ताल्लुकात के लिए स्वदेशी अधीनस्थ शासक समूहों और नौकरशाही ने फ़ारसी को अपनाया।
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