दिल्ली सल्तनत में अभिजात वर्ग
दिल्ली सल्तनत मे अभिजात वर्ग राज्य के सबसे महत्त्वपूर्ण अधिकारी थे तथा समाज में उनको उच्च स्थान प्राप्त था। अभिजात वर्ग की श्रेंणी में सामंत, कुलीन, अमीर, मलिक आदि शामिल थे। प्रारंभ में ये सेना के कमांडर थे, जिन्होंने युद्ध में विजय हासिल की। अभिजात वर्ग की स्थिति और शक्तियों में समय-समय पर उतार-चढ़ाव होता रहा। वे अभिजात वर्ग जो दिल्ली में स्थापित थे, अत्यधिक शक्तिशाली समूह के रूप में उभरे तथा वे समय-समय पर सुल्तान का चयन करने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते थे। उच्चतम मान-मर्यादां वाला अभिजात वर्ग "खान" की उपाधि धारण करता था। इनके नीचे मलिक थे और तीसरे नंबर पर अमीर आते थे। यह अभिजात वर्ग सल्तनत के शासक वर्ग की जीवन शैली की नकल करता था। लगभग हर अभिजात वर्ग के पास बड़े महल, हरम, गुलाम और उनकी ज़रूरतों की पूर्ति के लिए घरेलू कारखाने थे। उनके पास अपने घराने के रख-रखाव के लिए पर्याप्त धन था।

अभिजात वर्ग का शासक वर्ग के साथ संबंध उनके निजी हितों पर निर्भर था। प्रत्येक अमीर शाही तख्त के पास पहुंचने की कोशिश करता था। बलबन और अलाउद्दीन खलजी ने कठोरतापूर्वक अमीर वर्ग का दमन किया परंतु इनकी वैभवपूर्ण जीवन शैली, इन शासकों के उत्तराधिकारियों के काल में पुनः प्रवर्तित हो गई। मौहम्मद तुगलक के शासन काल में उसके वज़ीर की आय इराक की कुल आय के बराबर थी। दूसरे मंत्रियों को सालाना 20,000 से 40,000 टंके मिलते थे। फिरोज़ तुगलक के वज़ीर खान-ए-जहाँ को 15 लाख मिलते थे। उसके बेटों और दामादों को, जिनकी संख्या काफी थी, अलग से भत्ते दिए जाते थे। फिरोज़ तुगलक के शासनकाल में कई अमीर अपने पीछे विशाल धनराशियाँ छोड़ गए। उदाहरण के लिए फिरोज़ का आरिज़-ए-ममालिक बशीर अपनी मृत्यु पर 13 करोड़ टंके की धनराशि छोड़ गया। बशीर मूलतः फिरोज़ का गुलाम था, इस आधार पर उसने उसकी ज्यादातर संपत्ति जब्त कर ली और बाकी उसके बेटों में बाँट दी।
सल्तनत काल में सभी प्रभावशाली प्रशासनिक पदों पर नियुक्त व्यक्तियों को अमीर कहा जाता था। कुछ सीमा तक वे सुल्तान की शक्तियों पर अंकुश भी लगा सकते थे। इन अमीरो का सर्वाधिक वर्चस्व उस समय होता था जब सुल्तान कमजोर, निर्बल और वृद्ध हो जाता था। ऐसे समय पर सुल्तान के चयन और उसे सत्ता में बनाए रखने में अमीरों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाती थी। जैसे इल्तुतमिश के उत्तराधिकारी अमीरों के नियंत्रण में रहे, जबकि बल्बन और अलाउद्दीन के समय में अमीर वर्ग उनके प्रति आज्ञाकारी रहा। मुहम्मद तुगलक के राज्यकाल में हुए विद्रोहों में अमीरों की भूमिका महत्वपूर्ण थी।
अमीरों की नियुक्ति या निष्कासन पर सुल्तान का अधिकार था। प्रत्येक राजवंश अथवा सुल्तान के साथ अमीर बदलते रहते थे जैसे कुतबी अमीर, शम्सी अमीर, बल्बन अमीर, जलाली अमीर इत्यादि। इसके अतिरिक्त अमीरों को स्थानांतरित भी किया जाता था। इस प्रकार अमीरों का महत्व सुल्तान की कृपा पर निर्भर होता था।
अमीर वर्ग के विभिन्न कार्य
सुल्तान के प्रादेशिक विस्तार के कार्यों में उसकी सहायता करना। राजनीतिक संकट के समय सुल्तान को परामर्श देना। सल्तनत के विभिन्न भागों में उभरने वाले विद्रोहों का दमन कर आन्तरिक शांति स्थापित करना। बाहरी आक्रमणों से सल्तनत की रक्षा करना। राजनीतिक संकट व अस्थायित्व की स्थिति में सुल्तान के उत्तराधिकारी का चयन व नियुक्ति करना। केंद्रीय प्रशासन में विभिन्न उत्तरदायी पदों को संभालना जैस नायब, वजीर, सेना प्रमुख, शाही अधिकारी, प्रांतीय शासक इत्यादि। इक्तादार व जागीरदार के रूप में प्रांतीय व नगरीय प्रशासन की देख-रेख करना।
दिल्ली सल्तनत में अमीर वर्ग राजनीति के महत्वपूर्ण अंग थे। मिनहाज उस सिराज की पुस्तक तबकाते नासिरी और जियाउद्दीन बरनी की पुस्तक तारीखे फिरोजशाही से यह स्पष्ट जानकारी मिलती है कि केंद्रीय तथा प्रांतीय प्रशासन के सभी महत्वपूर्ण पदों पर तुर्क अधिकारियों का एकाधिकार था जिन्हें चहलगानी या चालीस की उपाधि दी गई थी, जो संख्या नहीं बल्कि उनकी शक्ति का सूचक थी।
अमीर स्वयं को राजसत्ता का भी अधिकारी समझते थे। अतः तेरहवीं शताब्दी में निरंतर सुल्तान और अमीरों के बीच कुछ न कुछ विवाद उत्पन्न होते रहे। इसी कारण से बल्बन ने सुल्तान के पद और अधिकारों को सैद्धांतिक स्वरूप प्रदान किया और यह विचार प्रकट किया कि सुल्तान पृथ्यी पर ईश्वर का प्रतिनिधि है और उसका स्थान पैगंबर के बाद है। इस में यह अत्तर्निहित था कि ईश्वर का प्रतिनिधि होने के कारण सुल्तान सर्वोच्च व निरंकुश शासनाधिकारी था।
लोदीकालीन अमीरों की स्थिति शासकों के समान हो गई थी। इस व्यवस्था का दुष्परिणाम बाद में प्रकट होने लगा जब अंतिम लोदी सुल्तानों को यह अनुभव हुआ कि सुल्तान और अमीरों के बीच संबंधों की रूपरेखा वही होनी चाहिए जो तुर्ककाल में थी। सल्तनतकाल मे सुल्तानों पर यदि कोई अंकुश लगा सकता था तो वह अमीरों का विद्रोह था जो असामान्य परिस्थितियों में प्रभावशाली संरक्षक बन कर सारी शक्ति अपने हाथ में ले सकते थे।
सुल्तान और अमीरों के बीच संघर्ष
इलबरी वंश (1206-90 ई.) के दौरान संघर्ष के तीन प्रमुख मुद्दे थे उत्तराधिकार, अमीर वर्ग का संघटन और सुल्तान तथा अमीरो के बीच आर्थिक एवं राजनीतिक शक्तियों का विभाजन। जब कुतुबुद्दीन ऐबक सुल्तान बना तो प्रभावशाली अमीरों ने उसकी सत्ता को स्वीकार नहीं किया इनमें प्रमुख थे कुबाचा (मुल्तान का गवर्नर), बल्दूज (गजनी का गवर्नर) तथा अली मर्दान (बंगाल का गवर्नर)। इल्तुतमिश को भी यह समस्या उत्तराधिकार में मिली। उसने कूटनीतिज्ञता और शक्ति के प्रयोग से इसका समाधान किया। बाद में इल्तुतमिश ने अमीरों को तुर्कान-ए-चिहिलगानी ('चालीस का दल) नामक सामूहिक गुट संगठित किया। यह गुट उसके प्रति वफादार था। विद्वान इब्न-हसन का मानना है कि चालीस वफादारों के इस समूह का निर्माण महत्वाकांक्षी सैन्य प्रमुखों पर नजर रखने के लिए किया गया था। जबकि विद्वान के.ए. निज़ामी इसे एक बड़े शासक अभिजात वर्ग के भीतर गुलाम कमांडरों के एक एकजुट समूह के रूप में देखते हैं।

इस चालीस के दल के अमीरों की प्रतिष्ठा और विशेषाधिकार से ईर्ष्या रखना, अमीरों के अन्य दलों के लिए स्वाभाविक ही था। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं था कि "चालीस के दल में आंतरिक मतभेद और कलह नहीं था। केवल एक बात पर इनके विचारों में पूरी एकता थी, वह था इस गुट में गैर-तुर्की अमीरो के प्रवेश को रोकना। यह दल लगातार यह कोशिश करता रहता था कि सुल्तान पर उसका प्रभाव बना रहे। सुल्तान भी इस दल को नाराज नहीं करना चाहता था, लेकिन सुल्तान अन्य दलों के अमीरों को उच्च पदों पर नियुक्त करने का अधिकार भी नहीं छोड़ना चाहता था। इन सबके बावजूद इल्तुतमिश ने एक अत्यन्त कौशलपूर्ण संतुलन इनके बीच बनाए रखा, परन्तु उसकी मृत्यु के बाद वह संतुलन समाप्त हो गया। उदाहरण के लिए, इल्तुतमिश ने अपने जीवनकाल में ही अपनी पुत्री रजिया को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था। परन्तु उसकी मृत्यु के बाद कुछ अमीरों ने रजिया को शासक स्वीकार नहीं किया, क्योंकि उसने “चालीस के दल” का मुकाबला करने के लिए गैर-तुर्की (एबीसीनियाई और भारतीय) अमीरों को संगठित करना शुरू किया।
इस दल के काफी अमीरों द्वारा रजिया का विरोध करने का यही एक मुख्य कारण था। इन लोगो ने उसके भाई रूक्नुद्दीन को समर्थन दिया, क्योंकि वह अयोग्य और कमजोर था। उन्हें पूरी आशा थी कि वह उनकी शक्ति को नष्ट करने का प्रयास नहीं करेगा। नसीरूद्दीन महमूद (1246-66 ई.) के शासन काल में भी यही संघर्ष चलता रहा। बलबन का हटाया जाना सबसे बड़ा शक्ति परीक्षण था। बलबन सुल्तान महमूद का नायब (उप) था और 'चालीस के दल' का सदस्य था। सुल्तान ने उसे हटाकर उसके स्थान पर एक भारतीय मुसलमान इमादउद्दीन रेहान की नियुक्ति की। किन्तु अमीरों के तीव्र विरोध के सामने सुल्तान को झुकना पड़ा। रेहान को हटाकर बलबन को पुनस्र्थापित किया गया।
बलबन ने लगातार राजशाही की प्रतिष्ठा और शक्ति को बढ़ाने की कोशिश की, क्योंकि उन्हें विश्वास था कि यह उनके सामने आने वाले आंतरिक और बाहरी खतरों का सामना करने का एकमात्र तरीका था। अपनी राजनीतिक संप्रभुता को बढ़ाने के लिए, उन्होंने दैवीय अधिकारों की भी मदद ली और इस तरह अपने "राजत्व के सिद्धांत" को सामने रखा। यह एक ऐसा युग था जिसमें सत्ता और शक्ति उन लोगों का विशेषाधिकार माना जाता था जो कुलीन घरों में पैदा हुए थे। यह जोर देने के लिए कि अभिजात वर्ग उनके बराबर नहीं थे, बलबन ने सजदा और पैबोस की रस्म पर जोर दिया।

बलबन के शासन काल (1266-87 ई.) में तुर्कान-ए-चहलगानी का प्रभाव कम हो गया। सुल्तान बनने से पहल बलबन स्वयं ‘चालीस के दल' का सदस्य था। इसलिए वह अमीरों की विद्रोही प्रवृत्ति से भली-भांति परिचित था। अतः बालबन ने उनमें से सबसे शक्तिशाली अमीरों को अपना निशाना बनाया और कई अमीरों की हत्या करवा दी। उसने अपने भाई को भी नहीं छोड़ा और उसे भी मरवा दिया। साथ ही उसने अपने प्रति वफादार अमीरों के एक गुट का गठन किया, जिन्हें 'बलबनी कुलीन” कहा गया। "चालीस के दल’ के अनको अनुभवी अमीरों के हटाए जाने से राज्य उनकी सेवाओं से वंचित रह गया। बलबनी गुट के अनुभवहीन अमीर इस कमी को पूरा नहीं कर पाए। इसके परिणामस्वरूप इलबरी वंश के शासन का अंत और खिलजी वंश की स्थापना हुई।
अलाउद्दीन खलजी के शासन काल (1296-1316 ई) में अमीरों के समूह की संरचना का विस्तार हुआ। अब अमीरों का दल राज्य पर अपने एकाधिकार का दावा नहीं कर सकता था। अब नियुक्ति का मुख्य आधार स्वामीभक्ति और योग्यता थी न कि किसी विशेष प्रजाति का मत। साथ ही, वह अमीरों पर विभिन्न प्रकार से नियंत्रण भी रखता था, जैसे उनकी आर्थिक नीतियां और वेतन को नियंत्रित करना, सबसे स्वीकार्य भूमि कर लेना या इक्तादारी प्रणाली का सख्त कार्यान्वयन।
उन्होंने सामाजिक सभाओं पर प्रतिबंध लगा दिया और शराब पीने पर रोक लगा दी। इसके अतिरिक्त, अलाउद्दीन खिलजी द्वारा भू-राजस्व की दर को 50 प्रतिशत बढ़ाने से अमीरों को संतुष्टि हुई क्योंकि इक्ता की आय बढ़ने से उनके वेतन में भी वृद्धि हुई। सीमाओं के विस्तार के कारण संसाधनों में वृद्धि हुई, जिसके चलते योग्यता के आधार पर नए अमीरों की नियुक्ति की गई। इसमें मलिक कफूर नामक अबीसीनियाई गुलाम का उदारहण सुप्रसिद्ध है वह गैर तुर्की होत हुए भी सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अमीर बन गया। परन्तु यह स्थिति बहुत लम्बे समय तक न चल सकी। अलाउद्दीन खलजी की मृत्यु के बाद अमीरों के बीच षडयंत्र और संघर्ष खुलकर होने लगे तथा खलजी वंश के शासन का अंत हो गया।
दिल्ली सल्तनत का विस्तार होते ही समाज के विभिन्न समुदायों ने अभिजात वर्ग में सम्मिलित होने के प्रयास किए। प्रारंभ में इस वर्ग में तुर्की को सम्मिलित किया गया। खिलजी और तुगलकों के शासन काल के दौरान विभिन्न पृषठभूमि के लोगों के लिए अभिजात वर्ग के दरवाजे खुले गए। विशेषतः मुहम्मद बिन तुगलक के शासन काल में हिन्दू और मुस्लिम दोनों जाति के लोग अभिजात वर्ग में शामिल हो गए और उन्होंने बड़े-बड़े पद हासिल किए।
जहां तक तुगलक वंश का प्रश्न है तो मुहम्मद तुगलक ने बार-बार अमीरों को संघटित करने का प्रयास लेकिन उनपर नियंत्रण रखने के उसके सभी प्रयत्न विफल हुए। खुरासानी अमीरों, जिन्हें वह 'अइज्जा' (प्रिय) कहता था ने उसे धोखा दिया। अमीरो द्वारा उत्पन्न की गई समस्याओं का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि उसके विरुद्ध लगभग 22 विद्रोह हुए और उसे अपना एक बड़ा क्षेत्र खोना पड़ा। (दक्कन का यह क्षेत्र बहमनी राज्य के नाम से प्रसिद्ध हुआ)
मुहम्मद तुगलक की मृत्यु के बाद समस्या नियंत्रण से बाहर हो गई। इन परिस्थितियों में फीरोज तुगलक से अमीरो के प्रति सख्ती बरतने की अपेक्षा नहीं की जा सकती थी। उसके काल में अमीरों को बहुत-सी सुविधाएं दी गई। अमीर अपनी इक्ता को वंशानुगत बनाने में सफल हुए। सुल्तान की तुष्टिकरण की नीति अमीरों को प्रसन्न रख सकी परन्तु आगे चलकर यह विनाशकारी सिंध हुई। सेना अत्यन्त अयोग्य और अकुशल हो गई क्योंकि अलाउद्दीन खलजी द्वारा प्रारभ की गई घोड़े दागने की प्रथा लगभग समाप्त हो गई थी। अंतः फीरोज तुगलक के बाद उसके उत्तराधिकारी और बाद के शासकों के लिए दिल्ली सल्तनत के पतन के प्रवाह को रोकना असंभव था।
सैय्यद (1414-31ई) और लोदी वंश (1451-1526 ई.) के काल में स्थिति कुछ उत्साहवर्धक नहीं दिखाई देती। सैय्यद न तो संकट से निबटने की न इच्छा ही रखते थे और न ही वह इस योग्य थे। सिकन्दर लोदी ने आते हुए विनाश को रोकने का अंतिम प्रयास किया। लेकिन अफगानों के आंतरिक मतभेद और उनकी असीमित व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं ने पत्तन की प्रक्रिया को और तीव्र कर दिया। अंततः दिल्ली सल्तनत पर अंतिम प्रहार बाबर के हाथों हुआ।
निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है की ऐबक और इल्तुतमिश के शासन के दौरान, शासक और अभिजात वर्ग के हित मेल खाते थे इसलिए इनके बीच संघर्ष कोई कठोर रूप नहीं लेता था। लेकिन जब एक निश्चित नौकरशाही सामने आई, तो सत्ता के लिए संघर्ष और धन की भूख अमीरो के बीच स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगी और शासकों को उन्हें सख्ती से नियंत्रित करना पड़ा। बलबन के शासन ने यह पूरी तरह से स्पष्ट कर दिया कि ताज की स्थिति केवल उस बिंदु तक सुरक्षित और मजबूत थी जब तक कि वह अभिजात वर्ग को कमजोर कर सकता था। जब तक शासक 'कुलीनता' को संभालने में सक्षम था, राज्य ने केंद्रीकरण प्राप्त किया, लेकिन अन्य मामलों में अभिजात वर्ग एक परजीवी 'सामंती' अभिजात वर्ग में बदल गया और राज्य विकेंद्रीकृत हो गया।
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