मुगल भारत में ब्रज साहित्य का विकास
ब्रजभाषा का अर्थ है 'ब्रज की भाषा'। यह भाषा कृष्ण की भक्ति से जुड़ी हुई है। ब्रजभाषा उत्तर भारतीय भाषा का एक रूप थी, जो हिंदी से बहुत मिलती-जुलती थी। इस भाषा का प्रयोग साहित्यिक भाषा के रूप में चौदहवीं शताब्दी से किया जाने लगा। इसे 1600 से लेकर अठारहवीं शताब्दी तक, फ़ारसी के साथ पूरे उत्तरी क्षेत्र की प्रमुख साहित्यिक भाषा के रूप में मान्यता दी गई। ब्रजभाषा की उत्पत्ति और प्रसार भाषा की सरलता और दरबारी संरक्षण का परिणाम था। मुगल साहित्य में फारसी को सर्वोच्च प्रतिष्ठा प्राप्त थी, लेकिन मुगल कुलीन वर्ग और सम्राट ने ब्रजभाषा ग्रंथों के निर्माण को करवाए। ब्रजभाषा के कवि छोटी और स्वतंत्र कविताएँ लिखते थे, जो आमतौर पर भक्ति या राजसी विषयों से संबंधित थीं। मुगलों ने राजपूत राजाओं के साथ सहमति बनाकर साम्राज्य को मजबूत बनाने का कार्य शुरू किया, जो फारसी भाषा नहीं जानते थे और स्थानीय हिंदी भाषा बोलते थे। मुगल बादशाहों ने राजपूत राजकुमारियों से शादी करना शुरू कर दिया, जिससे हिंदी भाषा को मुगल हरम में स्थान मिला। अकबर के बेटे जहाँगीर और पोते शाहजहाँ की माताएँ दोनों भारतीय राजपूत थीं। इस प्रकार अकबर के शासनकाल के दौरान हिंदी कुछ मामलों में मुगल राजकुमारों की मातृभाषा बन गई, लेकिन फ़ारसी प्राथमिक सार्वजनिक भाषा बनी रही। ब्रज कवियों के लेखन शैली की कुछ विशेषताएं थीं, जैसे लिखते समय वह परिभाषाएँ और उदहारण दोनों प्रदान करते थे। ब्रज का उपयोग करने का एक और लाभ यह था कि इसमें फ़ारसी-अरबी शब्दावली के मिश्रण की अनुमति थी जो संस्कृत जैसी भाषाओं में नहीं है।

16वीं शताब्दी में मथुरा और वृंदावन के आसपास के क्षेत्रों में ब्रजभाषा का विकास हुआ। इस परंपरा में वल्लभाचार्य के शिष्य सूरदास को श्रेष्ठ स्थान प्राप्त हैं। सूरदास उस काल के आठ कविरत्नों में से एक थे, जिसका कारण उनकी व्यक्तिगत योग्यता थी। उन्होंने शाही संरक्षण से स्वतंत्र रहकर अपने लेख लिखे। वल्लभ संप्रदाय की वैष्णव वार्ताओं में सूरदास के प्रति अकबर की भक्ति का उल्लेख मिलता है। गोकुलनाथ ने अपनी रचना चौरासी वैष्णवन में मथुरा में अकबर और सूरदास की भेंट होने का जिक्र किया है। अबुल फजल की आईन–ए–अकबरी में संगीतकारों की सूची में सूरदास का नाम भी शामिल है। उनकी सर्वाधिक विख्यात रचना सूरसागर है। कहा जाता है कि सूरदास ने दरबार में शामिल होने के अकबर के अनुरोध को ठुकरा दिया था। यह घटना एक तरफ मुगल दरबार में ब्रज कवियों की मांग को दर्शाती हैं और दूसरी तरफ मुगल शासन के प्रति दिखाए गए प्रतिरोध पर प्रकाश डालती हैं।
मुगलों ने राजनीतिक कारकों से ब्रजभाषा में रुचि दिखाई। आगरा में उनकी राजधानी वृंदावन और मथुरा, हिंदू सांस्कृतिक केंद्रों के करीब स्थित थी। यह वैष्णव धार्मिक समुदायों का केंद्र था। अकबर के प्रशासन के महत्वपूर्ण सदस्य टोडरमल और मान सिंह वैष्णव संस्थाओं के संरक्षक थे। इसके अलावा टोडरमल, अबुल फजल और यहां तक कि बीरबल को भी ब्रज में पद लिखने के लिए जाना जाता है। अकबर ने बीरबल को उनकी ब्रजभाषा की रचनाओं के कारण कविराज की उपाधि से सम्मानित किया था। ब्रज कविता सुनना और संगीत स्थानीय लोगों से जुड़ने का एक ज़रिया था। यहां तक कि अकबर को ब्रजभाषा में रचित ध्रुपद गीतों को सुनना पसंद था।
विद्वान एलिसन बुश के अनुसार, दरबार में ब्रज भाषा के उदय में योगदान देने वाले कारको में मुगलों के राजपूतों के साथ संबंध, स्थानीय लोगों के साथ जुड़ाव और मुगलों की प्रारंभिक राजधानी आगरा का वैष्णववाद के केंद्र बिंदु वृंदावन और मथुरा के पास स्थित होना शामिल था। ब्रज बोली आगरा में बोली जाने वाली हिंदी से ज्यादा अलग नहीं थी। बुश बीरबल को मुगल दरबार में मध्यस्थ के रूप में पेश करती हैं। उनका कथन है कि ब्रजभाषा के कवि मुग़ल दरबार की छत्रछाया में कार्य कर रहे थे। अकबर के दरबार में प्रमुख कवि कविराव गंग थे। कविराव ने कई मुगल व्यक्तित्वों के लिए छंद लिखे। गंग ने कृष्ण भक्ति के गीतों की रचना की, जो अकबर के दरबार में बहुत लोकप्रिय हुए। इसके अलावा गंग ने अकबर, अब्दुर रहीम खान-ए-खानन, राजकुमार सलीम, राजकुमार दानियाल, मान सिंह कछवाहा, बीरबल आदि के सम्मान में रचनाएँ की। इनकी रचनाओं में सूफी मत के तत्व शामिल थे, जिसने मुगल दरबार में ब्रज साहित्य की महत्वता को बढ़ावा दिया। इनकी रचनाओं में कृष्ण गीत, सूफी गीत तथा ब्रज गीत शामिल है।
अकबर के उमरा अब्दुल रहीम खान-ए-खानन कला तथा साहित्य के महान् संरक्षक के रूप में उभरे। वह प्रसिद्ध बैरम खान के बेटे थे। रहीम ने न केवल हिंदी को संरक्षण प्रदान किया बल्कि स्वयं भी अवधी तथा ब्रजभाषा में कविताओं की रचना की। उसने भी गंग की तरह मुक्त शैली में रचना की। भिखारीदास अपने ग्रंथ कविनिर्णय में यह दावा करते हैं कि रहीम ब्रजभाषा के एक स्थापित कवि थे। रहीम इतने महत्वपूर्ण थे कि उन्हें अकबर के बेटे जहांगीर का सलाहकार भी नियुक्त किया गया था और वे अकबर के दरबार में नवरत्नों में से एक थे।
अपने दरबार में रहीम ने मध्य एशिया, ईरान तथा हिंदुस्तान के विद्वानों तथा साहित्यविदों को आमंत्रित किया। वह बहुमुखी प्रतिभा के व्यक्ति थे, जिसमें से ब्रज काव्य की रचना भी एक थी। रहीम की साहित्यिक रचनाएं मुगलों और उनके स्थानीय हिंदू लोगों के बीच एक सांस्कृतिक संबंध का प्रतिनिधित्व करती हैं। रहीम ने भारतीय शैली को अपनाया। ऐसा प्रतीत होता है कि रहीम भारतीय संस्कृति के अनेक पहलुओं जैसे भाषाओं, वैष्णव भक्ति, भारतीय पौराणिक कथाओं के साथ-साथ संस्कृत और हिंदी साहित्य से परिचित थे। केशवदास और गंग रहीम की तुलना हनुमान से करते हैं, जिस प्रकार हनुमान राम के प्रति कर्तव्यनिष्ठा रखते थे, उसी प्रकार रहीम अकबर के प्रति। गंग रहीम की दान-दक्षिणा देने के लिए भी प्रशंसा करता है, ऐसा प्रतीत होता है कि गंग को भी रहीम का संरक्षण प्राप्त हुआ था। उसने रहीम की प्रशंसा में कई प्रशस्तियाँ लिखी थीं। रहीम का पुत्र शाहनवाज़ इराज खान भी ब्रजभाषा का महान संरक्षक था। केशवदास की विख्यात ऐतिहासिक कृति जहाँगीरजाचंद्रिका को भी इराज खान के संरक्षण में लिखा गया था।

बुंदेलखंड की रियासत ओरछा सोलहवीं शताब्दी में ब्रजभाषा कविता का एक महत्वपूर्ण केंद्र बन गई और केशवदास को ब्रजभाषा के प्रमुख कवियों में से एक के रूप में जन्म दिया। ब्रज साहित्यिक परंपरा के संस्थापक व्यक्तियों में से एक केशवदास मिश्र हैं। केशवदास विद्वान संस्कृत पंडित के परिवार से थे, लेकिन उन्होंने स्थानीय भाषा के लेखक के रूप में एक नए प्रकार का मार्ग चुना। केशवदास ने संस्कृत और दरबारी जीवन की भाषा को छोड़कर, ब्रजभाषा की विनम्र हिंदी को अपनाया।
केशवदास की रत्नभवानी ओरछा पर मुगल आधिपत्य से संबंधित है। यह मुगलो के प्रति ओरछा के स्थानीय नागरिकों के दृष्टिकोण को प्रदर्शित करती है कि किस प्रकार ओरछा मुगलों के नियंत्रण में आया था, उनकी क्या प्रतिक्रियाएँ तथा भावनाएँ थी। यह ग्रंथ बुंदेला शासक रत्नसेन की रणक्षेत्र में अकबर की सेनाओं के विरुद्ध वीरता की गाथा को दर्शाता है। केशवदास मुग़ल शक्ति के सम्मुख रत्नसेन की पराजय तथा समर्पण, और रण से भाग जाने या लड़ते हुए मारे जाने के सम्बंध में रत्नसेन के असामंजस्य का वर्णन भी करता है। अंत में रत्नसेन लड़ते हुए मारा जाता है। उसके बलिदान और वीरतापूर्ण चुनौती के लिए अकबर भी उसकी प्रशंसा करता है। लेकिन, हमें तथ्यों की पुष्टि को लेकर सावधान रहना चाहिए। केशवदास मुगलों की ओर से रत्नसेन द्वारा बंगाल अभियानों में भाग लेने का उल्लेख नहीं करता है।
हालांकि, वीरसिंहदेवचरित में दिया गया विवरण रत्नभवानी की घटनाओं के विपरीत दिखाई देता है। जिसमें रत्नसेन के बारे में कहा गया है कि वह अकबर की ओर से सेवा करता था तथा रत्नसेन की मृत्यु 1578 में अकबर की आक्रमणकारी सेना के हाथों नहीं हुई थी। रत्नसेन वास्तव में 1582 के बंगाल अभियान में अकबर के लिए लड़ते हुए मारे गए। अकबर के शासनकाल के शुरुआती आक्रमणों ने आम लोगों में नाराजगी और घृणा को भड़काया, जैसा कि केशवदास की कविता रत्नभवानी में परिलक्षित होता है। लेकिन केशवदास के बाद के कार्यों में घृणा का यह स्वर बरकरार नहीं रहा। उनकी रचना वीरसिंहदेवचरित के अनुसार ओरछा और मुगल राजनीतिक संबंध बहुत जटिल था, क्योंकि प्रत्येक ओरछा भाई को एक अलग मुगल गुट का समर्थन प्राप्त था।
केशवदास की आखिरी रचना जहाँगीरजाचंद्रिका में मुगल सम्राट की तुलना राम या इंद्र जैसे हिंदू देव-राजाओं से की गई है। जो मुगलों को शासक के रूप में वैधता प्रदान करता है। विद्वान संध्या शर्मा के अनुसार केशवदास एक इतिहासकार कवि थे। वैधता के स्रोत के रूप में वंशावली बनाने के अलावा, उन्होंने अपने संरक्षकों के लिए जनता का समर्थन जुटाने का काम भी किया। स्थानीय भाषा में राजधर्म की अभिव्यक्ति ने भी आम लोगों को राजत्व से परिचित करवाया।

राजत्व को ईश्वरत्व की अभिव्यक्ति माना जाता था। राजा न केवल पृथ्वी पर ईश्वर की छाया था, बल्कि ईश्वर का अवतार भी था। केशवदास ने अपने संरक्षक को विष्णु के अवतार के रूप में प्रस्तुत किया। कवियों का एक और महत्वपूर्ण योगदान मध्यकालीन भारत में राजत्व का धर्मनिरपेक्षीकरण था। मुगल सम्राटों को भगवान के अवतार के रूप में हिंदू देवताओं में शामिल किया जाता था। केशवदास जो वैष्णव धर्म का प्रचार करने वाले दरबार में रहते थे, उन्होंने जहाँगीर को धार्मिक और पौराणिक विशेषताएँ दीं। मुगल सम्राट ने ऐसी छवियों के प्रयोग की भी अनुमति दी थी जो जनसाधारण की भाषा के माध्यम से विभिन्न सामाजिक लोगो तक पहुंच सकती थीं। एलिसन बुश टिप्पणी करती हैं कि केशवदास ने अपने संरक्षक ओरछा राजा को दैवीय राजा राम के रूप में पेश किया और इस प्रकार मुगल दरबार में ओरछा राजा की स्थिति को ऊँचा उठाने का प्रयास किया। केशवदास ने बादशाह जहाँगीर की प्रशंसा में प्रशस्तिपरक काव्य भी लिखा।
साहित्यकार कवियों का कार्य केवल बादशाह की प्रशंसा करना नहीं था। यह कवि कई प्रकार की भूमिकाओं का भी निर्वाह करते थे। वह मुख्यतः सलाहकारों के रूप में काम करते थे। उन्हें कूटनीतिक अभियानों में भेजा जाता था। वह संघर्षरत तथा स्थानीय समूहों के साथ राज्य के संबंधों को लेकर समझौतों में मध्यस्थता करते थे। ये कवि मौलिक रूप से विद्वान थे, किसी आधिकारिक पद को ग्रहण नहीं करते थे। वह मात्र सलाहकार या दरबारी के रूप में सेवारत रहते थे। केशवदास ओरछा राजाओं के लिए मात्र राजकवि नहीं थे बल्कि एक मित्र, सलाहकार, और गुरु भी थे।
मुगल संरक्षण ने ब्रजभाषा के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। हालांकि फारसी मुगल दरबार की प्रमुख भाषा बनी रही, लेकिन फिर भी ब्रजभाषा का विकास होता रहा तथा स्थानीय स्तर पर सभी प्रशासनिक और राजस्व लेन-देन, दस्तावेज़ों की भाषा के रूप इस्तेमाल होती रही। अंततः जब अकबर ने फारसी को आधिकारिक भाषा का दर्जा दिया और सभी दस्तावेज़ों को फारसी में रखे जाने को अनिवार्य कर दिया गया, तब भी गाँव के स्तर पर राजस्व का लेने-देन ब्रजभाषा में ही होता रहा।
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